सुमिरिनी के मनके

sumirini ke manke

चंद्रधर शर्मा गुलेरी

चंद्रधर शर्मा गुलेरी

सुमिरिनी के मनके

चंद्रधर शर्मा गुलेरी

और अधिकचंद्रधर शर्मा गुलेरी

     

    (क) बालक बच गया

     

    एक पाठशाला का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधान अध्यापक का एकमात्र पुत्र, जिसकी अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े लाड़ से नुमाइश में मिस्टर हादी के कोल्हू की तरह दिखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँखें सफ़ेद थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनका वह उत्तर दे रहा था। धर्म के दस लक्षण वह सुना गया, नौ रसों के उदाहरण दे गया। पानी के चार डिग्री के नीचे शीतता में फैल जाने के कारण और उससे मछलियों की प्राणरक्षा को समझा गया, चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक समाधान दे गया, अभाव को पदार्थ मानने न मानने का स्त्रार्थ कह गया और इंग्लैंड के राजा आठवें हेनरी की स्त्रियों के नाम और पेशवाओं का कुर्सीनामा सुना गया। यह पूछा गया कि तू क्या करेगा। बालक ने सीखा सिखाया उत्तर दिया कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा। सभा 'वाह-वाह' करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भर रहा था। एक वृद्ध महाशय ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा कि जो तू इनाम माँगे वही दें। बालक कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस चिंता में लगे कि देखें यह पढ़ाई का पुतला कौन सी पुस्तक माँगता है। बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में दीख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ़ कर नक़ली परदे के हट जाने पर स्वयं विस्मित होकर बालक ने धीरे से कहा, ‘लड्डू’। पिता और अध्यापक निराश हो गए। इतने समय तक मेरा श्वास घुट रहा था। अब मैंने सुख से साँस भरी। उन सबने बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटने में कुछ उठा नहीं रखा था। पर बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह 'लड्डू' की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखाने वाली खड़खड़ाहट नहीं।

     

    (ख) घडी के पुर्ज़े

     

    धर्म के रहस्य जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्य न करे, जो कहा जाए वहीं कान ढलकाकर सुन ले, इस सत्ययुगी मत के समर्थन में घड़ी का दृष्टांत बहुत तालियाँ पिटवाकर दिया जाता है। घड़ी समय बतलाती है। किसी घड़ी देखना जानने वाले से समय पूछ लो और काम चला लो। यदि अधिक करो तो घड़ी देखना स्वयं सीख लो किंतु तुम चाहते हो कि घड़ी का पीछा खोलकर देखें, पुर्ज़े गिन लें, उन्हें खोलकर फिर जमा दें, साफ़ करके फिर लगा लें—यह तुमसे नहीं होगा। तुम उसके अधिकारी नहीं। यह तो वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्ज़े जानें, तुम्हें इससे क्या? क्या इस उपमा से जिज्ञासा बंद हो जाती है? इसी दृष्टांत को बढ़ाया जाए तो जो उपदेशक जी कह रहे हैं उसके विरुद्ध कई बातें निकल आवें। घड़ी देखना तो सिखा दो, उसमें तो जन्म और कर्म की पख न लगाओ, फिर दूसरे से पूछने का टंटा क्यों? गिनती हम जानते हैं, अंक पहचानते हैं, सुइयों की चाल भी देख सकते हैं, फिर आँखें भी हैं तो हमें ही न देखने दो, पड़ोस की घड़ियों में दुपहर के बारह बजे हैं। आपकी घड़ी में आधी रात है, ज़रा खोलकर देख न लेने दीजिए कि कौन सा पेच बिगड़ रहा है, यदि पुर्ज़े ठीक हैं और आधी रात ही है तो हम फिर सो जाएँगे, दूसरी घड़ियों को ग़लत न मान लेंगे पर ज़रा देख तो लेने दीजिए। पुर्ज़े खोलकर फिर ठीक करना उतना कठिन काम नहीं है, लोग सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं, अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाज़ी का इम्तहान पास कर आया है उसे तो देखने दो। साथ ही यह भी समझा दो कि आपको स्वयं घड़ी देखना, साफ़ करना और सुधारना आता है कि नहीं। हमें तो धोखा होता है कि परदादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें ना चाबी देना आता है न पुर्ज़े सुधारना भी तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते इत्यादि।

