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पीछे मत फेंकिए (शिवशंभू के चिट्ठे और ख़त)

pichhe mat phenkiye (shivshambhu ke chitthe aur khat)

बालमुकुंद गुप्त

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बालमुकुंद गुप्त

पीछे मत फेंकिए (शिवशंभू के चिट्ठे और ख़त)

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    माई लार्ड! सौ साल पूरे होने में अभी कई महीनों की कसर है। उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी ने लार्ड कार्नवालिस को दूसरी बार इस देश का गवर्नर-जनरल बनाकर भेजा था। तब से अब तक आप ही को भारतवर्ष का फिर से शासक बनकर आने का अवसर मिला है। सौ वर्ष पहले के उस समय की ओर एक बार दृष्टि कीजिए। तब में और अब में कितना अंतर हो गया है, क्या से क्या हो गया है? जागता हुआ रंग अति चिंता का मारा सो जावे और स्वप्न में अपने को राजा देखे, द्वार पर हाथी झूमते देखे अथवा अलिफ़ लैला के अबुलहसन की भाँति कोई तरल युवक प्याले पर प्याला उड़ाता घर में बेहोश हो और जागने पर आँखें मलते-मलते अपने को बगदाद का ख़लीफ़ा देखे, आलीशान सजे महल की शोभा उसे चक्कर में डाल दे, सुंदरी दासियों के जेवर और कामदार वस्त्रों की चमक उसकी आँखों में चकाचौंध लगा दे तथा सुंदर बाजों और गीतों की मधुरध्वनि उसके कानों में अमृत ढालने लगे, तब भी उसे शायद आश्चर्य हो जितना सौ साल पहले की भारत में अँग्रेज़ी राज्य की दशा को आजकल की दशा के साथ मिलाने से हो सकता है।

    जुलाई सन् 1805 ई. में लार्ड कार्नवालिस दूसरी बार भारत के गवर्नर जनरल होकर कलकत्ते में पधारे थे। उस समय ईस्ट इंडिया कंपनी की सरकार पर चारों ओर से चिंताओं की भरमार हो रही थी, आशंकाएँ उसे दम नहीं लेने देती थीं। हुल्कर से एक नई लड़ाई होने की थी, सेंधिया से लड़ाई चलती थीं। ख़जाने में बरकत ही बरकत थीं। ज़मीन का कर वसूल होने में बहुत देर थी। युद्धस्थल में लड़ने वाली सेनाओं को पाँच-पाँच महीने से तनख़्वाह नहीं मिली थी। विलायत के धनियों में कंपनी का कुछ विश्वास था। सत्तर साल का बूढ़ा गवर्नर जनरल यह सब बातें देखकर घबराया हुआ था। उससे केवल यही बन पड़ा कि दूसरी बार पदारूढ़ होने के तीन ही मास पीछे ग़ाज़ीपुर में जाकर प्राण दे दिया। कई दिन तक इस बात की ख़बर भी लोगों ने नहीं जानी। आज विलायत से भारत तक दिन में कई बार तार दौड़ जाता है। कई एक घंटों में शिमले से कलकत्ते तक स्पेशल ट्रेन पार हो जाती है। उस समय कलकत्ते से ग़ाज़ीपुर तक जाने में बड़े लाट को कितने ही दिन लगे थे। ग़ाज़ीपुर में उनके लिए कलकत्ते से जल्द किसी प्रकार की सहायता पहुँचने का कुछ उपाय था।

    किंतु और ही समय है। माई लार्ड! लार्ड कार्नवालिस के दूसरी बार गवर्नर जनरल होकर भारत में आने और आपके दूसरी बार आने में बड़ा अंतर है। प्रताप आपके साथ-साथ है। अँग्रेज़ी राज्य के भाग्य का सूर्य मध्याह्न में है। उस समय के बड़े लाट को जितने दिन कलकत्ते से ग़ाज़ीपुर जाने में लगे होंगे, आप उनसे कम दिनों में विलायत से भारत में पहुँच गए। लार्ड कार्नवालिस को आते ही दो एक देशी रईसों के साथ लड़ाई करने की चिंता थी, आपके स्वागत के लिए कोड़ियों राजा, रईस बंबई दौड़े गए और जहाज़ से उतरते ही उन्होंने आपका स्वागत करके अपने भाग्य को धन्य समझा। कितने ही बधाई देने कलकत्ते पहुँचे और कितने और चले रहे हैं। प्रजा की चाहे कैसी ही दशा हो, पर ख़ज़ाने में रुपए उबले पड़ते हैं। इसके लिए चारों ओर से आपकी बड़ाई होती है। साख इस समय की गवर्नमेंट की इतनी है कि विलायत में या भारत में एक बार 'हूँ' करते ही रुपए की वर्षा होने लगती है। विलायती मंत्री आपकी मुट्ठी में हैं। विलायत की जिस कन्ज़रवेटिव गवर्नमेंट ने आपको इस देश का वायसराय किया, वह अभी तक बराबर शासन की मालिक है। लिबरल निर्जीव हैं। जानब्राइट, ग्लाडस्टोन, ब्राडला, जैसे लोगों से विलायत शून्य है, इससे आप परम स्वतंत्र हैं। इंडिया ऑफ़िस आपके हाथ की पुतली है। विलायत के प्रधानमंत्री आपके प्रिय मित्र हैं। जो कुछ आपको करना है, वह विलायत में कई मास रहकर पहले ही वहाँ के शासकों से निश्चय कर चुके हैं। अभी आपकी चढ़ती उमर है। चिंता कुछ नहीं है। जो कुछ चिंता थी, वह भी जल्द मिट गई। स्वयं आपकी विलायत के बड़े भारी बुद्धिमानों और राजनीति-विशारदों में गिनती है, वरन् कह सकते हैं कि विलायत के मंत्री लोग आपके मुँह की ओर ताकते हैं। सम्राट् का आप पर बहुत भारी विश्वास है। विलायत के प्रधान समाचार पत्र मानो आपके बंदीजन हैं। बीच-बीच में आपका गुणग्राम सुनाना पुण्यकार्य समझते हैं। सारांश यह कि लार्ड कार्नवालिस के समय और आपके समय में बड़ा ही भेद हो गया है।

