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भारतीय कथा−साहित्य का विकास

bhaaratiiy kathaa−saahity ka vikaas

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

अन्य

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पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

भारतीय कथा−साहित्य का विकास

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

    भारतीय उपन्यासों का आधुनिक रूप हम लोगों को पश्चिम से ही मिला है। परंतु यह नहीं कहा जा सकता कि भारतीय कथा−साहित्य के विकास में एकमात्र पाश्चात्य साहित्य का ही प्रभाव पड़ा है। भारतीय कथा−साहित्य के विकास में एकमात्र पाश्चात्य साहित्य का ही प्रभाव पड़ा है। भारतीय कथा−साहित्य की जो एक परंपरा है, उसकी ओर ध्यान देना भी आवश्यक है। साधारणतया यह कहा जा सकता है कि सन् 1857 से भारतीय भाषाओं में उपन्यास का आधुनिक रूप लक्षित होने लगा है। परंतु पाश्चात्य साहित्य में औपन्यासिक कला ने क्रमशः एक विशेष रूप धारण कर लिया। इसी से उन देशों में कितने ही वर्ष पहले उपन्यासों ने साहित्य में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया। वहाँ जैसे नाटकों को क्रमशः विकास होता आया, वैसे ही उपन्यासों का भी विकास होता आया है। भारतीय साहित्य में कभी महाकाव्यों और नाटकों का युग था। महाकाव्य और नाटक दोनों में कथा−वस्तु की प्रधानता रहती है। परंतु उनमें कवित्व−कला का ही चरम उत्कर्ष प्रदर्शित होता है। इसलिए महाकाव्य यदि श्रव्य−काव्य है, तो नाटक दृश्य−काव्य है। प्राचीन युग में कादंबरी, वासवदत्ता और दशकुमार−चरित में गद्य का आश्रय लेकर कथा का जो निर्माण किया गया है, उसमें भी कवित्व−कला का चमत्कार प्रदर्शित हुआ है। उनकी गणना भी गद्य−काव्यों में की जाती है। पाश्चात्य साहित्य में उपन्यासों की गणना काव्यों में नहीं की गई , प्रारंभ ही से उनसे जन−जीवन की यथार्थता अंकित करने का प्रयास किया गया है। इसीलिए उनका औपन्यासिक साहित्य जनता के मनोविनोद का सबसे सुलभा साधन हो गया। वह एक विशेष रसिक वर्ग के लिए कभी निर्मित नहीं हुआ।

    250 वर्षों से जिस औपन्यासिक साहित्य का विकास होता आ रहा है, उसके ह्रास का लक्षण वहाँ लक्षित होने लगा है। अँग्रेज़ी के एक समालोचक ने लिखा है कि आधुनिक उपन्यासों के संबंध में अब एक तिरस्कार का भाव आता जा रहा है। साहित्य−जगत् में भी अब उनकी उतनी चर्चा नहीं होती, जितनी पहले होती थी। आधुनिक उपन्यास−लेखकों के प्रति विज्ञों में एक उपेक्षा का भाव आ रहा है। उसका कारण यह बतलाया जाता है कि आधुनिक उपन्यास अपने गुण−गौरव से हीन होते जा रहे हैं।

