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हँसी ख़ुशी

hansi khushi

बालमुकुंद गुप्त

अन्य

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बालमुकुंद गुप्त

हँसी ख़ुशी

बालमुकुंद गुप्त

और अधिकबालमुकुंद गुप्त

    सुभाषितेन, गीतेन युवतीनाञ्च लीलया।

    यस्य द्रवते चितं वै मुक्तोऽथवा पशु:॥

    हँसी भीतर आनंद का बाहरी चिह्न है। जीवन की सबसे प्यारी और उत्तम से उत्तम वस्तु एक बार हँस लेना तथा शरीर के अच्छा रखने की अच्छी से अच्छी दवा एक बार खिलखिला उठना है। पुराने लोग कह गए हैं कि हँसो और पेट फुलाओ। हँसी कितने ही कला-कौशलों से भली है। जितना ही अधिक आनंद से हँसोगे, उतनी ही आयु बढ़ेगी। एक यूनानी विद्वान कहता है कि सदा अपने कर्मों को झीखने वाला हैरीक्लेस बहुत कम जिया, पर प्रसन्न मन डेमाकीटस 109 वर्ष तक जिया। हँसी-ख़ुशी ही का नाम जीवन है। जो रोते हैं, उनका जीवन व्यर्थ है। कवि कहता है—'ज़िंदगी ज़िदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं।'...

    कारलाइल एक राजकुमार था। संसार त्यागी हो गया था। वह कहता है कि जो जी से हँसता है, वह कभी बुरा नहीं होता। जी से हँसो, तुम्हें अच्छा लगेगा। अपने मित्र को हँसाओ, वह अधिक प्रसन्न होगा। शत्रु को हँसाओ, तुमसे कम से कम घृणा करेगा। एक अनजान को हँसाओ, तुम पर भरोसा करेगा। उदास को हँसाओ, उसका दुःख घटेगा। एक निराश को हँसाओ, वह अपने को जवान समझने लगेगा। एक बालक को हँसाओ, उसका अच्छा स्वभाव, अच्छा स्वास्थ्य होगा। वह प्रसन्न और प्यारा बालक बनेगा। पर हमारे जीवन का उद्देश्य केवल हँसी ही नहीं है, हमको बहुत काम करने हैं। तथापि उन कामों में, कष्टों में और चिंताओं में एक सुंदर आतंरिक हँसी, बड़ी प्यारी वस्तु भगवान ने दी है।

    हँसी सबको भली लगती है। सभा में हँसी विशेषकर प्रिय लगती है। जो स्त्री स्नेह नहीं करती और पुरुष हँसते नहीं उनसे ईश्वर बचावे। जहाँ तक बने हँसी से आनंद प्राप्त करो। प्रसन्न लोग कोई बुरी बात नहीं करते। हँसी बैर और बदनामी की शत्रु है और भलाई की सखी। हँसी स्वभाव को अच्छा करती है। जी बहलाती है और बुद्धि को निर्मल करती है। हँसी सजे-सजाए घर के समान है। मनुष्य रोने के लिए ही नहीं बनाया गया है। हँसने के लिए ही आदमी बना है। मनुष्य ख़ूब ज़ोर से हँस सकता है, पशु-पक्षी को वह शक्ति ईश्वर ने नहीं दी है। मनुष्य हँसने-मुस्काने, हो-हो करने, टोपी उछालने, गीत गाने और स्तुति करने के लिए बनाया गया है। हँसी भय भगाती है, दुःख मिटाती है, निराशा को घटाती है। कंगाली का आधा बोझ उड़ा देती है। उदास आदमी से दूर रहो। लड़कियों की हँसी संसार के सब प्रसन्नकारी स्वरों से मधुर है। जो हँसता है, वह आयु बढ़ाता है। प्रसन्नता उत्तम भोजन, लड्डू, पेड़ा, कलाकंद, पूरी, कचौरी हजम कराती है। संसार में फिराना समुद्र और पहाड़ों पर हवा खिलाना, सेनाओं का उत्साह बढ़ाना—सब प्रसन्नता का खेल है। मनुष्य को और दवा दरकार नहीं। उसे मित्रों में बैठाओ और ख़ूब हँसाओ।

    जो हँसते हैं, वह धन्य है, क्योंकि वह मोटे मुस्टंड होते हैं। धन्य है वह जो दूसरों को हँसते हैं। उनकी बातों से शरीर में रक्त आनंदित होकर नाच उठता है। हँसी जी में नित्य नयी उमंग पैदा करती है। चिंता को उड़ाती और कष्टों को झेलने में सहायता करती।

    जो हँसता है वह बिना डिप्लोमा ही डॉक्टर का चेहरा बीमार के घर में एक कड़वी दवा की बोतल से अच्छा है।

    लोगों की मुर्खताओं पर हँसना रोने से भला है। एडीसन कहता है कि बुद्धिमानी में आकर संसार को हँसी जैसी उत्तम वस्तु को खो देना चाहिए। हँसी से बढ़कर संसार क्या है?

    मेलबोर्न के डॉक्टर ए. डब्लू. कोल ने डॉक्टरी पर एक पुस्तक लिखी है। उसकी भूमिका में से यह सब बातें यूरोप के बड़े-बड़े बुद्धिमानों के लेखों से छाँटी है। इस विषय में वह एक कहानी लिखता है। एक डॉक्टर अपने मित्रों सहित पहाड़ पर फिरता था। एक चट्टान पर उसे एक कौवे का घोंसला दिखाई दिया। डॉक्टर ने कहा—आओ सब दौड़ो, देखें उस घोंसले के पास पहले कौन पहुँचता है। सब दौड़े। एक आदमी हाँफकर बैठ गया। जब सब जमा हुए तो इतना हँसे कि पेट फूल गए। जब इन मित्रों को हँसना होता, तो उस घोंसले की कहानी को फिर दोहराते। कई साल पीछे उनमें से एक मित्र बीमार हो गया, मरने को था कि उस डॉक्टर को ख़बर हुई। वह गया। लोगों ने कहा कि लो तुम्हारा मित्र आया, आँखें खोलो। पर वह कुछ बोला। तब डॉक्टर ने ज़ोर-ज़ोर से कौवे के घोंसले की कहानी सुनाई। कहानी सुनकर बीमार हँसा। यहाँ तक कि वह अच्छा हो गया और जीता है।

    उसी हँसी को मनुष्य जीवन के साथ लगाए रखने के लिए हिंदुओं ने होली का त्यौहार जारी किया था। होली की कृपा से अब भी हिंदू कुछ हँस लेते हैं। संसार में दुःख और उदासी अधिक है। उस दुःख और उदासी को दबाकर एक बार मनुष्य को हँसाना और प्रसन्न करना ही होली का उद्देश्य है। इसी से जानो कि होली हिंदू जीवन की कैसी प्यारी चीज़ है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बालमुकुंद गुप्त ग्रंथावली (पृष्ठ 24)
    • संपादक : नत्थन सिंह
    • रचनाकार : बालमुकुंद गुप्त
    • प्रकाशन : हरियाणा साहित्य अकादमी
    • संस्करण : 2008

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