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भ्रम

bhram

मुज़फ़्फ़र आज़िम

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और अधिकमुज़फ़्फ़र आज़िम

    प्रतीक्षा में देखी मैंने पर्वतमाला

    लज्जा से वह लाल थी

    सूर्य के चढ़ने से पूर्व ही

    उज्ज्वल सूर्य को देख रही थी

    ऐसे ही लज्जा से लाल होता होगा

    प्रतीक्षारत प्रीतम

    जैसे उसकी उज्ज्वल देह

    मदमाती, खिली हुई

    जैसे नहलाया हो शरीर अपना

    अंबर ने अमृत से।

    मन करता है कि एक चित्र

    खीचूँ इसका

    बड़ा घना नगर, जिस पर छाया

    ईश्वर का प्रकोप

    जहाँ आँखों का अर्थ खो गया है

    समझो यह है

    भोजपत्र की छत की कगार

    बेचैन नज़रों की विकृत

    हो रही भावाभिव्यक्ति

    कोई पर्वत शिखर समा रहा

    नज़रों में

    अब तो कहना चाहिए

    कि ग़नीमत है

    टूटी-फूटी यह छत तो है

    आँखों के गड्ढों के ऊपर छाई

    और मसी में रहते हैं

    दो आवारा कबूतर।

    अभी सूर्य था बहुत नीचे

    दूर पर्वत शिखर ललाने लगे थे

    धीरे से आया एक

    वसंती पवन का झोंका

    नींद का श्राप मिटा उससे मेरा

    और आँखें खोली मैंने

    मीठी-सी बोली बोल रहा था

    खिड़की के पल्ले पर बैठा कबूतर।

    इस कबूतर पर मेरी

    नज़रें वारी जाएँ

    यूँ ही कबूतर को नहीं हुई

    इस खिड़की की लालसा

    है कबूतर में भी वही

    अशांत और व्याकुल आत्मा

    नाम, अरे छोड़ो नाम होता है यूँही

    जिसका मैंने आज़िम” नाम रखा

    कोई ग़ज़ल मेरी थी पसंद कबूतर को

    जिसको गाकर वह

    अपनी पीड़ा कम करता था

    वक्ष मेरा फट गया

    आग लगी व्याकुल दिल में

    अचानक जैसे पाला गिरा

    और मुझे अनायास

    गर्म रज़ाई ओढ़ा गया

    मैं बिस्तर से बाहर निकला

    क्षण भर में

    खिड़की पर कबूतर

    और ज़रा सुस्ता लिया

    अभी भी

    मेरी ग़ज़ल गा रहा था

    संगीत की लय दिल के परदे हटाती है

    और मिटाती है आत्मा के अवरोध

    गीत हृदय को हुलसाता है

    पुरानी मदिरा की भाँति

    गीत बदल डालता

    विरह और मिलन का प्रभाव

    जबकि

    नहीं तो दीवाना अशांत हृदय

    नहीं देखता आगे-पीछे

    मैं अद्भुत अभिलाषा से

    प्रेरित हुआ

    और उसी की ओर चल पड़ा

    मैंने बढ़ाया उसकी ओर

    प्यार भरा हाथ अपना

    मेरी आत्मा के साथी रे!

    आओ नीचे, दो चार बातें करें

    मैं प्रीति हूँ आसक्ति हूँ

    और तुम केवल एक गीत हो

    गीत और प्रीत जुड़वाँ जन्मे हैं

    जीवन से।

    मेरे इतना कहते ही मेरे हाथों पर

    विष भरी कुल्हाड़ी पड़ी

    सूनी हो गई खिड़की मेरी

    उड़ चला कबूतर

    जैसे लुट गया मेरा प्यार

    और नज़रें मेरी सिमट गईं

    मैंने तो पंख भी कभी

    उखाड़ा नहीं है किसी कबूतर का

    अब इसे क्यों डर यह लगा

    क्यों मुझे इसने बेकल कर दिया

    कुछ बोल सका मैं

    किंतु मेरे भीतर

    कामनाएँ मेरी हो गईं उदास

    इस कबूतर ने क्यों नहीं समझा

    मूल्य हमारी प्रीत का

    प्रीत से, अमृत से भी

    डरते हैं कबूतर

    बड़ी दुःसह है पीड़ा

    पर मैंने सही

    और जाने यह क्या हुआ

    कि लताड़ी गई सी

    मेरी अभिलाषा

    और मैं फिर भी विनम्र

    भ्रांति की आशा लिए

    निकला मैं टूटा-सा घर से

    एक गीत की ओर

    जिसकी चंचल, निर्भय दृष्टि में है

    अमृत भरा स्नेह

    वह मीत मेरी है

    सरू पेड़-सी उन्नत

    पर प्रवृत्ति है कबूतर जैसी

    कहाँ मालूम कबूतर को उसकी वाणी की मिठास

    उसका शरीर पक्षियों की चहक से

    नियति ने बनाया है

    या अनायास आरोह अवरोह से बनी है

    उसकी देह

    उसके शरीर में भी बसी वही

    व्याकुल और अशांत आत्मा

    नाम, अरे छोड़ो नाम होता है यूँही

    जिस का मैंने 'आज़िम' नाम रखा

    मेरा वक्ष कुरेदती जा रही थी पीड़ा

    और मैं उसके पास पहुँच गया

    उसने मेरी पदचाप सुनी

    और टेढ़ी नज़र से मुझे देखा

    उसकी दृष्टि की ओस से

    दहकता हुआ हृदय मेरा

    एक पुष्प वाटिका बन गया

    एक क्षण मुझे एकटक देखा उसने

    और जाने क्या सोच कर

    उसकी चंचल मुख-कली

    खिल उठी

    और बोली

    “इस तरह मुझे यह प्यार

    यह मधुरता दिखा

    इस तरह उचित नहीं

    दिखाना यह दीवानापन तेरा”

    मैंने यह सुना तो

    जैसे लूट के ले गया हो कोई

    मुझसे मेरी चेतना

    मेरी खिड़की सूनी पड़ गई

    और कबूतर उड़ गया

    कुछ बोल सका मैं

    लेकिन मेरे भीतर-ही-भीतर

    घुट के रह गईं मेरी कामनाएँ

    क्यों मनुष्य के प्रेम का

    मूल्य जान नहीं पाया

    प्यार से, अमृत से क्यों भला

    डरता है मानव।

    स्रोत :
    • पुस्तक : उजला राजमार्ग (पृष्ठ 92)
    • संपादक : रतनलाल शांत
    • रचनाकार : मुज़फ़्फ़र आज़िम
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2005

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