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साहित्यकार व्यक्ति और समष्टि

sahityakar vyakti aur samshti

महादेवी वर्मा

अन्य

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महादेवी वर्मा

साहित्यकार व्यक्ति और समष्टि

महादेवी वर्मा

और अधिकमहादेवी वर्मा

    सृजन की दृष्टि से व्यक्तिगत होने पर भी साहित्य अपने रचनाकार के अनुरंजन मात्र तक सीमित नहीं रहता।

    जिस प्रकार भाषा में वक्ता और श्रोता दोनों की स्थिति स्वयंसिद्ध है, उसी प्रकार साहित्य में दूसरा पक्ष अंतर्निहित है।

    प्रत्येक युग और प्रत्येक देश में साहित्य की उत्कृष्टता की कसौटी उसकी व्यापकता ही मानी गई है और यह व्यापकता स्वयं व्यक्तिगत रुचिवैचित्र्य का निषेध है। मनुष्य एक विशेष सामाजिक परिवेश में उत्पन्न होता है। कुछ संस्कार उसे अपने परिवेश से उत्तराधिकार में प्राप्त होते हैं और कुछ उसके मधुर-कटु अनुभवों से बनते हैं। उसके कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ होते हैं और कुछ समष्टिगत दायित्व, जिन्हें वह सामाजिक प्राणी होने के नाते स्वीकार करता है। व्यक्तिगत स्वार्थ और समष्टिगत स्वार्थों में संघर्ष की संभावना जिस सीमा तक कम होती जाती है, उसी सीमा तक हम किसी समाज को और उसके सदस्यों को संस्कृत कहते हैं।

    मनुष्य की महानता उसके दायित्व की विशालता का पर्याय है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति का स्वार्थ समाज विशेष के स्वार्थ में ही लय नहीं हो जाता, वरन् मानव-समष्टि के स्वार्थ या हित से एकाकार हो जाता है।

    मनुष्य केवल प्राण-संवेदनयुक्त जीव ही नहीं है, वह असंख्य मानसिक संभावनाओं तथा संवेदन के विविध स्तरों का सघात है। बुद्धि की सचेतन प्रक्रिया और अंत:करण की प्रवृत्तियों में सामंजस्य लाने का सचेतन प्रयास तथा उसमें आनंद की अनुभूति उसकी अपनी विशेषता है, जो उसे शेष जीवनसृष्टि से भिन्न कर देती है।

    केवल शारीरिक यात्रा के साधन तथा आत्मरक्षण को सहज चेतना उसमें अन्य प्राण-संवेदनयुक्त जीवों के समान होना स्वाभाविक है। परंतु अपनी सामान्य स्थिति से असंतोष, अज्ञात स्थिति विषयक जिज्ञासा, अनुभूत तथ्यों के आधार पर सर्वथा अनुभूत सत्यों तक पँहुचने का प्रयास, प्रयास में आनदंमयी स्थिति की परिकल्पना, अप्राप्त लक्ष्य में आस्था आदि विशेषताओं के कारण ही वह विशिष्ट है।

    अपनी इस विकासनिष्ठ क्रिया को अबाध रखने के लिए वह अपने बौद्धिक और मानसिक स्वरों का संगठन तथा संशोधन नए-नए प्रकारों से करता रहा है। अपने सहज प्राप्त परिवेश से ही संचालित होकर वह उस पर अपने अंतर्गत को भी प्रतिफलित करता चलता है। इस प्रकार उसकी गति से भौतिक विश्व की एक मानसी सृष्टि भी होती रही है।

    दर्शन, धर्म, विज्ञान, कला, साहित्य सभी ने जीवन के इस दोहरे विकास में योग दिया है। पर मनुष्य की व्यक्ति और समष्टिनिष्ठ तथा बुद्धि और भाव-निष्ठ अभिव्यक्तियाँ साहित्य की अधिक ऋणी हैं।

    जीवन को समग्रता से स्पर्श करने के कारण तथा बुद्धि और अंत:करण की विभिन्न वृत्तियों को संश्लिष्ट करने की क्षमता के कारण साहित्य सहज ही मनुष्य के रहस्य का उद्गीथ बन गया है।

