सभ्यता आवश्यकताओं की जननी है, और आवश्यकता आविष्कारों की। सभ्यता के आदि-काल में मनुष्यों की आवश्यकताएँ परिमित होती थीं, अतएव उनकी पूर्ति के लिए उन्हें विशेष परिश्रम भी करना पड़ा। प्रकृति से ही उन्हें अपने जीवन की सभी सामग्री मिल जाती थी। तब प्रकृति के साथ उनका घनिष्ठ संबंध था। जब प्रकृति से मनुष्यों का संपर्क छूट जाता है, तब वे सभ्यता के पथ पर अग्रसर होते हैं। जब सभ्यता की उन्नति होती है, तब मनुष्यों की आवश्यकताएँ भी बढ़ती हैं, और तभी उनकी पूर्ति में उनकी बुद्धि का विकास होता है। कला सभ्यता का निदर्शन है। कला कृत्रिम है। वह मनुष्यों की सृष्टि है। जब तक मनुष्य प्रकृति के वशीभूत रहता है, तब तक कला की ज़रूरत नहीं रहती; और इसीलिए उसकी सृष्टि भी नहीं होती। जब मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेता है, तब वह प्रकृति के विरूद्ध अपनी सृष्टि करता है। कला मानव-शक्ति की मद्दता सूचित करती है। वह मनुष्यों की प्रकृति-विजय की चिह्न है। कुछ लोगों का ख़्याल है कि कला में मनुष्य प्रकृति का अनुकरण करता है। परंतु यह भ्रम है। अनुकरण करने में सजीवता नहीं आ सकती। यदि कला प्रकृति का अनुकरण-पात्र है, तो कहना चाहिए, वह उसकी प्राणहीन छाया है। उसका कुछ भी महत्त्व नहीं है। जब हम सजीव प्रकृति का दर्शन कर सकते हैं, तब उसकी निर्जीव छाया के लिए उद्योग क्यों करें? सच बात तो यह है कि कला प्रकृति का अनुकरण-मात्र नहीं है। वह मनुष्य की सृष्टि है। जब हम किसी चित्र में वन का दृश्य देखकर मुग्ध होते हैं, तब प्रकृति के कौशल पर ध्यान नहीं देते। उस समय हम चित्रकार के कला-नैपुण्य की प्रशंसा करते हैं। चित्र में चित्रकार की अंतर्निहित शक्ति लीन रहती है। मनुष्य के हृदय में बाह्य जगत् प्रविष्ट होकर नवीन रूप धारण कर लेता है। चित्र मुनष्य के अंतर्गत् का दृश्य है, बाह्य जगत् की प्रतिच्छाया नहीं।
मानव-जाति भिन्न-भिन्न खंडों में विभक्त हो गई है। देश और काल ने उनमें बड़ा विभेद उत्पन्न कर दिया है। परंतु इस विभिन्नता में भी एक समता है। सभी में मनुष्यत्व का गुण वर्तमान है। वह मनुष्यत्व क्या है? मनुष्यों की वह विशेषता क्या है, जो उन्हें अन्य पशुओं से पृथक् कर देती और सब मनुष्यों को एक सूत्र में गूँथ देती है? वह है ज्ञान-लिप्सा। सभी मनुष्यों में यह गुण विद्यमान है। साहित्य और विज्ञान उसी के फल हैं, और कला संगीत उसी के परिणाम।
कला किस जिज्ञासा का फल है? मनुष्य चित्रों पर अपने अंतःकरण की छाया अंकित करके क्या देखना चाहता है? वह ध्वनियों की गति निश्चित करके संगीत के द्वारा अपनी किस अव्यक्त भावना को व्यक्त करना चाहता है? वह पत्थर और मिट्टी के मेल से एक विशाल भवन निर्मित करके अपने हृदय की किस उच्च अभिलाषा को पूर्व देखना चाहता है? वह प्रकृति की स्वच्छंदता नष्ट करके, उसकी लीला को एक क्षुद्र सीमा में परिमित करके उद्यान में अपनी किस शक्ति को प्रत्यक्ष करना चाहता है?
जब मनुष्य ने संसार का पहले-पहल दर्शन किया होगा, तब उसने प्रकृति की अनंत शक्ति का अनुभव किया होगा। तब क्या उसने यह नहीं सोचा होगा कि यह सब किसके लिए है? कहा जाता है, अनंत विश्व के सामने मनुष्य अपनी क्षुद्रता का अनुभव करता है। परंतु क्या क्षुद्र मानव−जाति ही के लिए प्रकृति ने अपना यह अनंत अंचल फैला रखा है? क्या क्षुद्र मनुष्यों ही के लिए सूर्य और चंद्र बनाए गए हैं? यह निःसीम अरण्य-माला, यह गगनस्पर्शी गिरि-समूह, यह समुद्र का अनंत वक्षःस्थल, यह प्रकृति का विराट् रूप क्या क्षुद्र मनुष्यों के उपभोग के लिए है? नहीं, मनुष्य क्षुद्र नहीं है। क्षुद्र के लिए इतना आयोजन नहीं ही हो सकता। वह भी अनंत का प्रतिबिंब है। अनंत प्रकृति को देखकर उसने अपने अनंत अंतर्जगत् का अनुभव किया, और उसी अनंत की भावना को स्पष्ट करने के लिए कला की सृष्टि हुई। कला मनुष्य की अनंत शक्ति का परिचय देने वाली है।
कला की उत्पत्ति मनुष्यों के सौंदर्य-बोध से हुई है। मनुष्यों में सौंदर्य-बोध स्वाभाविक है। शिशु भी सुंदर वस्तु देखकर उसकी ओर आकृष्ट होता है। पर सौंदर्य है क्या? यह बतलाना सहज नहीं है। प्रायः देखा जाता है कि जो वस्तु एक की दृष्टि में सुदर है, वही दूसरे की दृष्टि में कुत्सित। व्यक्तिगत रुचि को छोड़ देने पर भी, हम यह देखते हैं कि एक जाति जिसे सुंदर समझती है, उसे दूसरी जाति कुरूप कहती है। एक जाति का भी सौंदर्य-बोध कालानुसार विभिन्न हो जाता है। इससे यह स्पष्ट विदित होता है कि सौंदर्य काल और देश से मर्यादित है। इसका कारण यह है कि सौंदर्य एक मानसिक अवस्था है। वह किसी वस्तु में नहीं, मनुष्यों के मन में है।
एक विद्वान् का कथन है कि धर्म ही सब ललित कलाओं का मूल-स्रोत है। मनुष्यों ने आज तक कलाओं में जो उन्नति की है, वह उनके धार्मिक भावों की प्रेरणा से ही हुई है। अब विचारणीय यह है कि धर्म की उद्भावना से सौंदर्य का क्या संबंध है। वह संबंध जान लेने पर प्रकट हो जाएगा कि जिस सौंदर्य की अनुभूति के लिए भिन्न-भिन्न कलाओं की सृष्टि हुई है, वह केवल मनुष्यों की एक धार्मिक अवस्था सूचित करता है।
लोकाक्ति प्रसिद्ध है−‘सत्यं शिव्र सुंदरम्’। अँग्रेज़ी में कवि कीट्स की यह उक्ति ख़ूब प्रसिद्ध है−“Truth is beauty” अर्थात सत्य ही सौंदर्य है। जो असत्य है, वह सुंदर नहीं। पर क्या वह सच है? संसार में क्या सभी सत्य सौंदर्यमय होते हैं? इसके विपरीत हम यह देखते हैं कि जो मिथ्या है, वही अधिक सुंदर है। जब तक हम पहाड़ों का सत्य रूप नहीं देखते, तभी तक वे हमें रमणीय और सुंदर प्रतीत होते हैं। ज्यों ही हम उनके पास पहुँचकर उनका यथार्थ रूप देख लेते हैं, त्यों ही हमारा पहले का भाव नष्ट हो जाता है। इसीलिए कुछ लोगों की यह धारणा हो गई है कि सौंदर्य केवल काल्पनिक है, मिथ्या है; वह जीवन की मरीचिका है; उसका अस्तित्व नहीं।
यह तो हम कह आए हैं कि सौंदर्य केवल मानसिक अवस्था है। मन को जिसकी चाह होती है, वह उसे सुंदर जान पड़ता है। मनुष्य अनंत समुद्र की नीलिमा, संध्याकालीन आकाश की लालिमा और अभ्रभेदी पर्वतों की उत्तुंग शृंग-माला देखकर उन्हें तभी सौंदर्यमय कहता है, जब उसे संसार के वैभव से विरक्ति अथवा अरुचि हो जाती है; मूक प्रकृति की निश्छल शोभा तभी उसके मन में एक ऐसी भावना उत्पन्न कर देती है, जिसके लिए वह सदा लालायित रहता है।
प्रकृति सत्य ही का एक दूसरा रूप समझी जाती है; अर्थात् प्रकृति के राज्य में जो कुछ इंद्रियगोचर होता है, वह सत्य कहलाता है। जो इंद्रिय से अनुभूत नहीं, उसे सत्य कहने का साधारण लोग साहस नहीं करते। परंतु हमें स्मरण रखना चाहिए कि प्रकृति का अंत इंद्रियगोचरों ही में नहीं हो जाता। कुछ तो प्रत्यक्ष रूप से हम पर प्रभाव डालते हैं, और कुछ अप्रत्यक्ष रीति से। सामने एक जरा-जीर्ण, कुष्ठ−रोग से पीड़ित मनुष्य को देखकर कुछ लोग घृणा से मुँह फेर लेते हैं। पर कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनके हृदय में ऐसे दृश्यों से दया-भाव का संचार होता है, और वे उसकी सेवा में तत्पर ही जाते हैं। ऐसे ही लोग जब इन असहाय और दयनीय मनुष्यों की अवस्था का चित्र खींच देते हैं, तब संसार मुग्ध हो जाता है। वीभत्स वस्तु के दर्शन से साधारण मनुष्यों के हृदय में घृणा और भय के भाव उदित होते है। पर, तो भी, वह कविता का एक प्रधान विषय समझा गया है। जिस किसी को वीभत्स-रस की अवतारणा में सफलता हुई है, उसे कला-कोविदों में अच्छा स्थान मिला है। वीभत्स में सौंदर्य का दर्शन करना कला की कुशलता है। तात्पर्य यह कि सौंदर्य वस्तुगत नहीं है। वह केवल मन की एक अवस्था है। अतएव सौंदर्य के इस स्पष्टीकरण से कला-कोविदों का उद्देश्य है। ग्रीक-जाति में कभी धर्म का दूसरा नाम सौंदर्य था।
