कालिदास के 'मेघदूत' का रहस्य
kalidas ke meghdut ka rahasy
महावीर प्रसाद द्विवेदी
Mahavir Prasad Dwivedi
 
                        कालिदास के 'मेघदूत' का रहस्य
kalidas ke meghdut ka rahasy
Mahavir Prasad Dwivedi
महावीर प्रसाद द्विवेदी
और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी
कविता-कामिनी के कमनीय नगर में कालिदास का 'मेघदूत' एक ऐसे काव्य भवन के सदृश है, जिसमें पद्मरूपी अनमोल रत्न जड़े हुए हैं— ऐसे रत्न, जिनका मोल ताजमहल में लगे रत्नों से भी कहीं अधिक है। ईंट और पत्थर की इमारत पर जल-वृष्टि का असर पड़ता है। आँधी-तूफ़ान से उसे हानि पहुँचती है; बिजली गिरने से वह नष्ट-भ्रष्ट भी हो सकती है। पर इस अलौकिक भवन पर इनमें से किसी का कुछ भी ज़ोर नहीं चलता। न वह गिर सकती है, न घिस सकती है, न उसका कोई अंश टूट ही सकता है। काल पाकर और इमारतें जीर्ण होकर भूमिसात हो जाती हैं; पर यह अद्भुत भवन न कभी जीर्ण होगा और न कभी इसका ध्वंस ही होगा, प्रत्युत इसकी रमणीयता-वृद्धि ही की आशा है। इसे अजर भी कह सकते हैं और अमर भी।
अलकाधिपति कुबेर के कर्मचारी एक पक्ष ने कुछ अपराध किया। कुबेर ने, एक वर्ष तक अपनी प्रियतमा पत्नी से दूर जाकर रहने का उसे दंड दिया। यक्ष ने इस दंड को चुपचाप स्वीकार कर लिया। अलका छोड़कर वह मध्य-प्रदेश के रामगिरि नामक पर्वत पर आया। वहीं उसने एक वर्ष बिताने का निश्चय किया। आषाढ़ का महीना आने पर बादल आकाश में छा गए। उन्हें देखकर यक्ष का पत्नी-वियोग-दुःख दूना हो गया। वह अपने को भूल-सा गया! इसी दशा में उस विरही यक्ष ने मेघ को दूत कल्पना करके, अपनी वार्ता अपनी पत्नी के पास पहुँचानी चाही। पहले कुछ थोड़ी-सी भूमिका बाँधकर उसने मेघ को अलका जाने का मार्ग बताया, फिर संदेशा कहा। कालिदास ने 'मेघदूत' में इन्हीं बातों का वर्णन किया है।
'मेघदूत' की कविता सर्वोत्तम कविता का एक बहुत ही अच्छा नमूना है। उसे वही अच्छी तरह समझ सकता है, जो स्वयं कवि है। कविता करने ही से कवि-पदवी नहीं मिलती। कवि के हृदय को—कवि के काव्य-मर्म को—जो जान सकते हैं, वे भी एक प्रकार से कवि हैं। किसी के काव्य के आकलन करने वाले का हृदय यदि यही कवि ही के हृदय-सदृश हुआ तो फिर क्या कहना है। इस दशा में आकलनकर्ता को वही आनंद मिलेगा, जो कवि की उस कविता के निर्माण करने से मिला होगा। जिस कविता से जितना ही अधिक आनंद मिले, उसे उतना ही अधिक ऊँचे दरजे की समझना चाहिए। इसी तरह, जिस कवि या समालोचक तो किसी काव्य के पाठ या रसास्वादन से जितना ही अधिक आनंद मिले, उसे उतना ही अधिक कविता का मर्म जानने वाला समझना चाहिए। इन बातों को ध्यान में रखकर, आइए, देखें, कालिदास ने इस काव्य में क्या-क्या करामातें दिखाई हैं। पर इसमें कहीं यह न समझ लीजिएगा कि हम कवि या समालोचक होने का दावा करते हैं। हम तो ऐसे महानुभावों के चरणों की रज भी नहीं, तथापि—
नमः पतन्यात्मसमं पतमिणः।
