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कला और नीति

kala aur niti

इलाचंद्र जोशी

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इलाचंद्र जोशी

कला और नीति

इलाचंद्र जोशी

और अधिकइलाचंद्र जोशी

    कला का मूल उत्सव आनंद है। आनंद प्रयोजनातीत है। सुंदर फूल देखने से इमे आनंद प्राप्त होता है; पर उससे हमारा कोई स्वार्थ या प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। प्रभात की उज्ज्वलता और संध्या की स्निग्धता देखकर चित्त को एक अपूर्व शांति प्राप्त होती है; पर उससे हमें कोई शिक्षा नहीं मिलती, और कोई सांसारिक लाभ ही होता है। कारण आनंद का भाव समस्त लौकिक शिक्षा तथा व्यवहार से अतीत है। उसमें कोई बहस नहीं चल सकती। हमें आनंद क्यों मिलता है, इसका कोई कारण नहीं बताया जा सकता। यह केवल, अनुभव ही किया जा सकता है। “ज्यों गूँगे मीठे फल को रस अंतर्गत ही भावै।” आनंद का भाव वाणी और मन की पहुँच के बिल्कुल अतीत है। “यनी वाचा निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह।” पर नीति का संबंध चेतन मन के साथ है। चेतन मन बिना आलोचना के आनंद के महज़ भाव को ग्रहण नहीं करना चाहता। वह पोथी पढ़-पढ़कर ‘पंडिताई’ में मस्त रहता है। सहज प्रेम के ‘ढाई अच्छर’ से उसकी तृप्ति नहीं होती। वह कविता पढ़कर इस बात की खोज में लग जाता है कि इसमें अर्थनीति, राजनीति, राष्ट्रनत्व भूतत्व, जीवतत्व अथवा और कोई तत्व है या नहीं। वह यह नहीं समझना चाहता कि इस कविता में आनंद का जो अमिश्रित रस है, उसके सामने किसी भी तत्व का कोई मूल्य नहीं। पर जो लोग इस दुष्ट समालोचक मन को दमन करने में समर्थ होते हैं, वे कला के ‘आनंदरूपममृतम्’ का अनुभव कर होते हैं। उपनिषदों में हमारे भीतर पाँच पृथक-पृथक कोषों का अवस्थान बतलाया गया है—अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष। अनंदमय कोष के संस्थान के लिए हमें अर्थनीति की आवश्यकता होती है। प्राणमय कोष की पुष्टि के लिए धर्मनीति की, मनोमय कोष के लिए कामनीति की, और विज्ञानमय कोष के लिए वैज्ञानिक नीति की। पर जब इन सब कोषों की स्थिति को पार करके मनुष्य आनंदमय कोष के द्वार खटखटाता है, तो वह सब प्रकार की नीति तथा नियमों के गट्ठर को फेंककर भीतर प्रवेश करना पड़ता है। वहाँ यदि नीति किसी उपाय से घुस भी गई, तो उसे इच्छा के शासन में वेष बदलकर दुबके हुए बैठना पड़ता है। लैकिक तथा प्राकृतिक बंधनों की अवज्ञा करने वाली इस सर्वजयी इच्छा महारानी के आनंदमय द्वार में नैतिक शासन का काम नहीं है, वह सहज प्रेम का कारोबार है। वहा इस प्रेम के बंधन में बँधकर पाप और पुण्य भाई-भाई की तरह एक-दूसरे के गले मिलते हैं।

    नीति? इस विपुल सृष्टि के मूल में क्या नीति है? क्या प्रयोजन है? क्या तत्व है? प्रतिदिन असंख्य प्राणों विनाश को प्राप्त हो रहे हैं, असंख्य प्राणी उत्पन्न होते जाते हैं, उत्पन्न होकर फिर अपने प्रेम घृणा, सुख-दु:ख, हँसी रुलाई का चक्र पूरा करके अनंत में विलीन हो रहे हैं। इस समस्त चक्र का अर्थ ही क्या है? अर्थ कुछ भी नही, यह केवल भूमा के सहज आनंद की लीला है।

