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पावर

pawar

आर. चेतनक्रांति

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और अधिकआर. चेतनक्रांति

    पावर गली-गली थी, छज्जे पे भी खड़ी थी,

    छत पे लगाके आला, घर-घर में झाँकती थी।

    पावर का था ‘विधाला’, पावर की थी पढ़ाई,

    टीचर भी किया करता पावर की ही बड़ाई;

    पावर के ही सबक फिर माँ-बाप ने रटाए,

    पावर का पेन लाए, पावर की रोशनाई।

    पावर के चार पहिए, पावर के आठ बाज़ू,

    पावर के हाथ में था इंसाफ़ का तराज़ू;

    पावर ने जिसे चाहा, आकाश में उछाला,

    पावर ने जिसे चाहा, मारा पटक के ‘ता-जू’।

    पावर ने गले जिसके जयमाल डाल दी हो,

    दुनिया में घूमता है दामाद की तरह वो;

    सुसराल हर शहर में, दुल्हन हरेक घर में,

    हर द्वार पर ठहरकर कहता है, ‘जी, उठो तो।’

    पावर के सर पे पावर, पावर के तले पावर,

    है और क्या ज़माना, हयरैर्की-ए-पावर;

    पावर की सीढ़ियों से कुछ हाँफते गए थे,

    आए हैं जब से वापिस, फिरते हैं लिए पावर।

    पावर ने सबको बोला—जाओ दिखा के पावर,

    सब दौड़ पड़े, घर से, लाए उठाके पावर;

    थी जिसके पास जैसी, नुक्कड़ पे लाके रख दी,

    फिर शहर-भर ने देखी, मोटर में जाके पावर।

    पावर जिसे भाए, फिरता वो सिर झुकाए,

    पूछो पता-ठिकाना, वो जाने क्या बताए;

    जी, मैंजी, हाँजी, ना-जी, ऐसे-जी, क्या-पता-जी,

    ऐसे डफ़र को पावर ख़ुद ही ने मुँह लगाए।

    पावर में इक कमी थी, तन्हाई से डरती थी,

    चलती थी झुंड लेकर, जब घर से निकलती थी;

    फिर बोलती थी ऊँचा ज्यों सामने बहरे हों,

    और साथ में छिपाकर हथियार भी रखती थी।

    पावर को चाहिए थी थोड़ी-सी और पावर,

    रहती है अधूरी ही पावर बतौर पावर;

    हमको तो कनखियों से ख़ामोश कर देती है,

    पावर के लिए नचती, पर ठौर-ठौर पावर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : वीरता पर विचलित (पृष्ठ 11)
    • रचनाकार : आर. चेतनक्रांति
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2017

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