अचरज

achraj

पारस अरोड़ा

और अधिकपारस अरोड़ा

    अचरज है कि इस बस्ती के लोग

    अब भी जी रहे रहे हैं।

    जबकि इन सबकी मौत हो गई थी

    कंधों में गोली लगने से

    और इनके नाम शीत-युद्ध में

    मरने वालों की सूची में छपे हुए हैं।

    मैं हमेशा इस बस्ती में

    सूखे, अँधेरे गहरे कुएँ में

    रोशनी डाल कर देखता हूँ कि

    रात को किसी ने इस बस्ती के

    किसी मुर्दे को इसमें पटका या नहीं

    जिससे मैं दूसरी बार कर सकूँ

    उसकी मृत्यु की घोषणा।

    अचरज है कि इतने दिनों में

    इस शुभ काम की शुरुआत

    किसी ने नहीं की।

    लगता है अब मुझे ही

    करनी होगी यह शुरुआत

    बसना पड़ेगा इन मुर्दों के बीच

    इस शुभकाम की शुरुआत बाबत,

    इनकी अंतिम मृत्यू की घोषणा बाबत।

    अलमारियों में बंद

    इनकी पोथियों को खा गई है दीमक

    कभी पढ़ा नहीं उन्हें।

    उनके पन्नों से इन्होंने अपनी

    सिगरेटें सिलगाई।

    इनका पूरा समय बीत गया

    आपस की इस बहस में कि

    मरवण के घाघरे में कितनी सलवटें हैं?

    कि फलाँ कब जन्मा?

    कि वो कब,

    कहाँ

    किसका

    क्या था?

    ये लड़ मरे

    मुर्दों की बातों बाबत

    ज़िंदा लोगों का यश गटक कर।

    क्या अब भी इनकी

    अंतिम मृत्यु की घोषणा करनी पड़ेगी?

    स्रोत :
    • पुस्तक : सदानीरा
    • संपादक : अविनाश मिश्र
    • रचनाकार : पारस अरोड़ा
    • प्रकाशन : सदानीरा पत्रिका

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