    यह सच है कि साहित्य के इतिहास में कभी सहसा एक ऐसा निर्माण का काल आता है, जिसमें लेखकों की विलक्षण रचना−शक्ति व्यक्त होती है। उसके बाद जो युग आता है, उसमें वह रचना−शक्ति शिथिल-सी पड़ जाती है, साहित्य−जगत में निश्चेष्टता−सी आ जाती है। लेखकों में अनुकारण की प्रवृत्ति आ जाती है। उनमें मौलिक रचना−शक्ति नहीं रह जाती। वे अपने अतीत काल के गौरव−पथ पर ही चुपचाप अग्रसर होते रहते हैं। किसी नवीन पट को ग्रहण करने का साहस उनमें नहीं होता। इसी से उनकी कृतियों में नवीनता नहीं रह जाती! परंतु सहसा निश्चेष्टता का यह युग समाप्त हो जाता है और फिर साहित्य में एक ऐसा नवयुग आ जाता है, जिसमें कल्पना की नव सृष्टि होने लगती है। साहित्य−जगत् में भी मानो कभी तरुणावस्था आती है, कभी प्रौढ़ावस्था हो जाती है और फिर वृद्धावस्था आ जाती है। रूस के साहित्य में औपन्यासिक साहित्य का भव्य रूप गोगोल से प्रारंभ हुआ और गोर्की में उसका अंत हो गया। इंग्लैंड में फ़ील्डिंग से उपन्यास की जो कला प्रारंभ हुई, वह विक्टोरिया के युग तक बराबर विकसित होती आई। उसके बाद वह कुछ काल तक शिथिल सी हो गई। फिर गैल्सवर्दी, बेनेट और वेल्स का युगा आया। उसके बाद कथा−साहित्य में एक हीनता−सी आ गई। विज्ञों का कथन है कि 1914 से विश्व की स्थिति में जो अव्यवस्था सी आती जा रही है, उसके कारण साहित्य के क्षेत्र में भी एक संशयावस्था आ गई है। जीवन में जो उल्लास होता है, जो स्फूर्ति होती है, जो एक आवेग रहता है, उसके कारण एक गौरव की प्राप्ति के लिए मन में व्यग्रता आ जाती है। उस समय हम विश्व के रहस्यागार में प्रविष्ट होकर उसके सभी रहस्यों का उद्घाटन करने में आनंद की अनुभूति करते हैं। जीवन की किसी भी स्थिति में हमें हीनता की वह अनुभूति नहीं होती, जो हमारी कल्पना−शक्ति को अवरुद्ध कर देती है। एक−एक व्यक्ति का जीवन हमें रहस्यमय प्रतीत होता है। उसमें भावों का जो उत्थान और पतन होता रहता है, जो हमारी कल्पना−शक्ति को अवरुद्ध कर देती है। एक−एक व्यक्ति का जीवन हमें रहस्यमय प्रतीत होता है। उसमें भावों का जो उत्थान और पतन होता रहता है, उसके कारण उसका जीवन कम विलक्षण प्रतीत नहीं होता। दैनिक जीवन में भी क्षुद्र स्वार्थों में चरित्र का एक उत्कर्ष लक्षित होता है। प्रेम और विद्वेष, त्याग और लोभ, सेवा और प्रतिहिंसा की जो घटनाएँ प्रतिदिन होती रहती हैं उनमें भी जीवन का एक गौरव रहता है। उपन्यासों में कल्पना द्वारा जो माया−लोक निर्मित हुआ, उसमें एक साधारण व्यक्ति के साधारण जीवन की साधारण कथा भी कौतूहलप्रद, विस्मयप्रद और आतंकप्रद होने के कारण आनंदप्रद हो जाती है। उनमें कल्पना का स्वच्छंद विकास है; मन की ऐसी कोई भी स्थिति नहीं है, जो उसमें अंकित न की गई हो।

    मर्त्यलोक को अतिक्रमण कर विश्व के अनंत क्षेत्र में भी कल्पना ने विहार किया है। ज्यों ही आधुनिक कलाकारों की प्रवृत्ति जीवन की हीनता को अंकित करने की ओर हुई, त्यों ही उसमें जीवन का उल्लास नष्ट हो गया। मनुष्यों में सप्रवृत्तियाँ हैं और दुष्प्रवृत्तियाँ भी। रूस के एक विज्ञ ने एक बार लेखकों की सभा में कहा था कि मनुष्यों में जो दुष्प्रवृत्तियाँ हैं, उनमें उसके जीवन की यथार्थता नहीं है। यह सच है कि जीवन की यथार्थ स्थिति का वर्णन करने पर हम मनुष्यों की दुष्प्रवृत्तियों की उपेक्षा नहीं कर सकते, पर एकमात्र उन्हीं को जीवन की यथार्थता समझ लेना भी भूल है। जीवन के गौरव का अभाव हाने से उपन्यासों में कथा का रस आपसे आप लुप्त हो जाता है।

    अभी हाल में हिंदी और मराठी के कुछ साहित्यकारों ने हिंदी तथा मराठी के उपन्यासों की तुलनात्मक चर्चा की थी। उनकी यह चर्चा नागपुर−रेडियो द्वारा प्रसारित हुई थी। आप्टे के उपन्यासों के संबंध में यह कहा गया है कि उसमें भारतीय कथावस्तु असली रूप में पाई जाती है। यदि कोई विदेशी आप्टे के उपन्यास पढ़े, तो उस काल के हमारे सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्र वह अवश्य देख लेगा। प्रेमचंदजी के उपन्यासों के संबंध में भी यह कहा गया है कि उनमें भारतीय जीवन का सरल, स्वाभाविक और सजीव रूप चित्रित हुआ है। हिंदी के आधुनिक कलाकारों के संबंध में यह बतलाया गया है कि वर्तमान कलाकार आधुनिक विज्ञान, मनोविज्ञान आदि से जो प्रेरणा ले रहे हैं, उनके प्रभाव के कारण जीवन में विश्वास, श्रद्धा और आत्मिक परिपूर्ति के स्वर जैसे खो गए हैं। हिंदी के प्रसिद्ध उपन्यासकार अंचल जी की सम्मति है कि आधुनिक उपन्यास के चरित्रों में जीवन के प्रति श्रद्धा और आस्था का अभाव दृष्टिगोचर होता है। उपर्युक्त विज्ञों की बातों से कोई सहमत हो या न हो, पर इसमें संदेह नहीं कि प्रेमचंद जी के बाद उपन्यासों की शैली में कुछ ऐसा परिवर्तन हो गया है कि उनमें जनता को कथा का वह रस प्राप्त नहीं होता, जिसके कारण कोई कथा चिरंतन आनंद का साधन हो जाती है।

