मुसलमान और हिंदू-कवियों में विचार-साम्य
musalman aur hindu kaviyon mein vichar samya
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
Surykant Tripathi 'Nirala'
मुसलमान और हिंदू-कवियों में विचार-साम्य
musalman aur hindu kaviyon mein vichar samya
Surykant Tripathi 'Nirala'
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
और अधिकसूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
सभ्यता के आदिकाल से लेकर आज तक जितनी बड़ी-बड़ी बातें साहित्य के पृष्ठों में लिखी हुई मिलती हैं, उनके बाह्य रूपों में साम्य न रहने पर भी वे एक ही सत्य का प्रकाश देती हैं। आज तक मानवीय सभ्यता जहाँ कहीं एक-दूसरी सभ्यता से टक्कर लेती आई है, वहाँ उसके बाह्य रूपों में ही वैषम्य रहा है, वेश-भूषणों, आचार-व्यवहारों तथा उच्चारण और भाषाओं का ही बहिरंग भेद रहा है। उन सभ्यताओं के विकसित रूप देखिए, तो एक ही सत्य की अटल अपार महिमा वहाँ मिलती है। थोड़ी देर के लिए, उदाहरणार्थ, हम मुसलमानों को ले सकते हैं। मुसलमानों से हिंदुओं की लड़ाई शताब्दियों तक होती रही। आज भी यदि भारतवर्ष के स्वतंत्र होने में कहीं किसी को कोई अड़चन मिलती है, तो वह हिंदू-मुसलमानों का वैषम्य ही कहा जाता है। जगह-जगह, मौक़े-बेमौक़े, आज भी दोनों एक-दूसरे की जान ले लेने को तैयार हो जाते हैं। बहुत कम हिंदू और बहुत कम मुसलमान ऐसे होंगे, जो इनमें से एक-दूसरे के उत्कर्ष का पूरा-पूरा पता रखते हों। मुसलमानों के आक्रमण के समय से लेकर आज तक दोनों जातियों में जो घृणा के भाव चले आ रहे हैं, वे दोनों जातियों की अस्थि-मज्जा में कुछ इस तरह से मिल गए हैं कि सुप्त रहते हुए भी वे जाग्रत ही रहते हैं। हिंदू लोग, आचारों को प्रधानता देते हुए, ख़ुदा-परस्त मुसलमानों को म्लेच्छ आदि नामों से विभूषित करते हैं। उसी तरह मुसलमान भी हिंदुओं को मूर्ति पूजक देखकर उन्हें बुत-परस्त, काफ़िर आदि घृणा-सूचक शब्दों से याद करते हैं। सदियों से यह व्यवहार कुछ ऐसा चला आ रहा है कि दोनों के विचारों में जहाँ साम्य है, वहाँ तक पहुँचकर दोनों में मैत्री स्थापना की कोई चेष्टा ही नहीं की गई। जिन हिंदुओं को ‘आचार: प्रथमो धर्म:’ सिखलाया जाता है, और यह इसलिए कि आचारों से चित्त-शुद्धि होने पर ज्ञान या सत्य की प्रतिष्ठा मन में हो सकेगी, वे हिंदू आचारों में इस बुरी तरह बँध जाते हैं कि वे आचार हो उनकी आध्यात्मिक उन्नति के अंतिम लक्ष्य से बने रहते हैं, यद्यपि ‘अघोरान्नापरो मंत्र:’ का वे प्रतिदिन पाठ किया करते हैं। इधर मुसलमानों को बुत ही से ख़ुदा का पाठ मिला; पर वे बुत को घृणा ही करते गए केवल काव्य में ही रह गया।
“परिस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत, तुझे—
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले।”—
किंतु बुतों के प्रति ये भाव उनके नहीं रह गए, यद्यपि बुत-रूपी अपने बीवी-बच्चों को सभी मुसलमान प्यार करते हैं।
आज, अब, विज्ञान के युग में, जिस तरह पश्चिम की रोशनी से अपने गृह का अंधकार दूर करने के लिए राष्ट्रवादी हिंदू प्रयत्नशील हैं, उसी तरह मुसलमान भी। परंतु स्वार्थ एक अजीब सत्ता है। यहाँ प्राणों का भरा हुआ आनंद बिल्कुल ही नहीं, सिर्फ़ एक प्रभाव की आग भड़कती है। देश दीन है, दु:खी है, परतंत्र है, स्वाधिकार-रहित है, इस तरह की अभाववाली जितनी भी बातें होंगी, वे जिस तरह प्राणहीन हैं, उनकी पूर्ति के लिए लड़ाइयाँ, उद्योग आदि भी उसी तरह प्राण-हीन। कारण, स्वार्थ ही दोनों का मूल है। यदि ब्रिटेन के वीर सिंह हैं और भारत के दीन कृषक मेष, तो विचार की दृष्टि में, दार्शनिक की भाषा में, दोनों मनुष्यता से गिरे हुए हैं, और आधुनिक विकासवाद के अनुसार सिंह और मेष में कौन-सी सृष्टि अधिक उच्च है, यह बतलाना भी ज़रा टेढ़ी खीर है। मतलब यह कि जिस विज्ञान के बल पर पश्चिम सिंह बन सकता है, वह जिस तरह मनुष्यता की हद से गिरा हुआ होता है, उसी तरह हिंदुओं का ज्ञान-मूल-रहित आचारवाद, जिसने सदियों से उन्हें ग़ुलाम बना रखा है, और मुसलमानों की ख़ुदापरस्ती भी, जो बुतों से घिरी हुई रहकर भी उनकी सत्ता से घृणा करें।
हिंदू और मुसलमान, दोनों जातियाँ ऊँची भूमि पर एक ही बात कहती हैं। इस लेख में हम यही दिखलाने की चेष्टा करेंगे। साथ ही हमारा यह भी विश्वास है कि जब तक हिंदू और मुसलमान इस भूमि पर चढ़कर मैत्री की आवाज़ नहीं लगावेंगे, तब तक वह स्वार्थ-जन्य मैत्री स्वार्थ में धक्का न लगने तक की ही मैत्री रहेगी—वैसी ही मैत्री, जैसी ब्रिटिश-सिंह और भारत-गऊ की हो सकती है।
“न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता;
डुबाया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।”
(ग़ालिब)
जब कुछ नहीं था, तब ख़ुदा था। यदि कुछ न होता, तो ख़ुदा होता। मुझे होने ने (भव ने, संसार ने, ‘हूँ’ इस भाव ने) डुबा दिया। मैं न होता, तो क्या (अच्छा) होता।
महाकवि ग़ालिब के ये भाव हर्फ़-हर्फ़ वेदांत से मिलते हैं। जब कुछ नहीं था, तब ख़ुदा था, यही वेदांत की तथा हिंदू आस्तिक और नास्तिक दर्शनों की बुनियाद है। जहाँ ईश्वर की सत्ता है, वहाँ संसार नहीं। इसी पर गोस्वामीजी लिखते है—
“जिहि जाने जग जाय हेराई।”
यहाँ दोनों के भाव एक ही हैं। ‘होने’ ने या ‘भव’ ने ग़ालिब को डुबा दिया है अर्थात् दुनिया के ज्ञान ने उन्हें समीम कर दिया है, संसार में डाल रखा है, जिसके लिए वह कहते हैं, यह न होता तो क्या अच्छा होता ! तब केवल ख़ुदा का ही अस्तित्व रहता, जिसके लिये तब कहा है—
“None else exists and thou art that.”
