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वायसराय का कर्तव्य (शिवशंभू के चिट्ठे और ख़त)

vayasray ka kartavya

बालमुकुंद गुप्त

अन्य

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बालमुकुंद गुप्त

वायसराय का कर्तव्य (शिवशंभू के चिट्ठे और ख़त)

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    माई माई लार्ड! आपने इस देश में फिर पदार्पण किया, इससे यह भूमि कृतार्थ हुई। विद्वान बुद्धिमान और विचारशील पुरुषों के चरण जिस भूमि पर पड़ते हैं, वह तीर्थ बन जाती है। आप में उक्त तीन गुणों के सिवा चौथा गुण राजशक्ति का है। अतः आपके श्रीचरण-स्पर्श से भारतभूमि तीर्थ से भी कुछ बढ़कर बन गई। आप गत मंगलवार को फिर से भारत के राजसिंहासन पर सम्राट् के प्रतिनिधि बनकर विराजमान हुए। भगवान आपका मंगल करे और इस पतित देश के मंगल की इच्छा आपके हृदय में उत्पन्न करे।

    बंबई में पाँव रखते ही आपने अपने मन की कुछ बात कह डाली हैं। यद्यपि बंबई की म्यूनिसिपलिटी ने वह बातें सुनने की इच्छा अपने अभिनंदन पत्र में प्रकाशित नहीं की थी, तथापि आपने बेपूछे ही कह डालीं। ठीक उसी प्रकार बिना बुलाए यह दीन भंगड़ ब्राह्मण शिवशंभु शर्मा तीसरी बार अपना चिट्ठा लेकर आपकी सेवा में उपस्थित है। इसे भी प्रजा का प्रतिनिधि होने का दावा है। इसी से यह राजप्रतिनिधि के सम्मुख प्रजा का कच्चा चिट्ठा सुनाने आया है। आप सुनिए सुनिए, यह सुना कर ही जावेगा।

    अवश्य ही इस देश की प्रजा ने इस दीन ब्राह्मण को अपनी सभा में बुलाकर कभी अपने प्रतिनिधि होने का टीका नहीं किया और कोई पट्टा लिख दिया है। आप जैसे बाज़ाब्ता राज-प्रतिनिधि हैं वैसा बाज़ाब्ता शिवशंभु प्रजा का प्रतिनिधि नहीं है। आपको सम्राट् ने बुलाकर अपना वायसराय फिर से बनाया। विलायती गजट में ख़बर निकली। वही ख़बर तार द्वारा भारत में पहुँची। मार्ग में जगह-जगह स्वागत हुआ। बंबई में स्वागत हुआ। कलकत्ते में कई बार गजट हुआ। रेल से उतरते और राजसिंहासन पर बैठते समय दो बार सलामी की तोपें सर हुईं। कितने ही राजा, नवाब, बेगम आपके दर्शनार्थ बंबई पहुँचे। बाजे बजते रहे, फ़ौजें सलामी देती रहीं। ऐसी एक भी सनद प्रजा-प्रतिनिधि होने की शिवशंभु के पास नहीं है। तथापि वह इस देश की प्रजा का यहाँ के चिथड़ा-पोश कंगालों का प्रतिनिधि होने का दावा रखता है। क्योंकि उसने इस भूमि में जन्म लिया है। उसका शरीर भारत की मट्टी से बना है और उसी मट्टी में अपने शरीर की मट्टी को एक दिन मिला देने का इरादा रखता है। बचपन में इसी देश की धूल में लोटकर बड़ा हुआ, इसी भूमि के अन्न-जल से उसकी प्राण रक्षा होती है। इसी भूमि से कुछ आनंद हासिल करने को उसे भंग की चंद पत्तियाँ मिल जाती है। गाँव में उसका कोई झोंपड़ा नहीं है। जंगल में खेत नहीं है। एक पत्ती पर भी उसका अधिकार नहीं है। पर इस भूमि को छोड़कर उसका संसार में कहीं ठिकाना भी नहीं है। इस भूमि पर उसका ज़रा स्वत्व होने पर भी इसे वह अपनी समझता है।

    शिवशंभु को कोई नहीं जानता। जो जानते हैं, वह संसार में एकदम अंजान हैं। उन्हें कोई जानकर भी जानना नहीं चाहता। जानने की चीज़ शिवशंभु के पास कुछ नहीं है। उसके कोई उपाधि नहीं, राजदरबार में उसकी पूछ नहीं। हाकिमों से हाथ मिलाने की उसकी हैसियत नहीं, उनकी हाँ में हाँ मिलाने की उसे ताब नहीं। वह एक कपर्दक-शून्य घमंडी ब्राह्मण है। हे राजप्रतिनिधि। क्या उसकी दो चार बातें सुनिएगा?