    भारतवर्ष में कथा की जो परंपरा है, उसमें जीवन का सच्चा गौरव प्रदर्शित हुआ है। सच तो यह है कि भारतीय जनता ने उन्हीं कथाओं से धर्म और नीति के यथार्थ तत्व प्राप्त किए हैं। परंतु यह बात नहीं है कि सभी कथाएँ धर्म और नीति के तत्व की शिक्षा देने के लिए ही निर्मित हुई हैं। अधिकांश कथाओं में आनंद की विशुद्ध अनुभूति के भाव व्यक्त हुए हैं। उनमें व्यंग है, परिहास है, विस्मय है, कौतूहल है और जीवन के प्रति सच्चा उल्लास है। उनमें जीवन की सच्ची समीक्षा भी की गई है। उनमें साहस की स्फूर्ति है और शौर्य की गरिमा है। उन सभी कथाओं में एक ऐसी सरसता और सरलता है कि ये तुरंत ही श्रोताओं को आकृष्ट कर लेती हैं। वे कथाएँ श्रोताओं के लिए ही लिखी गई थीं। मन की स्वच्छंद स्थिति में राजा और प्रजा सभी में मनोविनोद के लिए वे कथाएँ कही जाती थीं। यह विशेषता केवल भारतीय कथा−साहित्य में ही लक्षित नहीं होती। चीन के कथा−साहित्य की भी यही विशेषता है। ‘डेविड मारगन’ नामक अँग्रेज़ी के एक विज्ञ समालोचक को यह देखकर बड़ा अश्चर्य हुआकि ‘पु सुंग लिंग’ नामक चीनी लेखक की कथाओं में कला का अपूर्ण चमत्कार है। उनके आश्चर्य का कारण यह था कि चीन में उपन्यासों की गणना साहित्य में नहीं की जाती थी। यही बात प्राचीन भारतीय कथा−साहित्य के संबंध में भी कही जा सकती है।

    भारतवर्ष में भी उपन्यासों की ओर विज्ञों का एक उपेक्षा भाव ही था। चीन में यह समझा जाता था कि साहित्य में जो कला होती है, उसका एक विशेष उद्देश्य समाज के जीवन का विकास होता है। उपन्यासों में सामाजिक जीवन के विकास के लिए ऐसा कोई लक्ष्य नहीं रहता। यह केवल मनोविनोद का साधन−मात्र होता है। अतएव साहित्य में उसका कोई महत्व नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि चीन में उपन्यासों के विकास का मूल जनता में प्रचलित कथाओं के भीतर है। उनमें जनता के जो मनोभाव व्यक्त हुए हैं, उनसे प्रकट होता है कि विज्ञों के ज्ञान−गौरव के प्रति उनमें तिरस्कार का भाव था। कठिन अध्यवसाय के द्वारा ज्ञान का जो गौरव विज्ञ लोग अर्जित करते थे, उसमें वे लोक−जीवन का कोई  उल्लास या हर्ष नहीं पाते थे। वे यही समझते थे कि शुष्क ज्ञान की चर्चा में जीवन का रस विलुप्त हो जाता है।

    एक कथा में बतलाया गया है कि एक बार जंगल के कुछ पशु शिकार के लिए निकले। सभी पशु कुछ न कुछ लेकर आए। केवल बाघ ही कुछ न ला सका। उसने बतलाया कि उसे राह में ऐसे ही लोग मिले, जिनकी हड्डियों में भी कोई रस नहीं था। उसे पहले एक छात्र मिला, फिर एक धर्मगुरु और अंत में एक विज्ञान−विशाद। बाघ ने उन तीनों को छोड़ दिया। उसने सोचा कि कौन इन तीनों की सूखी हड्डियों में अपने दाँत तोड़ेगा।