कबीर भी कहते हैं, जहाँ ज्ञान रहता है, वहाँ मोह नहीं रहता—
“सूर-परकास तहँ रैन कहूँ पाइए
रैन-परकास नहि सूर भासै;
होय अज्ञान तहँ ज्ञान कहँ पाइए
होय जहँ ज्ञान ज्ञान नासै।
काम बलवान तहँ प्रेम कहँ पाइए,
होय जहँ प्रेम तहँ काम नाहीं;
कहत कबीर यह सत्य सुविचार है
समझ तू, सोच तू, मनहिं माहीं।”
आज तक मनुष्यों के मनों ने जितनी ऊँची उड़ानें भरी हैं, वे सब यहीं आकर ठहरती हैं। अन्यथा लक्ष्य-भ्रष्ट हो गई हैं। सांसारिक जितने भी चमत्कार हैं, उन सब पर प्रभुता करने वाली यही भूमि है, और संसार में जितने भी भेद हैं, उन सबमें साम्य स्थापित करने वाली भी यही भूमि है। बिना यहाँ आए हुए भेद का ज्ञान कदापि दूर नहीं हो सकता। यही हिंदुओं की अद्वैत-भूमि है। और, चूँकि यहाँ भेद-भाव नहीं रह जाता, इसीलिए इसे अद्वैत कहा भी है। नज़ीर कहते हैं—
“तनहा न उसे अपने दिले तंग में पहचान;
हर बाग़ में, हर दश्त में, हर संग में पहचान।
बेरंग में, बारंग में, नैरंग में पहचान;
मंजिल में, मुक़ामात में, फ्ररसंग में पहचान।
नित रूम में, औ हिंद में, धौ जंग में पहचान;
हर राह में, हर साथ में, हर संग में पहचान।
****
हर आन में, हर बात में हर रंग में पहचान;
आशिक़ है, तो दिलबर को हर रंग में पहचान।”
यहाँ दुनिया की लावण्यमयी श्री भी है और वहाँ उस प्यारे की खोज भी। यह यहाँ विशिष्टाद्वैतवाद कहलाता है। यानी दुनिया भी है और ख़ुदा भी। या यों कहिए कि वह ख़ुदा ही दुनिया के अनेक रूपों में विराजमान है। गो० तुलसीदासजी की एक उक्ति इसी अर्थ पर बहुत ही सुंदर हुई है—
“अव्यक्तमेकमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने;
पट कंध, शाखा पंचचिश, अनेक पर्ण, सुमन घने।
फल युगल विधि कटु मधुर बेलि अकेलि लिहि आश्रित रहे,
पल्लवित, फूलित, नवल नित संसार-विटप नमामि है।”
यहाँ राम को ही उन्होंने वेद के मुख से संसार-विटप कहकर संबोधित किया है, जिसकी तारीफ़ में संसार की कोई वस्तु छोड़ी भी नहीं, जैसे तमाम संसार में राम ही का रूप भर रहा हो।
एक जगह महाकवि ग़ालिब कहते हैं—
“तेरे सवे क़ामत से एक क़द्दे आदम,
क़यामत के फ़ितने को कम देखते हैं।”
यहाँ महाकवि ग़ालिब क़यामत को एक आदमी-भर लंबी बतलाते हैं, यानी क़यामत उतनी ही बड़ी है, जितना लंबा एक आदमी। यह प्रलय की सर्वोत्तम व्याख्या है। हरेक आदमी में प्रलय को नाशकारी कुल शक्तियाँ हैं, और वह चाहे तो उन्हें प्रत्यक्ष कर सकता है। हर मनुष्य सौर-ब्रह्मांड से मिला हुआ भी उससे अलग है। संसार का अस्तित्व उसके पास सिर्फ़ इसलिए है कि वह अपने अस्तित्व पर विश्वास रखता है। जब मनुष्य सो जाता है, उस समय वह अपना अस्तित्व बहुत कुछ भूल जाता है। यही कारण है कि सुप्ति-काल में संसार का ज्ञान नहीं रहता। संसार के सिर पर जो क़यामत क्रीड़ा कर रही है, इसको प्रत्यक्ष करने वाला वही है, और उसका शरीर भी क़यामत के कानून के अंदर है। इसलिए क़यामत को एक ही आदमी के क़द के बराबर कहा, और यह केवल साहित्यिक उपमा ही नहीं, किंतु दार्शनिक महान सत्य हो गया है।
बिल्कुल यही भाव सूरदासजी के हैं, जहाँ उन्होंने बालक कृष्ण की वर्णना की है—“प्रभु पौढ़े पालने पलोटत” आदि-आदि। यहाँ भी श्रीकृष्ण के हिलने-डुलने से जो क्रिया होती है, वह प्रलय ही है—“विडरि चले घन प्रलय जानि कै;” कारण, किसी भी चेतन के हिलने से सौर-ब्रह्मांड हिलता-डोलता है, यह सूरदासजी के कहने का मतलब है। श्रीकृष्ण की चेतन क्रिया में संसार डोल रहा है, कहीं-कहीं प्रलय हो रहा है, दिग्दंती बड़े धैर्य से धरा-भार को धारण कर रहे हैं। यहाँ भी एक ही की चेतन-क्रिया से संसार में क़यामत आ रही है, प्रलय मचा हुआ है, और इसे समने वाले सूरदासजी “सकट पगु पेलत” धीरे-धीरे चल रहे हैं। ग़ालिब और सूरदास की उक्तियाँ बिल्कुल मिल जाती हैं। कोई विरोध नहीं देख पड़ता। वहाँ भी एक ही क़द के बराबर क़यामत की नाप होती है, और यहाँ भी एक ही कृष्ण को चेतन-क्रिया से आफ़त उठी हुई है। दोनों महाकवि इस सत्योक्ति में पूर्णतया सहमत हैं।
“कुछ ज़ुल्म नहीं, कुछ ज़ोर नहीं,
