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क्या लिखूँ?

kya likhuu.n?

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

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और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

    मुझे आज लिखना ही पड़ेगा। अँग्रेज़ी के प्रसिद्ध निबंध लेखक ए. जी. गार्डिनर का कथन है कि लिखने की एक विशेष मानसिक स्थिति होती है। उस समय मन में कुछ ऐसी उमंग-सी उठती है, हृदय में कुछ ऐसी स्फूर्ति-सी आती है, मस्तिष्क में कुछ ऐसा आवेग-सा उत्पन्न होता है कि लेख लिखना ही पड़ता है। उस समय विषय की चिंता नहीं रहती। कोई भी विषय हो, उसमें हम अपने हृदय के आवेग को भर ही देते हैं। हैट टाँगने के लिए कोई भी खूँटी काम दे सकती है। उसी तरह अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए कोई भी विषय उपयुक्त है। असल वस्तु है हैट, खूँटी नहीं। इसी तरह मन के भाव ही यथार्थता वस्तु है, विषय नहीं। गार्डिनर साहब के इस कथन की यथार्थता में मुझे संदेह नहीं; पर मेरे लिए कठिनता यह है कि मैंने उस मानसिक स्थिति का अनुभव ही नहीं किया है, जिसमें भाव अपने आप उत्थित हो जाते हैं। मुझे तो सोचना पड़ता है, चिंता करनी पड़ती है, परिश्रम करना पड़ता है, तब कहीं मैं एक निबंध लिख सकता हूँ। आज तो मुझे विशेष परिश्रम करना पड़ेगा, क्योंकि मुझे कोई साधारण निबंध नहीं लिखना है। आज मुझे नमिता और अमिता के लिए आदर्श निबंध लिखना होगा। नमिता का आदेश है कि मैं ‘दूर के ढोल सुहावने होते हैं’ इस विषय पर लिखूँ। अमिता का आग्रह है कि मैं समाज-सुधार पर लिखूँ। ये दोनों ही विषय परिक्षा में चुके हैं, और इन दोनों पर आदर्श निबंध लिखकर मुझे उन दोनों को निबंध-रचना का रहस्य समझना पड़ेगा।

    दूर के ढोल सुहावने अवश्य होते हैं। पर क्या वे इतने सुहावने होते हैं कि उन पर पाँच पेज लिखे जा सकें? इसी प्रकार जिस समाज-सुधार की चर्चा अनादिकाल से लेकर आज तक होती रही है और जिसके संबंध में बड़े-बड़े विज्ञों में भी विरोध है, उसको मैं पाँच पेजों में कैसे लिख दूँ? मैंने सोचा कि सबसे पहले निबंध-शास्त्र के आचार्यों की सम्मति-जान लूँ। पहले यही तो समझ लूँ कि आदर्श निबंध है क्या और वह कैसे लिखा जाता है; तब फिर मैं विषय की चिंता करुँगा। इसीलिए मैंने निबंध-शास्त्र के कई आचार्यों की रचनाएँ देखीं। एक विद्वान का कथन है कि निबंध छोटा होना चाहिए। छोटा निबंध बड़े की अपेक्षा अधिक अच्छा होता है, क्योंकि बड़े निबंध में रचना की सुंदरता नहीं बनी रह सकती। इस कथन को मान लेने में ही मेरा लाभ है। मुझे छोटा ही निबंध लिखना है, बड़ा नहीं। पर लिखूँ कैसे? निबंध-शास्त्र के उन्हीं आचार्य महोदय का कथन है कि निबंध के दो प्रधान अंग हैं— सामग्री और शैली। पहले तो मुझे सामग्री एकत्र करनी होगी, विचार-समूह संचित करना होगा। इसके लिए मुझे मनन करना चाहिए। यह तो सच है कि जिसने जिस विषय का अच्छा अध्ययन किया है, उसके मस्तिष्क में उस विषय के विचार आते हैं। पर यह कौन जानता था ‘दूर के ढोल सुहावने’ पर भी निबंध लिखने आवश्यकता होगी। यदि यह बात पहले से ज्ञात होती तो पुस्तकालय में जाकर इस विषय का अनुसंधान कर लेता; पर अब समय नहीं है। मुझे तो यहीं बैठकर दो ही घंटों में दो निबंध तैयार कर देने होंगे। यहाँ तो विश्वकोष है, और कोई ऐसा ग्रंथ जिसमें इन विषयों की सामग्री उपलब्ध हो सके। अब तो मुझे अपने ही ज्ञान पर विश्वास कर लिखना होगा।

