हास्य-विज्ञान

hasya vigyan

कन्हैयालाल सहल

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    नाभि, कांख, पसली-प्रदेश अथवा पैर का तलवा जब गुदगुदाया जाता है तो हँसी क्यों आने लगती है? क्या इसका कारण यह नहीं है कि शरीर के ये अंग सामान्यत: छुए जाने के आदी नही हैं? अकस्मात् ही जब ये छू दिए जाते हैं तो हँसी जाती है। हास्य के और भी अनेक कारण चाहे हों किंतु हमें यह स्वीकार करना होगा कि आकस्मिकता भी हास्य का एक प्रमुख कारण है। कोई चुटकुला जब पहले-पहले हम सुनते हैं तो हँसी फूट पड़ती है किंतु बार-बार उसे ही सुनते रहने पर फिर हँसी नहीं आती।

    कोई घटना जब अप्रत्याशित हो तब भी कभी-कभी हँसी जाती है। न्यूटन के संबंध में कहा जाता है कि उन्होंने दो बिल्लियाँ पाल रखी थीं—एक मोटी थी, दूसरी दुबली। जब शाम को टहलने जाना होता तो उनको एक साथ ले जाने की समस्या उसको बड़ी पेचीदी मालूम होती; उसे भैरववाहनों से मोरचा लेना पड़ता, इसलिए बढ़ई बुलाकर कमरे के किंवाड़ में छेद करवाना ही उचित समझा। बड़ी बिल्ली के आने-जाने योग्य छिद्र काटकर जब बढ़ई जाने लगा तब आप तपाक से पूछते हैं और तुमने छोटी के लिए तो छेद किया ही नहीं! बढ़ई ने इस महान् वैज्ञानिक के भोलेपन पर मुस्करा कर कहा—महाशय, बड़े छेद में से छोटी भी निकल सकती है। उक्त उदाहरण से हँसी का कारण केवल वस्तु का अप्रत्याशित होना ही है, बल्कि न्यूटन का सरल भोलापन ही यहाँ हास्य का मुख्य हेतु है। एक दूसरा उदाहरण और लीजिए—

    संपन्न कुल की एक मोटी स्त्री थी जो चक्र-द्वार में से बार-बार निकलने का निष्फल प्रयत्न कर रही थी। पास में ही खड़ा एक नवयुवक इस घटना को देखकर हँसने लगा। नवयुवक का इस तरह हँसना स्त्री को नागवार गुज़रा और वह कह उठी—कोई भी शिष्ट व्यक्ति इस तरह की घटना को देखकर गँवारों की तरह हँसने नहीं लगेगा किंतु यदि तुम आधे भी शिष्ट या सज्जन होते तो भी हँसते। नवयुवक तुरंत बोल उठा- 'अगर श्रीमतीजी जितनी हैं उससे आधी ही होतीं तो आपको आज यह दिन देखना पड़ता।' यहाँ पर हँसी आने का मुख्य कारण है एक प्रकार का अजीबपन और हाज़िरजवाबी; किंतु अजीबपन भी बिना आकस्मिकता के संभव नहीं हो पाता। विद्रूपता भी जो सामान्यत: हास्य का मूल कारण कही जाती है, अपने भीतर आकस्मिकता छिपाए रहती है।

    ऊपर जो विवेचन किया गया है उसमें हास्य की उत्पत्ति के संबंध में तीन बातें बतलाई गई हैं—(1) आकस्मिकता (2) सरलता और (3) अजीबपन। किंतु हास्य की उत्पत्ति के कारणों को केवल इन तीन बातों तक ही सीमित कर देना उचित नहीं। हास्य की उत्पत्ति के अनेक कारण हो सकते हैं। मैं तो जब यह सोचता हूँ कि हँसी जैसी सामान्य वस्तु के असंख्य कारण हो सकते हैं तो मुझे इसी विचार पर एक क्षण के लिए हँसी जाती है। हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि श्री पंतजी को जिस बात से हँसी जाती है, उसका भी नमूना देखिए—

    कहेंगे क्या तुमसे सब लोग

    कभी आता है इसका ध्यान।

    रोकने पर भी तो सखि हाय!