कुछ दाद नहीं, फ़रियाद नहीं;
कुछ क़ैद नहीं, कुछ बंद नहीं,
कुछ ज़ब्र नहीं आज़ाद नहीं।
शागिर्द नहीं, उस्ताद नहीं,
वीरान नहीं, आबाद नहीं;
हैं जितनी बातें दुनिया की,
सब भूल गए, कुछ याद नहीं।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी,
हर वक्र अमीरी है बाबा;
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए,
फिर क्या दिलगीरी है बाबा।
जिस सिम्त नज़र कर देखे हैं,
उस दिलबर की फुलवारी है;
कहिं सब्ज़ी की हरियाली है,
कहिं फूलों की गुलकारी है।
दिन-रात मगन ख़ुश बैठे हैं,
और आस उसी की भारी है,
बस, आप ही वह दातारी है,
और आप ही वह भंडारी है।
हर आन हँसी, हर धान ख़ुशी,
हर वक्र अमीरी है बाबा;
जब आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए,
फिर क्या दिलगीरी है बाबा।
हम चाकर जिसके हुस्न के हैं,
वह दिलबर सबसे आला है;
उसने ही हमको जी बख़्शा,
उसने ही हमको पाला है।
दिल अपना भोला-भाला है,
औ’ इश्क़ बड़ा मतवाला है;
क्या कहिए और नज़ीर धागे,
अब कौन समझने वाला है।
हर आन हँसी, हर आन ख़ुशी,
हर वक्र अमीरी है बाबा;
जय आशिक़ मस्त फ़क़ीर हुए,
तय क्या दिलगीरी है बाबा।”
(नज़ीर)
कविवर नज़ीर यहाँ फ़क़ीरी का हाल बयान कर रहे हैं। यह वह फ़क़ीरी है, जब तमाम दुनिया में अपना इष्ट-ही-इष्ट नज़र आता है। संसार की हर वस्तु में उसी का रँग चढ़ा देख पड़ता है। प्रह्लाद के चरित्र लेखक दिखलाते हैं कि शेर आता है, तो उससे भी प्रह्लाद “हरि आए” कहकर लिपट जाते हैं। नरसीजी भूत देखते हैं, तो “आए मेरे लंबकनाथ” कहकर गाने और प्रेम-विह्वल होकर नाचने लगते हैं। एक सिद्ध श्वान पर बैठा हुआ भोजन कर रहा था, और कभी-कभी अपना अन्न उस कुत्ते को भी खिला दिया करता था। दूर से कुछ लोगों ने यह तमाशा देखा। उसके पास गए। कहने लगे—“तुम कुत्ते की जूठन खाते हो, कैसे आदमी हो?” वह सिद्ध बड़ी देर तक चुप रहा। तब भी इन लोगों ने अपना व्याख्यान बंद नहीं किया। तब चिढ़कर वह सिद्ध कहता है —
“विष्णुपरिस्थिती विष्णुः विष्णु खादति विष्णवे;
कथं हससि रे विष्णो सर्व विष्णुमयं जगत्।”
सूरदासजी इन्हीं भावों पर कहते हैं—
“जित देखो तित श्याममयी है;
श्याम कुंज, वन, यमुना श्यामा,
श्याम गगन-घन-घटा छाई है।
श्रुति को अच्छर श्याम देखियत,
दीप-शिखा पर श्यामतई है;
मैं बौरी की लोगन ही की
श्याम पुतरिया बदल गई है।
इंद्रधनुष को रंग श्याम है,
मृग-मद श्याम, काम विजयी है;
नीलकंठ को कंठ श्याम है,
मनो श्यामता बेलि बई है।”
कवि के भाव-नेत्र चारों तरफ़ श्याम को ही प्रत्यक्ष करते हैं। तमाम संसार में वह एक ही श्याम-छवि रमी हुई है। रामायण में गोस्वामी तुलसीदासजी इस भाव की सुंदर व्याख्या-सी कर देते हैं। जिस कारण से यह इष्ट-मूर्ति भक्त को चारों ओर दिखलाई पड़ती है, उस कारण की जड़ चित्त में है, जहाँ इष्ट की छाप पड़ जाने पर फिर और कोई रूप नहीं देख पड़ता, दूसरे रूपों की सत्ता छिप जाती है।
“चित्रकूट चित चारु, तुलसी सुभग सनेह बन;
सिय-रघुवीर-बिहारु, सींचत माली नयन-जल।”
मृत्यु की नश्वरता को दिखलाते हुए कविवर नज़ीर कहते हैं—
“जब चलते-चलते रस्ते में
यह गौन तेरी ढल जावेगी;
यह बधिया तेरी मिट्टी पर
फिर घास न चरने पावेगी।
यह खेप जो सुने लादी है,
सब हिस्सों में बट जावेगी;
धी, पूत, जमाई, बेटा क्या,
बनजारन पास न आवेगी।
सब ठाट पड़ा रह जावेगा
जब लाद चलेगा बंजारा।
क्या जी पर बोझ उठाता है,
इन गोनों भारी-भारी के;
जब मौत का डेरा आन पड़ा,
तब दोनों हैं व्यापारी के।
क्या साज़ जड़ाऊ ज़र-ज़ेवर,
क्या गोटे थान किनारी के;
क्या घोड़े, ज़ीन सुनहरी के
क्या हाथी लाल अमारी के।
सब ठाट पड़ा रह जावेगा
जब लाद चलेगा बंजारा।
मग़रूर न हो तलवारों पर,
मत भूल भरोसे ढालों के;
सब पट्टा तोड़ के भागेंगे
मुँह देख अजल के भालों के।
क्या डिब्बे मोती-हीरों के,
क्या ढेर ख़ज़ाने मालों के;
क्या बकचे ताश मुशज्जर के,
क्या तख़्ते शाल-दुशालों के।
सब ठाट पड़ा रह जावेगा,
जब लाद चलेगा बंजारा।”
