चीन की धरती पर बर्फ़ गिरी
cheen ki dharti par barf giri
चीन की धरती पर बर्फ़ गिरी है,
शीत ने ढँक लिया है चीन को...
हवा, शोक संतप्त बुढ़िया की तरह
एकदम पीछे-पीछे चली आ रही है,
अपने सर्द पंजे फैलाए,
यायावर के वस्त्रों को झटक रही है।
भू की तरह पुराने शब्द,
बिना रुके लगातार फुसफुसा रहे हैं
जंगलों से आती
घोड़ा-गाड़ियों में,
तुम चीन के किसानों, वहाँ
खालों के टोपे पहने...
इस झोंक से भिड़ रहे हो...
कहाँ जा रहे हो तुम?
मैं बताता हूँ,
मैं भी किसान की संतान हूँ।
दर्द से दरकते तुम्हारे चेहरों से
मैं यह गहराई से समझता हूँ
तड़प के वे वर्षानुवर्ष
जलती चिता पर ज़िंदगी निर्मित करने वाले लोगों के बारे में।
तब भी मैं
तुमसे अधिक सुखी नहीं हूँ
...समय की नदी पर लेटा हुआ।
परेशानियों की ताबड़तोड़ लहरें
अक्सर मुझे निगलने को हुई हैं,
मुझे और आग उगलती हुई।
मैं सर्वाधिक क़ीमती दिन खो चुका हूँ
अपनी जवानी में—के
भटकते हुए और जेलों में
मेरी ज़िंदगी
तुम्हारी ही तरह मरियल है।
चीन की धरती पर बर्फ़ गिरी है
शीत ने ढँक लिया है चीन को....
इस बर्फ़ीली रात की नदी में,
एक छोटा-सा दिया सरकता है धीरे-धीरे
काली छतरी वाली जर्जर नौका में
कौन बैठा है वहाँ
दिये की रोशनी में, सिर झुकाए?
...ओह, तुम हो,
अस्त-व्यस्त बालों और गंदले चेहरे वाली युवती।
क्या यह
तुम्हारा घर न था
...वो गर्म और ख़ुश घोंसला...
जला कर राख कर दिया था
क्रूर दुश्मन ने?
क्या वह न थी
ऐसी ही एक रात
एक पुरुष को सुरक्षा से वंचित
वो, मृत्यु के आतंक में,
तुम्हें छेड़ा गया और दुश्मन की संगीने घोंपी गईं तुम में?
आज की तरह सर्द रातों में,
हमारी अनगिनत
वृद्ध माताएँ
एक साथ गड्डमड्ड हो गए हैं उन घरों में जो उनके नहीं हैं....
अजनबियों से
न जानते हुए
कि कल का पहिया
कहाँ ले जाएगा उन्हें।
और चीन के रास्ते
इतने ऊबड़-खाबड़ हो गए हैं
ऐसे कीचड़ सने।
चीन की धरती पर बर्फ़ गिरी है
शीत ने ढेक लिया है चीन को...
इस बर्फ़ीली रात में घास के मैदानों से गुज़रते हुए
युद्ध की लपटों द्वारा चूस लिए गए हमारे इलाके
अनगिनत, इस कौमार्या धरती को जोतने वाले
न रहे, उनके पाले पोसे जानवर,
न रही उनकी उर्वर भूमि।
वे एक साथ गडमड हो गए है,
ज़िंदगी की आशाहीन गंदगी में :
अकाल की धरती में,
घटाटोप आसमान की ओर ताकते हुए,
वे काँपते हुए बाहर निकलते हैं
काढ़ा माँगते हुए।
आह, चीन के दर्द और संताप
उतने ही दीर्घ और विस्तृत हैं, जितनी यह बर्फ़ीली रात।
चीन की धरती पर बर्फ़ गिरी है,
शीत ने ढँक लिया है चीन को...
चीन
यह मंद कविता मैं लिखता हूँ
इस दियाहीन रात में,
क्या यह तुम्हें थोड़ी सी गर्मी दे पाएगी?
- पुस्तक : सूखी नदी पर ख़ाली नाव (पृष्ठ 182)
- संपादक : वंशी माहेश्वरी
- रचनाकार : आई छिंग
- प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
- संस्करण : 2020
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