गुणानंद पथिक
gunanand pathik
एक झलक में ही दिख जाता था गुणानंद पथिक का पूरा जीवन
कितने ही लोगों ने देखा होगा उन्हें
खंडहर हो रहे टिहरी क़स्बे की मुख्य सड़क पर
बस अड्डे की भीड़ में स्वरों की एक लहर की तरह प्रवेश करते हुए
गले से लटकता था पुराना हारमोनियम
और कंधे पर झोले में स्वरचित गीतों की पुस्तिकाएँ
पहले चार आने और फिर पचास पैसे में एक
गुणानंद पथिक गाते थे पहाड़ को बदलने का गीत
गाँव-गाँव की दीदियों-भुलियों से कहते जागो जल्दी जाओ
तुमसे ही जाएँगे निठल्ले पहाड़
यह बात लिख लो यह गीत सुन लो
क्यों ग़रीब के घर कँटीली घास की भी किल्लत है
कैसे अमीर के घर सजे हैं रात-दिन पकवान
गुणानंद पथिक को सुनते लोग टॉफ़ी लेमन जूस भूलकर
ख़रीद लेते गीतों की किताब
उसे पढ़ते हुए जाते बस में बैठ घर की ओर
स्त्रियाँ जो गाती हैं उन्हीं धुनों पर
गुणानंद पथिक ने बनाए अपने नए गीत
जैसे पुरानी चीज़ को नया बनाकर लौटाने में हो रचना का आनंद
कइयों ने सीखा उनसे संगीत का पहला पाठ
रामलीलाओं में अलग से सुनाई देती उनकी बहरे तवील
लोग पहचान जाते बजा रहा है संगीत का वह कारीगर
जो सिर्फ़ सुनाता नहीं बदल भी देता है राग को
उनके गायन से ही शुरू होते थे कम्युनिस्ट पार्टी के जलसे तमाम
देहरादून टिहरी उत्तरकाशी पौड़ी तक
सफ़र में रहता था उनका छोटा-सा स्वप्न
गुणानंद पथिक जान नहीं पाए उनके जीते जी बदल रहा था कुछ
या बदलते-बदलते रह गया था कुछ
कई तरह के नए बाजे बजे पहाड़ में
पैसे की आवाज़ आने लगी जगह-जगह सुनाई दिया व्यवसाय का हॉर्न
गीतों की किताब से ज़्यादा बड़े हो गए पचास पैसे
कम्युनिस्ट पार्टी के पास भी आए इस बीच कई लाउडस्पीकर
टिहरी में भागीरथी पर शुरू हुआ एक बड़ा बाँध
गुणानंद गाते रहे वहा पुराना गीत
यही थी उनके जीवन की आख़िरी झलक
फिर बैठने लगी उनकी आवाज़
मंद हो चला सुरीला वाद्य
भूलने लगे वे अपने रचे गीत
बचे-खुचे कम्युनिस्ट सोचते ही रहे
एक दिन हो पथिकजी का बड़ा-सा सार्वजनिक अभिनंदन
तभी हारमोनियम छोड़कर गए गुणानंद पथिक अज्ञात के पथ पर
पहाड़ का लोकगीत बनकर।
- रचनाकार : मंगलेश डबराल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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