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आज आओ, अभी...

aaj aao, abhi

अनुवाद : राजेंद्र प्रसाद मिश्र

प्रतिभा शतपथी

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प्रतिभा शतपथी

आज आओ, अभी...

प्रतिभा शतपथी

और अधिकप्रतिभा शतपथी

    आओ, मेरा एक-एक अवयव

    सोपान बने तुम्हारे पैरों तले,

    उत्कंठा बने अर्घ्य,

    अंतर की स्वच्छता से

    रेशा-रेशा निकालकर

    बुन रखी है चादर

    ढक दूँगी तुम्हारे विस्तार को,

    तुम्हारे लिए परेशान

    अपनी अनिवार्य नियति को,

    अपने राजत्व को

    अपने अंतिम गीत को

    लक्ष्यहीन, कर्कश

    गर्जना करती इस पृथ्वी को,

    आओ, अभी आओ।

    वादा करती हूँ

    मैं ढक दूँगी इन सबको।

    पर क्या सचमुच ऐसा कर सकूँगी?

    पोंछ सकूँगी अभिशाप को

    अपने ख़ून से?

    पानी का कोई बुलबुला नाच उठने पर

    कहीं परित्यक्त कोने में

    इधर-उधर के फूल

    चुपचाप खिल उठने पर

    अकेला तारा

    पैर लटकाकर बैठ जाने पर

    पेड़ की डाल पर,

    बाँहों पर, कंधों पर मेरे

    कई बार आकर टिका है आकाश

    मैं मर गई हूँ

    पहाड़ जितनी लाज से

    जाने कितनी बार!

    असंख्य चाकू

    धातु के, शब्दों के, मिथ्याचार के,

    प्रसूति शिशु के रक्त से सने सिर-सा

    उगता सबेरा

    द्विखंडित हो जाता है,

    कभी ज़ोरों की सिसकियाँ सुनाई देती हैं

    तो कभी

    ताल लय तेज़ हो उठते हैं

    तुम्हारी वीणा के सुनहरे तारों से।

    आज आओ, अभी...

    मेरे भिनसारे के सपने में

    निद्रित, विनिद्रित जली-भुनी

    वास्तविकताओं में

    तीक्ष्ण रोमांच में

    गाढ़े शून्य में शब्दहीन

    बार-बार,

    आँसू-रक्त निचुड़कर बह जाये मुझमें से

    बार-बार

    छिन्न-भिन्न हो जाऊँ मैं—मेदिनी

    तुम्हारे पद्म पंखुड़ियों जैसे चरणों के भार से।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तुम्हारे लिए हर बार (पृष्ठ 13)
    • रचनाकार : प्रतिभा शतपथी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2015

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