    इस प्रकार जनता की ही भीतर जनता के मनोविनोद के लिए चीन में कथा−साहित्य का विकास हुआ। उसमें न काल का कृत्रिम चमत्कार था और न ज्ञान की गरिमा, उसमें था जनता के जीवन का उल्लास। वह उल्लास उन्हीं की भाषा में व्यक्त हुआ था। जनता के जीवन का उल्लास। वह उल्लास उन्हीं की भाषा में व्यक्त हुआ था। उस भाषा में ऐसी सरलता, स्वाभाविकता और सरसता थी कि वह तुरंत ही साधारण जनों के हृदय को स्पर्श कर लेती थी। उन कथाओं के लिए पाठक नहीं, श्रोता होते थे। कोई एक वक्ता होता था, बाक़ी सब श्रोता। जब चीन के सम्राटों ने जनता की स्थिति जानने के लिए उनके पास गुप्तचर भेजे, तब उन्होंने सम्राट को जनता मे प्रचलित कथाएँ भी सुनाईं। सम्राट भी उन कथाओं को सुनकर मुग्ध हो गया। इसके बाद जनता में भी सम्राटों के विलास, वैभव, प्रतिहिंसा और षड्यंत्र की कथाएँ प्रचलित हुईं। श्रोताओं ने उन्हें सुनकर यह अनुभव किया कि सम्राटों में भी उन्हें के समान अक्षमता और क्षमता है। कितने ही युगों तक कथाओं का निर्माण होता रहा। यह बतलाना असंभव है कि कब, किसने कौन−सी कथा गढ़ी। उस कथा−साहित्य में पाश्चात्य उपन्यासकारों की कथाओं के सभी तत्व विद्यमान थे। फिर भी वहाँ कोई बड़ा उपन्यासकार नहीं हुआ। चीन के उपन्यासों की रचना चीन की ही जनता ने की। उन पर उन्हीं का अधिकार था। वे कथाएँ उनके जीवन से संबद्ध थीं, उन्हीं से उनका विनोद होता था। उसमें उनके दैनिक जीवन के सुख−दुख, आशा−निराशा, प्रेम−विद्वेष का सच्चा चित्र अंकित हो जाता था। यही कारण है कि चीन के आधुनिक उपन्यास के संबंध में यह कहा जाता है कि सच्ची विशेषताएँ और गरिमा लक्षित होती है।

    हिंदी के आधुनिक उपन्यासों में विदेशी टेकनीक और शैली की छाप भले ही रहे; परंतु उनमें भारतीयता का सच्चा विकास होने से ही उनकी अपनी एक विशेषता लक्षित होगी। तभी उनका महत्व भी है। पाश्चात्य जीवन का आदर्श भारतीय जीवन का आदर्श नहीं है और न पाश्चात्य समाज की समस्या भारतीय समाज की समस्या है। अंग्रेज़ों के आधिपत्य−काल में बहिर्जगत् में हीनता होने पर भी अंतर्जगत् में एक गौरव देखने का प्रयास किया गया। बहिर्जगत् में सदाचार की प्रतिष्ठा न होने पर अंतर्जगत् में सत् के लिए एक कामना होती है। समाज में सुधार की जो भावना प्रचलित हुई, उससे जो अंतर्जगत् की परीक्षा आरंभ हुई, उसी कार्य और भाव के पारस्परिक संबंध में बड़ी विलक्षण्ता प्रकट हुई। समाज से अधिक व्यक्ति असाधारण प्रतीत हुआ और उसमें उसकी कामना। बहिर्जगत् में जब कामना के लिए कोई स्थान नहीं रहता, तब वह अंतर्जगत् में प्रबल हो उठती है। देश में जब स्वाधीनता के लिए आंदोलन हुआ, तब तरुणों में विद्रोह की एक भावना प्रबल हो उठी। शासन के बंधन के साथ समाज के बंधन भी उन्हें असह्य प्रतीत होने लगे। रवींद्र बाबू ने सबसे पहले संदीप के चरित्र में, कामना की यथार्थता को प्रकट किया। उनके एक-दूसरे उपन्यास ‘आँख की किरकिरी’ में ‘माया’ के रूप में नारी के हृदय की प्रसुप्त कामना की तीव्रता भी अंकित हुई। संदीप के चरित्र से तारुण्य की वह उद्दाम वासना प्रत्यक्ष हो गई; जो विद्रोह में ही होती है। संदीप ने दृढ़ता के साथ इस भाव को अपने जीवन में स्वायत्त कर लिया कि जिनमें कामना की जितनी अधिक प्रवृत्ति रहती है, वह उतनी ही अधिक शक्ति के द्वारा संसार को वशीभूत करना चाहता है। जिसका मन उद्दाम वासना से युक्त होता है, जो अपनी सारी शक्ति लगाकर प्राणपण से प्रयत्न करना जानता है, वही सुख का यर्थाथ उपभोग कर कसता है। उसके लिए विघ्न अवरोधक नहीं है, विघ्नों से ही उन्हें प्रेरणा मिलती है। उनमें किसी तरह की आशंका या संकोच नहीं रहता। जिनकी प्रचंड कामना होती है, जिनकी अदम्य वासना होती है, उनमें लज्जा का भाव नहीं होता। संसार में लोग जिसे लोभ कहते हैं, वही उनकी शक्ति को सच्ची प्रेरणा देता है। संसार में लोग जिसे लोभ कहते हैं, वही उनकी शक्ति को सच्ची प्रेरणा देता है। स्त्रियाँ भी यही समझती हैं कि इस अदम्य वासना में ही संसार की सच्ची आत्म−शक्ति विद्यमान है। वही एकमात्र सत्य है। उसके आगे परंपरागत संस्कारों के सभी आवरण एक एक कर छिन्न−भिन्न होते चले जाते हैं। अंत में प्रकृति का सच्चा स्वरूप रह जाता है।

