आज का दिन
आज का दिन मैं अपनी तरह गुज़ारूँगा
कुमार गंधर्व का बीस वर्ष पुराना कैसेट सुनूँगा
इस तरह कि बीस वर्ष पहले गाया भजन मुझे
आठ वर्ष की आयु में सुना हुआ लगे
अगर यह तरीक़ा सफल हुआ तो मज़ा ही कुछ दूसरा होगा
अपने जन्म से पूर्व स्वर्गवासी हुए गायकों को सुनने का
अगर नहीं आई घर से चिट्ठी तो उदास नहीं होऊँगा
किसी पुरानी चिट्ठी में नई तारीख़ डालूँगा
और नई चिट्ठी की तरह पढ़ूँगा
हालाँकि कोई नियम नहीं है हँसने का ऐसे समय फिर भी
ठठाकर हँसूँगा
इतना लगभग बित्ता भर अवकाश कहाँ मिलता है कि
हँसा जा सके ख़ुद पर
अख़बार में छपे शब्दों से कहूँगा कि अगर रख सकें तो रख लें
दो मिनट का मौन अपने चरित्र पर
कि वे किसी भी क्षण घोषित किए जा सकते हैं सांप्रदायिक
उन्हे यह कहने की छूट हरगिज़ नहीं दूँगा कि कवि
अपनी नागरिकता का शुल्क
नहीं अदा कर रहे हैं
लगभग इसी क्रम में किसी भी गर्म पेय को
मसलन चाय को ही यह सलाह देना ग़लत नहीं समझूँगा
कि अगर पी सके तो पी ले मेरी गरमाई को
और तुलनात्मक अध्ययन करे अपनी गरमाहट से
जो कृत्रिम है
घड़ी देखने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता
सिर्फ़ घड़ी को पता है मृत्यु का अंतिम सच और समय
फिर नेत्र-व्यायाम की किस किताब में लिखा है
कि घड़ी देखने से आँख की ज्योति बढ़ती है
सच मानिए मैं दैनिक चर्या की धज्जियाँ उड़ाऊँगा
आज का दिन मैं अपनी तरह गुज़ारूँगा
आख़िर मैं भी आदमी हूँ
- रचनाकार : महेश आलोक
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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