    विज्ञों का कथन है कि निबंध लिखने के पहले उसकी रूप-रेखा बना लेनी चाहिए। अतएव सबसे पहले मुझे ‘दूर के ढोल सुहावने’ की रूप-रेखा बनानी है। मैं सोच ही नहीं सकता कि इस विषय की कैसी रूप-रेखा है। निबंध लिख लेने के बाद में उसका सारांश कुछ ही वाक्यों में भले ही लिख दूँ, पर निबंध लिखने के पहले उसका सार दस पाँच शब्दों में कैसे लिखा जाए। क्या सचमुछ हिंदी के सब विज्ञ लेखक पहले से अपने-अपने निबंधों के लिए रूप-रेखा तैयार कर लेते हैं? ऐ. जी. गार्डिनर को तो अपने लेखों के शीर्षक बनाने में ही सबसे अधिक कठिनाई होती है। उन्होंने लिखा है कि मैं लेख लिखता हूँ; और शीर्षक देने का भार मैं अपने मित्र पर छोड़ देता हूँ। उन्होंने यह भी लिखा है कि शेक्सपियर को भी नाटक लिखने में जितनी कठिनाई हुई होगी, उतनी कठिनता नाटकों के नामकरण में हुई होगी। तभी तो घबड़ाकर नाम रख सकने के कारण उन्होंने अपने एक नाटक का नाम रखा ‘जैसा तुम चाहो’। इसलिए मुझसे तो यह रूप-रेखा तैयार होगी। अब मुझे शैली निश्चय करनी है। आचार्य महोदय का कहना है कि भाषा में प्रवाह होना चाहिए। इसके लिए वाक्य छोटे-छोटे हों, पर एक-दूसरे से संबद्ध। यह तो बिल्कुल ठीक है। मैं छोटे-छोटे वाक्य अच्छी तरह लिख सकता हूँ। पर मैं हूँ मास्टर। कहीं नमिता और अमिता यह समझ बैठें कि मैं यह निबंध बहुत मौटी अक़्लवालों के लिए लिख रहा हूँ। अपनी विद्वता का प्रदर्शन करने के लिए अपना गौरव स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि वाक्य कम से कम आधे पृष्ठ में तो समाप्त हो। बाणभट्ट ने कादंबरी में ऐसे ही वाक्य लिखे हैं। वाक्यों में कुछ अस्पष्टता भी चाहिए, क्योंकि यह अस्पष्टता या दुर्बोधता गांभीर्य ला देती है। इसीलिए संस्कृत के प्रसिद्ध कवि श्रीहर्ष ने जान-बूझकर अपने काव्य में ऐसी गुत्थियाँ डाल दी हैं जो अज्ञों से सुलझ सकें और सेनापति ने भी अपनी कविता मुढ़ों के लिए दुर्बोध कर दी है। तभी तो अलंकारों, मुहावरों और लोकोक्तियों का समावेश भी निबंधों के लिए आवश्यक बतलाया जाता है। तब क्या किया जाए?