इस कविता का विषय—यहाँ तक कि इसका नाम भी कालिदास में परवर्ती कवियों को इतना पसंद आया है कि इसकी छाया पर हंसदूत, पदांत, पवनदुत और कोकिलदूत आदि कितने ही दूत-काव्य बन गए हैं। यह काव्य की लोकप्रियता का प्रमाण है।
कालिदास को इस काव्य के निर्माण करने का बीज कहाँ से मिला? इसका उत्तर इत्याख्याते पवनतनय मैथिलीवोन्मुखी सा—इत्यादि इसी काव्य में है।
इतनो कहत तोहिं मम प्यारी।
जिमि हनुमत को जनकदुलारी।।
सीस उठाय निरखि धन लैहै।
प्रफुलित-चित ह आदर देहे॥
यक्ष की तरह रामचंद्र को भी वियोग-व्यथा सहनी पड़ी थी। उन्होंने पवनसुत हनुमान को अपना दूत बनाया था। यक्ष ने मेघ को दूत बनाया। मेघ का साथी पवन है, हनुमान की उत्पत्ति पवन से है। अतएव दोनों में पारस्परिक संबंध भी हुआ। यह संबंध काक-तालीय-संबंध हो सकता है, परंतु मैथिली के पास रामचंद्र का संदेशा भेजना पैसा संबंध नहीं। बहुत संभव है, कालिदास को इसी संदेश-स्मृति ने प्रेरित करके उनसे इस काव्य की रचना कराई हो; बहुत संभव है, यह मेघ-संदेश कालिदास ही का आत्म-संदेश हो।
कुछ विद्वानों का अनुमान है कि कालिदास की जन्मभूमि काश्मीर है। वे धाराधिप विक्रम के सभा-रत्न थे। यदि यह बात सत्य हो, तो काश्मीर से धारा के मार्ग में जो नदियाँ, नगर, पर्वत और देश आदि पड़ते हैं, उनसे कालिदास का बहुत अच्छा परिचय रहा होगा। धारा और काश्मीर के आसपास के प्रदेश, नगर और पर्वत आदि भी उन्होंने अवश्य देखे होंगे। मेघ को बतलाए गए मार्ग में विशेष करके इन्हीं का वर्णन है और यह वर्णन बहुत ही मनोहर और प्रायः यथार्थ है। अतएव कोई आश्चर्य नहीं, जो काश्मीर ही कालिदास की जन्मभूमि हो और जिन वस्तुओं और स्थलों का उन्होंने इस काव्य में वर्णन किया है, उनको उन्होंने प्रत्यक्ष देखा हो।
कवियों की यह सम्मति है कि विषय के अनुकूल छंदोयोजना करने से वर्ण्य विषय में सजीवता-सी आ जाती है। वह विशेष खुलता है। उसकी सरलता और सहृदयों को आनंदित करने की शक्ति बढ़ जाती है। इस काव्य में शृंगार और करुण रस के मिश्रण की अधिकता है! यक्ष का संदेश कारुणिक उक्तियों से भरा हुआ है। जो मनुष्य कारुणिक आलाप करता है, या जो प्रेमोद्रेक के कारण अपने प्रेम-पात्र से मीठी बातें करता है, वह न तो साँप के सदृश टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलता है, न रथ के सदृश दौड़ता ही है। अतएव उसकी बातें भुजङ्गप्रयात या रथोद्धता, या और ऐसे ही किसी वृत्त में अच्छी नहीं लगतीं। वह तो ठहर-ठहरकर, ‘कभी धीमे और कभी कुछ ऊँचे स्वर में, अपने मन के भाव प्रकट करता है। यह जानकर कालिदास ने मंदाकांता वृत्त का उपयोग इस काव्य में किया है। और, वही जानकर उनकी देखादेखी, औरों ने भी दूत-काव्यों में, इसी वृत्त से काम लिया है।
