अक्टूबर आता है नर्म हवा के साथ,
जैसे किसी भूले हुए स्पर्श की याद लौटती हो।
आकाश झिलमिल करता है—
शरद-चंद्र अपनी धुँधली उजास में
मेरा चेहरा ढूँढ़ता है,
पर पाता नहीं—
क्योंकि मैं अब भी तुम्हारे भीतर बसा हूँ,
किसी अधूरे स्वप्न की तरह।
रात में जब उल्कावृष्टि होती है,
हर गिरती लौ
तुम्हारे कहे शब्दों-सी टूट जाती है—
सुंदर, क्षणिक, और अनकहे अर्थों से भरी।
आकाश अब हमारे संवादों का श्मशान लगता है,
जहाँ हर तारा
एक स्मृति की चिता पर जलता है।
भोर के द्वार पर शुक्र उगता है,
पर उसकी रौशनी अब शीतल-सी भी चुभती लगती है—
वह तुम्हारे न होने की उजली स्वीकृति है।
वह कहता है—
“जिसे नहीं पा सकते,
उसी से ब्रह्माँड का संतुलन बना रहता है।”
बृहस्पति और शनि,
दो आत्माएँ हैं जो युगों से अलग चमकती हैं,
फिर भी उनके बीच का गुरुत्व अब भी जीवित है।
मैं सोचता हूँ—
क्या हमारा प्रेम भी ऐसा ही था?
जिसमें मिलन की संभावना नहीं,
पर विरह का आकर्षण शाश्वत है।
कभी-कभी मुझे लगता है,
प्रेम कोई सूक्ष्म तत्व है—
जो दिखाई नहीं देता,
पर वही हर आलोक का कारण है।
और विरह,
एक तरंग—
जो हर दिशा में फैलती है,
पर लौटकर अर्थ नहीं लाती।
अक्टूबर अब ढल रहा है,
उसकी ठँडी साँसों में
मेरी धड़कनों का ताप घुलता जा रहा है।
फिर भी मुझे विश्वास है—
अगले वर्ष जब अक्टूबर लौटेगा,
किसी उल्कापुच्छ में
तुम्हारा नाम फिर चमकेगा—
और मैं फिर वही करूँगा,
देखूँगा…
और मौन में
धीरे-धीरे
विलीन हो जाऊँगा।
- रचनाकार : हर्षित मिश्र
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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