मैथिली-वन्दना
जनिक चरण-नख-ज्योति तिमिर-तति उर-उर हरइत
नूपूर-सिञ्जित सञ्चित कयनहि वीणा मुखरित
पद-पल्लवक पराग सती-शिर-सिन्दूर-श्री
चरण-चिह्न बनि भाग्य-रेख मिथिलाक उदित की?
मैथिलीक पद-अंगुलिक विभा उदित भय कविक उर।
अरुण-करुण रस-रश्मिसँ हरओ लोक-व्यापित तिमिर॥1॥
जनक जनिक अन्वर्थ सदर्थक जन्म-भूमि ई
जानकीक जन्मे जनमे अभिधाक जीत ई
सीता खेतक स्वयं लक्षणा लक्षित रहितहुँ
मैथिलि! मिथिला-वाणीमे रुचि व्यञ्जित करितहुँ
रहितहुँ विश्व-विभूति अहँ, तिरहुति-माटिक मूर्ति छी।
रस-रसना सम मैथिली, मिथिला-मानक पूर्ति छी॥2॥
चक्रवर्ति दशरथक कुलक अहँ दीप-शिखा बनि
कयलहुँ ज्योतिर्मय अवधक नभ चन्द्र-कला धनि
सरयू जलमे घोरि चरण-रज मधुर बनौलहुँ
कोशलेशकेर भुजा-वासिनी शक्ति कहौलहुँ
भोग वयस वन-वासिनी बनि, योगक पथ अहँ धेलहुँ।
नहि जीवन भरि बिसरलहुँ जे विदेह-पुत्री थिकहुँ॥3॥
धनुर्भङ्गहिक समय अंग अहँ रामक वामा
बनि चललहुँ जे छोड़ि सती-कुल-रत्न ललामा
रहू बनल युग-युग धरि रविकुल-दिवस-कमलिनी
सुरभि विश्व भरि पसरि रहल अद्यावधि जननी
फिरलहुँ नहि दुर्दैवश जनकक जनपद जन्म भरि।
किन्तु नैहरक स्वर अहाँ बिसरल छी नहि आइ धरि॥4॥
धनुष-यज्ञ सर्वस्व-दक्षिणा जनकक जारी
दाशरथिक रथ भरल स्वर्ण यौतुकसँ भारी
बिदा काल दय रत्न-राशि कोशलक कोषमे
हृदय रिक्त जल-सिक्त जुटल छथि वरक तोषमे
अपना खो छिक अन्न-कण, पोछि नयनसँ अश्रु-कण
खसा देलहुँ नैहरक दिस, सजल शस्य-श्यामल कत न॥5॥
जे छाया हिमवत-वनमे, रस कमला जलमे
डाली भरलहुँ लोढ़ि फूल-फल जे फुलहरमे
द्वारि लटकि शुक पाठ कयल, कोकिल कूजल छल
सखी संग सम्भाषणमे जे स्नेह स्वर भरल
कहू मैथिली! की कतहु भेटल स्व-रस प्रवासमे?
अवध-पुरी रनिवासमे, पञ्चवटी वन-वासमे?6॥
यज्ञवाट ई बाट अहँक कहियासँ ताकथि
ऋतु-ऋतु वन-वन फूल-पात लय माला गाँथथि
जल भरि कमला ठादि कखनसँ घरक कातमे
कुशल पुछै छथि सखी वाग्वती बात-बातमे
तारक पंखी पाँतरक, कर झारी चर-चाँचरक।
मैथिलि! उत्सुक अवनि छथि भरल अन्नसँ आँचरक॥7॥
नीति-निरत राजा देखल निज अवध-प्रजा मति
अनल-शुद्ध संगिनी मैथिलिक लिखल वनक गति
किन्तु करुण परिपाक आश्रमक बनि शुचि कविता
तमसा-तीरक कवि-आङन मे रस उर्वरिता
वन-वासिनि! एकाकिनी, दूरहु पति-उर वासिनी।
करुण अश्रु-कणसँ अहिँक रामायण रस प्लाविनी॥8॥
पतिक बात नहि राखि, पिता-घर सती जरलि छथि
उतरि शिवक शिरसँ गङ्गा समुचिते गललि छथि
माधव संग न जाय राधिका विरह-बरलि छथि
काली हर-उर चरण राखि, जी दाबि दगलि छथि
किऐ बनल वन-वासिनी पति-पद रेणु सुता हमर?
ज्वालामुखी न थीक ई, ज्वलित प्रश्न धरणीक उर॥9॥
मेध-यज्ञमे अवध मध्य बनि स्वर्णक प्रतिमा
भेलहुँ प्रतिष्ठित-प्राण अहाँ हे! रामक वामा
मन्दिर-मन्दिर समय-समय भारत भरि चर्चा
किन्तु एतहि टा प्राण-प्राणमे होइछ अर्चा
युग-युगसँ मिथिलाक अहँ रोम-रोम रमि गेल छी।
मैथिलीक रूपे अहाँ की न कण्ठ बसि गेल छी?10॥
- पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 29)
- संपादक : चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’/ शंकरदेव झा
- रचनाकार : सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2012
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.