कवि यदि अपने मन का भाव ऐसे शब्दों में कहे, जिनका मतलब सुनने के साथ ही, सुनने वाले की समझ में आ जाए, तो ऐसा काव्य प्रसाद-गुण से पूर्ण कहा जाता है। जिस तरह पके हुए अंगूर का रस बाहर से झलकता है, उसी तरह प्रसाद-गुण-परिप्लुत कविता का भावार्थ शब्दों के भीतर से झलकता है। उसके हृदयंगम होने में देर नहीं लगती। अतएव जिस काव्य में करुणाद्र संदेश और प्रेमातिशय द्योतक बातें हों, उसमें प्रसाद-गुण को कितनी आवश्यकता है, यह सहृदय जनों को बताना न पड़ेगा। प्यार की बात यदि कहते ही समझ में न आ गई—कारुणिक संदेश यदि कानों की राह से तत्काल ही हृदय में न घुस गया तो—उसे एक प्रकार निष्फल ही समझिए। प्रेमालाप के समय कोई कोश लेकर नहीं बैठता। करुणा-क्रंदन करने वाले अपनी युक्तियों में ध्वनि, व्यंग और क्लिष्टता नहीं लाने बैठते। वे तो सीधी तरह, सरल शब्दों में अपने जी की बात कहते हैं। यही समझकर महाकवि कालिदास ने 'मेघदूत' को प्रसाद-गुण से ओत-प्रोत भर दिया है। यही सोचकर उन्होंने इस काव्य की रचना वैदर्भी रीति में की है—चुन-चुनकर सरल और कोमल शब्द रखे हैं;। लंबे-लंबे समासों को पास तक नहीं फटकने दिया।
देवताओं, दानवों और मानवों को छोड़कर कवि-कुल-गुरु ने इस काव्य में एक यक्ष को नायक बनाया है। इसका कारण है। यक्षों के राजा कुबेर हैं। वे घनाधिप हैं। ऋद्धियाँ और सिद्धियाँ उनकी दासियाँ हैं। सांसारिक सुख, धन की बदौलत प्राप्त होते हैं। जिनके पास धन नहीं, वे इंद्रियजन्य सुखों का यथेष्ट अनुभव नहीं कर सकते। कुबेर के अनुचर, कर्मचारी और पदाधिकारी सब यक्ष ही हैं। अतएव कुबेर के ऐश्वर्य का थोड़ा-बहुत भाग उन्हें भी अवश्य ही प्राप्त होता है। इससे जिस यक्ष का वर्णन 'मेघदूत' में है, उसके ऐश्वर्यवान् वैभव-संपन्न होने में कुछ भी संदेह नहीं। उसके घर और उसकी पत्नी आदि के वर्णन से यह बात अच्छी तरह साबित होती है। निर्धन होने पर भी प्रेमीजनों में पति-पत्नी संबंधी प्रेम की मात्रा कम नहीं होती। फिर जो जन्म ही से वन-संपन्न है—जिसने लड़कपन ही से नाना प्रकार के सुख-भोग किए हैं—उसे पत्नी-वियोग होने से कितना दुःख, कितनी हृदय-व्यथा, कितना शोक-संताप हो सकता है, इसका अनुमान करना कठिन नहीं! ऐसा प्रेमी यदि दो-चार दिन के लिए नहीं, किंतु पूरे साल भर के लिए, अपनी प्रेयसी से सैकड़ों कोस दूर फेंक दिया जाए, तो उसकी विरह-व्याकुलता की मात्रा बहुत ही बढ़ जाएगी, इसमें कोई संदेह नहीं। ऐसे प्रेमी का वियोग-ताप वर्षा में और भी अधिक भीषणता धारण करता है। उस समय वह उसे प्रायः पागल बना देता है। उसी समय इस बात का निश्चय किया जा सकता है कि इस प्रेमी का प्रेम कैसा है और यह अपनी प्रेयसी को कितना चाहता है। कालिदास ने इस काव्य में आदर्श प्रेम का चित्र खींचा है। उस चित्र को सविशेष हृदयहारी और यथार्थता-व्यंजक करने के लिए यक्ष को नायक बनाकर कालिदास ने अपने कवि-कौशल की पराकाष्ठा कर दी है। अतएव आप यह न समझिए कि कवि ने यों ही, बिना किसी कारण के, विप्रयोग-शृंगार वर्णन करने के लिए यक्ष का आश्रय लिया है।