    स्त्री−पुरुष के बीच जो एक आकर्षण रहता है, उसको समाज कितने ही तरह के अनुशासन और नियम निर्मित कर कृत्रिम आवरण में छिपाकर रखने का प्रयत्न करता है। परंतु जिस समय मनुष्य की यथार्थ प्रकृति सत्य का आह्वान सुनकर जाग पड़ती है, उस समय वह समाज द्वारा निर्मित सभी तर्क, ज्ञान और नीति के जालों को तोड़कर अपने यथार्थ स्थान पर आकर खड़ी होती है। उस समय धर्म का कोई भी आदर्श और नीति की कोई भी शृंखला उसे अग्रसर होने से नहीं रोक सकती। आधुनिक कथा−साहित्य ने संदीप में यथार्थ नायक पाया ओर माया में यथार्थ नायिका। जैनेंद्र अथवा अज्ञेय के पात्रों में संदीप और माया की ही चित्तवृत्ति किसी न किसी अंश में काम कर रही है। हरिप्रसन्न अथवा शेखर की असाधारणता में संदीप की ही अहंवृत्ति प्रबल रूप से व्यक्त हुई है।

    वासना के इसी गौरव को लेकर जब आधुनिक हिंदी−साहित्य में असाधारण चरित्रों का निर्माण होने लगा, तब वासना के नग्न रूप में ही जीवन की यथार्थता प्रकट होने लगी। ऐसी स्थिति में जीवन का सच्चा मूल्य निर्दिष्ट करना अंसभव हो गया। आधुनिक भारतवर्ष में परिस्थितियों की विषमता है और विवशता भी। यह भी ठीक है कि भारतीय जीवन में जो निश्चेष्टता आ गई है और जो एक नैराश्य का भाव उत्पन्न हो गया है, उसको दूर करने के लिए साहित्य में एक ऐसे नव आदर्श की आवश्यकता है, जिससे जनता को अपने जीवन में सच्ची प्रेरणा मिले। जनता में क्रांति की वह भावना उत्पन्न होनी चाहिए, जिससे उसमें सच्ची कर्तृत्व−शक्ति उत्पन्न हो। वासना की स्वच्छंदता में शक्ति का विकास नहीं होता। अभिसारिका के रूप में प्रेम की उच्छुंखलता और वासना के उन्माद का चित्र मध्युग के साहित्य में भी अंकित हो चुका है। जनता को उसी आदर्श से स्फूर्ति मिल सकती है, जिसमें आर्थिक विषमता से पीड़ित और नव सभ्यता के अभिशाप से निष्प्राण के साहित्य में भी अंकित हो चुका है। जनता को उसी आदर्श से स्फूर्ति मिल सकती है, जिसमें आर्थिक विषमता से पीड़ित ओर नव सभ्यता के अभिशाप से निष्प्राण जीवन मे सच्ची स्फूर्ति की अनुभूति हो। लोग वासना की स्वच्छंद लीला नहीं चाहते, वे जीवन का स्वच्छंद उल्लास चाहते हैं। वे शरीर, मन और आत्मा की सच्ची उन्मुक्ति चाहते हैं।

     

    (2)