यूरोप में प्रागैतिहासिक काल के चित्र पाए गए हैं। स्पेन के उत्तर में अल्टा मीरा नाम की पुरानी गुफ़ाएँ हैं। उनकी छतों पर कितने ही रंगीन चित्र अंकित हैं। विद्वानों की राय है कि इन चित्रों के लिए उस गुफ़ा के आदिम निवासियों ने इतना परिश्रम क्यों किया? क्या यह उनके अंध-विश्वास का फल है? कुछ लोगों की राय में प्राचीन काल के मनुष्यों की यह धारणा थी कि जिन जंतुओं का चित्र वे खींच रखेंगे, वे उनके वशीभूत हो जाएँगे। कदाचित् चित्र-रचना, मूर्ति-पूजा की तरह, उनके धार्मिक विश्वास का परिणाम हो। अथवा यह भी संभव है कि ललित कलाओं की सृष्टि से जो आनंद होता है, उसी की उपलब्धि के लिए उन्होंने यह चित्रांकन किया हो। कुछ हो, इसमें संदेह नहीं कि जिन जंतुओं के चित्र खींचे हैं, उनसे उनका घनिष्ट-रक्त-मांस का संबंध था। उन्हीं से उनके प्राणों की रक्षा होती थी, और उन्हीं से वे अपने शरीर की रक्षा करते थे। अतएव जिनसे उनका यह संबंध था, उनको कल्पना द्वारा, रेखांकित कर, पुनर्जन्म देना उनके लिए सर्वथा स्वाभाविक था। यही तो कला का एकमात्र उद्देश्य है। विश्व से मनुष्य का जो संबंध है, विश्व मनुष्य के पास जिस रूप में प्रकट होता है, विश्व की सामग्री से मनुष्य जो आनंद, संतोष और सुख-दुःख का अनुभव करता है, उसी को वह प्रकाशित करने की चेष्टा करता है। एक ओर अनंत विश्व-प्रकृति नित्य नवीन रूप धारण कर उपस्थित होती है, और दूसरी ओर मनुष्य विश्व की ज्ञेय और अज्ञेय शक्ति के आवर्त में पड़कर उसक रहस्य खोलने की चेष्टा कर रहा है। वह सदैव यह जानने के लिए उत्सुक रहता है कि विश्व क्या है? हमसे उसका क्या संबंध है? जीवन की सार्थकता क्या है? मानव-जीवन की इन्हीं भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कला की सृष्टि होती है। जीवन के संबंध में कला-कोविद को जितनी अभिज्ञता रहती है, जो विश्वास रहता है, उसे ही वह अपने चित्रों में प्रकट करता है।
चीन की सभ्यता बड़ी प्राचीन है। प्राचीन काल में भी वह अपने कला-कौशल के लिए विख्यात था। चीन की चित्र-कला में एक विशेषता है, जो उसी की संपत्ति है। आगे हम उसी विशेषता का उल्लेख करते हैं।
यूरोप में लोगों की यह धारणा हो गई है कि कला का जन्म मनुष्यों की स्वाभाविक अनुकरण-प्रवृत्ति का फल है। परंतु यह भ्रम है। इसमें संदेह नहीं कि अनुकरण में भी एक विशेष सुख है। परंतु जो सुख सृष्टि करने में है, वह अनुकरण करने में नहीं। जो है, उसकी नक़ल करने से मनुष्य तृप्त नहीं हो सकता। वह यह सोचता है कि यह तो है ही, इसमें हमारा कर्तृत्व कहाँ? हम तो जगत् को वह देना चाहते हैं, जो हमारा हो।
यूरोप के चित्र देखने से यह ज्ञात होता है कि वहाँ के चित्रकार अपने विषय पर कितना दख़ल रखते थे। परंतु इससे क्या हम यह कह सकते हैं कि माइकेल एंजलो ने शरीर-विद्या का रहस्य जानने के लिए अपने चित्रों की रचना की है? चित्र का प्राण आकृति नहीं है। हाँ, आकृति में उसका प्राण रहता है। आकृति केवल एक उपाय-मात्र है, जिसके द्वारा चित्रकार अपने उद्देश्य को व्यक्त करता है।
पाश्चात्य चित्रों में पूर्णता की ओर चित्रकारों की प्रवृति ख़ूब देख पड़ती है। यही कारण है कि चित्र की सभी बातें चित्र में ही ख़त्म हो जाती हैं। फिर कुछ शेष नहीं रह जाता। परंतु चीनी चित्रकारों में ऐसी पूर्णता का आदर नहीं है। उनका कथन है कि जहाँ पूर्णता है, वही अंत है, वही मृत्यु है। इसीलिए वे ससीम को स्वीकार नहीं करते। यही कारण है कि चीन के चित्रों में इतना शून्य स्थान रहता है कि उसमें हमारी कल्पना निर्बाध विचरण कर सकती है। चीन के चित्रकारों ने विश्व की जीवनी-शक्ति को मनुष्य की प्रकृति में व्यक्त करने की आवश्यकता कभी नहीं समझी। उन्होंने गति अथवा शक्ति के रूप में भगवान् की कल्पना की है। जीवन की अपरिवर्तनीय गति के भीतर जो नित्य नियत परिवर्तन हो रहा है, उसे उन लोगों ने ग्रहण किया है। चीनी चित्रों में यह दृश्य प्रायः ख़ूब अंकित किया जाता है कि कोर्इ कवि जल-प्रपात की शोभा देख रहा है। जल-प्रपात ही जीवन का स्वरूप है। उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होते रहते हैं। परंतु देखने से यही प्रतीत होता है कि जलधारा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। आकाश में जिस प्रकार हंसों का दल उड़ता चला जाता है, उसी प्रकार हम लोग भी घूमते रहते हैं। पर हम लोग श्रांत नहीं होते, अपनी यात्रा के अवसान के लिए अधीर नहीं होते। जिस गति का शेष नहीं, जो अनंत और शाश्वत है, उसी के अंतर्गत होकर हम लोग परमानंद प्राप्त करते हैं।
चीन की दृश्यांकन-कला पर स्वीडन के एक विद्वान् ने यह सम्मति दी थी−
“If one wished to describe in one word the essential character and ultimate aim of Chinese Landscape-painting, that word should be infinity. All that to the artist is implied in that world of freedom from the fetters of the material world, of visionary suggestion, of contemplation of the hidden mysteries of nature reflected in his soul, flows as an under-current through the whole wealth of landscapes in monochrome produced during the Sung period. These landscapes are no mere representations of nature in the sense commonly attributed to this term, but impressionistic renderings of inner moods rather than of outward appearances. In them the objective motive seems to sink completely into the peaceful depths of the creative soul and to reissue brighter and stronger, replete with an inner life that is suggested by means of tone and rhythm.”
अर्थात् यदि एक ही शब्द में कोर्इ चीन की दृश्यांकन-कला की विशेषता कहना चाहे, तो उसके लिए वह शब्द ‘अनंत भावना’ है। चीन के दृश्य चित्रों में इसी भावना का स्रोत वह रहा है, जिससे सांसारिक बंधनों से मुक्ति, कल्पना की अभिव्यक्ति और अंतरात्मा की विश्व-चिंता सूचित होती है। इन चित्रों में प्रकृति का बाह्य दृश्य अंकित नहीं है, किंतु अंतःकरण पर उसका जो चित्र उदित होता है, यही इनमें परिस्फुट हुआ है। इनमें वस्तु-विशेष का उद्देश्य आत्मा में लीन हो जाता और फिर अंतर्जीवन से युक्त हो, विशेष प्रभावनन्वित होकर प्रकट होता है।
