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लालची लोमड़ी

lalchi lomDi

एक गाँव में एक बुढ़िया रहती थी। उसने अपनी बाड़ी में ढेर सारी साग-भाजी और भुट्टे लगा रखे थे किंतु पास के जंगल में रहने वाली एक लालची लोमड़ी उसकी बाड़ी में घुस कर साग-भाजी,भुट्टे आदि का सर्वनाश कर देती। बुढ़िया बड़ी परेशान,हर कोशिशें करके वह थक गई किंतु लोमड़ी बाज़ आती। एक दिन उसने एक उपाय सोचा और मोम का एक पुतला बना कर बाड़ी के ठीक सामने रख दिया। पुतले के दोनों हाथों में एक-एक लड़ भी थमा दिए। रात को लोमड़ी आई। उसकी निगाह पुतले पर पड़ी और फिर लड्डुओं पर भी। लोमड़ी लालची तो थी ही, सब्र कर सकी और जा पहुँची पुतले के पास और लड्डु माँगने लगी।

अब पुतला तो पुतला। वह भला कैसे देता उसे लड्डू? जब कई बार माँग कर लोमड़ी थक गई तो उसने कहा,देख बुढ़िया! सीधे से दे दे लड्डू,वरना एक झापड़ लगाऊँगी।

पुतला चुप। लोमड़ी ग़ुस्से में गई और पुतले के गाल पर एक झापड़ जड़ दिया। उसका हाथ पुतले के गाल से चिपक गया। वह थोड़ी नर्म पड़ी और बोली,अरी बुढ़िया! मेरा हाथ छोड़ कर मुझे लड्डू दे दे।

पुतला फिर भी चुप।

अब लोमड़ी फिर से ग़ुस्से में गई। दूसरा हाथ भी चला दिया। वह भी चिपक गया। वह फिर मिन्नतें करने लगी। भला पुतला क्या बोलता? लोमड़ी ने एक-एक कर दोनों पाँवों से भी पुतले पर वार किया। दोनों पाँव भी चिपक गए। तब लोमड़ी ने कहा,अच्छा बुढ़िया! तू ऐसे नहीं मानेगी। दोनों हाथ-पाँव पकड़ लिए तो सोचती है कि मैं कुछ भी नहीं कर सकती। अभी भी मौक़ा है। छोड़ दे मेरे हाथ-पाँव और लड्डू दे दे मुझे वरना अभी दाँतों से तेरा नाक काट लूँगी तो जीवन भर नक कटी रह जाएगी।

पुतला चुप। बोले तो बोले कैसे?

लोमड़ी अब क्रोध से काँपने लगी और पुतले की नाक को काट लिया। नाक तो क्या कटती, लोमड़ी का मुँह भी पुतले से चिपक गया। यह सब दृश्य देख रही थी बुढ़िया किवाड़ की झिरी से। वह भीतर से निकली और एक बड़ी-सी मोटी रस्सी लेकर आई। लोमड़ी को कस कर एक खूँटे से बाँध दिया। फिर एक बड़ा-सा डंडा ले आई और लोमड़ी की पिटाई शुरू। अब बुढ़िया का काम ही हो गया था रोज़ सुबह-शाम लोमड़ी की पिटाई करना।

इस तरह रोज़ सुबह-शाम की पिटाई से लोमड़ी का शरीर फूल गया। एक दिन की बात है। एक दूसरी लोमड़ी उधर निकली। इसे देख कर वह रुक गई और पूछने लगी,क्यों बहन! क्या बात है,यहाँ क्या कर रही हो?

पहली लोमड़ी को तुरंत उपाय सूझ गया। बोली,दूर हट,दूर हट। कहाँ घुसी चली रही है? नहीं जानती यह मेरे भोजन का समय है। अभी बड़ी माँ आती ही होगी मेरे लिए स्वादिष्ट भोजन लेकर। जा,भाग जा यहाँ से।

स्वादिष्ट भोजन का नाम सुन कर उस दूसरी लोमड़ी के मुँह में पानी भर आया। वह हाथ-पाँव जोड़ कर बोली,दीदी! एक दिन के लिए मुझे भी खाने दो न। तुम तो रोज़ ही खाती हो।

इसने 'नहीं' कहा तो वह मिन्नतें करने लगी। बड़ी मुश्किल से मानी इस लोमड़ी ने उसकी बात और कहा,ठीक है। तुम भी क्या नाम लोगी। चलो, मेरे हाथ-पाँव खोल दो। मैं अपनी जगह तुम्हें बाँध दूँगी। लेकिन ध्यान रहे,मैं दूसरे पहर वापस आऊँगी तब तुम्हें यहाँ से जाना होगा। यह कह कर इसने उसे अपनी जगह बाँध दिया और ख़ुद हो गया नौ-दो ग्यारह!

इधर शाम होने पर बुढ़िया आई। उसे आती देख कर दूसरी लोमड़ी जीभ फिराने लगी कि अब रही है बुढ़िया मज़ेदार खाना लेकर। बुढ़िया आई और उठा कर दो डंडे मारे लोमड़ी को। लोमड़ी चीख़ी,अरी बड़ी माँ...! यह क्या कर रही हो? खाना देने के बदले मार क्यों रही हो तुम?

यह सुन कर बुढ़िया और भी चिढ़ गई। बोली, हाँ,हाँ। तुझे हलवा-पूरी खिलाऊँ न। मेरी सारी बाड़ी का सत्यानाश करने वाली लोमड़ी! मैं तेरा हुलिया बिगाड़ कर छोडूँगी। कहते हुए फिर पीटने लगी। लोमड़ी की समझ में अब सारी बातें गईं। वह चिल्लाने लगी,नहीं बड़ी माँ। तुम्हारी बाड़ी का सर्वनाश करने वाली लोमड़ी मैं नहीं हूँ,वह तो दूसरी है। उसने मुझे धोखा दे कर यहाँ बाँध दिया और ख़ुद रफ़ू चक्कर हो गई। किंतु बुढ़िया नहीं मानी,उल्टे 'दुबारा मुझे मूर्ख बनाना चाहती है'कह कर और ज़ोरों से पीटने लगी।

इस तरह रोज़ सुबह-शाम मार खा-खा कर उस लोमड़ी का शरीर भी फूल गया। वह पहली वाली लोमड़ी को कोसने लगी किंतु उसे भला दुबारा वहाँ क्यों आना था! मार खा-खा कर अंततः एक दिन इस लोमड़ी की मृत्यु हो गई।

मेरी कहानी ख़त्म|

देखा, लालच करने पर कैसा फल मिलता है?

स्रोत :
  • पुस्तक : बस्तर की लोक कथाएँ (पृष्ठ 65)
  • संपादक : लाला जगदलपुरी, हरिहर वैष्णव
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत
  • संस्करण : 2013

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