    आपने बंबई में कहा है कि भारत भूमि को मैं क़िस्सा-कहानी की भूमि नहीं, कर्तव्य भूमि समझता हूँ। उसी कर्तव्य के पालन के लिए आपको ऐसे कठिन समय में भी दूसरी बार भारत में आना पड़ा। माई माई लार्ड! इस कर्तव्य भूमि को हम लोग कर्मभूमि कहते है। आप कर्तव्य-पालन करने आए हैं और हम कर्मों का भोग भोगने। आपके कर्तव्य-पालन की अवधि है, हमारे कर्मभोग की अवधि नहीं। आप कर्तव्य-पालन करके कुछ दिन पीछे चले जावेंगे। हमें कर्म के भोग भोगते-भोगते यहीं समाप्त होना होगा और जाने फिर भी कब तक वह भोग समाप्त होगा। जब थोड़े दिन के लिए आपका इस भूमि से स्नेह है तो हम लोगों का कितना भारी स्नेह होना चाहिए, यह अनुमान कीजिए। क्योंकि हमारा इस भूमि से जीने-मरने का साथ है।

    माई लार्ड! यद्यपि आपको इस बात का बड़ा अभिमान है कि अँग्रेज़ों में आपकी भाँति भारत वर्ष के विषय में शासन नीति समझने वाला और शासन करने वाला नहीं है। यह बात विलायत में भी आपने कई बार हेर-फेर लगाकर कही और इस बार बंबई में उतरते ही फिर कही। आप इस देश में रहकर 72 महीने तक जिन बातों की नीव डालते रहे, अब उन्हें 24 मास या उससे कम में पूरा कर जाना चाहते है। सरहदों पर फौलादी दीवार बना देना चाहते हैं, जिससे इस देश की भूमि को कोई बाहरी शत्रु उठाकर अपने घर में लेजावे। अथवा जो शांति आपके कथनानुसार धीरे-धीरे यहाँ संचित हुई है, उसे इतना पक्का कर देना चाहते हैं कि आपके बाद जो वायसराय आपके राजसिंहासन पर बैठे उसे शौक़ीनी और खेल-तमाशे के सिवा दिन में और नाच, बाल या निद्रा के सिवा रात को कुछ करना पड़ेगा। पर सच जानिए कि आपने इस देश को कुछ नहीं समझा, ख़ाली समझने की शेखी में रहे और आशा नहीं कि इन अगले कई महीनों में भी कुछ समझें। किंतु इस देश ने आपको ख़ूब समझ लिया और अधिक समझने की ज़रूरत नहीं रही। यद्यपि आप कहते हैं, कि यह कहानी का देश नहीं कर्तव्य का देश है, तथापि यहाँ की प्रजाने समझ लिया है कि आपका कर्तव्य ही कहानी है। एक बड़ा सुंदर मेल हुआ था, अर्थात आप बड़े घमंडी शासक हैं और यहाँ की प्रजा के लोग भी बड़े भारी घमंडी। पर कठिनाई इसी बात की है कि दोनों का घमंड दो तरह का है। आपको जिन बातों का घमंड है, उनपर यहाँ के लोग हँस पड़ते हैं। यहाँ के लोगों को जो घमंड है, उसे आप समझते नहीं और शायद समझेंगे भी नहीं।