नश्वर संसार का जो चित्र यहाँ विवेक को जाग्रत् करने के लिए नज़ीर साहब ने खींचा है, उसका प्रभाव हिंदू-कवियों पर पहले ही से बहुत ज़्यादा रहा। नश्वरता पर प्राय: यहाँ के सभी कवियों ने कविताएँ लिखी हैं। भगवान् शंकराचर्य आदि धर्म प्रचारकों से लेकर आधुनिक कवियों तक में यह भाव यहाँ परिपुष्ट ही मिलता है—
“कस्त्वं कोऽहं कुत आयात:
का में जननी को मे तात: ;
इति परिभावय सर्वमसारं
विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न-विचारम्।
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं
पुनरपि जननी-जठरे-शयनम्;
इह संसारे खलु दुस्तारे
कृपया पारे पाहि मुरारे।
पुनरपि रजनी पुनरपि दिवस:
पुनरपि पक्ष: पुनरपि मास: ;
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्ष
तदपि न सुचत्याशामर्थम्।”
(श्रीशंकराचार्य:)
“चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर;
मैंने निज दुर्बल पद-थल पर
उससे हारी होड़ लगाई।”
(श्रीजयशंकर ‘प्रसाद’)
“लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरंतर,
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षःस्थल पर;
शत-शत फेनोच्छ्वसित स्फीत फूटकार भयंकर,
घुमा रहे नित घनाकार जगती का अंबर,
मृत्यु तुम्हारा गरल-दंत, कंचुक कल्पांतर,
अखिल विश्व ही विवर,
वक्र-कुंडल दिड्-मंढल!
अये दुर्जेय विश्वजित्!
नचाते शत सुरवर नरनाथ,
तुम्हारे इंद्रासन-तल माथ।
घूमते शत-शत भाग्य अनाथ
सतत रथ के चक्रों के साथ।
तुम नृशंस नृप से जगती पर चढ़ अनियंत्रित,
उत्पीड़ित संसृति को करते हो पदमर्दित;
नग्न नगर कर भग्न भवन, प्रतिमाएँ खंडित;
हर लेते हो विभव, कला-कौशल चिरसंचित;
आधि-व्याधि बहुवृष्टि पात उत्पात अमंगल,
वह्नि, याद, भूकंप, तुम्हारे विपुल सैन्यदल;
ये निरंकुश पदाघात से वसुधा टलमल,
हि-हिल उठता है प्रतिपल पद-दलित धरातल!”
(श्री सुमित्रानंदन पंत)
नश्वरता को प्रत्यक्ष करा देने पर ज़रा देर के लिए मन में वैराग्य का उदय होता है। फिर वह वैराग्य यदि स्थाई हो, तो मनुष्य संसार की नश्वर वस्तुओं से प्रेम करना छोड़कर एक ऐसी ज्ञान-स्थिति प्राप्त करता है, जिससे उसे यथार्थ शांति मिलती है। जिस तरह हिंदुओं में वैराग्य की यह शिक्षा मिलती हैं, उसी तरह मुसलमानों में भी। सूफ़ी-वाद में तो ज्ञान, वैराग्य और मादकता, तीनों की प्रधानता है। मुसलमानों के दर्शन में तो नहीं; हाँ, क़ुरान के साथ अद्वैतवाद की सूक्तियाँ ज़रूर मिल जाती हैं। पर कविता में और सूफ़ियाने ढंग की कविता में यहाँ के बड़े-बड़े दर्शन-शास्त्र का तो बिल्कुल जोड़ मिल जाता है। खान-पान और रहन-सहन का भेद रहने पर भी जिस विकास की ओर मुसलमान-सभ्यता गई है, वह यहाँ से कोई पृथक् सत्ता नहीं। क़ुरान का असल तत्त्व जो
“ला इलाह इल्लिल्लाह”—
है, वह
“एकमेवाद्धितीयम्”
का अक्षर-अक्षर अनुवाद है। हम यह नहीं कहते कि क़ुरान की उक्ति अनुवाद के रूप में आई है; क्योंकि हमें मालूम है, ईश्वर को प्रत्यक्ष करने वाले महापुरुष एक ही सत्य का प्रचार करते हैं। और, जिस तरह हिंदुओं के महापुरुषों ने ओत-प्रोत एक ही ज्ञानमय कोष का तत्त्व हासिल किया, उसी तरह मुहम्मद ने भी तपस्या द्वारा उस “अवाड्.-मनसोऽगोचरम्” सत्य का साक्षात्कार किया। सिंधु और बिंदु की उक्ति से ब्रह्म और जीव की जो बातें भारतीय साहित्य में मिलती हैं, वही मुसलमान-कवियों की कविता में, दरिया और क़तरे के रूप से, आई हैं।
तुमहिं मिलत नहिं होय भय, यथा सिंधुगत नीर।”
(तुलसीदास)
“इशरते-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना।”
(ग़ालिब)
“यक क़तरए-मैं जब से साक़ी ने पिलाया है;
उस रोज़ से हर क़तरा दरिया नज़र आता है।”
ख़ुदनुमाई पर की गई वह गुफ़्तगू याद आती है, जो अपनी बाँदी के साथ शायद बेगम नूरजहाँ ने की थी, जब उसका चीनी आईना बाँदी के हाथ से गिरकर फूट गया था, और एकाएक महर्षि वाल्मीकि की तरह बाँदी के मुँह से यह शेर का एक टुकड़ा निकल पड़ा था—
“अज़ क़ज़ा आईनए-चीनी शिकश्त।”
“ख़ूब शुद सामाने खुदबीनी शिकरत”—