    यह तो सर्वस्वीकृत है कि साहित्य-सृजन का कार्य ऐसे व्यक्ति कर पाते हैं, जिन्हें उनके परिवेश तथा बुद्धि-अंत:करण की वृत्तियों ने उपयुक्त साधनों से संपन्न कर दिया है। वे अमानव है अतिमानव, प्रत्युत, विकास के ऐसे बिंदु पर सामान्य मानव हैं कि जीवन और परिवेश में अव्यक्त हलचल भी उनकी अनुभूति में व्यक्त हो जाती है। साहित्य को चाहे किसी ने जीवन का अनुकरण माना हो चाहे कल्पना-सृष्टि, चाहे जीवन-नीति का संचालक कहा हो चाहे सौंदर्य-बोध मात्र, परंतु उसके सृष्टा की विशिष्ट प्रतिभा को सभी ने स्वीकार किया। केवल अभ्यास से उत्कृष्ट साहित्य-सृजन संभव है, यह आज का वैज्ञानिक युग भी स्वीकार नहीं करता, अन्य अतीत युगों की चर्चा ही व्यर्थ है।

    ऐसी स्थिति में साहित्य को व्यक्तिगत रुचि मात्र मान लेना उसके युगांतर-व्यापी प्रभाव को अस्वीकार करना है।

    साहित्य विशेष व्यक्तित्व का परिणाम है, इसी अर्थ में उसे व्यक्तिगत कहा जा सकता है, परंतु इस अर्थ में मानसिक ही नहीं भौतिक विकास भी वस्तुनिष्ठ रहेगा।

    विकास के रहस्यमय क्रम में एक वस्तु विकसित होकर विकास करती है और इसी प्रकार विकास की परंपरा अबाध चलती हुई विकास का मानदंड निर्मित करती है।

    अपने सृजन से साहित्यकार स्वयं भी बनता है, क्योंकि उसमें नए संवेदन जन्म लेते हैं, नया सौंदर्यबोध उदय होता है और नए जीवन दर्शन की उपलब्धि होती है। सारांश यह कि वह जीवन की दृष्टि से समृद्ध होता जाता है। इसी से साहित्य सृष्टि का लक्ष्य 'स्वांत सुखाय' का विरोधी नहीं हो सकता पर यह क्रिया अपने कर्त्ता को बनाने के साथ-साथ उसके परिवेश को भी बनाती चलती है, क्योंकि समष्टि में इन्हीं नवीन संवेदनों, सौंदर्य-बोधों और विश्वासों का स्फुरण होता रहता है।

    फूल का विकास अपनी ही रूप-रंग-रसमयता नहीं है, क्योंकि वह अपनी मिट्टी और परिवेश का संयोजन, संवर्द्धन भी करता है। पौधा मिट्टी, धूप, पानी आदि नहीं बनाता, परंतु इनकी सम्मिलित शक्तियों का रसायन ग्रहण कर स्वयं बनाता और उसे व्यक्त करके अपने परिवेश को नवीन रूप-रंग-रसमय बनाता है।

    मूर्तिकार पाषाण बनाता है छेनी का लोहा। वह केवल प्राकृतिक उत्पादनों और उनकी शक्तियों को संयोजित कर अपनी मानसी सृष्टि को साकार और प्रत्यक्ष कर स्वयं संतोष पाता तथा समष्टिगत परिवेश का संवर्द्धन करता है।

    संगीतकार भी स्वरों का और तारों की धातु का सृजन नहीं करता। चित्रकार भी प्रकृति में बिखरी रंग-रेखाओं का स्रष्टा नहीं है। नृत्यकार भी गति का सृजन नहीं करता। शिल्पी पाषाण में अव्यक्त आकारों को व्यक्त आकार देकर, चित्रकार प्रत्यक्ष रंग-रेखाओं के संयोजन में किसी अंतर्निहित सामंजस्य को अवतार देकर और नृत्यकार विश्व में व्याप्त गति को जीवन की विविध चेष्टाओं में छंदायित कर जो सृजन करता है, वह व्यक्ति सीमित नहीं हो सकता, क्योंकि माध्यम व्यक्तिनिष्ठ है और बौद्धिक प्रक्रियाएँ और मानसिक वृत्तियाँ केवल उसकी हैं। इसी से मनुष्य की अव्यक्त संभावनाएँ तथा संवेदन किसी किसी बिंदु पर सबके हो जाते हैं और सबके हो जाने में ही उनकी कृतार्थता है।