मनुष्य वर्तमान में व्यस्त रहता है, और भविष्य की उसे चिंता रहती है। परंतु अतीत से उसका कोर्इ संपर्क नहीं। तो भी वह अतीत से अपना संबंध नहीं छोड़ना चाहता। मनुष्य का ज्ञान-क्षेत्र परिमित है। अतीत में कुछ ही दूर तक उसका ज्ञान पहुँचता है। परंतु वह उतने ही से संतुष्ट नहीं होता। वह कल्पना के बल से अनादि और अनंत अतीत के गह्वर में प्रवेश करता है। जो विद्वान् हैं, सत्य-ज्ञान के उपासक हैं, वे मनुष्य की इस चेष्टा का उपहास करते हैं। उन विज्ञों की राय है कि ऐसी कल्पनाओं से कोर्इ लाभ नहीं। जब मनुष्य अतीत काल के किसी अज्ञात राक्षस-नरेश की कथा कहता है, तब ऐतिहासिक उसके अस्तित्व का प्रमाण जानना चाहते हैं। जब मनुष्य किसी दस सिर और बीस हाथवाले एक वीर की कल्पना करता है, तब कृतविद्य पुरुष उसकी मूर्खता पर आश्चर्य करते हैं। तो भी मनुष्य इन काल्पनिक कथाओं को छोड़ना नहीं चाहता। इन कथाओं में असंभव बात कोर्इ नहीं है। नदी में डालते ही घोड़ा मनुष्य हो जाता है, मृत मनुष्य जीवित हो जाता है, जीवित मनुष्य तोता हो जाता है। मनुष्य अतीत के रहस्यागार से ऐसी ही घटनाओं से पूर्ण कथाओं का संचय करता है। मनुष्य ऐसा क्यों करता है? ऐसा करने का कारण यह है कि वह अनंत अतीत की संतान होने के कारण अतीत की अक्षय निधि का अधिकारी है। अतीत काल के गह्वर में कितनी जीवन-धाराएँ आकर लुप्त हो गई हैं, इसका क्या कोर्इ पता पा सकता है? अतीत के अंतस्तल पर जितने रत्न बिखरे पड़े हैं, उतने क्या वर्तमान में उपलब्ध हो सकते हैं? यदि नहीं, तो मनुष्य उन पर से अपना अधिकार क्यों छोड़ दे? अतीत में उसका गौरव है; अतीत में उसके जीवन का मूल है; अतीत में उसके जीवन का अधिकांश भाग है। वर्तमान में तो उसका जीवन बड़ा क्षुद्र है। तब वह अनंत जीवन पर अपना अधिकार क्यों न रखे? यही कारण है कि ‘अतीत’ कला का प्रधान विषय है। अब भी कल्पना के बल से मनुष्य उसमें सौंदर्य देखता और उससे एक अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव करता है। राम और सीता को क्या कोर्इ हिंदू प्रत्यक्ष नहीं देखना चाहता? उसकी वह इच्छा स्वाभाविक है। इसीलिए वह अपनी कल्पना से उनके चित्र अंकित करता है। इसी प्रकार वह अपने को उन अज्ञेय पूर्वजों की स्मृति में अपनी कल्पना का प्रयोग करता है, जो विस्मृति के गर्भ में लीन हो गए हैं।
मनुष्य अतीत की जो कल्पना करता है, उसमें एक चिरंतन सत्य निहित है। वह सत्य यह कि मनुष्य सभी देशों और सभी समयों में मनुष्य ही बना रहता है। इसी मनुष्यत्व के ज्ञान पर धर्म प्रतिष्ठित है। जो लोग काल्पनिक साहित्य की उपेक्षा करते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि हम में सदाचार का जो ज्ञान है, वह इसी काल्पनिक साहित्य की बदौलत। विज्ञान की ऐसी कोई शाख़ा नहीं है, जो हमें यह बतला सके कि हमारे दैनिक जीवन में सत् कौन है, और असत् कौन। संसार में हम जो कुछ सत् और महत् देखते हैं, उसे मनुष्य ने अपने अंतर्जगत् में ही प्राप्त किया। कहा जाता है, ईश्वर ने मनुष्य की सृष्टि की है। ईश्वर के विषय में जो ज्ञान प्रचलित है, वह किसी बाह्य प्रेरणा-धर्म-शास्त्र अथवा दर्शन-शास्त्र-का फल नहीं है। ये धर्म-शास्त्र और दर्शन-शास्त्र स्वयं उस ज्ञान के फल हैं। धर्म के जितने मूल-सिद्धांत हैं, वे सर्वत्र एक हैं। इसका कारण यह है कि वे मनुष्य के मनुष्यत्व से संबंध रखते हैं। अतएव देश और काल के कारण उनमें विरोध नहीं हो सकता। अतीत काल की जो कथाएँ आज तक बराबर चली आई हैं, उनमें उसी मनुष्यत्व का वर्णन है। बाल्यकाल में मनुष्य उन्हीं से मनुष्यत्व का आभास पाता है। सत् और असत् का जो ज्ञानांकुर उसके हृदय में जड़ जमा लेता है, उसका बीज उन्हीं में है।
अच्छा, यह मनुष्यत्व है क्या? इसे एक शब्द में ‘प्रेम’ कह सकते हैं। किसी कवि का कथन है कि प्रेम ही स्वर्ग है, और स्वर्ग ही प्रेम। प्रेम ही के कारण हमें असत्य से घृणा है; क्योंकि असत्य से प्रेम की रक्षा नहीं होती। ईश्वर का ज्ञान इसी प्रेम-भाव पर अवलंबित है। समाज का संगठन भी इसी प्रेम के आधार पर हुआ है। मतलब यह कि मनुष्य जो कुछ है, सो प्रेम ही के कारण। अतीत के रहस्यागार से मनुष्य उसी प्रेम को निकालता है। जितनी पौराणिक कहानियाँ प्रचलित हैं, उनमें हम प्रेम का परिणाम देखते हैं।
स्त्री और पुरूष में परस्पर जो आकर्षण है, उसका भी कारण प्रेम है। जब यह प्रेम-भाव संकुचित हो जाता है, तब उसकी महत्ता नष्ट हो जाती है। प्रेम पर अनंत अवलंबित है, अतएव वह स्वयं सीमा-बद्ध कैसे हो सकता है? इसी कारण अनंत प्रेम के लिए सीमा-बद्ध प्रेम का परित्याग किया जाता है। इसी कारण भगवान् बुद्ध ने राज्य का परित्याग किया, और भगवान रामचंद्र ने अपनी सती सीता का। ग्रीस-देश में एक पौराणिक कथा प्रचलित है। उसमें थिसीयस ने अपनी परिणीता स्त्री का त्याग किया। परंतु उसने एक क्षुद्र प्रेम के लिए महत् प्रेम का परित्याग किया, इसीलिए उसका यह कृत्य नीच समझा जाता है। त्याग का भाव महत् है। ‘अवदान-शतक’ में ‘श्रेष्ठ भिक्षा’ नाम की जो कथा है, उसमें त्याग का एक दूसरा रूप दिखलाया गया है। उसकी कथा यों है−
कोई मिक्षु भगवान् बुद्ध के लिए सर्वश्रेष्ठ भिक्षा प्राप्त करने के विचार से निकला। वह नगर में ख़ूब घूमता रहा। किसी ने वस्त्र दिए, किसी ने भूषण, किसी ने कनक और किसी ने रत्न। परंतु भिक्षु को किसी से संतोष न हुआ। अंत को एक दरिद्र स्त्री मिली। उसके पास कुछ न था। वह केवल एक कपड़ा पहने थी। उसने वृक्ष की आड़ से अपना एकमात्र वस्त्र उतारकर भिक्षु को दे दिया। भिक्षु कृतकृत्य हो गया। यह सर्वस्व-समर्पण। ईसाई-धर्म के इतिहास में भी एक ऐसी ही कथा प्रसिद्ध है। ईसाई भक्तों में एलिज़ाबेथ का चरित्र प्रात:स्मरणीय है। वह आजन्म तपस्विनी रही। उसने सर्वस्व त्याग कर, यहाँ तक कि वस्त्र छोड़कर, संन्यास ग्रहण किया। एक चित्रकार ने उसके इस आत्मोसर्ग का चित्र अंकित किया है। वह जितना ही हृदय-द्रावक है, उतना ही पवित्र।
प्रेम ही में सेवा का भाव विद्यमान रहता है। स्वयं कष्ट सहकर दूसरे का साथ देना प्रेम का परिचायक है। हिंदू-स्त्री पति के लिए सभी कष्ट सहने को सदैव प्रस्तुत रहती है। हिंदुओं की पौराणिक कथाओं में ऐसी अनेक स्त्रियों के चरित्र वर्णित हैं। दमयंती की कथा प्रसिद्ध है। यहूदी-धर्मशास्त्र में रूथ नाम की एक स्त्री का चरित्र आदर्श वधू के रूप में अंकित किया गया है। पति की मृत्यु होने पर वह पुत्र-शोक से आतुर सास को छोड़कर नहीं गई। उसने खेतों में जाकर और दाने बीनकर अपनी वृद्धा सास की प्राण-रक्षा की।
प्रेम मनुष्य को सदैव महत् भाव की ओर आकृष्ट करता है। अब विचारणीय यह है कि जब मनुष्य के स्वभाव में प्रेम-भाव विद्यमान है, तब उसका पतन क्यों होता है? उत्तर यह है कि जब प्रेम संकुचित हो जाता है, तब उसमें त्याग का भाव नहीं रहता। तब यह लालसा का रूप धारण कर लेता है। लालसा में केवल आकर्षण होता है। इस आकर्षण का कारण है इंद्रिय-वृत्ति। प्रेम मनुष्य की स्वाभाविक उद्दाम वृत्तियों को संयत रखता है; परंतु लालसा उनको और भी उत्तेजित कर देती है। उसका अंत सदैव दुःखमय होता है। अतएव प्रेम के वैपरीत्य से मनुष्य को असत् का ज्ञान हो जाता है। जो कुछ प्रेम के विपरीत है, यही पाप है।
प्रेम मनुष्यत्व का मूल है, और मनुष्यत्व में कला का मूल मौजूद है। कला के आदर्श के संबंध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। कुछ विद्वानों की राय में कला का आधार नैतिक आदर्श होना चाहिए। कुछ लोग यह समझते हैं कि कला का आदर्श कला होनी चाहिए। सभी देशों में ऐसे विशुद्ध कला-निदर्शक आदर्श पाए जाते हैं। उदाहरण के लिए कोई चित्र लीजिए। हम एक पाश्चात्य चित्रकार कैलडेरन का ‘प्रोवेंस-देश का गुलाब’ नामक एक चित्र लेते हैं। इसमें नारी-सौंदर्य का एक रूप व्यक्त हुआ है। प्रोवेंस दक्षिण-फ़्रांस में है। प्राचीन कवियों ने सुरा, गुलाम और रमणी के कारण इसकी प्रसिद्धि कर दी है। इस चित्र में कोई नैतिक आदर्श नहीं है। इसमें विशुद्ध सौंदर्य है। इसी प्रकार एक दूसरा चित्र वासंती है। उसमें उसी चित्रकार ने वसंत-काल की ‘श्री’ को एक स्त्री का रूप दिया है। दोनों चित्रों का उद्देश्य स्पष्ट है। वह है सौंदर्य का विकास। विचारणीय यह है कि इस सौंदर्य-विकास में मनुष्यत्व का कौन-सा भाव प्रकट हुआ है?