    नहीं रुकती है यह मुसकान।

    विपिन में पावस के-से दीप

    सुकोमल, सहसा, सौ-सौ भाव!

    सजग हो उठते नित उर बीच,

    नहीं रख सकती तनिक दुराव।

    कल्पना के ये शिशु नादान।

    हँसा देते हैं मुझे निदान।

    इस लेख में हास्य के मनोविज्ञान पर मैं बहुत विस्तार से विचार नहीं कर रहा हूँ किंतु केवल एक बात पर बल देना चाहता हूँ। अधिकतर आकस्मिकता के कारण हँसी उत्पन्न होती है किंतु इसे यह समझा जाए कि हर एक आकस्मिकता हास्य को जन्म देती है। अकस्मात् यदि कोई भीषण दुर्घटना हो जाए तो हँसी आना तो दूर, लेने के देने पड़ जाएँगे। संभवत: ऐसा आश्चर्य हँसी को जन्म देता है जो अप्रत्याशित हो, असामान्य हो, मनोरंजक और सरल हो तथा कुछ अजीबपन लिए हुए हो।

    प्राणि-विज्ञान की दृष्टि से भी हँसी का एक विशेष प्रयोजन है, उस पर भी कुछ विचार कर लिया जाए। हमारे शरीर के कुछ स्नायु ऐसे हैं जो संवेदन के केंद्र हैं और जिनमें अन्य स्नायुओं की अपेक्षा द्रुत गति से प्रतिक्रियाएँ होती रहती हैं। स्नायु मतिष्क में ही अवस्थित हैं या शरीर में सर्वत्र फैले हुए हैं, इसके संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। किंतु यह निश्चित है कि वक्ष प्रदेश (जहाँ हृदय और फेफड़े स्थित हैं) सबसे पहले प्रभावित होता है, इसलिए वहीं प्रतिक्रिया प्रारंभ होने लगती है। फेफड़ों के प्रदेश में अथवा उनके चारों ओर कुछ स्नायु ऐसे होंगे जो किसी प्रभाव को बड़ी तेज़ी से ग्रहण करने लगते हैं। यही कारण है कि जब हम भरपेट हँस लेते हैं तो शरीर के ये अंग कुछ दुखने लगते हैं, इनमें कुछ पीड़ा-सी महसूस होती है। उक्त स्नायु जब उत्तेजित होते हैं तो हृदय को कुछ दबा-सा देते हैं जिससे शरीर के सब अंगों की ओर रक्त का संचालन होने लगता है। यह सभी जानते हैं कि भरपेट हँसने के व्यापार में चेहरा भी कुछ लालिमा धारण करने लगता है। हँसते समय आँखों में एक विशेष प्रकार की चमक जाती है, रुक-रुककर मुँह से भी ऐसी ध्वनियाँ निकलती हैं जिनसे हँसने वाले के हर्षातिरेक की व्यंजना होती है। इन सब चेष्टाओं का समावेश हास्य के अनुभावों में किया जा सकता है। जैसा ऊपर बतलाया गया है, हँसते समय हृदय के दबने से उसमें प्रतिक्रिया होने लगती है जिसके परिणामस्वरूप छाती फैल जाती है। छाती के फैलने से उदर प्रदेश भी हिल उठता है जिससे पाचन-क्रिया में बड़ी मदद मिलती है।

    हास्य मानव-जाति के लिए विभु का एक विशिष्ट वरदान है। पीड़ा के समय पशु पक्षी भी चीख़ते-चिल्लाते है किंतु हँस वे नहीं सकते। अवस्था बढ़ने पर चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं किंतु दिल और दिमाग़ पर यदि झुर्रियाँ पड़े तो अवस्था-जन्य झुर्रियों को भी पास आते डर लगेगा। पुराने ज़माने में विदूषक रखने की जो प्रथा थी, उसका स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बड़ा महत्व समझिए। दिल और दिमाग़ पर झुर्रियाँ पड़े, इसके लिए हास्य की शरण लेनी चाहिए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दो शब्द (पृष्ठ 51)
    • रचनाकार : कन्हैयालाल सहल
    • प्रकाशन : आत्माराम एंड सन्स
    • संस्करण : 1950

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