    विश्व की इस अनंत सृष्टि की तरह कला भी आनंद का ही प्रकाश है। उसके भीतर नीति, तत्व अथवा शिक्षा का स्थान नहीं। उसके अलौकिक मायाचक्र से हमारे हृदय को तत्री आनंद की झंकार से बज उठती है, यही हमारे लिए परम लाभ है। उच्च अग की कला के भीतर किसी तत्व की खोज करना सौंदर्य देवी के मंदिर को कलुषित करना है।

    हिंदी साहित्य के वर्तमान समालोचक जब तक कला की किसी रचना में कोई तत्व नहीं पाते, तब तक उसकी श्रेष्ठता स्वीकार करने में अपना अपमान समझते हैं। जिन रचनाओं की वे प्रशंसा करते हैं, उनकी विशेषता के संबंध में यदि उनसे पूछा जाए, तो वे उत्तर देते हैं, अमुक रचना में किसानों की दुर्दशा का प्रश्न हल किया गया है, अमुक ग्रंथ में राष्ट्रतत्व की व्याख्या बहुत अच्छी तरह की गई है, अमुक ग्रंथ में हमारे सामाजिक पतन पर विचार किया गया है। यह हमारे समालोचकों के कला-संबंधी विचारों के आदर्शों का नमूना है! इन आदर्शों के आधार पर कला की श्रेष्ठता का विचार करने से साहित्य में हीनता उपस्थित होती है।

    रामायण के मूल आदर्श के भीतर हमको कौन सा नैतिक तत्व प्राप्त होता है! कुछ भी नहीं। उसके भीतर केवल राम की विपुल प्रतिभा की स्वाधीन इच्छा का लीलामय चक्र, विस्तृत रूप से अत्यंत सुंदरता के साथ, चित्रित हुथा है। रामायण निस्संदेह बृहत् ग्रंथ है, और उसके विस्तृत क्षेत्र में सहस्त्रों प्रकार के नैतिक उपदेश स्थान-स्थान पर ढूँढ़ने से मिल सकते हैं। पर इस प्रकार खंड-खंड रूप से इस महाकाव्य को विभक्त करने से उसका अखंड, वास्तविक तथा मूल सत्ता का नाश हो जाता है। यदि उनको वास्तविक श्रेष्ठता का कारण इमे मालूम करना है, तो हमें उसकी समग्रता पर ध्यान देना होगा। उसके मूल आदर्श पर विचार करना पड़ेगा। रामायण से यदि हमें केवल यही तत्व पाकर संतोष करना पड़े कि उसमें पितृ-भक्ति, भ्रातृ-स्नेह तथा पतिव्रत्य का उपदेश दिया गया है, तो यह महाकाव्य अपनी आनंदोत्वादिनी महत्ता को खोकर एक अत्यंत क्षुद्र नीति ग्रंथ में परिणत हो जाता है! ऐसे उपदेश इमें सहस्त्रों साधारण नैतिक श्लोकों तथा प्रवचनों से रात-दिन मिलते रहते हैं। तब इस काव्य में विशेषता क्या है? इसकी कथा सहस्त्रों वर्षों से जनता के हृदयों में अखंड रूप से क्यों विराजती आई है? कारण वही है, जो हम पहले बतला आए हैं। अनादि पुरुष की ‘एकोऽह बहुस्याम्’ की इच्छा की तरह प्रतिभा भी सृजन का कार्य करती है। जिस प्रकार सृष्टि कर्ता के उपदेश का रहस्य कुछ जानने पर भी हमें उसकी माया के खेल में आनंद आता है, उसी प्रकार प्रतिभा की स्वाधीन इच्छामयी उद्दाम प्रवृत्ति की सर्जना का अभिनव विलास देखकर, उसका मूल उद्दे‌श्य ने समझने पर भी, हमें सुख प्राप्त होता है। राम की प्रतिभा अपूर्व तथा सुविस्तृत थी। राम तत्काल वन गमन के लिए क्यों तत्पर हो गए! पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए उन्होंने ऐसा नहीं किया। वह पिता की इच्छा भली भाँति जानते थे। वह जानते थे, पिता उन्हें वन भेजना नहीं चाहते और यथाशक्ति उन्हें उनके ऐसा करने से रोकेंगे। पर प्रतिभा किसी भी बात पर सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप से विचार करके चाल की खाल निकालना नहीं चाहती। इसीलिए लोग उसका इतना सम्मान करते हैं। वह एक झलक में समस्त स्थिति को समझकर अपना कर्तव्य निर्धारण कर लेतो हैं। अँगरेज़ी में जिसे exalted state of mind (मन की उन्नत अवस्था) कहते हैं, राम की मानसिक स्थिति सर्वदा, सब समय वैसी ही रहती थी। उनकी प्रतिभा की विपुलता अपने आप में आबद्ध होकर तिक्षण नाना रूपों में, नाना क्षेत्रों में; अपने को विस्तारित करने के लिए उम्मुख रहा करती थी। उसकी गति प्रतिक्षण वर्तमान को भेदकर सुदूर भविष्य की ओर प्रवाहित होती रहती थी। पति-पत्नी, पिता-पुत्र तथा भाई-भाई के बीच तुच्छ स्वार्थ की छीना-झपटी की अत्यंत हास्यकर तथा नीच प्रवृत्ति के प्रबल प्रकोप की आशंका करके उन्होंने अत्यंत प्रसन्नता तथा वजूद कठिन दृढ़ता के साथ महत् त्याग स्वीकार किया और अपने गृह में घनीभूत स्वार्थ भाव को, त्याग के करुणर-विगलित रस से बहाकर, साफ़ कर दिया। उन्होंने पिता का प्रण निभाया, इस बात पर हमें उतनी श्रद्धा नहीं होती, जितनी इस बात पर विचार करने से कि उन्होंने इन स्वार्थ-मन्न संसार के प्रतिदिन के व्यवहार की यंत्रनिका भेदकर सुदूर अनंत की ओर अपनी प्रतिभा की सुतीक्ष्ण दृष्टि प्रेरित की। उनकी इस इच्छा शक्ति के वेग की प्रबलता के कारण ही हमें इतना आनंद प्राप्त होता है, और हृदय बारंबार संभ्रम तथा श्रद्धा के साथ उनके पैरों तले पतित होना चाहता है।