मनुष्य, चाहे उसकी आत्मा कहिए या शरीर, किसी बाह्य शक्ति के द्वारा संसार में ठेल नहीं दिया गया; वह स्वयं विकसित हुआ है। ‘एकोऽहं बहु स्याम्’−वह एक रूप में ही भिन्नता को प्राप्त हुआ है। अतएव समस्त विश्व से उसका घनिष्ठ−रक्त-मांस का−संबंध है। यदि मूक प्रकृति की शोभा देखकर हमारा हृदय प्रफुल्लित हो जाता है, तो उसका कारण यह है कि उसके साथ हमारी सहानुभूति है। इसी संबंध को प्रकट करने के लिए प्राचीन काल के विद्वानों में प्रकृति में मनुष्यत्व का भाव आरोपित किया था। वह सत्य-युग था, जब मनुष्य वृक्षों से बातचीत करते, नदियों से वैवाहिक संबंध तक जोड़ते, और पशु-पक्षियों को अपना कुटुंबी समझते थे। कला में हम विशुद्ध सौंदर्य के द्वारा मनुष्य की इसी स्वाभाविक सहानुभूति को जाग्रत करते हैं। मनुष्य के साथ मनुष्य का स्वाभाविक संबंध हैं चाहे वह उच्च हो, अथवा नीच, महात्मा हो अथवा दुराचारी। एक दुराचारी का जीवन-उसका सुख-दुख, आशा-निराशा और उत्थान-पतन-हमारे लिए उतना ही है। विश्व से मनुष्य का जो संबंध है, विश्व की साम्रगी से वह जिस आनंद और संतोष, सुख और दुःख, आशा-निराशा और उत्थान-पतन-हमारे लिए उतना ही घनिष्ठ है, जितना एक महापुरुष का जीवन। हमारी समझ में कला की दृष्टि यही है। विश्व से मनुष्य का जो संबंध है, विश्व की सामग्री से वह जिस आनंद और संतोष, सुख और दुःख का अनुभव करता है, इसी कला के द्वारा प्रकाशित करता है। यदि कला में इस संबंध की उपेक्षा की गई है, तो यह श्रेष्ठ कला नहीं है। ऐसी कला से मनुष्य में सहानुभूति की उत्पति होनी चाहिए। किसी कामुक के दुराचार का वर्णन अथवा कामेद्दीपक सौंदर्य का प्रदर्शन कला का उद्देश्य नहीं हो सकता; क्योंकि इससे मनुष्यत्व का भाव नष्ट हो जाता है, मनुष्य पशु हो जाता है। यदि इस दृष्टि से कला के आदर्श पर विचार किया जाए, तो कोई भी मतभेद नहीं हो सकता। सत् और असत् का संबंध मनुष्य के जीवन से है। नीति-शास्त्र का उद्देश्य मनुष्य को सत् की ओर प्रवृत्ति कराना है। सत् वही है, जिसमें मनुष्य का यथार्थ रूप प्रकट होता है। कला का भी उद्देश्य यही है। कुत्सित, असत्य और असत्, इनमें कोई भेद नहीं है। असत्य से कभी कल्याण नहीं हो सकता, और न सत्य से कभी हानि। अतएव जो कला सत्य का अनुसरण करेगी, उससे मानव-जाति का कल्याण ही होगा।
कुछ विद्वानों की राय है कि आधुनिक कला अपने आदर्श से च्युत हो गई है। आधुनिक सभ्यता ने उसको जीवन का एक अडंबर बना दिया है। प्रश्न यह है कि क्या कला का यही रूप बना रहेगा? क्या उससे मनुष्य कुछ भी प्राप्त न कर सकेगा? सभ्यता से कला का संबंध अवश्य होना चाहिए; क्योंकि सभ्यता के केंद्र-स्थान नगरों में कला का विकास होता है। सभ्यता में विलासिता का ऐसा समावेश हो गया है कि कला भी विलासिता की एक वस्तु समझी जाती है। दुर्भिक्ष-पीड़ित देशों में रैफ़ल के चित्रों से लोगों को संतोष नहीं हो सकता। मतलब यह है कि देश की समृद्धावस्था में ही कला आदरणीय हो सकती है। कला जीवन की वस्तु नहीं है; वह सभ्यता का अलंकार है। साधारण लोगों की यही धारणा है। अतएव आज हम यह विचार करना चाहते हैं कि कला के द्वारा मानव-समाज का कुछ कल्याण होता है या नहीं?
मनुष्यों के समुदाय का नाम समाज है। एक संबंध-सूत्र रहने से ही भिन्न-भिन्न मनुष्य, अपने भेद-भाव को भूलकर, एकत्र रहते हैं। समाज का कल्याण इसी में है कि मनुष्यों का यह संबंध-सूत्र दृढ़ बना रहे। जब यह संबंध सूत्र शिथिल हो जाता है, तभी मनुष्यों में वैमनस्य और शत्रुता का भाव प्रबल हो उठता है। अतएव जीवन की वही अवस्था समाज के लिए श्रेयस्कर है, जिसमें मनुष्य अपने पड़ोसियों के साथ मिलकर रह सके। समाज का मूल सहयोगिता है, और यह सहयोगिता मनुष्य की स्वाभाविक सहानुभूति पर निर्भर है। यदि मनुष्य दूसरों के सुख-दुःख का अनुभव न कर सके, तो उसका जीवन सार-हीन हो जाए। संसार की सर्वश्रेष्ठ वस्तु को पाकर भी मनुष्य संतुष्ट नहीं हो सकता, यदि वह केवल उसी की भोग्य वस्तु है। अतएव जब किसी आनंद पर मनुष्य का अधिकार हो जाता है, तब वह दूसरों को भी उस आनंद का अधिकारी बनाता है। वह आनंद स्वास्थ्य और चरित्र पर निर्भर है। समाज में उसी को सदाचार कहते हैं, जिससे उस आनंद की वृद्धि होती है। सत् और आनंद में कोई भेद नहीं है। जो सत् है, वही आनंद-दायक है। यदि असत् की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति होती है, तो हमें जान लेना चाहिए कि मनुष्य में नीति-परायणता का अभाव है। कला मनुष्य की इसी नीति-परायणता को उद्बोधित करती है। जो यथार्थ में सुंदर है, वह मनुष्य के हृदय को उन्नत करता, उसे पवित्र करता है। यही कारण है कि दैनिक जीवन में भी कला का व्यवहार होता है। दरिद्र भी अपनी कुटी में सौंदर्य का अनुभव करना चाहता है। पवित्रता में सौंदर्य है, इसी से मनुष्य सदैव पवित्र रहने का प्रयत्न करता है। इसके सिवा वह दैनिक व्यवहार की वस्तुओं को भी सुंदर बनाने की चेष्टा करता है। मनुष्य की इसी स्वाभाविक प्रवृत्ति से कला की उत्पति होती है। श्रेष्ठ चित्रकारों के चित्र इसी का फल है, इसलिए उनसे सत् का ही प्रचार होता है। ‘मेरी’ और यशोदा की मातृमूर्तियाँ रमणी को मातृत्व की महत्ता बतलाती हैं। न्यूयॉर्क की स्वाधीनता-मूर्ति मनुष्य में स्वाधीनता का भाव जाग्रत करती है। इस प्रकार कला मनुष्य के स्वभाव को प्रबुद्ध कर उसकी बुद्ध-वृत्ति को चैतन्य कर देती है, और तभी उसमें आत्मत्याग का भाव उत्पन्न होता है। इसी आत्मत्याग पर समाज का कल्याण निर्भर है। और इसी से मानव चरित्र उन्नत होता है, और इसी से हर एक मनुष्य अन्य सभी मनुष्यों में आत्मभाव आरोपित कर सकता है। विश्व की सभी वस्तुओं में हम विश्वकर्मा की सौंदर्य-निपुणता का आभास पाते हैं। जर्मनी के एक कवि ने बिल्कुल ठीक कहा है कि हम जितनी ही अधिक वस्तुओं को अपने हाथ में करते हैं, उतनी ही अधिक, हमारे जीवन में, आनंद की वृद्धि होती है। जूता बनाने अथवा महाकाव्य लिखने में, दोनों में मनुष्य की कर्तृत्व-शक्ति है, और दोनों उसी महत्ता को प्रकट कराते हैं। उपेक्षणीय कोई भी नहीं है। दोनों कलाओं की उन्नति से समाज का कल्याण होता है; क्योंकि उनसे मनुष्य की सौंदर्यानुभूति का विकास होता है। परंतु दैनिक जीवन के व्यवहार में ही कला की उपयोगिता नहीं है। मनुष्य का एक अनंत जीवन भी है। कला उस जीवन को भी पुष्ट करती है। मनुष्य का एक अनंत जीवन भी है। कला उस जीवन को भी पुष्ट करती है। मनुष्य की सभी वासनाएँ इस लोक में परिमित नहीं रहतीं। उसकी कुछ ऐसी भी इच्छाएँ होती हैं, जो उसको इस लोक से हटाकर एक अपार्थिव लोक में ले जाना चाहती हैं। उसी लोक में वह अपने जीवन की पूर्णावस्था देखता है। अतएव जब कला ऐसी इच्छाओं को जगाती हैं, तब मनुष्य में असंतोष और अतृप्त आकांक्षा का भाव प्रबल हो जाता है। उस समय वह जीवन का रहस्य जानने के लिए व्याकुल हो उठता है।
आधुनिक युग में मनुष्य ने ऐहिक सौंदर्य का उच्चतम आदर्श देख लिया है। परंतु उससे उसको संतोष नहीं हुआ। उसका यह असंतोष आधुनिक साहित्य और कला में प्रकट होने लगा है। आधुनिक कवियों और कला-कोविदों का लक्ष्य मनुष्य का अंतर्जगत् हो गया है। आधुनिक मूर्तिकारों में डेविड एड्रस्ट्रेस का बड़ा नाम है। उसने अपनी मूर्तियों में मानव-जीवन का समस्त रहस्य-उसका मूल, उसका उद्देश्य, उसका विकास और उसका परिणाम-बड़े कौशल से व्यक्त किया है। अँग्रेज़ी में एक कहावत है कि विचार ही वस्तु है। इस कथन में सत्यता है। एड्रस्ट्रेस की कल्पना इसी प्रकार की है। उसमें वैसी ही दृढ़ता है। पत्थरों के ऊपर उसने जो विचार प्रकट किए हैं, वे जीवन-संग्राम में पीड़ित मनुष्यों को शांति प्रदान करेंगे। कला में उसका ‘विजयी मानव’ महाकाव्य के समान सदैव अमर रहेगा।
