आह्वान
ahwan
अपने समकालीनों का
हमेशा की तरह इस बार भी पहाड़ों के पार उतरते आकाश को उसने
आँखों में बाँध लेने की चेष्टा की और
एक मुट्ठी हवा में उछाल दी।
मुट्ठी में बंद तिलस्म भविष्य का चेहरा बनाता हुआ तलहटी में
उतर गया और—
उसकी निगाहों के सामने एक पुराना नक़्शा उभर आया था।
कुछ आवाज़ें हवा में खिलने लगी थीं, कुछ
पत्थर गड़गड़ाहट की ध्वनि में बंद होकर उसके
कानों में पिघल गए थे और ढेर सारी पदचापें उसके
भीतर चलने लगी थीं।
शताब्दी का माहौल उसके कंधों पर था : यह एक बोझ
था जो उसे विरासत में मिला था : और
वह विरासत वह तुम्हें सौंपकर मुक्ति लेना चाहता है
तुम्हारा बायाँ कंधा अभी तक लुंज है : तुम्हारी हथेलियों
में अभी तक शब्द नहीं उपजे; तुम्हारे मस्तक की
रेखाएँ अभी तक
आगे नहीं देख पातीं : तुम्हारी रक्तचाप
धीमी होती जा रही है : तुमने अवज्ञा और
अनादर को क्रांति मान लिया है।
एक कच्चा दंभ तुम्हारी रीढ़ की हड्डी में छेद कर रहा है।
तुम्हें उसके कंधों का तनाव अपनी भुजाओं पर झेलना है
तुम्हें वह होना है जो
इस शताब्दी की आकांक्षा और जीवन है।
तुम्हें ही होना है
मृत्युंजय और मुक्त : तुम्हें ही होना है
आकाश को समेट लेने का व्यमोह; तुम्हें जो
तुम हो मात्र : मात्र
उसे ही यहाँ से प्रारंभ की यात्राओं का स्मारक!
- पुस्तक : महाभिनिष्क्रमण (पृष्ठ 99)
- रचनाकार : मोना गुलाटी
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