    यदि कोरी नीति के आधार पर ही समस्त कार्यों का निर्धारण करना हो, तो राम का वन-गमन से उनकी प्रज्ञा को कितना कष्ट उठाना पड़ा, इसका उल्लेख रामायण में ही हैं। उनके पिता की मृत्यु का कारण भी यही था। भरत का सुख-भोग की जगह तपस्या करनी पड़ी। यह सब परिणाम समझकर ही राम वन गए थे। वन में उन्हें जाबालि मुनि मिले थे। जाबालि ने उनके वनवास को व्यर्थ साधना बतलाया। उन्होंने कहा कि तुम्हारी इस साधना की कुछ भी उपयोगिता नहीं। तुम समझते हो कि पिता का प्रण निभाकर मैंने महत् कार्य किया है। पर यदि वास्तव में देखा जाए तो कौन किसका पिता है, कौन किसका भाई? जब तक जीवित रहना है, तब तक मौज करते चले जाओ, इस भस्मी-भूत देह का पुनरागमन कहाँ है? मरने के बाद कौन पिता है, और कौन पुत्र! केवल दुर्बल भावुक्ता के कारण ही तुमने वन-गमन स्वीकार किया है, और मोहाधता के कारण इस त्याग को तुम श्रेष्ठ आदर्श समझे बैठे हो।” यदि केवल नीति के ही पीछे लगा जाए, तो जाबालि की यह उक्ति वास्तव में यथार्थ जान पड़ती है। परलोक की कौन जानता है, इसी जीवन में प्रत्यक्ष में जो निश्चित लाभ होता है, चाणक्य की “यो ब्रूवाणि परित्यज्य’ वाली नीति के अनुसार वही श्रेष्ठ है। और “आत्मान सतत् रक्षेत् दारैरपि” वाली उक्ति से सभी परिचित है। अपना स्वार्थ ही कोरा नीति की दृष्टि से सब से बड़ी बात है। पर हम पहले ही कह आए हैं कि प्रबल प्रतिभा का सप्लवन नैतिक तथा नैयायिक उक्तियों को ग्रहण नहीं करता। अकारण ही अपने को प्लावित करने में उसे आनंद मिलता है। राम जानते थे कि उनके वनवास की सार्थकता नहीं है; पर उनकी प्रतिभा ने यही दिखलाना चाहा कि उनका आत्मा अनंत की विपुलता में पागल है, और अपने क्षुद्र परिवेष्टन के भीतर बंद नहीं रहना चाहती। आत्म-प्रकाश का आनंद इसे ही कहते हैं। यदि नैतिक उपयोगिता का विचार कर के उन्होंने वन गमन किया होता, तो यह घटना आाज मानव-हृदय को करुणा से इतना द्रवीभूत करती। कवि के तीव्र आत्मानुभव तथा उसकी कल्पना की वास्तविकता का परिचय हमें यहीं पर मिलता है।