    व्यक्ति से जिस सत्तागत अभिव्यक्ति अथवा अस्तित्वगत विशेषता का बोध होता है वह भौतिक जगत से अधिक संबद्ध है, परंतु ज्यों-ज्यों हम उसके भीतर प्रवेश करते हैं त्यों-त्यों ये कठिन रेखाएँ गल-गलकर तरल होने लगती हैं। दो पत्ते भी समान नहीं हैं, पर दो मनुष्य आकृति में भिन्न होकर भी संवेदन के एक स्तर पर समान हैं।

    इस मूलगत एकता के कारण ही साहित्यिक उपलब्धियाँ कालांतरव्यापिनी हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में साहित्य के स्रष्टा मात्र ही उसके उपभोक्ता कैसे माने जा सकते हैं! जीवन के परिष्कार और परिवर्तन के हर अध्याय में साहित्य के चिह्न हैं, अत: उसे व्यापक सामाजिक कर्म कहना अन्याय होगा। पर जब हम उसे विशेष सामाजिक कर्म मान लेते हैं, तब यह समस्या मानसिक क्षेत्र से उतरकर सामाजिक धरती पर प्रतिष्ठित हो जाती है और उसका समाधान नए रूप में उपस्थित होता है।

    यदि विशेष सामाजिक कर्म व्यक्ति का समष्टि को दान है तो वह दान देने वाले और पाने वाले के मानसिक तथा भौतिक परिवेश के अनुसार ही कम या अधिक महत्त्व पाता है। परंतु यह स्वीकार कर लेने पर कि साहित्यसृजन व्यक्तिगत रुचि मात्र होकर महत्त्वपूर्ण सामाजिक कर्म है, साहित्यकार की समस्या सामाजिक प्राणी की ओर विशेष कार्यक्षम सामाजिक सदस्य की समस्या हो जाती है।

    समाज केवल भीड़ का पर्याय नही होता। 'समाना अजति' समान संचरण-शील व्यक्ति-समूह ही समाज है। इन व्यक्तियों में व्यक्तिगत स्वार्थ की समष्टिगत रक्षा के लिए अपने विषम आचरण में साम्य उत्पन्न करने वाले समझौते की स्थिति अनिवार्य रहेगी। व्यक्ति और व्यक्ति के स्वार्थों में सघर्ष की संभावना ज्यों-ज्यों घटती जाती है, त्यों-त्यों व्यक्ति का परिवेश समष्टि के परिवेश तक फैलता जाता है और पूर्ण विकसित समाज में व्यक्ति के संकीर्ण परिवेश की कल्पना ही कठिन हो जाती है। मनुष्य अपनी क्रियाशीलता की समाज को निवेदित कर देता है और अपने इस समर्पण से वह स्वयं एक विशाल और निरंतर सृजन का अभूत हो जाता है। पर स्वस्थ समाज में व्यक्ति की क्रियाशक्ति की स्वाभाविक परिणति जीवन के उत्तरोत्तर विकास की सुविधा ही रहती है। जब ऐसा तारतम्य नहीं रहता, तब ऐसी विच्छिन्न क्रिया कभी विद्रोह का पर्याय मानी जाती है और कभी अपराध की संज्ञा पाती है।

    स्वयं को शासित रखने के लिए समाज एक लिखित विधि निषेधमय विधान रखता अवश्य है, पर वह संचालित ऐसे अलिखित विधान से होता है, जो परंपरा, रुचि, आस्था, संस्कार, मनोराग आदि का संश्लिष्ट योगदान है। पूर्ण से पूर्ण समाज भी व्यक्ति के जीवन को सब ओर से घेर नहीं सकता, क्योंकि मानव स्वभाव का बहुत-सा अंश समाज की विधि-निषेधमयी सीमारेखा के बाहर मुक्त और उसकी दृष्टि से ओझल रहता है।

    मनुष्य के जीवन का जितना अंश नीति, शिक्षा, आचार आदि सामाजिक संहिताओं के संपर्क में आता है, उतना ही समाज द्वारा शासित माना जाएगा। समाज यदि मनुष्यों के समूह का नाम नहीं है तो मनुष्य भी केवल क्रियाओं का संघात नहीं है। दोनों के पीछे सामूहिक तथा व्यक्तिगत इच्छा, हर्ष, विषाद आदि की प्रेरणा रहती है। आचरण की सेना के समान कवायद सिखा देना ही जीवन नही हैं, वरन् कर्म को प्रेरित करने वाले मनोविकारों के उद्गम खोजकर उनमें विकास की अनुकूलता पा लेना जीवन का लक्ष्य है।