     

    (ग) ढेले चुन लो

     

    शेक्सपीयर के प्रसिद्ध नाटक 'मर्चेंट ऑफ़ वेनिस' में पोर्शिया अपने वर को बड़ी सुंदर रीति से चुनती है। बबुआ हरिश्चंद्र के 'दुर्लभ बंधु' में पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ हैं—एक सोने की, दूसरी चाँदी की, तीसरी लोहे की। तीनों में (से) एक में उसकी प्रतिमूर्ति है। स्वयंवर के लिए जो आता है उसे कहा जाता है कि इनमें से एक को चुन ले। अकड़बाज़ सोने को चुनता है और उलटे पैरों लौटता है। लोभी को चाँदी की पिटारी अंगूठा दिखाती है। सच्चा प्रेमी लोहे को छूता है और घुड़दौड़ का पहिला इनाम पाता है। ठीक ऐसी ही लॉटरी वैदिक काल में हिंदुओं में चलती थी। इसमें नर पूछता था, नारी को बूझना पड़ता था। स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर, सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के यहाँ पहुँच जाता। वह उसे गौ भेंट करता। पीछे वह कन्या के सामने कुछ मट्टी के ढेले रख देता। उसे कहता कि इसमें से एक उठा ले। कहीं सात, कहीं कम, कहीं ज़्यादा। नर जानता था कि ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया हूँ और किस-किस जगह की (मट्टी) इनमें है। कन्या जानती न थी। यही तो लॉटरी की बुझौवल ठहरी। वेदि की मट्टी, गौशाला की मट्टी, खेत की मट्टी, चौराहे की मट्टी, मसान की धूल—कई चीज़ें होती थीं। बूझो मेरी मुट्ठी में क्या है—चित्त या पट्ट? यदि वेदि का ढेला उठा ले तो संतान 'वैदिक पंडित' होगा। गोबर चुना तो 'पशुओं का धनी' होगा। खेत की मट्टी छू ली तो 'ज़मींदार पुत्र' होगा। मसान की मट्टी को हाथ लगाना बड़ा अशुभ था। यदि वह नारी ब्याही जाए तो घर मसान हो जाए—जनमभर जलाती रहेगी। यदि एक नर के सामने मसान की मट्टी छू ली तो उसका यह अर्थ नहीं है कि उस कन्या का कभी ब्याह न हो। किसी दूसरे नर के सामने वह वेदि का ढेला उठा ले और ब्याही जाए। बहुत से गृह्यसूत्रों में इस ढेलों की लॉटरी का उल्लेख है—आश्वलायन, गोभिल, भारद्वाज—सभी में है। जैसे राजपूतों की लड़कियाँ पिछले समय में रूप देखकर, जस (यश) सुनकर स्वयंवर करती थीं, वैसे वैदिक काल के हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नीवरण करते थे। आप कह सकते हैं कि जन्मभर के साथी की चुनावट मट्टी के ढेलों पर छोड़ना कैसी बुद्धिमानी है! अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों-करोड़ों कोस दूर बैठे बड़े-बड़े मट्टी और आग के ढेलों—मंगल और शनैश्चर और बृहस्पति की—कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है, यह मैं क्या कह सकता हूँ? बक़ौल वात्स्यायन के, आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल के मुहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस की तेज़ पिण्ड से! बक़ौल कबीर के—

    पत्थर पूजे हरि मिलें तो तू पूज पहार। 
    इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : अंतरा (भाग-2) (पृष्ठ 69-72)
    • रचनाकार : पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी
    • प्रकाशन : एन.सी. ई.आर.टी
    • संस्करण : 2022

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