    यदि नीति की छोटी-मोटी बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता, तो आज हम महाभारत के समान विपुल काव्य से वंचित रहते। कवि को बात-बात पर सफ़ाई देनी होती कि द्रौपदी के पाँच पति क्यों थे? वेदव्यास-जैसे महात्मा का जन्म घृणित और पांडु क्षेत्रज्ञ व्यभिचार से क्यों हुआ? धृतराष्ट्र और पांडु क्षेत्रज्ञ पुत्र होने पर भी महा-गौरवशाली क्यों हुए? कुंती कौमार्यावस्था में ही गर्भवती होने पर भी पांडवों की सर्वजन प्रशंसिता माता क्यों हुई? (सूर्य की दुहाई देना वृथा है; विवेचक पाठक जानते हैं कि सूर्य के समान किसी तेजस्वी पुरुष के औरस से ही कर्ण का जन्म हुआ था—सूर्य रूपक मात्र है) ऐसे असंख्य उदाहरण दिए जा सकते हैं। पर महाभारत की कलम लेश-मात्र भी इन कारणों से नहीं हिचकी। कारण स्पष्ट है। कवि वही दिखलाना चाहता है कि इन तुच्छ नैतिक उल्लघनों से उसके महत् आदर्श पर किंचिमात्र भी आच नहीं सकती। इस संबंध में हम विस्तृत रूप से आगे किसी लेख में विचार करेंगे। यहाँ पर हम केवल यह दिखलाना चाहते हैं कि कला का आदर्श नीति से बहुत ऊपर उठा हुआ होता है।

    कालिदास का मेघदूत क्या नीति सिखाता है? विरह जन्य आनंद की इस रचना का लक्ष्य यदि नीति की ओर होता, तो वह असह्य हो उठती। अलकापुरी के जिस आनंदमय देश की ओर कवि, हमें आकर्षित करके ले चलता है, उसके संबंध में हमारे मन में यह प्रश्न बिल्कुल ही नहीं उठता कि वहाँ जाकर क्या होगा? किसी नैतिक लाभ के लिए हम अलकापुरी नहीं जाते, हम जाते हैं आनंद को विपुलता का अनुभव करने के लिए। यहाँ जिस आनंद का हम अनुभव करते हैं, वह तुच्छ सुख-दुख, क्षुधा-तृष्णा तथा पाप-पुण्य के अतीत हैं।