विषय-वासनाओं की तृप्ति के लिए ही जिस प्रेम की उत्पत्ति होती है, वह नीच प्रेम है। वह निंद्य और दूषित समझा जाता है। निर्व्याज प्रेम अवांतर बातों की कुछ भी परवा नहीं करता। प्रेम-पथ से प्रयाण करते समय आई हुई बाधाओं को यह कुछ नहीं समझता। विघ्नों को देखकर वह मुसकरा देता है। क्योंकि इस सबको उसके सामने हार माननी पड़ती है। 'मेघदूत' का प्रेमी निर्व्याज प्रेमी है। उसका हृदय बड़ा ही उदार है; उसमें प्रेम की मात्रा इतनी अधिक है कि ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, हिंसा आदि विकारों के लिए जगह ही नहीं। यक्ष को उसके स्वामी कुबेर ने देश से निकाल दिया। परंतु उसने इस कारण, अपने स्वामी पर ज़रा भी क्रोध प्रकट नहीं किया। उसको एक भी बुरे और कड़े शब्द से याद नहीं किया। उसकी सारी विप्रयोग पीड़ा का कारण कुबेर था, पर उसकी निंदा का उसे ख़्याल तक नहीं हुआ। फिर, देखिए, उसने अपनी मूर्खता पर भी आक्रोश-विक्रोश नहीं किया। यदि वह अपने काम में असावधानता न करता, तो क्यों वह अपनी पत्नी से वियुक्त कर दिया जाता? अपने सारे दुःख-शोक का आदि-कारण वह खुद ही था। परंतु इसका भी उसे कुछ ख़याल नहीं। उसने अपने को भी नहीं धिक्कारा। वह धिक्कारता कैसे? उसके हृदय में इस प्रकार के भावों के लिए जगह ही न थी। उसका हृदय तो अपनी प्रेयसी के निर्व्याज प्रेम से ऊपर तक लबालब भरा हुआ था। वहाँ पर दूसरे विकार रह कैसे सकते थे?
जो ऐसे सच्चे प्रेम-मद से मत्त ही रहा है, जिसकी सारी इंद्रियाँ अन्यान्य विषयों से खिंचकर एकमात्र प्रेम-रस में सर्वतोभाव से डूब रही हैं, जिसके प्रेम-परिपूर्ण हृदय में और कोई सांसारिक भावनाएँ या वासनाएँ पाने का साहस तक नहीं कर सकतीं, वह यदि अचेतन मेघ को दूत बनावे और उसके द्वारा अपनी प्रेयसी के पास अपना संदेश भेजे, तो आश्चर्य ही क्या? जो मत्त है और जो संसार की प्रत्येक वस्तु में अपने प्रेमपात्र को देख रहा है, उसे यदि जड़-चेतन का भेद मालूम रहे, तो फिर उसके प्रेम की उच्चता कैसे स्थिर रह सकती है? वह प्रेम ही क्या, जो इस तरह के भेदभाव को दूर न कर दे। कीट-योनि में उत्पन्न पतंगों के लिए दीप-शिखा की ज्वाला अपने प्राकृतिक दाहक गुण से रहित मालूम होती है। महाप्रेमी यक्ष को यदि मेघ की अचेतना का ख़याल न रहे, तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविकता नहीं। फिर, क्या यक्ष यह न जानता था कि मेघ क्या चीज़ है? वह 'मेघदूत' के आरंभ ही में कहता है—
घाम धूम नीर और समीर मिले पाई देह
ऐसो धन कैसे
दूत-काज भुगतावेगो।
मेह को संदेशो हाथ चातुर पठैवो जोग
बादर कहो जो ताहि कैसे के सुनावेगो॥
वाड़ी उत्कंठा जक्ष बुद्धि विसरानी सब
वाही सी निहोरपो जानि काज कर आवेगो।
कामातुर होत हैं सदाई मतिहीन तिन्हें
चेत और अचेत माहि भेद कहाँ पावेगो।
उस समय यक्ष को केवल अपनी प्रेयसी का ख़याल था। वही उसके तन और मन में बसी हुई थी। अन्य सांसारिक ज्ञान उसके चित्त से एकदम तिरोहित हो गया था। वह एक प्रकार की समाधि में निमग्न था। इस समाधिस्थ अवस्था में यदि उसने निर्जीव मेघ को दूत कल्पना किया, तो ऐसी बात नहीं जो समझ में न आ सके। कवि का काम वैज्ञानिक के काम से भिन्न है। वैज्ञानिक प्रत्येक पदार्थ को उसके यथार्थ रूप में देखता है। परंतु यदि कवि ऐसा करे तो उसकी कविता का सौंदर्य, प्रायः सारा, विनष्ट हो जाए। कवि को आविष्कर्ता या कल्पक न समझना चाहिए। उसकी सृष्टि ही दूसरी