    अँग्रेज़ी के निबंधकारों ने एक दूसरी ही पद्धति को अपनाया है। उनके निबंध इन आचार्यों की कसौटी पर खरे सिद्ध हों, पर अँग्रेज़ी साहित्य में उनका मान अवश्य है। उस पद्धति के जन्मदाता मानहेन समझे जाते हैं। उन्होंने स्वयं जो कुछ देखा, सुना और अनुभव किया उसी को अपने निबंधों में लिपिबद्ध कर दिया। पाश्चात्य साहित्य में ऐसे निबंधों का विकास आधुनिक युग में हुआ है। आख्यायिका की तरह यह निबंध-कला भी आधुनिक युग की रचना है। ऐसे निबंधों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे मन की स्वच्छंद रचनाएँ हैं। उनमें कवि की उदात्त कल्पना रहती है, आख्यायिका-लेखक की सूक्ष्म दृष्टि और विज्ञों की गंभीर तर्क-पूर्ण विवेचना। उनमें लेखक की सच्ची अनुभूति रहती है, उनमें उसके सच्चे भावों की सच्ची अभिव्यक्ति होती है, उनमें उसका उल्लास रहता है। कवि उच्च मार्ग से प्रेरित होकर काव्य की रचना करते हैं, विज्ञ ज्ञान की कसौटी पर सत्य की परीक्षा कर प्रबंध लिखते हैं। आख्यायिका-लेखक काल्पना के द्वारा मनुष्य-वैचित्र्य की सृष्टि करते हैं। पर ये निबंध तो उस मानसिक स्थिति में लिखे जाते हैं, जिसमें ज्ञान की गरिमा रहती है और कल्पना की महिमा, जिसमें जीवन का गौरव भूलकर हम अपने में ही लीन हो जाते हैं, जिसमें हम संसार को अपनी ही दृष्टि से देखते हैं और अपने ही भावे से ग्रहण करते हैं। तब इसी पद्धति का अनुसरण कर मैं भी क्यों निबंध लिखूँ। पर मुझे तो दो निबंध लिखने होंगे।

    मुझे अमीर ख़ुसरो की एक कहानी याद आई। एक बार प्यास लगने पर वे एक कुएँ के पास पहुँचे। वहाँ चार औरतें पानी भर रही थीं। पानी माँगने पर पहले उनमें से एक ने खीर पर कविता सुनने की इच्छा प्रकट की, दूसरी ने चर्खे पर, तीसरी ने कुत्ते पर और चौथी ने ढोल पर। अमीर खुसरो प्रतिभावन थे, उन्होंने एक ही पद्य में चारों की इच्छाओं की पूर्ति कर दी। उन्होंने कहा—

    खीर पकाई जतन से, चर्खा दिया चलाए;

    आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाए।

    मुझमें खुसरो की प्रतिभा नहीं है पर उनकी इस पद्धति को स्वीकार करने में मेरी कठिनाई आधी रह जाती है। मैं भी एक ही निबंध में इन दोनों विषयों का समावेश कर दूँगा, एक ही ढेले से दो चिड़ियाँ मार लूँगा।

    दूर के ढोल सुहावने होते हैं, क्योंकि उनकी कर्कशता दूर तक नहीं पहुँचती। जब ढोल के पास बैठे हुए लोगों के कान के पर्दे फटते रहते हैं, तब दूर किसी नदी के तट पर, संध्या समय, किसी दूसरे के कान में वही शब्द मधुरता का संचार कर देते हैं। ढोल के उन्हीं शब्दों को सुनकर वह अपने हृदय में किसी के विवाहोत्सव का चित्र अंकित कर लेता है। कोलाहल से पूर्ण घर के एक कोने में बैठी हुई किसी लज्जाशील नववधू की कल्पना वह अपने मन में कर लेता है। उस नववधू के प्रेम, उल्लास, संकोच, आशंका और विषाद से युक्त हृदय के कंपन, ढोल की कर्कश ध्वनि को मधुर बना देते हैं। सच तो यह है कि ढोल की ध्वनि के साथ आनंद का कलरव, उत्सव का प्रमोद और प्रेम का संगीत ये तीनों मिले रहते हैं। तभी उसकी कर्कशता समीपस्थ लोगों को भी कटु नहीं प्रतीत होती और दूरस्थ लोगों के लिए तो वह अत्यंत मधुर बन जाती है।