यह मेहरुन्निसा का उत्तर था। तमाम हिंदोस्तान की साम्राज्ञी के हृदय में भी वैराग्य की यह भावना प्रबल थी, वह शिक्षा जो गोस्वामी तुलसीदास जैसे महापुरुष ही दे सकते हैं—
“सेवहि लखन सीयरघुवीरहिं;
जिमि अविवेकी पुरुष शरीरहिं।”
एक तरफ़ श्रीरामचंद्र की सेवा लक्ष्मण और सीताजी धर्म-भावना से प्रेरित होकर करते हैं, जैसे अपने परम इष्ट को सेवा की जाए, दूसरी तरफ़ महाकवि शिक्षा से भरी हुई उसकी उपमा में कहते हैं, जैसे अविवेकी पुरुष अपने शरीर की सेवा करते हैं—उसे किसी क्षण के लिए भी नश्वर नहीं समझते। यहाँ शरीर ज्ञान में बँधे हुए मनुष्य सदा ही नश्वरता के ग्रास में पड़े रहते हैं, यह भावना भी उद्दीप्त होती है, और आलंकारिक व्यंजना श्रीरामचंद्र की तल्लीन सेवा का बोध भी अच्छी तरह करा देती हैं—एक ढेले में दो पक्षियों का शिकार हो गया है।
“तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता।”
(ग़ालिब)
यह बहुत ऊँचे दर्जे का प्यार है। सच्चा प्यार भी यही है। लोग इसका अर्थ यह भले ही करें कि निर्जन रहने पर ही प्रिय की याद आती है—दिल के आईने में उसकी सूरत देख पड़ती है; पर इसका मतलब वह नहीं। यह सांसारिक प्रेम नहीं, यह ईश्वर-प्रेम है। जब मन बिल्कुल निस्संग हो जाता है, किसी भी दूसरे से लगावट नहीं रहती, तभी उस मन में ईश्वर का ध्यान आता है, वह भगवत्-संग प्राप्त करता है, वह मित्र जिसके लिए कहा है—“राम प्राण के जीवन जी के”—मिलता है, साथ रहता है; इसी क्षण को इष्ट-प्राप्ति का समय कहते हैं, और इसी अवस्था में वह मिलता भी है। कविवर मैथिलीशरण कहते हैं—
“प्रभो, तुम्हें हम कब पाते हैं,
जब इस जनाकीर्ण जगती में एकाकी रह जाते हैं।”
ज़ौक़ के एक शेर में परलोक, यहाँ तक कि अर्थ लगाने पर हिंदुओं के पितृलोक, देवलोक, प्रेतलोक आदि की सिद्धि भी हो जाती है—
“अब तो घबरा के यह कहते हैं कि मर जाएँगे;
मर के भी चैन न पाया, तो किधर जाएँगे।”
(ज़ौक़)
मृत्यु के बाद चैन न पाने की उक्ति परोक्ष रीति से उसी प्रेतयोनि को सिद्ध कर रही है, जहाँ जीवों को शांति नहीं मिलती, एक प्रकार की जलन, क्षोभ, अशांति तथा चंचलता बनी रहती है। इसके अर्थ से प्रेतलोक की सिद्धि कोई भले ही न करे, पर इतना तो ज़ाहिर ही है कि मृत्यु के बाद अशांति की चिंता कवि को लगी हुई है। वह इस पर विश्वास भी करता है। दूसरे, महाकवि ग़ालिब को भी ज़ौक़ का यह शेर पसंद आता है। इसके मानी ये हैं कि इस तत्व पर वह भी विश्वास करते हैं। बहिश्त और दोज़ख़ तो मुसलमानों के शास्त्र मानते ही हैं, जहाँ हिंदुओं का बिल्कुल साम्य है। यह बेचैनी की हालत, जो मृत्यु के बाद होती है, और उस मृत्यु के बाद जिसे आत्महत्या कहते हैं—“मर जाएँगे” के अर्थ से समय मृत्यु या आत्महत्या का ही भाव व्यंजित है—बहुत कुछ उसी अवस्था की वर्णना है, जो प्रेतयोनि में होती है। यहाँ हिंदू और मुसलमान मृत्यु के बाद के एक ही विचार रखते हुए देख पड़ते हैं। यों तो प्रेत या जिन्न मुसलमानों के यहाँ भी कम नहीं—
“जिन्नों ने वहीं अपना मैख़ाना बना डाला।”—
और, रात बारह बजे शहर भर की मिठाई ख़रीद लेने वाले लखनऊ के जिन्न अब भी देहात में काफ़ी मशहूर हैं, वे आजकल की व्याख्या के अनुसार मुँह ढककर आने वाले छज्जे पर बैठनेवालियों के यार और आशिक़ भले ही हों, अथवा चाहे लखनऊ की प्राचीन व्याख्या के अनुसार 12 लाख साफ़ करने के बाद रईसों के शोहदा-खाते में नाम लिखाने वाले हों।
हिंदी में तो—
“भूत-पिशाच निकट नहि आवे;
महावीर जब नाम सुनावे।”
से लेकर
“साबर-मंत्र जाल जिन सिरजा”, “प्रेत, पितर, गंधर्व;
वदौं किन्नर, रजनिचर, कृपा करहु अव सर्व।”
तक, पता नहीं, इस परलोकवाद की कितनी चर्चा हुई है, और समाज में इस पर कितना दृढ़ विश्वास है—जब कि ज्ञान की जननी गीता स्वयं कहती है—“पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिंडो-दकक्रिया:” और केशवदास का प्रेत होना तमाम साहित्यिकों के दिमाग़ में भरा ही हुआ है, उधर गोस्वामी तुलसीदासजी की जीवनी से “बसे तहाँ इक प्रेत पुरानो” जब कि अभी तक नहीं निकाला गया, और उन्हें भगवान् श्रीरामचंद्र से मिलने का पता भी बताता है प्रेत!