प्राचीन ग्रीक-शिल्प-कला में लाओकून (Laocoon) नामक मूर्ति बहुत प्रसिद्ध है। अदृष्ट शक्ति के हाथ में पड़कर मनुष्य किस प्रकार एक खिलौना बन जाता है, यही उस मूर्ति में प्रकट किया गया है। लाअकून ‘ट्रॉय’ में ऑपलो के देव-मंदिर का पुरोहित था। उसके ग्रीक लोगों के विरोधी होने के कारण ‘मिनर्वा’ उस पर क्रुद्ध हो गई। ग्रीक-पुराणों में मिनर्वा ‘शक्ति’ की देवी है। क्रोध के आवेश में मिनर्वा ने उसके दो पुत्रों पर अजगर छोड़ दिए। उनको बचाने के लिए लाओकून गया, तो वह स्वयं नाग-पाश में बँध गया। इसी कथा का एक ग्रीक-शिल्पकार ने पत्थर में प्रत्यक्ष कर दिखाया है। इस मूर्ति को देखकर एड्स्ट्रेम ने एक दूसरी मूर्ति गढ़ने का विचार किया। लाओकून मनुष्य के पराजय की प्रतिमूर्ति है; परंतु एड्स्ट्रेम ने मनुष्य-विजय को प्रदर्शित करने का निश्चय किया। ‘विजयी-मानव’ उसी निश्चय का फल है। वहाँ भी साँप और मनुष्य में युद्ध हो रहा है। परंतु मनुष्य पराभूत नहीं हुआ है। जय-श्री उसी ने प्राप्त की है। विजयी मानव के चारों ओर चार चित्र खोदे गए हैं। प्रथम चित्र में मनुष्य ने अपनी विचार-शक्ति द्वारा विज्ञान की कितनी उन्नति की है। तीसरे चित्र में मनुष्य के सौंदर्य-ज्ञान का आभास मिलता है। इसमें शिल्पी ने ललित कला द्वारा मनुष्य का विजयोल्लास दिखलाया है। चतुर्थ चित्र का विषय है देशात्मबोध, आत्मत्याग, परोपकार और धर्म-कर्म द्वारा सिद्धि-लाभ। इन चित्रों के साथ स्तंभस्थित युवकों की मूर्तियाँ देखने से शिल्पकार का उद्देश्य स्पष्ट हो जाता है। मनुष्य पाप के विरुद्ध लड़ते-लड़ते उन्नति करता और अपने पुरुषार्थ द्वारा अदृष्ट के निष्ठुर परिहास को व्यर्थ कर देता है। यदि ये तीन मूर्तियाँ शिक्षा, एकाग्रता और दृढ़ प्रतिज्ञा को प्रकट करती हैं। यदि ये तीनों मिलकर चेष्टा करें, तो सभी कार्यों में सिद्धि प्राप्त हो सकती है। ‘विजयी मानव’ के उक्त विवरण से यह प्रकट हो जाता है कि आधुनिक कला का लक्ष्य क्या है। प्राचीन युग के शिल्पकार पत्थरों में मनुष्य के शारीरिक सौंदर्य को व्यक्त करने की बड़ी चेष्टा करते थे। परंतु आधुनिक शिल्पकार ने अपना आदर्श बदल दिया है। रोदाँ, मेस्ट्रोविक आदि शिल्पकारों ने देह को विकृत करके भी आत्मा के रहस्य को पाने की चेष्टा की है। फ़्रांस के प्रसिद्ध शिल्पकार बोरडेले का भी यही उद्देश्य है। उसने शरीर को उतना ही अंकित किया है, जितना भावाभिव्यक्ति के लिए आवश्यक था।
बोरडेले की कृतियों में सर्वत्र एक ही आदर्श का अनुसरण नहीं किया गया। पहले-पहल उसने जितनी मूर्तियाँ निर्मित की, उन पर ग्रीक-आदर्श का प्रभाव स्पष्ट है। उसकी ‘मेरी’ की मूर्ति फ़्रांस की कला का नमूना है, और ‘जोन ऑफ़ यार्क’ में मध्य-युग का आदर्श विद्यमान है। बोरडेले की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसने कला में वीरत्व का निर्माण किया है। कला में लालित्य से उन्माद आता है; परंतु वीरत्व से उत्साह का संचार होता है। आधुनिक कला में वीरत्व की उपेक्षा-सी हो रही थी। बोरडेले ने कला का यथार्थ पथ निर्दिष्ट कर दिया।
आधुनिक कला की जो स्थिति है, उसका दिग्दर्शन यहाँ कराया जा चुका। अब विचारणीय यह है कि भविष्य में उसका क्या आदर्श होगा? कुछ समय पहले, वायना के पत्र में, एक विद्वान् ने एक लेख प्रकाशित किया था। धर्म किधर जा रहा है, और भविष्य में वह कैसा रूप धारण करेगा, इस विषय का विचार करते हुए उसने अपने लेख में कला को ऊँचा स्थान दिया है। उसके कथन का सारंश यह है−
“भविष्य में वीरात्मक तथा सौंदर्यात्मक धर्म के आचार्यों तथा पैग़ंबरों का पद कला-कोविदों को प्राप्त होगा। सच्ची कला केवल सौंदर्यात्मक ही नहीं होती; वह वीरात्मक भी होती है। इस नए धर्म में ही पहले-पहल कला का उचित स्थान निर्दिष्ट होगा। ईसाई-धर्म ने कला का उपयोग अनावश्यक भूषण के रूप में ही किया है। सभ्यता का नया युग उसका आशय समझने में असमर्थ रहा। परंतु भविष्य धर्म उसे अपने मंदिर में स्थापित करेगा।”
कला कौन-सा कार्य करती है? वह मनुष्यों को ऐक्य में बाँधती, उन्हें शक्ति प्रदान करती और विद्रूप तथा साधारण स्थान में कला का धार्मिक संदेश राजनीतिक तथा शिक्षात्मक ही होगा। वह केवल सर्व-साधारण के मनोविनोद की सामग्री ही नहीं देगी, किंतु मनुष्य-जाति के आगे एक नया संदेश, नया धर्म भी उपस्थित करेगी।
वह भविष्य धर्म उत्तरी तथा दक्षिणी यूरोप के पैगन-धर्म के साथ उस संपूर्ण सौंदर्य को ग्रहण करेगा, जो ईसाई-धर्म ने यूरोप को दिया है। यद्यपि ईसाई-धर्म का लोप हो जाएगा, तथापि वह अपनी सौंदर्य-संपत्ति अपने आध्यात्मिक उत्तराधिकारियों के लिए, उनको समृद्धिशाली होने को, छोड़ जाएगा। सौंदर्य तथा वीरता के धर्म को वह प्रेम का भाव दे जाएगा।
यह सच है कि जगत् और प्रकृति भलाई और बुराई के क्षेत्र के बाहर स्थित हैं; पर वे विधान के बाहर नहीं हैं। वे सदाचार नहीं, परंतु सुंदर हैं। उनका विधान ऐक्य है, जो अणु से लेकर ग्रह-मंडल तक सभी वस्तुओं पर शासन कर रहा है। देवता-संबंधी नैतिक विचार में ऐसी अस्थिरता है कि उसके कारण हम पहले युक्त्याभास की राह में पड़े, और बाद को नास्तिक हो गए। परंतु ईश्वर का सौंदर्यात्मक विचार ही हमें इस खंदक से बाहर निकालता और ईश्वर तथा वास्तविक बातें, दोनों को हमारे लिए सुरक्षित रखता है। सदाचार की जड़ मानव-समाज में है, और सौंदर्य-विज्ञान की दैवी प्रकृति में।
प्राकृति का एक काम है। वह फूल खिलाती, वृक्ष उगाती और जीव-जंतुओं को उत्पन्न करती है। वह सभी को सुंदर, बलवान् और पूर्ण बनाती है। प्रत्येक वस्तु का यह प्रधान कर्तव्य है कि यह उसके विशेष सौंदर्य को प्राप्त करे।
उच्च सदाचार मनुष्य को यह आदेश देता है कि जो लाभदायक हो, उसे वह ग्रहण करे। वह आदर्शों की आज्ञा का पालन करने की अनुमति देता है। इस परिस्थति में, सौंदर्य की खोज करने से, वीरात्मक आदर्शों का सौंदर्यात्मक आदर्शों के साथ सामंजस्य हो जाता है। प्रत्येक वीरात्मक कार्य सुंदर हो जाता है, और सौंदर्य के लिए आत्मत्याग का प्रत्येक कार्य वीरात्मक हो जाता है।
जिस दिन ऐसा होगा, उसी दिन कला की सार्थकता सिद्ध हो जाएगी।
उपसंहार
किसी विद्वान् ने लिखा था कि साहित्य-शब्द में ही सम्मिलन का भाव विद्यमान है। इसमें संदेह नहीं कि साहित्य सम्मिलन ही का फल है। मनुष्य पृथ्वी पर जन्म लेता है, कुछ काल तक यहाँ सुख-दुख का अनुभव करता है, और अंत में वह अनंत काल के गर्भ में लीन हो जाता है। अधिकांश मनुष्यों का जीवन इसी प्रकार व्यतीत होता है। भविष्य-संसार के लिए वे कोई भी चिह्न नहीं छोड़ जाते। संसार में ऐसे थोड़े ही महापुरुष जन्म लेते हैं, जिनकी कृति अक्षय होती है। साहित्य में महापुरुषों की ही रचनाएँ स्थान पाती हैं; परंतु साहित्य के लिए एकमात्र वही आवश्यक नहीं है। उसमें क्षुद्रों से समाज बनता है। यह समाज अक्षय है। एक जाता है, तो दूसरा उसका स्थान ले लेता है। इस प्रकार मनुष्य-समाज चिरंतन है। समाज में मनुष्य-जीवन का जो स्रोत बह रहा है, उसका न आदि है, न अंत। संसार का जो सर्वश्रेष्ठ महापुरुष है, वह भी इन समाज की उपेक्षा नहीं करता। अनंत काल से ज्ञान की जो निधि संचित होती आ रही है, वह हमें समाज की बदौलत प्राप्त होती है। समाज से ही हमें भाषा का ज्ञान होता है। भाषा समाज की ही सृष्टि है। उसके निर्माण में छोटे-बड़े, सभी संलग्न हैं। सच तो यह है कि साहित्य में संसार से मनुष्य का सम्मिलन होता है। इसमें तीनों युगों का मिलन होता है। कोई भी ऐसा क्षुद्र मनुष्य नहीं, जो इस विराट् सम्मिलन में नहीं सम्मिलित होता। कोई भी ऐसी क्षुद्र कृति नहीं, जिसका इस सम्मिलन में स्थान न हो।
कहा जाता है, साहित्य समाज का प्रतिबिंब है। समाज में परस्पर विरोधी भावों का अभाव नहीं है। साहित्य में भी विरोध देखा जाता है। धर्म, दर्शन, विज्ञान, इतिहास और काव्य, सभी का ध्येय एकमात्र सत्य है। परंतु इनमें कभी-कभी बड़ा भारी विरोध हो जाता है। विचारणीय यह है कि सम्मिलन में यह विरोध कैसा है।
कुछ विद्वानों की राय है कि वर्तामन युग में विज्ञान की आलोचना से धर्म का संहार हो रहा है। जो धर्म भक्ति-प्रधान है, उसका ज्ञान से संपर्क नहीं। इसी से वे ज्ञान के विरोधी कहे जाते हैं। उनके कितने तत्व विज्ञान के आविष्कृत तत्वों से मेल नहीं खाते। जब कभी किसी प्रचलित धर्म अथवा संस्कार के विरुद्ध किसी सत्य की स्थापना की जाती है, तब विश्वास की दुहाई दी जाती है। परंतु सत्य अखंड और संपूर्ण है। परिवर्तन के भीतर सत्य के अखंड रूप को प्राप्त करना ही यथार्थ विश्वास है। यही विश्वास धर्म को भी स्थिरता देता है। यदि किसी धर्म में सत्य है, तो वह सत्य भी विशाल और पूर्ण होगा। जब उसकी सीमा संकुचित कर दी जाती है, तभी धर्म में जड़ता आती है। सत्य उसकी जड़ता को दूर और धर्म को जीवित करता है।
जगत् के समस्त तत्वों के मूल में एक सत्य है। वह सत्य यह है कि एक शक्ति अपने को दो रूपों में प्रकाशित कर रही है। अंतर्जगत् की शक्ति बाह्य जगत् में अपने को व्यक्त करती आ रही है। परंतु इस तत्व को स्वीकार कर लेने से ही काम न चलेगा। मन की एक विशेष अवस्था होती है, जिसको प्राप्त कर लेने से भेद-बुद्धि नहीं रह जाती। जन्म से मृत्यु और मृत्यु से जन्म, वृद्धि से क्षय ओर क्षय से वृद्धि, एक ही वस्तु है। समस्त द्वंद्व के मूल में एक ही अखंड शक्ति विद्यमान है। मन की विशेष अवस्था में उसकी उपलब्धि हो सकती है। अणुओं में विश्व-ब्रह्मांड का स्पंदन स्पंदित हो रहा है। यह केवल न का विषय नहीं, उपलब्धि की सामग्री भी है। क्षुद्र बीज में अनादि और अनंत जीविनी-शक्ति है, जो वृक्ष को संपूर्ण जीवन प्रदान कर स्वयं नष्ट नहीं होती। मस्तिष्क के जीव-कोष में संकोचन और प्रसारण हो रहा है। आत्मा के चारों ओर देह की विचित्र शक्ति व्यक्त हो रही है; रक्त दौड़ता रहता है, स्नायु स्पंदित होते रहते हैं, बाह्य शक्ति भीतर आती और अंतर्जगत् शक्ति बाहर प्रकट होती है। देह मानो इन दोनों शक्तियों का संबंध-सूत्र है। जो भीतर और बाहर एक होकर रहता है, वही उपलब्धि का विषय है। उसका कुछ भी नाम रखा जाए, उसी से प्राचीन विश्वास और आधुनिक विज्ञान में सामंजस्य स्थापित हो सकता है। अनेक एक के विरुद्ध नहीं है; अनेक में ही एक है। सीमा और असीम में विरोध नहीं है, किंतु सीमा में ही असीम है। स्वार्थपरता और परार्थपरता में विरोध नहीं है; स्वार्थपरता में ही परार्थपरता का आविर्भाव होता है। इस प्रकार सब तत्वों का सामंजस्य करना आधुनिक युग की धर्म-साधना है। तभी विज्ञान और धर्म का विरोध दूर हो सकता है।
साहित्य के काव्य और विज्ञान, ये दो बड़े विभाग किए जा सकते हैं। इनकी एकता के संबंध में वसु महोदय ने यह कहा था कि कवि अपनी अंतर्दृष्टि से विश्व में एक ‘अरूप’ को देखता और उसी को वह रूप में प्रकाशित करता है। जहाँ दूसरों की दृष्टि नहीं पहुँचती, वहाँ उसकी दृष्टि अवरुद्ध नहीं होती! कवि की कृति में हमें उसी रूप-रहित देश का आभास मिलता है। वैज्ञानिक का मार्ग इससे भिन्न होता है; परंतु उसकी और कवि की साधना एक होती है। जहाँ दृष्टि-शक्ति के आलोक का अंत हो जाता है, वहाँ भी वह आलोक का अनुसरण करता है। जहाँ श्रुति की शक्ति स्वर की अंतिम सीमा तक पहुँच जाती है, वहाँ से भी वह कंपमान वाणी को ले आता है। जो प्रकाश के अतीत रहस्य के प्रकाश की आड़ में बैठकर दिन-रात काम करता है, उसी से प्रश्न पूछकर वैज्ञानिक उसका उत्तर लाता और उसको मनुष्यों की भाषा में प्रकट करता है। प्रकृति के इस रहस्य-निकेतन में अनेक महल और अनेक द्वार हैं। प्रकृति-विज्ञानवित्, रासायनिक, प्राणि-शास्त्र-विशारद आदि वैज्ञानिक इसके एक-एक द्वार से एक-एक महल में पहुँचते हैं। वहाँ वे यही समझते हैं कि यही महल उनका विशेष स्थान है : दूसरे महल में उनकी गति नहीं है। इसी से उन्होंने जड़, उद्भिद् और चेतन में अलंघ्य रीति से विभाग कर दिया है। एक-एक कमरे की सुविधा के लिए दीवार भले ही खड़ी कर दी जाए; परंतु समूचे महल का अधिष्ठाता एक ही है। सभी विज्ञान अंत में एक ही सत्य का आविष्कार करेंगे। जहाँ उनके भिन्न-भिन्न पथ जाकर मिलते हैं, वहीं पूर्ण सत्य है। कवि और वैज्ञानिक में भेद यही है कि कवि अपने पथ की चिंता तक नहीं करता, आत्मसंवरण उसके लिए असाध्य है; परंतु वैज्ञानिक अपने पथ की उपेक्षा नहीं करता, और पर्यवेक्षण तथा परीक्षण से उसको सदा आत्मसंवरण करना पड़ता है।
आधुनिक पाश्चात्य साहित्य में भिन्नता ख़ूब बढ़ गई है। वहाँ ज्ञान की अनंत शाखाएँ हो गई हैं, और वे सभी अपने को स्वतंत्र रखना चाहती हैं। इसका फल यह हुआ है कि ‘एक’ को जानने की चेष्टा लुप्त हो गई है। ज्ञान-साधना की प्रथमावस्था में इस प्रकार की प्रथा से लाभ ही होता है। इससे उपकरणों का संग्रह और उनको यथाविधि सज्जित करने में सुविधा होती है। परंतु यदि अंत तक इसी प्रथा का अनुसरण किया जाए, तो सत्य के पूर्ण रूप का दर्शन नहीं होता। साधना तो होती रहती है, परंतु सिद्धि अप्राप्य रहती है। इसके विपरीत भारत का सर्वदा यही लक्ष्य रहा है कि ‘बहु’ में ‘एक’ का लोप न हो जाए। इसी चिरकाल की साधना का यह फल है कि हम लोगों को एक के देखने में विशेष बाधा नहीं होती। विश्व-साहित्य का उद्देश्य यही ऐक्य-बोध है। ज्ञान के अन्वेषण में हम सभी एक सर्वव्यापी एकता की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इसीलिए हम लोग एक-दूसरे का परिचय पाने के लिए उत्सुक रहते हैं। हम लोग क्या कर रहे हैं, यह सब एक ही स्थान में देखने से हम अपने यथार्थ स्वरूप का पता पा जाते हैं। इसीलिए साहित्य में कवि और गायक, दार्शनिक और वैज्ञानिक, सभी सम्मिलित होते हैं।
आधुनिक युग के नवीन साहित्य का आरंभ-काल निश्चित करना बड़ा कठिन है। महारानी विक्टोरिया के राजत्व-काल में जो कवि हुए हैं, वे अब आधुनिक साहित्य के विचार-क्षेत्र से दूर हट गए हैं। अँग्रेज़ी में टेनीसन अथवा ब्राएनिंग की गणना अतीत काल के कवियों में ही जाती है। भारतीय साहित्य का भी यही हाल है। यदि हम वर्तमान हिंदी-साहित्य के विचार-क्षेत्र पर ध्यान दें, तो हमें विदित हो जाएगा कि अब भारतेंदु अथवा व्यास जी की रचनाओं में हिंदी-भाषा-भाषी अपने अंतस्तल की छाया नहीं देख सकते। इन कवियों को अब वही स्थान दे दिया गया है, जो पद्माकर अथवा बिहारी को प्राप्त है। सन् 1870 से लेकर आज तक सभी देशों के विचार-क्षेत्र में बड़ा परिवर्तन हो रहा है। मानव-स्वभाव की महत्ता पर से लोगों का विश्वास उठ गया है। ‘सत्’ के विषय में लोग अधिक संशयालु हो गए हैं। यह सच है कि आधुनिक युग में विज्ञान की बड़ी उन्नति हुई है। भिन्न−भिन्न देशों का पारस्परिक संबंध भी अब पहले से अधिक दृढ़ हो गया है। अब किसी भी देश में कोई महत्त्वपूर्ण बात नहीं हो सकती, जिसका प्रभाव अन्य देशों पर न पड़े। परंतु मनुष्यों के हृदय में आशंका का जो भाव उदित हो गया है, उसका अस्तित्व भी हमें स्वीकार करना पड़ेगा। मनुष्यों की सामाजिक, राजनीतिक अथवा आध्यात्मिक भावनाओं में वही अशंका का भाव विद्यमान है। आस्कर वाइल्ड ने एक स्थान में कहा है−“The Mystical in art the Mystical in life, the Mystical in nature-this is what I am looking for.” अर्थात् कला, जीवन तथा विश्व-प्रकृति में वह अतींद्रिय भाव को खोज रहा था। परंतु