क्यों लिखूँ?

kyon likhun?

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

    मैंने यह सोचा है कि अब मैं अपनी बातें लिखा करूँ। उनमें मेरे कर्म-जगत् के साथ मेरे भाव जगत् की भी चर्चा हो। सभी के पास यही तो एक विषय है जो दूसरों के लिए अपूर्व है। मेरा जीवन मेरा ही जीवन है। मैंने जो कुछ अनुभव किया है, वह अन्य के लिए संभव नहीं है। क्षुद्र होकर भी मनुष्य एक वृहत् जीवन में ही मिलकर परिपूर्ण होता है। हमारा जीवन कितना भी स्वार्थमय क्यों हो, हम पद-पद पर यह अनुभव करते हैं कि एक होकर भी हम अनेक होते जाते हैं। जीवन में जो बात मुझको विलक्षण प्रतीत होती है, वह यही है कि सबसे पृथक् होकर भी एक व्यक्ति किस प्रकार सबसे संबद्ध हो जाता है। मैं भी यह देखता हूँ कि अपनी जीवन-यात्रा में एकाकी होकर भी मैंने कितनों को ही अपने घेरे में ला रखा है। यह सच है कि मेरे चरित्र में मेरे जीवन की ही झलक रहेगी, उसमें विश्व मानवता नहीं रह सकती। जो बातें मेरे जीवन में होती हैं, उन्हें मैं कलापूर्ण नहीं बना सकता। अपने कामों का उत्तरदायित्व मुझे अपने ऊपर ही लेना पड़ेगा। कल्पित पात्रों के लिए हम अपनी इच्छा के अनुसार परिस्थिति उत्पन्न कर उनके प्रति सहानुभूति जागृत करा सकते हैं। पर अपने जीवन में कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार परिस्थिति निश्चित नहीं कर सकता। मेरे जीवन का क्षेत्र क्षुद्र है, इसी कारण मेरी इच्छाएँ भी क्षुद्र हैं। मेरे कष्टों और असफलताओं में आदर्श की कोई गरिमा नहीं है। मेरे सुख और गौरव में भाव की उच्चता नहीं है। विभिन्न वासनाओं के उत्थान में मैं भावों का घात-प्रतिघात देखकर तटस्थ नहीं रह सकता। मुझे उन्हीं के कारण सुख और दुःख का अनुभव करना पड़ता है। तो भी मैंने यह निश्चय किया है कि आज मैं अपने ही जीवन की कथा लिखा करूँ।

    अपने जीवन की बात तो लिखूँगा, पर उससे लाभ क्या है? जो मेरी महत्वाकांक्षा है वह स्वयं इतनी क्षुद्र है कि दूसरों को सुनकर विरक्ति होगी। अपने जीवन में मैंने जिनका विरोध किया अथवा जिनके कारण मैं चिंतित और त्रस्त हुआ वे अन्य लोगों के लिए उपेक्षणीय हैं। मेरे लिए जो स्पृहणीय हैं, वे दूसरों के लिए तिरस्करणीय हो सकते हैं। किसने मेरा अपमान किया, किसने मेरा मान किया, किसने कृपा की, किसने अकृपा की, इन बातों का क्या मूल्य है? फिर भी, उन्हें लिपिबद्ध करने के लिए मुझे इतना आग्रह क्यों है? क्यों मैं यह चाहता हूँ कि दूसरे लोग मेरी इन सब बातों को पढ़ें? मैं अपने क्षुद्र जीवन को इतनी महत्ता क्यों देना चाहता हूँ कि मेरे दैनिक जीवन की बातें साहित्य के अक्षय कोष में संचित रहे। बात यह है कि मेरी इच्छा है कि लोग साधारण मनुष्यों की क्षुद्र बातों को भी उनके यथार्थ रूप में देखें। कल्पना के भव्य भवन में क्षुद्रों का जीवन गौरवमय बनाया जा सकता है, पर उनमें सत्यता नहीं रहती। कल्पना के क्षेत्र में क्लेश, पीड़ा और यातना के निःश्वास और उच्छ्वास कुछ दूसरे ही ढंग के हो जाते हैं और यथार्थ जगत् में वे कुछ और ही ढंग के हो जाते हैं। कल्पना के क्षेत्र में तो हम लोग कितने ही स्कूल-मास्टरों के जीवन से परिचित हो चुके हैं। पर एक मास्टर के यथार्थ जीवन की यथार्थ बातें अब तक हिंदी में किसी ने लिखने की इच्छा नहीं की। अँग्रेज़ी के एक विज्ञ का कथन है कि साधारण व्यक्तियों को भी अपने जीवन का विवरण लिखना चाहिए। मानव-जीवन की परिस्थिति को समझने के लिए यह आवश्यक है। कि हम लोग यह जान लें कि अन्य लोगों की क्या अनुभूति है।