    कथा−साहित्य में कुछ उपन्यास घटना−प्रधान होते हैं और कुछ चरित्र−प्रधान। कथा−साहित्य के कितने ही समालोचकों को कला का उच्चतम विकास एकमात्र चरित्र−प्रधान उपन्यासों में ही लक्षित होता है। आधुनिक हिंदी−साहित्य के अधिकांश श्रेष्ठ उपन्यसास चरित्र−प्रधान ही कहे जा सकते हैं। ऐसे ही उपन्यासों की ओर साहित्य के मर्मज्ञ आलोचकों की दृष्टि जाती है। ऐसे उपन्यासों में व्यक्ति के साथ समाज की समस्याओं का सूक्ष्म विश्लेषण किया जाता है। साधारणतया हम लोग बहिर्जगत् की घटनाओं से ही परिचित होते हैं। अंतर्जगत् की भावनाओं को जान लेना बड़ा कठिन है। कब, कौन, किस भाव से प्रेरित होकर कोई काम करता है, उसको समझ लेने के लिए एक विशेष सूक्ष्म दृष्टि चाहिए। संसार में एक से एक विलक्षण घटनाएँ होती हैं। उन घअनाओं के भीतर मनुष्यों का अंतर्भाव छिपा रहता है। साहित्य−जगत् में यथार्थवाद की प्रतिष्ठा होने पर ऐसे भी उपन्यासों की वृद्धि हुई है, जिनमें एक से एक भयानक हत्याओं ओर वीभत्स अपराधों का वर्णन है। संसार में भी और हिंसा की लीलाएँ उतनी ही यथार्थ हैं, जितनी त्याग और प्रेम की घटनाएँ। सुर और असुर का संग्राम जीवन में कभी लुप्त नहीं होता। सभ्यता की वृद्धि के साथ समाज में नर−पिशाच उत्पन्न हो जाते हैं। उन्हें के जीवन की रोमांचकारी घटनाओं का वर्णन पढ़ने से पाठकों को कौतूहल, विस्मय और आतंक के भाव होते हैं। यही कारण है कि ऐसे उपन्यास साधारण पाठकों के लिए विशेष रुचिकार हो जाते हैं। पाश्चात्य साहित्य में ऐसे उपन्यासों की यथेष्ट वृद्धि हुई है, जिन्हें हम जासूसी उपन्यास कहते हैं।

    आधुनिक हिंदी−साहित्य के आदि−काल में तिलिस्म की चर्चा कर जैसे देवकीनंदन खत्री विशेष लोकप्रिय उपन्यासकार हो गए, वैसे ही गोपालरामजी गहमरी ने भी अपने जासूस का ‘गोरखधंधा’ चलाकर कुछ दिनों तक अच्छी लोकप्रियता प्राप्त कर ली थी। उनके कितने ही उपन्यास अन्य भाषाओं के ऐसे ही उपन्यासों के भावानुवाद मात्र थे परंतु उन्होंने हिंदी के उपन्यास−क्षेत्र में एक नए पथ का प्रदर्शन अवश्य किया। देवकीनंदन खत्री जी के बाद जैसे तिलिस्म की कथा बिल्कुल विलुप्त हो गई, उसी प्रकार गहमरीजी के साथ जासूस का भी अंत हो गया। यह बात नहीं है साहित्य−जगत् में ऐसे उपन्यासों का कोई स्थान ही नहीं रहता। पर उनके लिए एक विशेष प्रतिभा की भी आवश्यकता रहती है।

    अंग्रेज़ी साहित्य में भिन्न−भिन्न अपराधों का कोई भी ऐसा प्रेमी पाठक न होगा जो ‘शर्लाक होम्स’, ‘फ़ादर ब्राउन’ और डॉक्टर ‘थार्न डाइक’ की विलक्षण कथाओं से अपरिचित हो। साहित्य−जगत् में उनका यथेष्ट मान है। पाठ्य पुस्तकों तक में उनकी कथाओं का संग्रह होता है। उनमें भी ‘शर्लाक होम्स’ विशेष प्रसिद्ध हैं। हिंदी में गोपालरामजी गहमरी ने उसी को अपने उपन्यासों में गोविंदराम का नाम दिया था।

    ‘शर्लाक होम्स’ की सृष्टि ‘ए. कानन डायल’ ने की थी। उन्होंने एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से चिकित्सा−विज्ञान की डिग्री प्राप्त की। छः साल तक उन्होंने दुकान खोलकर रोगियों की प्रतीक्षा की; परंतु उनसे चिकित्सा कराने के लिए कोई भी रोगी नहीं आया। उनकी स्थिति दयनीय हो गई। अर्थोपार्जन के लिए उन्होंने लिखना आरंभ किया। प्रारंभ में उनसे भूल हुई। फिर पो के प्रभाव से उन्होंने जासूसी कहानियाँ ही लिखना निश्चित किया। ‘शर्लाक होम्स’ की पहली कथा 1887 में प्राकशितहुई। पहले उसका विशेष सत्कार नहीं हुआ। परंतु दो वर्षों के बाद अमेरिका के एक संपादक ने उनसे फिर वैसी ही कहानियाँ लिखने का अनुरोध किया। कुछ ही समय में ‘शर्लाक होम्स’ की प्रसिद्धि चारों ओर ही गई और सर्वत्र उसकी विलक्षण बुद्धि की चर्चा होने लगी।