    केवल हमारे ही देश में नहीं, पाश्चात्य देशों में भी बहुत से लोग नीति के उपासक हैं। ग्येटे की रचनाओं में नीति की अवहेलना देखकर कई लोग उन पर बरस पड़े। शेक्सपीयर के नाटकों में से कई समालोचक अपने इच्छानुसार नीति निकालने में व्यस्त रहते हैं। प्रकृति के सच्चे उपासक, प्रसिद्ध फ़्रांसीसी चित्रकार मिले को कला के बहुत से आलोचकों ने उसकी राजनीतिक व्याख्या करने की चेष्टा की थी। वह बात इस प्रकृति के चतुर चितेरे को बहुत बुरी लगी। प्रसिद्ध क्रांतिकारी प्रूधों ने उसे चित्रों के ज़रिए राजनीतिक प्रश्न हल करने के लिए उस काया, पर वह इस अयुक्त प्रस्ताव पर सम्मत नहीं हुआ। इससे यह समझना चाहिए कि वह देश-द्रोही था। राजनीति से देश प्रेम का कोई संबंध नहीं। सहज प्रेम के साथ नीति का क्या संबंध हो सकता है! मिले स्वयं कृषक का पुत्र था, और किसानों के प्रति उसकी इतनी सहानुभूनि थी कि उसके प्राय: सभी चित्रों से कृषक-जीवन की सरलता का सुमधुर परिचय मिलता है। उसके चित्रों की सरलता से मानवात्मा की यातनाओं का आभास अत्यंत सुंदर रूप से आँखों में झलकता है, और हृदय में किसानों के प्रति आंतरिक सहानुभूति उमड़ पड़ती है। पर उसका उद्दे‌श्य किसानों की दुर्दशा का चित्र खींचकर तात्कालिक साम्यवाद की राजनीतिक महत्ता ‘प्रचार’ करने का नहीं था। यही कारण है कि उसके चित्रों ने अमरत्व प्राप्त कर लिया है।

    महाकवि ग्येटे को जर्मनी के कई समालोचकों ने इस बात के लिए कोसा था कि वे सदा राजनीति से विमुख रहे हैं। इस पर उन्होंने लूर्डन से कहा था—“जर्मनी मुझे प्राणों से प्यारा है। मुझे बहुधा इस बात पर दु:ख होता है कि जर्मन लोग व्यक्तिगत रूप से इतने उन्नत होने पर भी समष्टि के विचार में इतने ओछे हैं। अन्य जाति के लोगों के साथ जर्मन लोगों की तुलना करने से हृदय में व्यथा का भाव उत्पन्न होता है, और इस भाव को मैं किसी भी उपाय से भूलना चाहता हूँ। कला और विज्ञान में मैं इस व्यथाजनक भाव से त्राण पाता हूँ, क्योंकि उनका संबंध समान विश्व से है, और उनके आगे राष्ट्रीयता की सीमा तिरोहित हो जाती है।” पाठकों को मालूम होगा कि रवींद्रनाथ का भी यही मत है। ग्येटे ने किसी अन्य स्थान पर कहा है—“सत्य की इस सरल उक्ति पर लोग विश्वास नहीं करना चाहते कि कला का एक-मात्र उन्नत ध्येय उच्च भाव को प्रतिबिंबित करना है।’, इंग्लैंड के प्रसिद्ध साहित्यालोचक कार्लाइल जब एक बार बर्लिन गए थे, तो किसी भोज के अवसर पर कुछ लोगों ने ग्येटे पर यह दोष लगाना आरंभ किया कि इतने बड़े प्रतिभाशाली कवि होने पर भी उन्होंने धर्मसंबंधी बातों की अवहेलना की है। कार्लाइल ने उनकी संकीर्णता से कुढ़कर कहा—कभी उस आदमी की कहानी नहीं सुनी जो सूर्य को इस कारण कोसता था कि वह उसकी चुरट जलाने के काम नहीं आता?” यह मुँहतोड़ जवाब सुनकर किसी के मुँह से एक शब्द निकला!

    सभी जानते हैं कि रूसो नीति के कितने पक्षपाती थे। पर जब वह कला की रचना करने बैठते थे, तब नीति-वीति सत्र भूल जाते थे। उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘ला नूवेल एलोइन’ में उनके हृदय की क्षुब्ध वेदना प्रतिबिंबित हुई है। उसके इस आत्म-प्रकाश की मनोहरता के कारण ही यह ग्रंथ इतना आदरणीय है। सच्चा कलाविद् हृदय की प्रेरणा से ही चित्र खिंचता है, कि बाह्य आवश्यकता के अनुसार!