“जहाँ में हाली किसी का अपने सिवा भरोसा न कीजिएगा;
यह भेद है अपनी ज़िंदगी का कि इसका चर्चा न कीजिएगा।”
हाली साहब जिस तरह यहाँ हरेक को अपनी ही सत्ता पर ज़ोर देने के लिए कहते हैं, और इसे ही वह दुनिया में कामयाब होने की कुंजी समझते हैं, इसी तरह यहाँ के हिंदुओं की भी शिक्षा है। “नायमात्मा बलहीनेन लभ्य:, न मेधया न च बहुना श्रुतेन” में सबसे कठिन कार्य आत्म-प्राप्ति के लिए जिस तरह मनुष्य को अभ्यंतर-वल प्राप्त करने के उपदेश दिए गए हैं, उसी तरह अन्य सफलताओं के लिए भी। यथार्थ बल अपने ही भीतर से प्राप्त होता है, जिससे कुल सिद्धियाँ हासिल होती हैं, यही यहाँ की शिक्षा है। इस प्रकार मन को प्रबल करने के लिए ही कहा है—
“मन के हारे हारिए, मन के जीते जीत;
परब्रह्म को पाइए, मन ही की परतीत।”
यहाँ के साहित्य में अपनी ही आत्मा पर विश्वास रखने के केवल उपदेश ही नहीं, किंतु जीवनियाँ भी अनेक लिखी हुई हैं। इस कोटि में स्त्री और पुरुष, दोनों को बराबर जगह मिली है। पार्वती तपस्या में दृढ़निष्ठ हैं। वह महादेव को पति-रूप से प्राप्त करना चाहती हैं। उनकी तपस्या की परीक्षा करने, उनके मनोबल को तोलने के इरादे से ऋषि उनसे कहते हैं—“तुम क्यों व्यर्थ ही शिव-जैसे एक पागल के पीछे पड़ी हो? इससे तो अच्छा है कि विष्णु की कामना करो। वह सुंदर हैं, और सब तरह से महादेव से श्रेष्ठ हैं।” यह सुनकर पार्वती का उत्तर नम्र होकर भी दृढ़ होता है। वह अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहती हैं। कहती हैं—
“सत्य-सत्य शिव अशिव घर, विष्णु सकल-गुण-धाम;
जाको मन रम जाहि सँग, ताहि ताहि सन काम।”
उद्धव को अपने ज्ञान का गर्व है। श्रीकृष्ण उनका यह अहंकार तोड़ना चाहते हैं। साथ ही एक-दूसरे मन का बल भी उन्हें दिखाना चाहते हैं। इस विचार से वह उद्धव को गोपियों के पास अखिल व्यापक निरंजन ब्रह्म का उपदेश करने के लिए भेजते हैं। उद्धव गोपियों के बीच में व्यापक ब्रह्म की कथा सुनाते हैं, और गोपियाँ बार-बार उनसे श्रीकृष्ण का कुशल तथा अन्यान्य संवाद पूछती है, वास्वार उद्धव को उनके विषय से अलग कर देती हैं। पर वह भी अपने ज्ञान-हठ पर अड़े रहते हैं। वह भी बार-बार वैराग्य की वाणी के प्रभाव से उनका प्रेम-जन्य मोह दूर कर देना चाहते हैं। पर गोपियों का प्रेम शरीर-प्रेम नहीं था। उसमें कृष्ण को चेतन सत्ता थी, जिससे उनके हृदय का मोहांधकार दूर हो चुका था। वे प्रेम ही की वाणी में जो उत्तर देती है, उसका फिर प्रत्युत्तर उन्हें उद्धव से नहीं मिलता—
“ऊधो, मन न होहिं दस-वीस।
एक रह्यो सो गयो स्याम सँग,
काह करब अज, ईस?”
और “राधे-दृग-सलिल प्रवाह में सुनौ हो ऊधौ, राबरे समेत ज्ञान-गाथा बहि जावेगी” आदि सुनकर प्रेम के प्रभाव से उद्धव मौन ही रह जाते हैं। यह यहाँ का मानसिक बल है, अपना अटल विश्वास, जिससे अपने संपूर्ण कार्य सार्थक हो जाते हैं। यही अँग्रेज़ों का Concentration power (एकाग्रता-शक्ति) है। “The real I is real He” अर्थात् यथार्थ में और यथार्थ वह (ईश्वर) एक ही है, अतः अपने पर यथार्थ विश्वास और उस पर अकृत्रिम विश्वास एक ही है।
“जन्म कोटि शत रगर हमारी;
बरौं शंभु, न तु रहौं कुमारी।”—
यह अपनी शक्ति पर विश्वास है, और
“नट-मरकट इव सर्वाहि नचावत;
राम खगेस, वेद अस गावत।”
यह ईश्वर पर किया गया विश्वास है। यहाँ ईश ही की शक्ति सफल-काम है।
हिंदू और मुसलमानों के सामाजिक आचार व्यवहार और वेश-भूषण आदि निस्संदेह एक दूसरे से नहीं मिलते, परंतु यह कोई बहुत बड़ा भेद नहीं। कारण, मनुष्य को जाँच उसकी मनुष्यता और उसके उत्कर्ष से होती है, और वहाँ ये दोनो जातियाँ एक ही पथ की पथिक तथा एक ही लक्ष्य पर पहुँची हुई जान पड़ती हैं। हिंदू सभ्यता बहुत पुरानी है और मुसलमान-सभ्यता हिंदुओं के मुक़ाबले बहुत आधुनिक। यह तो हम दावे के साथ कहेंगे कि जहाँ भी सभ्यता ने अपने उत्कर्ष के प्रति संसार को आकृष्ट करना चाहा है, जहाँ कहीं उसको सुप्त अपार शक्ति जाग्रत् हुई है, वहीं, किसी-न-किसी रूप में, प्रत्यक्ष या प्रकृति की अपर शक्तियों की तरह परोक्ष रीति से, हिंदू सभ्यता के बीज संचालित हो गए हैं। आज संसार में जितने भी धार्मिक विचार अपना आधिपत्य जमाए हुए हैं, वे सब हिंदुओं के किए हुए विचारों के अनुवाद-से प्रतीत होते हैं। हमारा