छोड़ दूँ कैसे मिलन की आस
chhoD doon kaise milan ki aas
(यह कविता तीन भागों में है—परामर्श, प्रतिक्रिया और प्रयाण)
परामर्श
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस
विजन वन रजनी भयंकर
क्षुब्ध शम्पा उग्र अंबर
कर रहे हर जीव के अस्तित्व का उपहास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस
गर्जना करतीं हवाएँ
चीखतीं चारों दिशाएँ
मेघ के उर में कुटिल दुर्भावना का वास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस
उर्मि या चल शैलमाला
व्योम से किसने उछाला
हरहराता-तप्त-फेनिल ध्वंस का उच्छ्वास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस
गहन तम में आँख फाड़े
मृत्यु हिंसातुर दहाड़े
कब मिटी है भूख इसकी कब बुझी है प्यास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस
भावनाओं की दुलारी
इस प्रकृति की शक्ति सारी
नाशलीला का निरंतर कर रही अभ्यास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस
यह प्रणय बंधन तुम्हारा
जानता था गाँव सारा
हो चुका है वह भयावह जलचरों का वास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस
सृष्टिगत सौंदर्य सारा
सहज शरणागत तुम्हारा
पट सँभालो हो न इसका प्रलय को आभास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस
पीन-तनु-सुकुमार-श्यामल
स्निग्ध-शिव-निष्काम-निर्मल
गात निष्ठुर काल को क्यों दे रही सायास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस
आह! यदि मैं काल होता
दूर रह तुमको सँजोता
देखता बस रूप लेकर कर्म से संन्यास
अभिसारिके छोड़ो मिलन की आस
प्रतिक्रिया
है परीक्षा की घड़ी यह
साधना इतनी बड़ी यह
फिर निराशा ही तुम्हें क्यों आ रही है रास
छोड़ दूँ कैसे मिलन की आस
अर्चना का दीप अंतर
जल रहा मेरा निरंतर
हो न क्यों प्रियतम समागम का मुझे विश्वास
छोड़ दूँ कैसे मिलन की आस
काल सीमित, प्रीति अक्षय
प्रीति रहती चेतनामय
देह में चाहे चले, रुक जाए चाहे साँस
छोड़ दूँ कैसे मिलन की आस
वज्र-घन-आँधी-अँधेरे
सब अशुभ सौभाग्य मेरे
हाँ दुसह मधुमास, मधुमय चाँदनी का त्रास
छोड़ दूँ कैसे मिलन की आस
दैव घन से सोम सरसे
या विषम अंगार बरसे
इस हृदय वन से नहीं जाता कभी मधुमास
छोड़ दूँ कैसे मिलन की आस
प्रयाण
नहीं रुकी वह बाला निर्भय चली अँधेरे पथ पर
काल निशा में जैसे कोई चले मेघ के रथ पर
वह उमंग वह आस मिलन की वह अदम्य अभिलाषा
वह भावों का वेग और भोले नैनों की भाषा
मानव का संकल्प चुनौती देने चला प्रलय को
बिना विचारे जड़-चेतन के ध्वंसक महाविलय को
बीच-बीच में बिजली कौंधे पग-पग राह दिखाए
लहर-लहर अनजाने पथ पर माया जाल बिछाए
बाधाएँ सब भूल बढ़ी वह दुर्गम वन में आगे
नए स्वप्न सुकुमार-सलोने अंतर्मन में जागे
कहाँ मिलूँगी क्या बोलूँगी कैसे प्रेम करूँगी
प्रिय की एक एक बोली पर सौ-सौ बार मरूँगी
मुझे देखते ही वह अपनी बाँहों में भर लेगा
सोचा जो इतने वर्षों से आज उसे कर लेगा
काँप उठेगी काया जब होठों को वह चूमेगा
दो प्राणों के मधुर मिलन पर सारा जग झूमेगा
वह असीम आनंद भला मैं कैसे सह पाऊँगी
और बिना उसके भी जीवित कैसे रह पाऊँगी
दिवास्वप्न के बीच अंततः आ ही गया ठिकाना
इच्छाशक्ति प्रबल थी, सिमटा पंथ अगम-अनजाना
दृश्य वहाँ का देख लगा गहरा आघात हृदय को
सह सकता है कौन स्वयं पर इतने बड़े अनय को
प्रियतम के संग नई प्रेमिका सपनों में खोई थी
आलिंगन में बँधी हुई थी कंधे पर सोई थी
सूख गए आँसू आँखों में, मुँह से बोल न फूटे
कोमल मन के सारे बंधन चीख़-चीख़ कर टूटे
अंत नहीं यह, इसी जगह से नई राह खुलती है
बड़े लक्ष्य की ओर वही आगे चलकर मुड़ती है
किया नया संकल्प—मुझे अब विश्व प्रेम पाना है
पढ़-लिखकर पीड़ित जनता की सेवा में जाना है।
- रचनाकार : वीरेंद्र वत्स
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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