वह भाव सदैव अस्पष्ट ही रहा। प्राचीन युग में अपनी स्वाभाविक सरलता से कवियों ने जिसको हृदयंगत कर लिया था, मध्य-युग में अपनी श्रद्धा से साधकों ने जिसको प्रत्यक्ष अनुभव किया था, वह अब अर्वाचीन आध्यात्मिक कवियों के लिए छाया की तरह अस्पष्ट हो गया है। एक विद्वान् ने लिखा है, आधुनिक साहित्य के स्वरूप-परिवर्तन का कारण आधुनिक समाज का जटिल मनस्तत्व है। आजकल मनुष्यों की मानसिक अवस्था में एक बड़ा परिवर्तन हो रहा है। पहले देश और काल की सीमा से मानव-समाज बिल्कुल आबद्ध था। परंतु अब देश और काल की सीमा में संकीर्णता नहीं है। अब यथेष्ट स्वातंत्र्य का भाव प्रचलित हो गया है। इसके साथ ही मनुष्यों की प्रवृत्तियाँ भी अधिक विकसित हो गई हैं। परंतु यही एक कारण नहीं है। अब विभिन्न भावनाएँ मनुष्यों के व्यक्तित्व से इतनी मिल गई हैं कि वे ही मनुष्य की अनुभूति और रस-बोध की सामग्री हो गई हैं। वैज्ञानिक, दार्शनिक अथवा आध्यात्मिक विचार रस के स्वरूप में आ गए हैं। साहित्य में इन विचारों ने जो उत्क्रांति पैदाकर दी है, वह सचमुच आश्चर्यजनक है। प्राचीन काल अथवा मध्य-युग में सदाचार के संबंध में लोगों की धारणा निश्चित थी। कौन कृत्य सत् है और कौन असत्, यह प्रश्न निर्विवाद था। परंतु अब सत् और असत् का निर्णय करना उतना सरल नहीं है। इब्सन अथवा मेटरलिंक की नायिकाओं के सतीत्व के संबंध में हमारे सामाजिक संस्कार हमें एक ओर खीचेंगे, और सत्य दूसरी ओर। मनुष्यों के जीवन में प्रतिदिन जो घटनाएँ होती रहती हैं, वे सब ऐसी नहीं होतीं कि धर्मशास्त्र की कसौटी पर कसी जा सकें। समाज के साथ व्यक्ति का इतना पार्थक्य हो गया है कि अपनी व्यक्तिगत हैसियत से लोग जिन कामों के करने में संकोच नहीं करते, वे समाज की दृष्टि में गर्हणीय हैं। जिन भावों के वशीभूत होकर कोई स्त्री दुराचारिणी होती है, उन भावों का यदि विश्लेषण किया जाए, तो पाठकों की सहानुभूति एक दुराचारिणी स्त्री के प्रति हो सकती है। हम ईस्टालीन की नायिका से घृणा नहीं कर सकते, और न ‘आँख की किरकिरी’ में विमला के चरित्र पर आक्षेप ही कर सकते हैं। प्रेमचंद की ‘सुमन’ पर भी कोई पाठक दोषारोपण नहीं करेगा। परंतु समाज में क्या ये वही स्थान पा सकती हैं, जो उन्होंने उपन्यास में पाया है? यदि नहीं, तो क्या समाज के धार्मिक आदर्शों में परिवर्तन किया जा सकता है?
भिन्न-भिन्न राष्ट्रों के धार्मिक तथा सामाजिक आदर्शों में विचित्रता है। आधुनिक साहित्य के द्वारा इन आदर्शों का प्रचार अवश्य हुआ, पर उनमें सामंजस्य नहीं स्थापित हो सका। यूरोप के राजनीतिक तथा व्यावसायिक प्रभुत्व के कारण भिन्न-भिन्न राष्ट्रों में एक प्रकार की एकता भी स्थापित हो गई है। कुछ विद्वानों को अब यह संतोष भी हो जाता है कि मनुष्यों की व्यक्तिगत क्षमता, उदारता और सहानुभूति पहले से अधिक बढ़ गई है। परंतु आधुनिक साहित्य में इन्हीं विचारों ने जो अशांति पैदा कर दी है, उसे दूर करने का उपाय अभी तक निश्चित नहीं हुआ। आधुनिक कवियों ने जिन आध्यात्मिक भावों के आधार पर विश्व-भाव जाग्रत करने की चेष्टा की है, उन्हें छाया की तरह पकड़ने की जितनी ही चेष्टा की जाएगी, उतना ही वे दूर हटते जाएँगे। मेटरलिंक अथवा रवींद्रनाथ की आध्यात्मिक भावनाएँ सर्वसाधारण के लिए प्रत्यक्ष नहीं हो सकतीं। बर्नार्ड शा अथवा अन्य कोई नाटककार समाज की समस्या उत्पन्न कर सकता है; परंतु वह समस्या पहेली ही रहेगी। प्रत्येक मनुष्य के हृदय में जिन भावों का उत्थान-पतन अदृश्य रूप से होता रहता है, जिन प्रवृत्तियों का अलक्षित द्वंद्व चलता रहता है, वे क्या समाज-शास्त्र की कोटि में आ सकती हैं? यदि नहीं, तो उनका जो दुःखमय अंत होता है, उसका प्रतिकार कैसे किया जाए?
कुछ विद्वानों ने विज्ञान के द्वारा समाज-नीति और राजनीति की समस्याएँ हल करने की चेष्टा की है। राजनीति-विशारदों के लिए विज्ञान की पहली शिक्षा है, सुजनन के सिद्धांत की। अपनी संतानों के लिए श्रेष्ठ जनक-जननी उत्पन्न करने की यह व्यवस्था ईश्वर के द्वारा निश्चित हुई है, जिसमें जो संतान पैदा हों, उनमें शारीरिक, मानसिक और आत्मिक शक्तियाँ पूर्ण रूप से जाग्रत हों। मनुष्य की अंतर्निहित शक्ति के विकास को यह शास्त्र बोध-गम्य कराता है; और उससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य के सुख और स्वास्थ्य की वृद्धि राज्य का कर्तव्य होना चाहिए।
साहित्य में वंशुनाक्रम का प्रभाव इब्सन और हैप्टमैन नाम के दो लेखकों ने अच्छी तरह दिखलाया है। इन्होंने इसी संबंध में दो नाटक लिखे हैं। उत्तराधिकारी सूत्र से मनुष्य क्या ग्रहण करता है, माता-पिता के पाप और अपराध का कितना भीषण परिणाम संतान में दृष्टिगोचर होता है, यह बात इब्सन ने अपने घोस्ट (Ghost) नामक नाटक में प्रदर्शित की है। हैप्टमैन के रिकंसीलिएशन (Re-conciliation) में इसी बात की पूर्ण विवेचना की गई। इब्सन के नाटक में पिता के मानसिक विकास का फल पुत्र में प्रकट हुआ है; और हैप्टमैन के नाटक में माता-पिता की नैतिक अधोगति का परिणाम पुत्र को भोगना पड़ा है। इसी बात का उल्लेख करके लेवीसन-नामक विद्वान ने लिखा है कि मानव-जीवन पर वंश का प्रभाव सदैव लक्षित होता है। विज्ञान और दर्शन के द्वारा इस प्रश्न का समाधान करना होगा। अतएव सुजनन-विद्या ने सभ्यता के उद्देश्य को ही बदल दिया है। वह एक नवीन धर्म नवीन समाज-नीति का प्रचार करना चाहती है।
विज्ञान की दूसरी शिक्षा है अनुसंधान। सदाचार की रक्षा विज्ञान के संभव है। वह मनुष्य के ज्ञान को विस्तृत करके मनुष्य को प्रयोग द्वारा, ईश्वर की विभूति का दर्शन कराता है। जीव-तत्व और परमाणुओं में हम ईश्वर की क्रिया-शक्ति का अनुभव करते हैं। विज्ञान से मनुष्य यह भी देख लेता है कि प्रकृति के नियमों का उद्घाटन ही प्रकृति से साहचर्य स्थापित करता है। प्रकृति से ईश्वर की इच्छा-शक्ति से साहचर्य स्थापित करना ही एकमात्र धर्म है।
तीसरी शिक्षा यह है कि हम विज्ञान को समाज में बाँटें-फैलावें। यदि केवल वैज्ञानिक ही ईश्वर से साहचर्य स्थापित कर ले, तो उससे समाज में सदाचार का प्रचार संभव है। विज्ञान के क्षेत्र में स्वातांत्र्य स्थापित करके यदि कोई उसे संपूर्ण मानव-जाति के लिए सुलभ न करे, तो उस सभ्यता को प्राण-हीन समझना चाहिए। जब हम विज्ञान के साधनों को सर्व-साधारण के पास पहुँचा देंगे, तब उनमें एक नवीन शक्ति का संचार करेंगे। विज्ञान को समाज में सुलभ करना भगवत्प्रेम का वितरण करना है।
विज्ञान की चौथी शिक्षा यह है कि मनुष्य को ऐसी शिक्षा दी जाए, जिससे वह अपनी शक्ति का पूर्व रूप से उपयोग कर सके। अभी तक सभी सभ्यताओं के उद्देश्य विफल हुए हैं; क्योंकि कोई सभ्यता प्रत्येक व्यक्ति को अपने विकास की स्थिति पर नहीं ला सकी। यथार्थ सभ्यता वही है, जो गुण-वैचित्र्य और रूप-वैचित्र्य की रक्षा करके प्रकृति की ही प्रणाली को उन्नत करे। वह मनुष्य को स्थिति के अनुकूल करे, और स्थिति को मनुष्य के अनुकूल। अतएव ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है, जो प्रत्येक मनुष्य की विशेषता जानकर उसको वर्तमान संसार के उपयुक्त कर दे।
विज्ञान की पाचवीं शिक्षा यह है कि मनुष्य में अंतर्राष्ट्रीयता का भाव प्रचलित किया जाए। यदि कोई सभ्यता राष्ट्रीय हो, तो वह भले ही वैज्ञानिक हो, युद्ध के द्वारा उसका नाश अवश्यंभावी है। वह युद्ध नहीं करेगे; परंतु उसे अपनी रक्षा तो करनी ही चाहिए। अतएव जब तक समस्त मानव-जाति में सभ्यता का प्रसार न होगा, तब तक कोई भी जाति सभ्य नहीं हो सकती। राष्ट्रीयता के कारण मनुष्य में ईर्ष्या, द्वेष और अभिमान के जो क्षुद्र भाव हैं, वे विश्व-भावना में लीन हो जाएँगे।