    संसार में अब अँग्रेज़ी प्रताप अखंड है। भारत के राजा अब आपके हुक्म के बंद हैं। उनको लेकर चाहे जुलूस निकालिए, चाहे दरबार बनाकर सलाम कराइए, उन्हें चाहे विलायत भिजवाइए, चाहे कलकत्ते बुलवाइए, जो चाहे सो कीजिए, वह हाज़िर हैं। आपके हुक्म की तेज़ी तिब्बत के पहाड़ों की बरफ़ को पिघलाती है, फारिस की खाड़ी का जल सुखाती है, काबुल के पहाड़ों को नर्म करती है। जल, स्थल, वायु, और आकाश मंडल में सर्वत्र आपकी विजय है। इस धराधाम में अब अँग्रेज़ी प्रताप के आगे कोई उँगुली उठाने वाला नहीं है। इस देश में एक महाप्रतापी राजा के प्रताप का वर्णन इस प्रकार किया जाता था कि इंद्र उसके यहाँ जल भरता था, पवन उसके यहाँ चक्की चलाता था, चाँद सूरज उसके यहाँ रोशनी करते थे, इत्यादि। पर अँग्रेज़ी प्रताप उससे भी बढ़ गया है। समुद्र अँग्रेज़ी राज्य का मल्लाह है, पहाड़ों की उपत्यकाएँ बैठने के लिए कुर्सी मूढ़े। बिजली कलें चलाने वाली दासी और हज़ारों मील ख़बर लेकर उड़ने वाली दूती, इत्यादि इत्यादि।

    आश्चर्य है माई लार्ड! एक सौ साल में अँग्रेज़ी राज्य और अँग्रेज़ी प्रताप की तो इतनी उन्नति हो पर उसी प्रतापी ब्रटिश राज्य के अधीन रहकर भारत अपनी रही सही हैसियत भी खो दे। इस अपार उन्नति के समय में आप जैसे शासक के जी में भारतवासियों को आगे बढ़ाने की जगह पीछे धकेलने की इच्छा उत्पन्न हो। उनका हौंसला बढ़ाने की जगह उनकी हिम्मत तोड़ने में आप अपनी बुद्धि का अपव्यय करें। जिस जाति से पुरानी कोई जाति इस धराधाम पर मौज़ूद नहीं, जो हज़ार साल से अधिक की घोर परधीनता सहकर भी लुप्त नहीं हुई, जीती है, जिसकी पुरानी सभ्यता और विद्या की आलोचना करके विद्वान् और बुद्धिमान लोग आज भी मुग्ध होते हैं जिसने सदियों इस पृथ्वी पर अखंड-शासन करके सभ्यता और मनुष्यत्व का प्रचार किया, वह जाति क्या पीछे हटाने और धूल में मिला देने के योग्य है?

    आप जैसे उच्च श्रेणी के विद्वान् के जी में यह बात कैसे समाई कि भारतवासी बहुत-से काम करने के योग्य नहीं और उनको आपके सजातीय ही कर सकते हैं? आप परीक्षा करके देखिए कि भारतवासी सचमुच उन ऊँचे से ऊँचे कामों को कर सकते हैं या नहीं, जिनको आपके सजातीय कर सकते हैं। श्रम में, बुद्धि में, विद्या में, काम में, वक्तृता में, सहिष्णुता में, किसी बात में इस देश के निवासी संसार में किसी जाति के आदमियों से पीछे रहने वाले नहीं हैं। वरन् दो एक गुण भारतवासियों में ऐसे हैं कि संसार भर में किसी जाति के लोग उनका अनुकरण नहीं कर सकते। हिंदुस्तानी फ़ारसी पढ़ के ठीक फ़ारिसवालों की भाँति बोल सकते हैं, कविता कर सकते हैं। अँग्रेज़ी बोलने में वह अंँग्रेज़ों की पूरी नक़ल कर सकते हैं, कंठ तालू को अँग्रेज़ों के सदृश बना सकते हैं। पर एक भी अँग्रेज़ ऐसा नहीं है, जो हिंदुस्तानियों की भाँति साफ़ हिंदी बोल सकता हो। किसी बात में हिंदुस्तानी पीछे रहने वाले नहीं हैं। हाँ दो बातों में वह अँग्रेज़ों की नक़ल या बराबरी नहीं कर सकते हैं। एक तो अपने शरीर के काले रंग को अँग्रेज़ों की भाँति गोरा नहीं बना सकते और दूसरे अपने भाग्य को उनके भाग्य में रगड़कर बराबर नहीं कर सकते।

