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गिद्ध तो अब बचे नहीं!

giddh to ab bache nahin!

कविता के सीवर में

गले-गले तक पिलकर

बाल्टी में भर-भर कर

गू उलीचता हुआ, कवि तो नहीं मिलता है।

काव्य के तबेले में

घुटनों तक गोबर में

धँसा हुआ भैंस दुहता, कवि तो नहीं मिलता है।

कवि तो नहीं मिलता है

खेतों के लबदे में

पिंडली तक जमा हुआ

झुका हुआ, थका हुआ, धान रोपता हुआ

कभी नहीं मिलता है!

कुत्ते, कौव्वे, चीलों में, घिरा हुआ कोई भी कवि

(लोग-बाग़ कहते हैं, गिद्ध तो अब बचे नहीं)

मरे हुए ढोरों की चमड़ी उतारता।

लकड़ियाँ क्रियाओं की

बीन-बीन कर जला, मूस भूनता हुआ

क़तई नहीं मिलता है!

कवि इतना द्विज क्यों है?

बाभन से गिरता है

बनिए में अटकता है

बनिए से छनता है

कायस्थ में फँसता है

कवि इतना द्विज क्यों है?

स्रोत :
  • रचनाकार : संतोष अर्श
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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