विज्ञान की एक शिक्षा है कला के संबंध में। कला मानवीय उन्नति का चिह्न है। प्राणिशास्त्र ने कला पर एक नया प्रकाश डाला है। उसके प्रभाव से मनुष्य के रूप और आकृति में भी कदाचित् परिवर्तन हुआ है; क्योंकि सौंदर्य से ही आकृष्ट होकर स्त्री और पुरुष परस्पर संबंध जोड़ते हैं। स्त्री-पुरुष के इस पारस्परिक संबंध ही पर किसी जाति की उन्नति और अवनति अवलंबित है। कला सौंदर्य का आदर्श निश्चित करती है, और स्त्री-पुरुष में सौंदर्य अंतर्निहित भाव का बाह्य रूप। इस प्रकार सौंदर्य प्रकृति के विकास की सूचना देने वाली पताका है।
शारीरिक सौंदर्य के वशीभूत ही स्त्री और पुरुष, दोनों संयोग के लिए आकृष्ट होते हैं। इस प्रकार बाह्य सौंदर्य की अराधना से मनुष्य की बाह्य आकृति में परिवर्तन हो जाता है। तब क्या यह संभव नहीं कि मानसिक सौंदर्य की आराधना से मनुष्य के मन और आचरण में परिवर्तन हो? सच पूछो, तो कला के द्वारा मनुष्य विकास के पथ पर अग्रसर होता है। अतएव कला के शिक्षा का ध्येय अवश्य ही होना चाहिए, जिससे मनुष्य अधिक बुद्धिमान, अधिक सुखी और अधिक सौंदर्य-युक्त हो।
रवींद्रनाथ ठाकुर ने लिखा हैं−
जीवन, साहित्य अथवा ललित कला में जिन्होंने कोई बड़ी सृष्टि की है—चाहे सौंदर्य को आकार-प्रदान किया हो, चाहे किसी महत् भाव को प्रकट किया हो−वे किसी देश-विशेष के नहीं हैं; उन पर किसी एक देश का अधिकार नहीं है। जो अपने देश के लिए धनोपार्जन करते अथवा अपने देश का अधिकार नहीं है। जो अपने देश के लिए धनोपार्जन करते अथवा अपने देश की प्रताप-वृद्धि के लिए समग्र संसार में उसकी जय-पताका उड़ाते हैं; वे अपने ही देश के हैं; उन पर अन्य किसी देश का अधिकार नहीं है। किंतु जिसने सत्य-सुंदर-शिव को देखा है, वह चाहे कहीं का हो, है वह सभी देशों और सभी कालों के लिए। उसका स्वागत करने के लिए सभी देशों को तैयार होना चाहिए। यदि हम उसे स्वीकार न करें, तो मनुष्य समाज में हमारा जो स्थान है, उसे भी अस्वीकार करना पड़ेगा। तब हमें यह कहना होगा कि पृथ्वी पर हमने जन्म-ग्रहण नहीं किया, अपने क्षुद्र देश के भीतर ही हमारा जन्म हुआ है। यदि हम इसी मूढ़ता में अपना गौरव समझें कि संसार के किसी भी महापुरुष से हमारा योग नहीं है, यदि हम अन्य देशों की संपत्ति का गर्व से तिरस्कार करें, तो हमें उसका प्रायश्चित करना पड़ेगा। अब वह समय उपस्थित हुआ है कि यदि हम अपने चारों ओर मानसिक चहारदीवारी खींचकर चुपचाप रहना चाहें, तो उससे हमारी आत्मा की ही अवमानना होगी।
शेली के समान कितने ही विश्व-कवियों के विषय में यह देखा गया है कि जिस देश में उन्होंने जन्म लिया, वहाँ उन्हें स्थान नहीं मिला। उन्हें अपने जीवन का अधिकांश काल विदेश में ही निर्वासित होकर व्यतीत करना पड़ा है। परंतु, अपने जीवन-काल में तिरस्कृत होने पर भी, आज सभी देशों में उन्होंने अक्षय स्थान प्राप्त कर लिया है। संसार के कितने ही श्रेष्ठ पुरुषों ने निर्वासन के सिंहद्वार से पृथवी पर अधिकर प्राप्त किया है। उनके समकालीन लोगों ने उनकी उपेक्षा की, उन्हें यह बतला दिया कि तुम हमारे नहीं हो। उनके इस कथन का भी एक अर्थ है। जो लोग अपने ही समय के किसी विशेष क्षेत्र में काम करते हैं, उनके लिए सम्रग पृथ्वी कभी उपभोग्य नहीं होती। परंतु जो सबसे बड़े होते हैं, उनके विषय में यही देखा गया है कि वे संकीर्ण भाव से किसी भी एक देश और काल के मन को जाग्रत नहीं कर सके। उनकी वाणी तो देश और काल के अतीत थी। फिर उसे एक ही देश और एक ही काल में कैसे स्थान मिलता?
ऐसे विश्व-कवियों को जब हम अपना समझ लेंगे, तभी देश और काल के उन व्यवधानों को दूर कर सकेंगे, जो हमारे चारों ओर जमा हो गए हैं। यह क्षुद्र सीमा हमारे लिए कठिन हो गर्इ है। हम यही बात कहने की चेष्टा करते हैं कि इसी क्षुद्र सीमा में हमारी सार्थकता है। प्रायः यही कहा जाता है कि हमारा साहित्य ही एकमात्र हमारा साहित्य है; हमारे उपभोग के लिए अन्य कोई साहित्य नहीं है। हमारा ही तत्व-ज्ञान एकमात्र हमारा तत्व-ज्ञान है; हमारे लिए दूसरा कोई तत्व-ज्ञान ही नहीं है। वही क्यों, जो विज्ञान है, वह भी हमारा नहीं, दूसरे देश का है। इस कथन के भीतर कितना असत्य है, यह हम अपने मिथ्या गर्व के कारण अच्छी तरह समझ नहीं सकते। हममें से प्रत्येक के लिए सभी देशों के तपस्वियों ने तपस्या की है, यह सोचते ही हमारा हृदय कितना विशाल हो जाता है। जब हम मनुष्य को मनुष्य समझते और उसे अपना कहते हैं, तब यह जान पड़ता है कि उसमें कितनी शक्ति है। हम अपने देश में अपने अधिकारों की संकीर्णता को दोष देते हैं। परंतु राजनीतिक संकीर्णता ही एकमात्र संकीर्णता नहीं है। उससे भी बड़ी संकीर्णता है मन के अधिकारों की संकीर्णता। हम यदि यह कहें कि हमारा मन तुलसीदास जी के बाहर नहीं जा सकता, हम मतिराम और बिहारी में ही लिप्त रहेंगे, हमारे लिए वैष्णव-काव्यों को छोड़कर दूसरे काव्य ही नहीं हैं, तो हमें विश्व के सर्वश्रेष्ठ दान से हाथ धोना पड़ेगा। यह वह दान है, जिसे उसने हमारे हाथों में देकर कहा था—हम तुम्हारे हैं।
मनुष्य वनस्पति है। अन्य जीव-जंतु घास-पात या छोटे पौधे हो सकते हैं; पर वनस्पति मनुष्य ही कहा जा सकता है। मानव-चित्त का मूल ख़ूब दूर तक जाता है। वह बहुशाख़ा-विशिष्ट है। महापुरुष के मानस-क्षेत्र के भीतर वह यदि प्रशस्त रूप से प्रविष्ट नहीं हो सका, समस्त मानव-क्षेत्र से अपने लिए रस नहीं सींच सका, तो यह निश्चित है कि मन अत्यंत क्षीण हो जाएगा। उसकी वृद्धि हो नहीं सकती। मनुष्य की धर्म-बुद्धि और चरित्र-नीति की भी उन्नति नहीं हो सकती। हम लोगों ने अंधविश्वास से शास्त्र-वचन तथा गुरु-वाक्य को जैसा शिरोधार्य किया है, गतानुगतिक होकर आत्मा की जैसी अवमानना की है, उसका एकमात्र कारण यही है कि विश्व के ज्ञान-क्षेत्र में सम्मिलित न होकर हमने अपने को निर्जीव बना डाला है। महापुरुष के मानस क्षेत्र से अपने लिए पूर्ण खाद्य न लाने के कारण हमारा मन निर्जीव हो गया। इसीलिए हम सभी बातों को निश्चेष्ट ही मानने लगे। राष्ट्रीय शासन, सामाजिक शासन, शास्त्रीय शासन आदि सभी शासनों को नत-मस्तक होकर हमने मान लिया। हम लोगों ने विचार करना ही नहीं चाहा; क्योंकि विचार के लिए मानसिक शक्ति की अवश्यकता है। पराधीनता के कारण हमारी जो दुर्गति हो रही है, उसका कारण मन की निर्जीवता ही है। मन को सजीव और सबल बनाने के लिए उसको उचित आहार देना होगा। किसी बाह्य अनुष्ठान अथवा बाह्य क्रिया से हमारा मन जीवनी-शक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। संसार में जहाँ कहीं ऐसी अमर महत्ता है, उसी को लाने से हमारा मन अमृतमय आहार पा सकता है। उसी अमृत से उसकी वृद्धि हो सकती है, और किसी से नहीं। मैत्रीयी ने कहा था−“येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम” यह कथन केवल आध्यात्मिकता के लिए ही उपयुक्त नहीं है, विद्या और विज्ञान के लिए भी सार्थक है। उस विद्या और विज्ञान को लेकर हम क्या करेंगे, जिसमें अमृतत्व नहीं। समस्त पृथ्वी पर एक अमरावती है, जहाँ अमृत की धारा निकलती है। जिन साधकों की साधना तथा तपस्या से उस अमृत की सृष्टि होती है, वे उस अमरावती के निवासी हैं। वह अमरावती सभी देशों में है। यहाँ जैसे कालिदास का स्थान है, वैसा ही शेक्सपियर का भी। हमें इनसे अमृत की प्राप्ति करनी होगी। तभी हमारा मन सजीव हो सकेगा।
- पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली खंड-3 (पृष्ठ 140)
- संपादक : नलिनी श्रीवास्तव
- रचनाकार : पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2007
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