    किंतु इस संसार के आरंभ में बड़ा भारी प्रार्थक्य होने पर भी अंत में बड़ी भारी एकता है। समय अंत में सबको अपने मार्ग पर ले आता है।देशपति राजा और भिक्षा माँगकर पेट भरने वाले कंगाल का परिणाम एक ही होता है। मट्टी-मट्टी में मिल जाती है और यह जीते जी लुभाने वाली दुनिया यहीं रह जाती है। कितने ही शासक और कितने ही नरेश इस पृथ्वी पर हो गए, आज उनका कहीं पता निशान नहीं है। थोड़े-थोड़े दिन अपनी-अपनी नौबत बजा गए चले गए। बड़ी तलाश से इतिहास के पन्नों अथवा टूटे-फूटे खंडहरों में उनके दो चार चिह्न मिल जाते हैं। माई लार्ड! बीते हुए समय को फिर लौटा लेने की शक्ति किसी में नहीं है, आप में भी नहीं है। दूर की बात दूर रहे, इन पिछले सौ साल ही में कितने बड़े लाट आए और चले गए। क्या उनका समय फिर लौट सकता है? कदापि नहीं। विचारिए तो मानो कल आप आए थे, किंतु छः साल बीत गए। अब दूसरी बार आने के बाद भी कितने ही दिन बीत गए तथा बीत जाते हैं। इसी प्रकार उमरें बीत जावेंगी, युग बीत जावेंगे। समय के महासमुद्र में मनुष्य की आयु एक छोटी-सी बूँद की भी बराबरी नहीं कर सकती। आप में शक्ति नहीं है कि पिछले छः वर्षों को लौटा सकें या उनमें जो कुछ हुआ है उसे अन्यथा कर सकें। दो साल आपके हाथ में अवश्य हैं। इनमें जो चाहें कर सकते हैं। चाहें तो इस देश की 30 करोड़ प्रजा को अपनी अनुरक्त बना सकते हैं और इस देश के इतिहास में अच्छे वायसरायों में अपना नाम छोड़ जा सकते हैं। नहीं तो यह समय भी बीत जावेगा और फिर आपका करने धरने का अधिकार ही कुछ रहेगा।

    विक्रम, अशोक अकबर के यह भूमि साथ नहीं गई। औरंगज़ेब, अलाउद्दीन इसे मुट्ठी में दबा कर नहीं रख सके। महमूद, तैमूर और नादिर, इसे लूट के माल के साथ ऊँटों और हाथियों पर लादकर ले जा सके। आगे भी यह किसी के साथ जावेगी, चाहे कोई कितनी ही मज़बूती क्यों करे। इस समय भगवान से इसे एक और ही जाति के हाथ में अर्पण किया है, जिसकी बुद्धि विद्या और प्रताप का संसार भर में डंका बज रहा है। माई लार्ड! उसी जाति की ओर से आप इस देश की 30 करोड़ प्रजा के शासक हैं।

    अब यह विचारना आप ही के ज़िम्मे है कि इस देश की प्रजा के साथ आपका क्या कर्तव्य है। हज़ार साल से यह प्रजा गिरी दशा में है। क्या आप चाहते हैं कि यह और भी सौ पचास साल गिरती चली जावे? इसके गिराने में बड़े से बड़ा इतना ही लाभ है कि कुछ संकीर्ण हृदय शासकों की यथेच्छाचारिता कुछ दिन और चल सकती है। किंतु इसके उठाने और संभालने में जो लाभ हैं, उनकी तुलना नहीं हो सकती है। इतिहास में सदा नाम रहेगा कि अँग्रेज़ों ने एक गिरी जाति के तीस करोड़ आदमियों को उठाया था। माई लार्ड! दोनों में जो बात पसंद हो, वह कर सकते हैं। कहिए क्या पसंद है? पीछे हटाना या आगे बढ़ाना?

    'भारतमित्र', 17 दिसंबर,1904 ई.

    स्रोत :
    • पुस्तक : बालमुकुंद गुप्त ग्रंथावली (पृष्ठ 103)
    • संपादक : नत्थन सिंह
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : हरियाणा साहित्य अकादमी
    • संस्करण : 2008

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