    कहा जाता है कि ‘शर्लाक होम्स’ सर्वथा कल्पित व्यक्ति नहीं है। एडिनबर्ग के विश्वविद्यालय में डॉक्टर जोसेफ़ बेल नाम के एक प्रसिद्ध सर्जन थे। उन्हीं से कानन डायल, स्ट्रीवेनसन और वेरी नामक विख्यात साहित्याकारों ने शिक्षा प्राप्त की थी। उनमें अवलोकन करने की असाधारण क्षमता थी। वे बड़ी सफ़लता से अवलोकन करते थे और फिर निश्चित रूप से किसी निर्णय पर पहुँच जाते थे। एक बार कुछ लोग ऐसे प्रसिद्ध अपराधों की चर्चा कर रहे थे, जिनके रहस्य का उद्घाटन नहीं हो सका था। डॉक्टर बेल ने ऐसे अपूर्व ढंग से उन सब अपराधों का विश्लेषण किया कि लोग सुनकर चकित रह गए। उनका कहना था कि अधिकांश लोग देखते हैं; परंतु ध्यानपूर्वक अवलोकन नहीं करते। आप किसी भी मनुष्य को ज़रा ध्यान से देखिए। उसके चेहरे से उसकी राष्ट्रीयता का पता लग जाएगा, उसके हाथों से उसके जीवन−निर्वाह का साधन ज्ञात हो जाएगा, और उसके जीवन की अधिकांश बातें उसकी चाल−ढाल, रंग−ढंग, कपड़े−लत्ते से प्रकट हो जाएँगी। एक बार मैं लड़कों को पढ़ा रहा था। उसी समय एक रोगी आया। मैंने उसको देखकर कहा कि यह ‘हाइलैंड रेजीमेंट’ का कोई सैनिक रहा होगा और बैंड बजाने वाला। उसकी चाल−ढाल ऐसी थी, जिससे यह प्रकट होता था कि हाइलैंड का बाजा बजाने वाला था। वह क़द का छोटा था, इसलिए मैंने कहा कि वह बैंड्समैन होगा। परंतु उस आदमी ने कहा—मैं तो जूता बनाता हूँ और सेना में मैं कभी सम्मिलित नहीं हुआ। मैंने उसको कमीज़ उतारने के लिए कहा। कमीज़ उतारने पर मैंने उसके शरीर पर नीले रंगों में ‘डी’ अक्षर का दाग़ देखा। क्रीमिया के युद्ध में जो लोग सेना छोड़कर भाग गए थे, उन पर वही दाग़ लागया जाता था। तब उस व्यक्ति ने भी स्वीकार किया कि मैं हाइलैंड रेजीमेंट में था और बैंड बजाता था। उनकी यह बात सुनकर एक ने कहा कि आप तो ‘शर्लाक होम्स’ की सी बातें करते हैं। तब डॉक्टर बेल ने उत्तर दिया कि मैं ही सचमुच शर्लाक होम्स हूँ।

    जब कानन डायल ने जासूसी कहानियाँ लिखने की बात सोची; तब उन्हें अपने पुराने अध्यापक डॉक्टर बेल की याद आई। उन्होंने सोचा कि यदि वे जासूस होते, तो पता लगाने के काम को बिल्कुल वैज्ञानिक रूप से करते। उस समय क्रिकेट के एक खिलाड़ी का नाम होम्स था और उसी के नाम का अनुकरण कर उन्होंने अपने जासूस का नाम ‘शार्लाक होम्स’ कर दिया। डॉक्टर बेल का जो सिद्धांत था, उसी के अनुसार ‘शर्लाक होम्स’ अपराधों का विश्लेषण कर किसी निर्णय पर पहुँचता था। डॉक्टर बेल अपने विद्यार्थियों को छोटी−छोटी बातों की महत्ता पर ध्यान देने के लिए बार-बार कहा करते थे। उन्होंने एक बार एक मित्र को बतलाया कि हाथ से काम करने वाले सभी मज़दूरों के हाथों में एक विशेष चिह्न होता है, वह पत्थर ढोने वालों के हाथ में नहीं रहता। बढ़ई की विशेषता मकान के कारीगर में नहीं पाई जाती। सैनिक और नाविक की चाल में अवश्य भिन्नता रहती है। जो डॉक्टर अच्छी तरह अवलोकन करता है, वह रोगी के बतलाने के पहले ही यह समझ सकता है कि वह अपने किस अंग की पीड़ा के संबंध में बातचीत करेगा। अवलोकन की यह शक्ति एकमात्र जासूसों के लिए ही आवश्यक नहीं है, परंतु डॉक्टरों के लिए अत्यंत आवश्यक है। साधारण व्यक्ति भी यदि अपनी इस शक्ति का विकास करे, तो उसे अपने जीवन में यथेष्ट उत्तेजना और उल्लास की सामग्री प्राप्त होती रहेगी।