    साहित्य का उद्देश्य समाज के अनुशासन से बाहर स्वछंद मानव-स्वभाव में, उसकी मुक्ति को अक्षुण्ण रखते हुए समाज के लिए अनुकूलता उत्पन्न करना है।

    साहित्य एक ओर विधि-निषेध से बाहर निकलने वाले मानव-मन को समष्टि से बाँधकर उसकी निरुद्देश्य उड़ान को थाम लेता है और दूसरी ओर समाज की दृष्टि से ओझल मानव स्वभाव की विविधताओं को उसके सामने प्रस्तुत कर सामाजिक मूल्यांकन को समृद्ध करता है।

    इस प्रकार निबंध कुछ बँध जाता है और बँध के बंधन कुछ शिथिल हो जाते हैं।

    मनुष्य को अपने लिए विशेष वातावरण ढूँढ़ने नहीं जाना पड़ता। वह एक विशेष परिवेश में जन्म लेकर अपने विकास के साथ-साथ सामाजिक संस्थाओं से परिचित और अनुशासित होता चलता है। जैसे उसे साँस के लिए वायु अनायास मिल जाती है, उसी प्रकार समाज का दान भी अयाचित और अनजाने ही उसे प्राप्त हो जाता है।

    जब तक वह अपने आपको जानने की स्थिति में पँहुचता है, तब तक समाज उसे एक साँचे में ढाल चुका होता है। परंतु यदि मनुष्य अपने इसी निर्माण से संतुष्ट हो सके तो उसमे और जड़ में अंतर ही क्या रहेगा!

    वह दर्ज़ी के मिले कपड़ों के समान समाज के विधि-निषेध को धारण कर लेता है और तब उनके तंग या ढीले होने पर सुंदर या कुरुप होने पर संतुष्ट-असंतुष्ट होता है।

    यह संतोष-असंतोष समाज के शासन की परिधि में नहीं आता, पर साहित्य इसी का मूल्यांकन करता है। दूसरे शब्दों में समाज के दान की जहाँ इति है, साहित्य का अर्थ उसी बिंदु से चलता है। अतः साहित्यकार का कर्म अन्य कर्मों को तोलने वाले तुला और बाटों में नहीं तुल सकता।

    अन्य क्षेत्रों में समाज अपने सदस्यों की क्रियाशक्ति को अपने अधीन कर उनकी प्रतिभा और कुशलता के अनुसार उनका कार्य निश्चित कर देता है तथा उसके प्रतिदान में उन्हें जीवन-यात्रा की सुविधाएँ प्रदान करता है।

    दोनों पक्षों का आदान-प्रदान इतने स्थूल धरातल पर स्थित है कि उसकी उपयोगिता के विषय में किसी से देह का अवकाश कम रहता है।

    भारी पैना तलवार गढ़ने वाले लौहकार के कार्य का महत्त्व भी समाज जानता है और हल्की अँगूठी में रत्नों की बारीक जड़ाई करने वाले स्वर्णकार की कुशलता का मूल्य भी उसमें छिपा नहीं है।

    कष्ट-लभ्य वस्तुओं का क्रय-विक्रय करने वाले व्यापारी की प्रत्यक्ष योजना का भी उसे ज्ञान है और मंदिर में मौन जप करने वाले पुजारी को अप्रत्यक्ष रचना में भी उसका विश्वास है।

    न्यायासन पर दंड-पुरस्कार का वितरण करने वाले न्यायाचार्य के कार्य के विषय में उसे संदेह नहीं है और समाज की नई पीढ़ी को परंपरानुसार शांत, दाँत बनाने में लगे हुए शिक्षा-शास्त्री के कार्य का भी उसके पास लेखा-जोखा है।

    समाज ने इन विविध कार्यों को, अधिकारी व्यक्तियों को स्वयं सौंपा है। और उन कर्तव्यों के विषय में एक परंपरागत शास्त्र भी पूर्व निश्चित है। वे कैसे करते हैं, यह दूसरा प्रश्न है, परंतु वे क्या करें और क्या करें के विषय में द्विविधा नहीं है।

    कठिन दंड के पात्र को दंड कम मिले या मिले, मतभेद का विषय हो सकता है, परंतु दंड-मुक्ति-विधान समाज स्वीकृत है और न्याय का कार्य समाज द्वारा किसी को सौंपा गया है।