विचार है कि यह हिंदुओं की हो मानसिक दुर्बलता है, जिसके कारण वे हर तरह से पराधीन हो रहे हैं। यदि वे अपने आपको पहचानें, तो उनके भीतर के भेद-भाव तो दूर हों ही, किंतु संसार में एक अद्भुत साम्य का प्रचार भी हो, जिसकी ध्रुव तक संसार के लोग प्रतीक्षा कर रहे हैं। जहाँ प्रतिद्वंद्विता के भाव प्रबल हैं, वहाँ मानवीय शक्ति भी नहीं, पशु-शक्ति काम करती है, चाहे कितने ही बड़े-बड़े शब्दों तथा वाक्यों की आवृति वहाँ की जाए। मानवीय प्राथमिक शक्ति का विकास ही कार्य की शक्ति है। धर्म के अनुकूल चलकर शक्ति को विकसित करना, यही शास्त्रीय शिक्षा है। पर आज इसके प्रमाण बहुत ही कम रह गए हैं। पाशविक वृत्तियों की प्रबलता मानवीय वृत्ति को, जिसे वृत्ति कहते हैं, दबाए हुए है। युग-धर्म ही कुछ ऐसा बन रहा है कि प्रवृत्ति-मूलक बातें अत्यंत रुचिकर मालूम देती हैं, या उनसे पतन के सिवा एक इंच भी उत्थान की गुंजाइश नहीं। यही कारण है कि समाज के विवेक की तुला टूट गई है। बड़े-से-बड़े और छोटे-से-छोटे, सब मनुष्य, सब संप्रदाय अंधानुसरण को ही सनातन-धर्म या अपना सच्चा मज़हब समझ रहे हैं। उधर विज्ञान के प्रकाश ने वहाँ के मनुष्यों के हृदय से यह विश्वास ही दूर कर दिया है कि ईसा को भजोगे, तो डूबते वक़्त पानी में आप ही ज़मीन बन जाएगी। वहाँ नास्तिकता का राज्य है, यहाँ अंधानुकरण का। संसार की शांति इस तरह कब दूर हो सकती है? मोटर, रेल, तार, जहाज़, मैक्सिम गन, एरोप्लेन, टारपेडो, मेन ऑफ़ बार और तीस मील की चाँदमारी करने वाली तोपें, बम, तरह-तरह की विषैली बारूदें, हज़ारहा मैशीनें, ये सब अभाव ही की आग भड़काने वाले हैं; इनसे कुछ मनुष्यता की प्राप्ति नहीं होती। यूरोप में जो दो-चार मनीषी मनुष्यता के तत्व को समझकर उसका प्रचार तथा प्रसार करते हैं, उन्हें वहाँ की गवर्नमेंट से तिरस्कार ही मिलता रहता है। प्रभुता स्वयं अनिष्टकर है, इस लिए विभूतिपाद के आचार्यगण मनुष्यता के दायरे से सदा ही निकाले हुए रहे हैं। मनुष्यता किसी क़ीमत से नहीं मिलती। वह तो एक प्रकार की शिक्षा है, जिस पर अभ्यास दृढ़ हो जाने पर मनुष्य मनुष्य कहलाता है। भारत की राष्ट्रोन्नति के लिए जो अनेक प्रकार की चर्चाएँ सुनने में आती हैं, उनसे प्रतीत होता है कि यहाँ लोगों को आँखों में यूरोप का ही चश्मा लगा हुआ होता है, और वे बेचारे झूठ बोलकर ज़िंदगी की ज़िंदगी पार कर देने वाले भारतवर्ष के वकील लीडर यह क्या जानें कि यहाँ की शिक्षा किस रंग की चिड़िया थी? भारतवर्ष में जो सबसे बड़ी दुर्बलता है, वह शिक्षा की है। हिंदुओं और मुसलमानों में विरोध के भाव दूर करने के लिए चाहिए कि दोनों को दोनों के उत्कर्ष का पूर्ण रोति से ज्ञान कराया जाए।
परस्पर के सामाजिक व्यवहारों में दोनों शरीक़ हों, दोनों एक-दूसरे की सभ्यता को पढ़ें और सीखें। फिर जिस तरह भाषा में मुसलमानों के चिह्न रह गए हैं, और उन्हें अपना कहते हुए अब किसी भी हिंदू को संकोच नहीं होता, उसी तरह मुसलमानों को भी आगे चलकर एक ही ज्ञान से प्रसूत समझकर अपने ही शरीर का एक अंग कहते हुए हिदुओं को संकोच न होगा। इसके बिना, दृढ़ बंधुत्व के बिना, दोनों की ग़ुलामी के पाश कट नहीं सकते, ख़ासकर ऐसे समय जब कि फूट डालना शासन का प्रधान सूत्र है।
हिंदुओं की जो मानसिक स्थिति पहले थी, वह मुसलमानों के आक्रमण-काल तक नहीं थी। पंच-देवताओं की उपासना में पढ़े हुए हिंदू द्वैतवादी हो रहे थे। यों तो भारतवर्ष की धार्मिक स्थिति भगवान् बुद्ध से पहले ही बिगड़ गई थी। बुद्ध के आने के बाद कुछ सुधरी, और यही कारण है कि बुद्ध-काल में कला के विस्तार के साथ-ही-साथ भारत की शासन-श्रृंखला भी सुदृढ़ हो गई थी। भगवान शंकर के आविर्भाव के पश्चात् भी भारतवर्ष की कुछ अच्छी अवस्था थी। पर देश सब तरह से मानसिक दुर्बल हो रहा था। वह शंकराचार्य द्वारा प्रचारित अद्वैतवाद की धारणा करने में समर्थ नहीं रहा। उसे एक ऐसे धर्म की ज़रूरत पड़ी, जो सरस हो, और गृहस्थों के सामने त्याग का महान् आदर्श न रख उन्हें कोई प्रेम तथा पूजा का मार्ग बतलावे। मनुष्यों के मन के अनुकूल धर्म का भी उद्भव हो जाता है। भगवान् रामानुज ने वैष्णव धर्म का प्रचार किया। इसमें ईश्वर और संसार, दोनों रहे। अद्वैत को सूक्ष्म छान-बीन नहीं रही। किंतु रस से भरा हुआ एक-दूसरा ही प्रेम-धर्म लोगों के सामने आया। चूँकि साधारण मनुष्य जन्म से ही मूर्ति प्रेमी हुआ करता है, और संसार के अस्तित्व पर विश्वास रखता है, इसलिए यह विशिष्टाद्वैतवाद उस समय के लोगों को बहुत पसंद आया। भारतवर्ष में आज भी अधिकांश मनुष्य इसी संप्रदाय की शाखा-प्रशाखाओं में शामिल हैं। परंतु मूर्ति स्वयं ससीन होती है, इसलिए उसके उपालक भी, ससीम होने के कारण, भाव तथा क्रिया की भूमि में छोटे ही होते गए। महाभारत के समय से लेकर कई बार महापुरुषों ने भारतवर्ष को गिरने से रोकने की चेष्टाएँ की; पर स्वाभाविक गति में कोई रुकावट हो नहीं सकती। जिस हद तक इस देश को गिर कर पहुँचना था, उस अवश्यंभावी परिणाम को कौन रोकता! वह गिरता ही गया। उधर दीन-इस्लाम की नई रोशनी अद्वैतवाद से भरी हुई फैली। उसका वह नवीन वेग कोई भी देश नहीं रोक सका। भारत भी जिस मानसिक अवस्था को प्राप्त था, उसके लिये हारना स्वाभाविक ही था। वह हारा। किसी भी बृहत् तथा व्यापक वस्तु या धर्म से कोई भी ससीम वस्तु या धर्म हार जाता है। ससीम हो रहने के कारण भारत को शक्ति भी खंडशः हो रही थी। मुसलमानों की संगठित तलवारों की चोट से भारत का स्वाधीन दंभ चूर-चूर हो गया।
हिंदुओं के साथ मुसलमानों का यह प्रथम संबंध हुआ जेता और विजित के भावों से। वे शासन भी करने लगे। उस समय के संगठित मुट्ठी भर मुसलमान किस तरह आतंक की तरह तमाम भारतवर्ष में फैल गए, यह पढ़कर आश्चर्य होता है। उनकी दक्षता, उनको कार्य पटुता के प्रभाव से राजपूत-शक्ति ने भी उनका आधिपत्य स्वीकार कर लिया। जहाँ देखिए, जिस प्रांत में देखिए, मुसलमानों का ही शासनाधिकार हो गया। पठानों के बाद मुग़ल आए। ऐयाशी में पड़कर पठान दुर्बल हुए, और उसी ऐयाशी ने मुग़ल बादशाहत को बर्बाद कर दिया। ख़ैर, मुसलमानों के वे भाव, जो पहले से हिंदुओं के प्रति थे, अब भी ज्यों-के-त्यों ही रह गए, और यह स्वाभाविक भी है। अभी उस दिन तक यह प्रचार किया जाता था कि एक मुसलमान 50 हिंदुओं के लिए काफ़ी है। और यह सब हिंदुओं की ही कमज़ोरी है। इस समय कुछ को छोड़कर प्रायः सभी हिंदू क्षुद्रतम सीमा में बँधे हुए हैं। यही कारण है कि देश शताब्दियों के लिए पिछड़ा हुआ नज़र आ रहा है। मुसलमान भी अब वे मुसलमान नहीं रहे। एक प्रकार की कट्टरता मूर्खता से मिली हुई रह गई है। इन दोनों जातियों के सुधार के लिए मनुष्यता की शिक्षा आवश्यक है, जिससे एक-दूसरे के प्रति प्रेम तथा आदर भाव धारण करें। तब तक यूरोप का वर्तमान धर्म अवश्य ही नष्ट होगा। वहाँ विज्ञान की चर्चा से जिस नास्तिकता का उदय हुआ है, उससे सफल के ही होने की संभावना है। चरम नास्तिकता और चरम आस्तिकता एक ही बात है। शून्य को चाहे कुछ नहीं कह लीजिए या सब कुछ। वह पूर्ण भी है। और कुछ भी नहीं। यही आस्तिक और नास्तिकवाद का रहस्य है। यही कपिल, बुद्ध और नास्तिक दर्शन कहते हैं और यही वेदांत, गीता और पातंजल आदि आस्तिक दर्शन। यही सबसे ऊँची भूमि है। यहीं हिंदू और मुसलमान परस्पर मिलते हैं। यूरोप के भौतिक विज्ञानवाद को और एक सीढ़ी चढ़ना है, बस। सब फ़ैसला वही प्रकृति कर देगी, जिसने इतना सब चमत्कार पैदा किया है। फिर ये सब “यथा पूर्वमकल्पयत्” ही रहेंगे। अन्यथा मनुष्य की जीवन-प्रगति रुकेगी। मशीन के पहिए जितना तेज़ चलते हैं, आदमी की चाल उतनी ही द्रुत बंद होती है। इस पर बहुत कुछ लिखा-पढ़ी हो चुकी है, और होती जा रही है। यही कारण है कि महात्माजी का चर्ख़ावाद यहाँ की अपेक्षा योरप के किसानों को अधिक पसंद छाया है, और वे अपने जीवन को अन्नवस्त्रोत्पादन के पश्चात् शुभचिंतन में लगाने का प्रयत्न भी कर रहे हैं। जब तक अनेक प्रकार के वितंडावाद भारतवर्ष में चक्कर काट रहे हैं, तब तक यदि हिंदू और मुसलमान अपनी-अपनी यथार्थ प्राचीन शिक्षा को प्राप्त कर दबाने या देखने वाले अपर भावों को त्याग कर आपस में मैत्री स्थापित करके एक-दूसरे के उत्कर्ष को समझने की चेष्टा करें, तो दोनों के लिए उन्नति का रुका हुआ रास्ता निस्संदेह खुल जाएगा।
- पुस्तक : प्रबंध-पद्म (चुने हुए साहित्यिक निबंध) (पृष्ठ 16)
- रचनाकार : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
- प्रकाशन : गंगा फ़ाइन आर्ट प्रेस
- संस्करण : 1934
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