पिता के घर में मैं
पिता क्या मैं तुम्हें याद हूँ!
मुझे तो तुम याद रहते हो
क्योंकि ये हमेशा मुझे याद कराया गया!
फ़ासीवाद मुझे कभी किताब से नहीं समझना पड़ा!
पिता के लिए बेटियाँ शरद में
देवभूमि से आईं प्रवासी चिड़िया थीं
या बँसवारी वाले खेत में उग आईं रंग-बिरंगी मौसमी घास
पिता क्या मैं तुम्हें याद हूँ!?
शुकुल की बेटी हो!
ये आखर मेरे साथ चलता रहा
जब मेरे आस-पास सबको याद रहा कि मैं तुम्हारी बेटी हूँ
तो तुम्हें क्यों नहीं याद रहा!?
माँ को मैं हमेशा याद रही
बल्कि बहुत ज़्यादा याद रही!
पर पिता को!?
कभी पिता के घर मेरा जाना
माँ बहुत मनुहार से कहती
पिता से मिलने दालान तक नहीं गई
जा! चली जा बिटिया, तुम्हें पूछ रहे थे
कह रहे थे कि कब आई! मैंने उसे देखा नहीं!
मैं बेमन ही भतीजी के संग बैठक तक जाती हूँ
पिता देखते ही गद्गद होकर कहते हैं :
अरे कब आई! खड़ी क्यों आकर बैठ जाओ
मैं संकोच झुकी खड़ी ही रहती हूँ!
पिता पूछते हैं : मास्टर साहब (ससुर) कैसे हैं!
मैं कहती हूँ : ठीक हैं!
अच्छा घर में इस समय गाय भैस का लगान तो है ना!
बेटवा नहीं आया!?
मैं कहती हूँ : नहीं आया!
देखो अबकी चना और सरसो ठीक नहीं है
ब्लॉक से इंचार्ज साहब ने बीज ही ग़लत भिजवाया
पंचायत का कोई काम ठीक नहीं चल रहा है
ये नया ग्रामसेवक अच्छा नहीं है!
अब मुझसे वहाँ खड़ा नहीं हुआ जाता
मैं धीरे से चलकर चिर-परिचित गेंदे के फूलों के पास आकर खड़ी हो जाती हूँ!
पिता अचानक कहते हैं : अरे वहाँ क्यों खड़ी हो वहाँ तो धूप है!
मैं चुप रहती हूँ!
माँ कहती हैं अभी मुँह लाल हो जाएगा!
पिता गर्वमिश्रित प्रसन्नता से कहते हैं :
और क्या धूप और भूख ये कहाँ सह पाती है!
मेरी आँखें रंज से बरबस भर आती हैं
मैं चीख़कर पूछना चाहती हूँ :
ये तुम्हें पता था पिता!?
पर चुप रहकर खेतों की ओर देखने लगती हूँ!
पिता के खेत-बाग़ सब लहलहा रहे हैं
बूढ़ी बुआ कहती थीं :
दैय्या! इत्ती बिटिया!
गाय का चरा वन और बेटी का चरा घर फिर पनैपे तब जाना!
बुआ तुम कहाँ हो! देख लो!
हमने नहीं चरा तुम्हारे भाई-भतीजों का घर
सब ख़ूब जगमग है
इतना उजाला कि ध्यान से देखने पर आँखों में पानी आ जाए।
- रचनाकार : रूपम मिश्र
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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