    प्रत्येक सामाजिक संस्था समाज का अंग है और वह मनुष्य के जीवन के उन्हीं अंशो से संबंद्ध रहती हैं, जिन पर समाज की सत्ता है।

    मानव-स्वभाव का जो अंश समाज के विधि-निषेध की परिधि से बाहर अस्तित्व रखता है, उसके लिए सामाजिक संस्था नहीं बनाई जा सकती, पर उस तक समष्टि के सुख दुखों की अनुभूति पँहुचाकर उसे समाजोन्मुख किया जा सकता है।

    परंतु यह कार्य वही व्यक्ति कर सकता है, जिसे समाज के सौंदर्य और विरूपता, सुख और दुख की व्यष्टिगत पर तीव्र अनुभूति होती है। समाज अन्य क्षेत्र के समान इसके हाथ में कोई विधि निषेध शास्त्र देकर नहीं कह सकता। 'मैं तुम्हें कवि, नाटककार कथाकार आदि के कर्तव्य पर नियुक्त करता हूँ, तुम मेरे विधान के स्थायित्व के लिए कार्य करो।'

    वस्तुत: समाज किसी साहित्यकार के अंतर्जगत की हलचल से परिचित तब होता है जब वह अभिव्यक्ति पा लेती है। 'इस अभिव्यक्ति से पहले अनुभावक को शक्तियों से और उसकी अनुभूति की तीव्रता से समाज अपरिचित रहता है और यह अपरिचय एक सीमा तक व्यक्ति और समाज को दो परस्पर विरोधी पक्षों में भी खड़ा कर सकता है।

    साहित्य समाज की अपराजेय शक्ति है, पर क्या उसी प्रकार निर्भर पर्वत की अपराजेय शक्ति नहीं है?

    क्या पर्वत की शक्ति होने के कारण उसे उसकी कठोर शिलाओं से संघर्ष नहीं करना पड़ता? पर्वत से सर्वथा अनुकूल स्थिति रखने के लिए तो प्रपात को जमकर शिलायित होना पड़ेगा।

    संतान का जन्म माता की पीड़ा का भी जन्म है। इसी प्रकार साहित्य भी समाज में, समाज के लिए निर्मित होकर भी उसमें कोई उद्वेलन, कोई असंतोष उत्पन्न करता ही है। ऐसी स्थिति में समाज साहित्य की सामाजिक और श्रेष्ठ सामाजिक कर्म के रूप में स्वीकार करे तो आश्चर्य की बात नहीं।

    जिस युग में समाज की दबी हलचलें उसके अन्य क्षेत्रों में भी कुछ असंतोष उत्पन्न करने लगती हैं, उनमें साहित्य सहज नेतृत्व प्राप्त कर लेता है; परंतु जिन युगों में समाज के अवचेतन मन पर जड़ता का स्तर कठिन हो जाता है, उनमे साहित्य को या तो स्वयं भी जड़ता का स्तर ओढ़ लेना पड़ता है या अकेले जूझना।

    साहित्य के समष्टिगत लक्ष्य से व्यक्ति-वैचित्र्य की संगति नहीं बैठती।

    लक्ष्यतः साहित्य जीवन के मूल्यों का संरक्षक, परीक्षक, संशोधक तथा आत्मीय प्रेषक रहता है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति-वैचित्र्य मात्र उसके संवेदन को प्रेषणीयता के मार्ग में अवरोध ही सिद्ध होगा।

    परंतु कभी-कभी साहित्यकार की भावित मानसी सृष्टि के सौंदर्य से उसका युग इतना अपरिचित रहता है कि उसे आत्मीयता नहीं दे पाता और परिणामतः उसे व्यक्ति-वैचित्र्य कहकर मुक्ति पा लेता है।

    भवभूति ने ऐसी ही दुर्वह स्थिति को 'उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपिसमानधर्मा' कहकर व्यक्त किया है।

    समग्र तथा संश्लिष्ट जीवन लक्ष्य होने के कारण ही साहित्य किसी एकाकी लक्ष्य से संबद्ध होकर सीमित हो जाता है, परंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वह जीवन के किसी भी क्षेत्र के मूल्यों का विरोधी है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : मेरे प्रिय निबंध (पृष्ठ 20)
    • रचनाकार : महादेवी वर्मा
    • प्रकाशन : नेशनल पब्लिशिंग हाउस

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