    टाल्सटाय की नीति की छोटी-छोटी बातों का भी बड़ा ख़्याल रहता था। यहाँ तक कि अपने ‘कला क्या है?’ नामक पुस्तक में उन्होंने अनीति-मूलक ग्रंथों की तीव्र निंदा करके यह मत प्रतिष्ठित किया है कि कला के भीतर नीति का होना परमावश्यक है। उन्होंने जिस समय यह मत प्रचारित किया था, उस समय उन्होंने यह भी लिखा था कि मेरी इस समय से पहले की रचनाएँ दोष-पूर्ण समझी जानी चाहिए।” पर उनका सर्वश्रेष्ठ उपन्यास अन्ना कैरेनिना इसके बाद लिखा गया था। इसके प्रकाशित होने पर लोगों को यह आशंका हुई थी कि उसमें नीति भरी पड़ी होगी। पर उनकी यह आशंका निर्मल निकली।

    टाल्सटाय सच्चे कलाविद् तथा शिल्पी थे। उनका व्यक्तिगत मत चाहे कुछ भी रहा हो, पर उनकी आत्मा में कवि स्वभाव का राज़ होने के कारण कला की रचना में वह नीति की संकीर्णता घुसेड़कर कला के आदेश को ख़र्च नहीं कर सकते थे। ‘अन्ना केरेनिना’ में किटी के गार्हस्थ्य जीवन को शांत, सुखमय छवि अवश्य हृदय की स्निग्धता पहुँचाती है, पर अभागिनी अन्ना के संघर्षण-क्लिष्ट, ‘दुर्नीति-मूलक’, जीवन के प्रति प्रत्येक पाठक की आंतरिक समवेदना उमड़ी पड़ती है। और तो क्या, स्वयं ग्रंथकार ने अपनी इच्छा के प्रतिकूल, अपने अनजान में, अंत तक अन्ना के जीवन की ‘ट्रेजेडी’ के प्रति अपनी सहानुभूति प्रदर्शित की है। आरंभ में ग्रंथकार का प्रकट लक्ष्य किसी के गार्हस्थ्य तथा नीति-अनुमोदित जीवन को स्निग्धता और अन्ना के जटिल तथा नीति विरुद्ध जीवन के बीच अंतर प्रद‌र्शित करके एक निश्चित नैतिक सिद्धांत प्रतिष्ठित करने का रहा है। पर थोड़ी ही दूर जाकर, दु:खिनी अन्ना के उन्नत चरित्र की जटिलता का विचार करके, उसका यह उद्देश्य शिथिल हो जाता है, और अंत को जाकर मानव-चरित्र की अंतर्गत दुर्बलता की समस्या का कोई समाधान ही कवि नहीं करने पाया है। कहाँ यह कठिन नीतिज्ञ का निष्ठुर दंड लेकर ‘दुर्नीति, को शासित करने चला था, कहाँ शासित व्यक्ति के साथ मानवत्व के समान सूत्र में ग्रसित होकर उसे भी रोना पड़ा है। सच्चे कलाविद् की श्रेष्ठता का प्रमाण इसी से मिलता है। वह अपने प्राणों की प्रेरणा से चरित्र चित्रित करता है, और अपने प्राणों ही में वह उन चरित्रों को यातनाओं का अनुभव करता है। धर्मध्वजी लेखक की तरह, अपने चरित्रों से अपने को बिल्कुल अलग समझकर वह शासक नहीं बनना चाहता।

    जहाँ किसी नीति को प्रतिष्ठित करना ही लेखक का मूल उद्देश्य रहता है, वहाँ वह संकीर्णता का प्रचार करता है, पर जहाँ सत्य, सौंदर्य तथा मंगल से पूर्ण स्वाभाविक छवि चित्रित करके ही चित्रकार अपना काम पूरा हुआ समझता है, वहाँ उस आदर्शमय चित्र की स्वाभाविक सरलता हृदय को उन्नत बनाने में सहायक होती है।

    नवंबर—1927

    स्रोत :
    • पुस्तक : साहित्य-सर्जना (पृष्ठ 14)
    • रचनाकार : इलाचंद्र जोशी
    • प्रकाशन : छात्रहितकारी पुस्तकमाला
    • संस्करण : 1948

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