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गाँव

gaanv

पूर्णिमा साहू

अन्य

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और अधिकपूर्णिमा साहू

    पुरुष लौटना चाहता है अपनी उदगम की तरफ़

    वह पेड़ की चोटी पर चढ़कर आसमान छूना चाहता है

    वो लौटना चाहता है अपने गाँव, खेत, गलियों की ओर

    कोई शोर नहीं,

    उसे आँगन में लगी चारपाई याद आती है

    जिसे वह पूरी दोपहर पेड़ से बनने वाले प्रतिबिंब के अनुसार खिसकाता रहता है

    शाम को तालाब और सुबह नदी में नहाता है

    घी चुपड़ी चूल्हे की रोटी मिलती है

    जिस पर सिलबट्टे में पीसी आम नमक मिर्च की चटनी

    ऐसे कई चित्र पुरुष के मन को गुदगुदा देते हैं

    सैकड़ों ऐसे ही मनमोहक कविताएँ गढ़ी जाती है

    ग्रामीण साधारण जीवन पर

    लेकिन किसी औरत ने कही

    ग्रामीण साधारण जीवन में लौटने की बात

    क्योंकि जिस साधारण जीवन में

    आदमी सुस्ताता है,

    नदी में नहाता है

    चूल्हे में पकी रोटी खाता है

    वहाँ चूल्हा सुलगाती है औरत

    सुलगाने से पहले उसे लिपती है

    लिपने से पहले बुहारती है

    बुहारती है आँगन जिसपर खाट लगता है

    सरकारी नल कभी भी बंद हो जाए तो

    'तिरबेनी' तो कभी 'मुरही' के कुएँ से पानी लाती है

    वो चूल्हा लिपती है जिसपे बनती है रोटियाँ

    आदमी नहीं जानता की उसके खाट के नीचे रखी चाय की कप कब धूल गई

    बिखरी हुई माचिस और बीड़ी की ठूठ कब साफ़ कर दी गई

    नहा कर आते ही खाना कैसे बन जाता है

    ये सारी क्रियाएँ कोई स्वचालित यंत्र करता होगा होगा

    क्योंकि पुरुष अपने बचपन के गाँव में औरत को नहीं लिखता

    क्योंकि औरत जाना ही नहीं चाहती पुरुष के गाँव।

    स्रोत :
    • रचनाकार : पूर्णिमा साहू
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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