है। वह निर्जीव को सजीव और सजीव को निर्जीव कर सकता है। अतएव मध्यभारत से हिमालय की तरफ़ जाने वाले पवन प्रेरित मेघ को संदेश-वाहक बनाना जरा भी अनौचित्य-दर्शक नहीं। फिर एक बात और भी है। कवि का यह आशय नहीं कि मेघ सचमुच ही यक्ष का संदेश ले जाए। उसने इस बहाने विप्रयुक्त यक्ष की अवस्था का वर्णन मात्र किया है और उसके द्वारा यह दिखाया है कि इस तरह के सच्चे वियोगी प्रेमियों के हृदय की क्या दशा होती है;। उन्हें कैसी-कैसी बातें सूझती हैं, और उन्हें अपने प्रेमपात्र तक अपना कुशल वृत्त पहुँचाने की कितनी उत्कंठा होती है।
यक्ष को अपने मरने-जीने का कुछ ख़याल न था। ख़याल उसे था केवल अपनी प्रियतमा के जीवन का! 'दयितालीववालम्बनार्थम्'—ही उसने संदेश भेजा था। उसकी दयिता का जीवन उसके जीवन पर अवलंबित था। उसके मरने अथवा जीवित होने में संदेह उत्पन्न होने से उसकी दयिता जीती न रह सकती थी। अतएव यक्ष का संदेश उसकी यक्षिणी को जीती रखने की रामबाण औषधि थी। यह औषधि वह जिसके द्वारा पहुँचाना चाहता था, उसके सुख-दुःख का भी उसे बहुत ख़याल था। इसी से उसने मेघ के लिए ऐसा मार्ग बतलाया, जिससे जाने में ज़रा भी कष्ट न हो। उसके मार्ग-श्रम का परिहार होता रहे, अच्छे-अच्छे दृशय भी उसे देखने को मिलें और देवताओं और तीर्थों के दर्शन भी हों। ऐसा न होने से मेघ भी क्यों उसका संदेश पहुँचाने को राज़ी होता? फिर, एक बात और भी है। विरह-कातर यक्ष का संदेश उसकी प्रियतमा तक पहुँचाकर उसे जीवन-दान देना कुछ कम पुण्य का काम नहीं। संसार में परोपकार की बड़ी महिमा है। उसे करने का मौका भी मेघ को मिल रहा है। फिर भला क्यों न वह यक्ष का संदेश ले जाने के लिए राज़ी होता। रामगिरि से अलका तक जाने में विदिशा, उज्जयिनी, अवंती, कनखल, रेवा, सिप्रा, भागीरथी, कैलास आदि नगरों, नदियों और पर्वतों के रमणीय दृश्यों का वर्णन कालिदास ने किया है। उन्हें देखने की किसे उत्कांठा न होगी? कौन ऐसा हृदयहीन होगा, जो उज्जयिनी में महाकाल और कैलास में शंकर-पार्वती के दर्शनों से अपनी आत्मा को पावन करने की इच्छा न रखे? कौन ऐसा आत्म-शत्रु होगा, जो जंगल में लगी हुई आग को जल की धारा से शांत करके चमरी आदि पशुओं को जल जाने से बचाने का पुण्य-संचय करना न चाहे? मार्ग रमणीय, देवताओं और तीर्थों के दर्शन, परोपकार करने के साधन—ये सब ऐसी बातें हैं, जिनके लिए मूढ़ मनुष्य भी थोड़ा-बहुत कष्ट ख़ुशी से उठा सकता है। मेघ की आत्मा तो आर्द्र होती है;। संतप्तों को सुखी करना उसका विरुद है। अतएव वह यक्ष का संदेश प्रसन्नतापूर्वक पहुँचाने को तैयार हो जाएगा, इसमें संदेह ही क्या है।
अपनी प्रियतमा को जीवित रखने में सहायता देने वाले मेघ के लिए यक्ष ने जो ऐसा श्रमहारक और सुखद मार्ग बतलाया है, वह उसके हृदय के औदार्य का दर्शक है। कालिदास ने इस विषय में जो कवि-कौशल दिखाया है, उसकी प्रशंसा नहीं हो सकती! यदि मेघ का मार्ग सुखकर न होता—और, याद रखिए, उसे बहुत दूर जाना था—तो कौन आश्चर्य, जो वह अपने गंतव्य स्थान तक न पहुँचता। और, इस दशा में, यक्षिणी की क्या गति होती, इसका अनुमान पाठक स्वयं ही कर सकते हैं। इसी दुःखद दुर्घटना को टालने के लिए ऐसे अच्छे मार्ग की कल्पना कवि ने की है।