    डॉक्टर बेल की एक बहिन ने बतलाया कि जब कभी डॉक्टर बेल किसी ट्रेन से यात्रा करते, तब दूसरे यात्रियों के संबंध में कितनी ही बातें बतलाते थे। वे कहाँ से आ रहे हैं, कहाँ जाएँगे, उनका व्यवसाय क्या है, उनकी आदतें कैसी हैं, आदि बातें केवल एक बार देखकर वे बतला देते थे। यात्रियों से पूछने पर उनकी सभी बातें ठीक उतरती थीं। हम लोग उन्हें जादूगर कहा करते थे परंतु डॉक्टर बेल अपने छात्रों को यही बात प्रमाणित करते थे कि वह जादू नहीं, विज्ञान का फल है। अवलोकन में एक वैज्ञानिक पद्धति चाहिए। एक बार डॉक्टर बेल अपने कमरे में बैठे हुए थे। किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। जब वह व्यक्ति भीतर आया, तब डॉक्टर बेल ने पूछा कि तुम क्यों इतने घबराए हुए हो। उस व्यक्ति ने कहा कि आप कैसे जान गए कि मैं घबराया हुआ हूँ। डॉक्टर बेल ने कहा−तुमने चार बार दरवाज़ा खटखटाते हैं। वह व्यक्ति सचमुच घबराया हुआ था।

    कानन डायल ने एक बार अपने इसी अध्यापक के संबंध में कहा कि जब डॉक्टर बेल के पास रोगी आते थे, तब उनके कहने के पहले ही वे उनके रोग की बात बतला देते थे और उनके अतीत जीवन की भी कितनी ही अज्ञात बातें, स्पष्टता से बतला देते थे। उनसे प्रायः कभी भूल नहीं होती थी।

    आधुनिक हिंदी के अधिकांश समालोचकों ने ऐसे उपन्यासों की ओर एक तिरस्कार भाव व्यक्त किया है। छात्रावस्था में ऐसे उपन्यासों का एक विशेष महत्व रहता है। साहस, सहिष्णुता, धैर्य तथा वीरत्व के भाव के साथ अवलोकन की शक्ति और बुद्धि के विकास के लिए ऐसी कथाओं की विशेष आवश्यकता होती है। मानसिक विकारों के सूक्ष्म विश्लेषण में हिंदी के कितने ही कलाकार यश प्राप्त कर चुके हैं। परंतु अभी तक कोई ऐसा उपन्यास नहीं लिखा गया, जो बालकों में जिज्ञासा, कौतूहल और साहस का भाव उत्पन्न कर सके। अंग्रेज़ी साहित्य में राबिनसन क्रूसो, स्विस फेमली आनंद के साधन हैं। ऐसे उपन्यास उन्हें केवल कल्पना के मायालोक में ही भ्रमण नहीं कराते; परंतु उन्हें अच्छे ढंग से श्रेष्ठ गुणों की शिक्षा देते हैं।

    न तो तिलिस्म की कथाएँ एकमात्र कल्पना की उपज हैं और न जासूस की कथाओं में एकमात्र कल्पना का विलास होता है। यदि वे एकमात्र कल्पना की भी सृष्टि हों, तो भी वे तिरस्कारणीय नहीं हैं। साहित्य−जगत् में उनका भी पृथ्वी को वसुंधरा जानकर लोग गुप्त निधि के लिए प्रयत्नशील होते हैं। उसके लिए एक से एक कठिन स्थितियों और आपत्तियों को झेलने के लिए वे तत्पर हो जाते हैं। इनसे जाति में क्षमता की वृद्धि होती है। सभी जातियों के नवजागरण काल में साहस की ऐसी विलक्षण कथाएँ निर्मित हुई हैं। कथा−सरित् सागर अथवा अलिफ़ लैला की विलक्षण कथाओं में नव−राष्ट्र की उत्साह−दीप्ति छिपी हुई है। इसीलिए उन कथाओं में बालाकों को अभी तक सच्चे आनंद की प्राप्ति होती है। विक्रमादित्य की कथाओं में अपूर्व वीरत्व और साहस के साथ उदारता के गुण भी प्रदर्शित हुए हैं। आधुनिक युग में वैसी कथाएँ अब लिखी नहीं जा सकतीं, फिर भी नए ढंग से अलिफ़ लैला की कहानियाँ किस तरह लिखी जा सकती हैं, यह अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध कथा−लेखक स्टीवेनसन की रचनाओं से प्रकट हो जाता है। एकमात्र मानसिक विकृतियों की गुत्थियाँ सुलझाने में ही कथाकार की सच्ची कुशलता नहीं व्यक्त होती। इसीलिए यह नहीं कहा जा सकता कि हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल में जो घटना−प्रधान उपन्यास लिखे गए उनमें कला का कोई सौष्ठव ही नहीं है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बख्शी ग्रन्थावली खंड−4 (पृष्ठ 329)
    • रचनाकार : हरीसाधन मुखोपाध्याय
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन

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