    जिन आडंबरों को करके आप अपने मन में बहुत प्रसन्न होते हैं या यह समझ बैठते हैं कि बड़ा कर्तव्य-पालन किया, वह इस देश की प्रजा की दृष्टि में कुछ भी नहीं है। वह इतने आडंबर देख सुन चुकी और कल्पना कर चुकी है कि और किसी आडंबर का असर उस पर नहीं हो सकता। आप सरहद को लोहे की दीवार से मज़बूत करते हैं। यहाँ की प्रजा ने पढ़ा है कि एक राजाने पृथिवी को काबू में करके स्वर्ग में सीढ़ी लगानी चाही थी। आप और लार्ड किचनर मिलकर जो फौलादी दीवार बनाते हैं, उससे बहुत मज़बूत एक दीवार लार्ड के निंग बना गए थे। आपने भी बंबई की स्पीच में केनिंग का नाम लिया है। आज 46 साल हो गए, वह दीवार अटल अचल खड़ी हुई है। वह स्वर्गीया महाराणी का घोषणापत्र है, जो 1 नवंबर 1858 ई. को केनिंग महोदय ने सुनाया था। वही भारत वर्ष के लिए फौलादी दीवार है। वही दीवार भारत की रक्षा करती है। उसी दीवार को भारतवासी अपना रक्षक समझते हैं। उस दीवार के होते आपके या लार्ड किचनर के कोई दीवार बनाने की ज़रूरत नहीं है। उसकी आड़ में आप जो चाहे जितनी मज़बूत दीवारों की कल्पना कर सकते हैं। आडंबर से इस देश का शासन नहीं हो सकता। आडंबर का आदर इस देश की कंगाल प्रजा नहीं कर सकती। आपने अपनी समझ में बहुत कुछ किया, पर फल यह हुआ कि विलायत जाकर वह सब अपने ही मुँह से सुनाना पड़ा। कारण यह कि करने से कहीं अधिक कहने का आपका स्वभाव है। इससे आपका करना भी कहे बिना प्रकाशित नहीं होता। यहाँ की अधिक प्रजा ऐसी है जो अब तक भी नहीं जानती कि आप यहाँ के वायसराय और राजप्रतिनिधि हैं और आप एक बार विलायत जाकर फिर से भारत में आए हैं। आपने ग़रीब प्रजा की ओर कभी दृष्टि खोलकर देखा, ग़रीबों ने आपको जाना। अब भी आपकी बातों से आपकी वह चेष्टा नहीं पाई जाती। इससे स्मरण रहे कि जब अपने पद को त्यागकर आप फिर स्वदेश में जावेंगे तो चाहे आपको अपने कितने ही गुण कीर्तन करने का अवसर मिले, यह तो कभी कह सकेंगे कि कभी भारत की प्रजा का मन भी अपने हाथ में किया था।

    यह वह देश है, जहाँ की प्रजा एक दिन पहले रामचंद्र के राजतिलक पाने के आनंद में मस्त थी और अगले दिन अचानक रामचंद्र वन को चले तो रोती-रोती उनके पीछे जाती थी। भरत को उस प्रजा का मन प्रसन्न करने के लिए कोई भारी दरबार नहीं करना पड़ा, हाथियों का जुलूस नहीं निकलना पड़ा, वरन दौड़कर वन में जाना पड़ा और रामचंद्र को फिर अयोध्या में लाने का यत्न करना पड़ा। जब वह आए तो उनकी खड़ाऊं को सिरपर धरकर अयोध्या तक आए और खड़ाउओं को राजसिंहासन पर रखकर स्वयं चौदह साल तक वल्कल धारण करके उनकी सेवा करते रहे। तब प्रजा ने समझा कि भरत अयोध्या का शासन करने के योग्य है।

    माई लार्ड! आप वक्तृता देने में बड़े दक्ष हैं। पर यहाँ वक्तृता कुछ और ही वज़न है। सत्यवादी युधिष्ठिर के मुख से जो निकल जाता था, वही होता था। आयु भर में उसने एक बार बहुत भारी पोलिटिकल ज़रूरत पड़ने से कुछ सहज-सा झूठ बोलने की चेष्टा की थी। वही बात महाभारत में लिखी हुई है। जब तक महाभारत है, वह बात भी रहेगी। एक बार अपनी वक्तृताओं से इस विषय को मिलाइए और फिर विचारिए कि इस देश की प्रजा के साथ आप किस प्रकार अपना कर्तव्य पालन करेंगे। साथ ही इस समय इस अधेड़ भंगड़ ब्राह्मण को अपनी भांग-बूटी की फ़िक्र करने के लिए आज्ञा दीजिए।

    'भारतमित्र', 17 सितंबर, 1904 ई.

    स्रोत :
    • पुस्तक : बालमुकुंद गुप्त ग्रंथावली (पृष्ठ 99)
    • संपादक : नत्थन सिंह
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : हरियाणा साहित्य अकादमी
    • संस्करण : 2008

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