आप कहेंगे, यह निर्व्याज प्रेम कैसा कि यक्ष ने, संदेश में, अपनी वियोगिनी पत्नी का कुशल-समाचार तो पीछे पूछा, पहले अपने ही को 'अव्यापन्नः' कहकर अपना कुशल-वृत्त बतलाने और अपनी ही वियोग-व्यथा वर्णन करने लगा। इससे तो यही सूचित होता है कि उसे अपने सुख-दुःख का अधिक ख़याल था, यक्षिणी के सुख-दुःख का बहुत ही कम! नहीं, ऐसा न कहिए। यक्ष का यह काम उल्टा आपके इस अनुमान का खंडन करता है। आप इस बात को भूल गए हैं कि यक्षिणी का जीवन, यक्ष के जीवन पर ही अवलंबित है। उसमें संशय उत्पन्न होने से वह जीवित नहीं रह सकती। 'मेघदूत' को पढ़कर यदि आपने इतना भी न जाना, तो कुछ न जाना। यक्षिणी के प्राणावलंब का हेतु यक्ष है। अतएव उसी के कुशल-समाचार सुनने से यक्षिणी अपना जीवन धारण करने में समर्थ हो सकती है। यक्ष को स्वार्थी न समझिए। वह अपनी दशा का वर्णन करके अपनी स्वार्थपरता नहीं प्रकट करता। वह अपनी दयिता के जीवन को नष्ट होने से बचाने की दवा कर रहा है। यक्ष के संदेश की पहली पंक्ति है—
भर्तुमिन प्रियमविधवे मामम्बुवाहम्।
आप देखिए, इसमें यक्ष ने 'भर्तु':' पद रखकर पूर्वोक्त आशय को कितनी स्पष्टता से प्रकट किया है। जान-बूझकार उसने संदेश के आदि ही में पति-शब्द का वाचक भर्तु-शब्द इसीलिए रखा है, जिसमें यक्षिणी को तत्काल इसका ज्ञान हो जाए कि मेरा पति जीवित है। वियोगिनी पतिव्रताओं के कान में यह शब्द जैसा अमृतवर्षा करता है, उसका अंदाज़ा सभी सहृदय कर सकते हैं। कवि यदि चाहता तो भर्तुमित्र की जगह 'मित्रं भर्तुः’ कर सकता था। उससे भी छंद की गति में व्याघात न आता। परंतु नहीं, उसने यक्षिणी के कान में सबसे पहले 'भर्तु:’ का सुनाना ही उचित समझा।
पूर्वोक्त पंक्ति में 'भर्तुः’ का समकक्ष और अर्थ-विशेष से भरा हुआ 'अविधवे' पद भी है। संदेश की पहली पंक्ति में इसके रखने का भी कारण है। यक्ष ने इसके द्वारा अपनी सहधर्मचारिणी को यह सूचित किया है कि तू विधवा नहीं हो गई—सौभाग्यवती बनी हुई है। तेरा स्वामी अब तक जीता है। इससे अधिक आनंददायक समाचार स्त्री—और पतिप्राण स्त्री—के लिए और क्या हो सकता है? यक्ष का संदेश उसकी पत्नी के लिए सचमुच ही 'श्रोत्रपेय' है।
स्त्रियाँ नहीं चाहती कि उनके पति के प्रेम का छोटे से छोटा अंश भी कोई और ले जाए। वे उसके सार्वांश पर अपना अधिकार समझती हैं। वियोगावस्या में उन्हें अपने इस अधिकार के छिन जाने का डर रहता है। यक्ष इस बात को अच्छी तरह जानता है। इसके परिणाम से भी वह अनभिज्ञ नहीं। यही कारण है, जो वह अपनी वियोग-कातरता का कारुणिक वर्णन कर रहा है। यही कारण है, जो वह छोटी-छोटी चीज़ों में भी अपनी पत्नी की सदृशता ढूंढ़ रहा है। यही कारण है, जो यह उत्तर-दिशा से आए हुए सुरभित पवन के स्पर्श को भी बहुत कुछ समझ रहा है। वह यह बतला रहा है कि दूर हो जाने से मेरे प्रेम में कमी नहीं हो गई; प्रत्युत वह पहले से भी अधिक प्रगाढ़ हो गया है। अतएव तू अपने मन में किसी प्रकार की अनुचित आशंका को स्थान न दे।