    यह बात सच है कि दूर रहने से हमें यथार्थता की कठोरता का अनुभव नहीं होता। यही कारण है कि जो तरुण संचार के जीवन संग्राम से दूर हैं, उन्हें संसार का चित्र बड़ा ही मनमोहक प्रतीत होता है। प्रेम की वेदना ही उनके लिए वेदना है। प्रियतमा की निष्ठुरता ही उनके लिए निष्ठुरता है। प्रेम का व्यवसाय ही उनका एक व्यवसाय है। प्रेम ही उनके लिए आटा-दाल है और प्रेम ही उनका सर्वस्य है। वे प्रियतम की गोद में रोग की यंत्रणा भूल जाते हैं। प्रियतमाएँ भी संध्या के समय में प्रियतम के अंक में मृत्यु का अनुभव करने के लिए लंबी यात्रा का कष्ट सह लेती हैं। तरुणों के लिए रोग और मृत्यु दोनों सुखद हैं, क्योंकि दोनों में प्रेम की मधुरता है। पर संसार में प्रविष्ट होते ही प्रेम का यह कल्पित संसार जाने कहाँ विलीन हो जाता है। तब उन्हें संसार की यथार्थता का ज्ञान होता है, तब उन्हें जीवन की कटुता का अनुभव होता है और तभी उन्हें ढोल की कर्कशता मालूम हो जाती है।

    जो वृद्ध हो गए हैं, जो अपनी बाल्यावस्था और तरुणावस्था से दूर हट आए हैं, उन्हें अपने अतीत काल की स्मृति बड़ी सुखद लगती है। वे अतीत का ही स्वप्न देखते हैं। तरुणों के लिए जैसे भविष्य उज्जवल होता है वैसे ही वृद्धों के लिए अतीत। वर्तमान से दोनों को असंतोष होता है। तरुण भविष्य को वर्तमान में लाना चाहते हैं और वृद्ध अतीत को खींचकर वर्तमान में देखना चाहते हैं। तरुण क्रांति के समर्थक होते हैं और वृद्ध अतीत-गौरव के संरक्षक। इन्हीं दोनों के कारण वर्तमान सदैव क्षुब्ध रहता है और इसी से वर्तमान काल सदैव सुधारों का काल बना रहता है।

    मनुष्य-जाति के इतिहास में कोई ऐसा काल ही नहीं हुआ जब सुधारों की आवश्यकता हुई हो। तभी तो आज तक कितने ही सुधारक हो गए हैं, पर सुधारों का अंत कब हुआ है? भारत के इतिहास में बुद्धदेव, महावीर स्वामी, नागार्जुन, शंकराचार्य, कबीर, नानक, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद और महात्मा गाँधी में ही सुधारकों की गणन समाप्त नहीं होती। सुधरकों का दल नगर-नगर और गाँव-गाँव में होता है। यह सच है कि जीवन में नए-नए दोष उत्पन्न होते जाते हैं और नए-नए सुधार होते जाते हैं। दोषों का अंत है और सुधारों का। जो कभी सुधार थे वही आज दोष हो गए हैं और उन सुधारों का फिर नव सुधार किया जाता है। तभी तो यह जीवन प्रगतिशील माना जाता है।

    हिंदी में भी प्रगतिशील साहित्य का निर्माण हो रहा है। उसके निर्माता यह समझ रहे हैं कि उनके साहित्य में भविष्य का गौरव निहित है। पर कुछ ही समय के बाद उनका यह साहित्य भी अतीत का स्मारक हो जाएगा और आज जो तरुण हैं वही वृद्ध होकर अतीत के गौरव का स्वप्न देखेंगे। उनके स्थान में तरुणों का फिर दूसरा दल जाएगा जो भविष्य का स्वप्न देखेगा। दोनों के ही स्वप्न सुखद होते हैं, क्योंकि दूर के ढोल सुहावने होते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बख्शी ग्रन्थावली खंड−7 (पृष्ठ 9)
    • रचनाकार : पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन

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