    अपने जीवन की सभी छोटी-बड़ी घटनाओं को यदि लिखने बैठूँ तो शायद मेरी जीवन-कथा का अंत ही हो सकेगा। प्रतिदिन कोई कोई बात होती ही रहती है। उसमें विलक्षणता भले ही हो, पर मेरे जीवन के घंटे तो उसी एक बात में केंद्रस्थ हो जाते हैं। यह सच है कि उन घंटों में से कितने ही घंटे उन आवश्यक कामों में व्यतीत हो जाते हैं जो आवश्यक होने पर भी उपेक्षणीय ही होते हैं। हम लोग नहाने-धोने, सोने-उठने, खाने-पीने और घर के काम-धंधे करने में अधिक समय व्यतीत करते हैं। जिस बात के लिए हम स्वयं अपने हृदय में गौरव रखते हैं उसके लिए अधिक समय नहीं लगता। फिर भी वही एक बात हमारे दैनिक जीवन के लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। मान अथवा अपमान, प्रेम अथवा विद्वेष, क्रोध अथवा अनुराग की वह छोटी-सी बात हमारे हृदय पर आघात करती है। इससे दिन-भर में वही एक बात हमारे लिए सबसे अधिक स्पृहणीय हो जाती है। मैं यह जानता हूँ कि मेरे जीवन में ये जो बातें होती हैं वे इतनी छोटी हैं कि लोग देखकर भी उन्हें नहीं देखते, पर मेरे हृदय में तो वही घर बना लेती हैं। समय के साथ हम लोगों के भावों में परिवर्तन हो जाता है। जो बात आज इष्ट है वही कुछ समय के बाद अनिष्ट हो जाती है। मैंने भावों का यह परिवर्तन कितनी ही बार देखा है और स्वयं अनुभव किया है। प्रेम विद्वेष में परिणत हुआ है और स्नेह घृणा में। जो कभी प्रशंसनीय होता है वह कभी निंदनीय हो जाता है। जो हमारा बंधु होता है वही कभी हमारा शत्रु बन जाता है। स्थिति बदलती है, व्यवहार बदलता है, ढंग भी कुछ का कुछ हो जाता है तो भी उन्हीं क्षणिक भावों और बातों को लेकर हम लोग अपने जीवन-पथ में अग्रसर होते हैं। अतएव वे मेरे लिए उपेक्षणीय नहीं हैं। यह सच है कि हम लोगों के जीवन में कोई वैचित्र्य नहीं रहता। प्रतिदिन वही झंझट, वही कष्ट, वही चिंता और वही काम होते रहते हैं। पर संसार में जो बड़ी-बड़ी घटनाएँ होती रहती हैं, उनका तो हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और इन्हीं क्षुद्र कष्टों में लिप्त रहकर हम लोग अपना जीवन व्यतीत करते हैं।