यक्ष के निःस्वार्थ और निर्व्याज प्रेम की सीमा नहीं निर्धारित की जा सकती। वह अपने कुशल-समाचार भेजकर और अपनी विरह-व्याकुलता का वर्णन करके ही चुप नहीं रहा। उसे शांका हुई कि कहीं मेरी पत्नी इस संदेश को बनावटी न समझे; प्रेमियों को दशा बड़ी ही विचित्र होती है। वे न कुछ को बहुत कुछ समझने लगते हैं और हवा में गाँठे लगाना भी वे ख़ूब ही जान हैं। यक्ष को अजीब अवस्था है। उसे डर है कि कहीं ऐसा न हो कि इतना आश्वासन देने पर भी यक्षिणी इन बातों पर पूर्ण विश्वास न करे। अतएव इस संदेह का भंजन करना भी उसने आवश्यक समझा। इसीलिए उसे संदेश में यह कहना पड़ा—
'और कहूँ सुनि एक दिना हियरा लगि मेरे तू सोई रही
आवत नींद न बेर भई जगि औचक रोय उठी तवहीं।
पूछी जु मैं धन वारहिवार तो ते मुसकाइ के ऐसे कही
देखति हो सपने छलिया तुमने एक सीति को बाँह गही।।'
अब संदेह करने का कोई कारण नहीं। यक्ष के जीवित होने का इससे अधिक विश्वसनीय प्रमाण और क्या हो सकता है?
'मेघदूत' के यक्ष का प्रेम पत्नी-संबंधी है। वह ऊँचे दरजे का है। वह निःस्वार्थ है—निर्दोष हैं। यक्ष अपने और अपनी प्रेयसी के जीवन को अन्योन्याश्रित समझता है। यक्ष जिस तरह अपना संदेश भेजकर पत्नी की प्राणरक्षा करना चाहता है, उसी तरह, बहुत संभव है, उसकी पत्नी भी वियुक्त होने के कारण पति को प्रारण-धारणा के विषय में सशांक रही होगी। प्रेम से जीवन पवित्र हो सकता है, प्रेम से जीवन को अलौकिक सौंदर्य प्राप्त हो सकता है, प्रेम से जीवन सार्थक हो सकता है। मनुष्य-प्रेम से ईश्वर-संबंधी प्रेम की उत्पत्ति हो सकती है—इसके कितने ही उदाहरण इस देश में पाए जाते हैं। गोपियों के प्रेम को आप लैकिक न समझिए। वह सर्वथा अलौकिक था। अन्यथा—नो चेद्वयं विरहजान्युपयुक्तदेहा। ध्यानेन यामि पदयोः पदवी सखेते॥ उनके मुख से कभी न निकलता। अतएव प्रेम की महिमा अकथनीय है। जिसने उसे कुछ भी जाना है, वह कालिदास के 'मेघदूत' के रहस्य को भी जान सकेगा।
परंतु, जो लोग उस रास्ते नहीं गए, उनके मनोरंजन और आनंदोत्पादन की भी सामग्री 'मेघदूत' में है। उसमें आपको चित्रकूट के ऊपर हुए ऐसे कुंज देखने को मिलेंगे, जिनमें वनचरों की स्त्रियाँ विहार किया करती हैं। पर्वतों के ऐसे दृश्य आप देखेंगे, जिन्हें वर्षा-ऋतु में केवल वही लोग देख सकते हैं, जो पर्वतवासी है या जो विशेष करके इसी निमित्त पर्वतों पर जाते हैं। दशार्ण की केतकी कभी आपने देखी है? विदिशा की वेत्रवती की लहरों का भ्रू-भंग कभी आपने अवलोकन किया है? उस प्रांत के उपवनों में चमेली की कलियों को चुनने वाली पुष्पावलियों से आपका कभी परिचय हुआ है? नहीं, तो आप 'मेघदूत' पढ़िए।
- पुस्तक : हिंदी निबंध की विभिन्न शैलियाँ (पृष्ठ 73)
- संपादक : मोहन अवस्थी
- रचनाकार : महावीर प्रसाद द्विवेदी
- प्रकाशन : सरस्वती प्रेस
- संस्करण : 1969
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