    जीवन की इन सब यथार्थ बातों को लिखूँ तो किस तरह लिखूँ? कार्य-क्षेत्र अत्यंत क्षुद्र होने के कारण आत्मचरित्र तो लिखा नहीं जा सकता। अपने अतीत जीवन की बातें सोचने पर मुझे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि मेरे इन 52 वर्षों के जीवन में ऐसे दस-पाँच ही दिन आए हैं, जिन्हें मैं अपने लिए महत्त्वपूर्ण समझता हूँ। मैंने पाँच बार डायरी लिखने का प्रयत्न किया था पर चार दिनों से अधिक मैं नियमित रूप से कभी कुछ लिख सका। डायरी लिखने में असमर्थ होकर मैंने यह निश्चय किया कि पत्रों के ही रूप में मैं अपने जीवन की बातें लिखा करूँ। किसी विज्ञ का कथन भी है कि साहित्य के क्षेत्र में जो कुछ नहीं लिख सकता वह 'पत्रकार' हो जाता है। पत्रों में सभी तरह की बातें लिखी जा सकती हैं। पर सबसे पहले कठिनता इस बात की हुई कि ये पत्र लिखूँ किसे? लिखने के लिए तो कई पत्र लिख चुका, पर लिखने के बाद बड़ी देर तक मैं यही सोचता रहा कि पत्र भेजूँ या भेजूँ। तुम्हारे पास यदि पत्र भेजूँ और यदि तुमने उनके प्रति अवज्ञा या उपेक्षा का भाव प्रकट किया तो पत्र भेजने से मुझे क्या लाभ हुआ? कम से कम मुझे यह तो मालूम होना चाहिए कि तुमने मेरे पत्रों को पढ़ा है। लेखकों का श्रम तभी तो सफ़ल होता है जब कोई एक भी उनकी रचनाओं को पढ़ता है। पर तुम्हारा उत्तर पाना मेरे लिए संभव नहीं, इसलिए मैं बड़ी देर तक चिंता में पड़ा रहा। अंत में मुझे गोर्की की एक कहानी का स्मरण आया। एक थी कुरूपा स्त्री। कुरूप होने के कारण किसी भी नवयुवक का प्रेम वह पा सकी। तब उसने एक प्रियतम की कल्पना कर ली। वह अपने उसी कल्पित प्रियतम के पास किसी दूसरे से पत्र लिखाती थी। उन पत्रों को वह स्वयं अपने पास रख लेती थी और फिर अन्य किसी से उनका उत्तर लिखाकर, वह यह सोच लेती थी कि कुरूपा होने पर भी उस पर कोई प्रेम रखता है, उसको भी कोई प्रेम-पत्र देता है। इससे उसको सांत्वना मिल जाती थी, इसी से उसको सुख मिल जाता था। तब मैं भी क्यों समझ लूँ कि तुम भी मेरी कल्पना की सृष्टि हो। मैंने अपने मन में तुम्हारी एक मूर्ति बना ही ली है, तब तुम्हें पत्र भेजने की क्या आवश्यकता और उसके उत्तर पाने की भी क्या चिंता है। मैं तुम्हें पत्र लिखूँगा और तुम्हारी ही ओर से मैं ही उन्हें पढ़ लूँगा और मन ही मन यह कल्पना कर लूँगा कि तुमने इन पत्रों को ख़ूब ध्यान से पढ़ा है; इन्हें पढ़कर तुम्हें बड़ी प्रसन्नता हुई; तुमने मेरी बड़ी प्रशंसा की है और मुझसे अनुरोध किया है कि ऐसे पत्र मैं बराबर लिखा करूँ, ये पत्र तो हिंदी-साहित्य के अक्षय कोष में स्थायी रत्न बनकर रहेंगे। मेरी सांत्वना के लिए क्या यह कम है? भले ही अब तुम मेरा तिरस्कार करो, पर अब तुम्हारे तिरस्कार, क्रोध, घृणा, उपेक्षा और विरक्ति का कोई प्रभाव मुझ पर नहीं पड़ सकता। सत्य की कटुता पर कल्पना का मधुर प्रलेप लगाने से ही तो जीवन सह्य होता है। इसलिए अब मैं निश्चिंत होकर ये सब बातें लिख रहा हूँ। एक कवि ने कहा—“There is a pleasure in singing though none may hear.” ये सब बातें लिखने में मुझे भी कम आनंद नहीं होता। अब तुम इन्हें पढ़ो या पढ़ो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली खंड-7 (पृष्ठ 135)
    • संपादक : नलिनी श्रीवास्तव
    • रचनाकार : पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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