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आम फिर बौरा गए

aamr phir baura gaye

हजारीप्रसाद द्विवेदी

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हजारीप्रसाद द्विवेदी

आम फिर बौरा गए

हजारीप्रसाद द्विवेदी

और अधिकहजारीप्रसाद द्विवेदी

    बसंतपंचमी में अभी देर है, पर आम अभी से बौरा गए। हर साल ही मेरी आँखें इन्हें खोजती हैं। बचपन में सुना था कि बसंतपंचमी के पहले अगर आम्रमंजरी दिख जाए तो उसे हथेली पर रगड़ लेना चाहिए। क्योंकि ऐसी हथेली साल भर तक बिच्छू के ज़हर को आसानी से उतार देती है। बचपन में कई बार आम की मंजरी हथेली पर रगड़ी है। अब नहीं रगड़ता। पर बसंतपंचमी से पहले जब कभी आम्रमंजरी दिख जाती है तो बिच्छू की याद अवश्य जाती है। सोचता हूँ, आम और बिच्छू में क्या संबंध है? बिच्छू ऐसा प्राणी है जो आदिम सृष्टि के समय जैसा था, आज भी प्रायः वैसा ही है। जल प्रलय के पहले वाली चट्टानों की दरारों में इसका जैसा शरीर पाया गया है, आज भी वैसा ही है। कम जंतु इतने अपरिवर्तनशील रहे होंगे। उधर आम में जितना परिवर्तन हुआ है, उतना बहुत कम वस्तुओं में हुआ होगा। पंडित लोग कहते हैं कि 'आम' शब्द 'अम' या 'अम्ल' शब्द का रूपांतर है। 'अम' अर्थात खट्टा। आम शुरू-शुरू में अपनी खटाई के लिए ही प्रसिद्ध था। वैदिक-आर्य लोगों में इस फल की कोई विशेष क़दर नहीं थी। वहाँ तो 'स्वाद उदुंबरम्' या ज़ायक़ेदार गूलर ही बड़ा फल था। लेकिन 'अमृत' शब्द कुछ इसी 'अम्र' का रूपांतर रहा होगा। पहले शायद सोमरस के खटाए हुए रूप को ही 'अम्रित' (खट्टा बना हुआ) कहते होंगे। बाद में 'आम्र' संसार का सबसे मीठा फल बन गया और 'अम्रित' अमृत बन गया। अपना-अपना भाग्य है। शब्दों के भी भाग्य होते हैं। परंतु यह सब अनुमान ही अनुमान है। सच भी हो सकता है, नहीं भी हो सकता है। पंडितों से कौन लड़ता फिरे। लेकिन बिच्छू के साथ आम का संबंध चक्कर में डाल देने वाला है अवश्य। मैं जब आम की मनोहर मंजरियों को देखता हूँ तब बिच्छू की याद जाती हैं, बिच्छू—जो संसार का सबसे पुराना, सबसे खूँसट, सबसे क्रोधी और सबसे दक़ियानूस प्राणी है। प्रायः मोहक वस्तुओं को देखकर मनहूस लोगों की याद जाती है। सबको आती है क्या?

    ज़रा तुक मिलाइए। आम्रमंजरी मदन-देवता का अमोघ बाण है और बिच्छू मदनविध्वंसी महादेव का अचूक बाण है। योगी ने भोगी को भस्म कर दिया पर भोगी का अस्त्र योगी के अस्त्र को व्यर्थ बना रहा है। कुछ ठिकाना है इस बेतुकेपन का। परंतु सारी दुनिया—यानी बच्चों की दुनिया—इस बात को सच मानती रही है।

    पर-साल भी मैंने बसंतपंचमी के पहले आम मुकुल देखे थे। पर बड़ी जल्दी वे मुरझा गए। उसी आम को दुबारा फूलना पड़ा। मुझे बड़ा अद्भुत लगा। आगे-आगे क्यों फूलते हो बाबा, ज़रा रुक के ही फूलते। कौन ऐसी यात्रा बिगड़ी जाती थी। मेरे एक मित्र ने कहा था कि मुझे ऐसा लगता है कि नवबधू के समान यह बिचारी आम्रमंजरी ज़रा सा झाँकने बाहर निकली और सामने हमारे जैसे मनहूसों को देखकर लज्जा गई। वस्तुतः यह मेरे मित्र की कल्पना थी। अगर सच होती तो मैं कहीं मुँह दिखाने लायक़ रहता। पर मुझे इतिहास की बात याद गई। उससे मैं आश्वस्त हुआ, मनहूस कहाने की बदनामी से बच गया। वह इतिहास मनोरंजक है। सुनाता हूँ।

    बहुत पहले कालिदास ने इसी प्रकार एक बार आम्रमंजरी को सकुचाते देखा था। 'शकुंतला' नाटक में वे उसका कारण बता गए हैं। दुष्यंत पराक्रमी राजा थे। उनके हृदय में एक बार प्रिया-वियोग की विरह ज्वाला जल रही थी, तभी बसंत का पदार्पण हुआ। राजा ने बसंतोत्सव करने की आज्ञा दी। आम बिचारा बुरी तरह छका। इसका स्वभाव थोड़ा चंचल है। बसंत आया नहीं कि व्याकुल होकर फूल पड़ता है। उस बार भी हज़रत पुलकित हो गए। तब तक राजा की आज्ञा हुई। बेवक़ूफ़ बनना पड़ा। इन मंजरियों के रूप में मदन देवता ने अपना बाण चढ़ाया था। बिचारे अधखिंचे धनुष के बाण समेटने को बाध्य हुए—'शंके संहरति स्मरोऽपि चकितस्तूर्णार्धकृष्टं शरम्। आजकल दुष्यंत जैसे प्रतापी राजा नहीं है। पर पिछली बार भी जब मदन देवता को अपना अर्धकृष्ट शर समेटना ही पड़ा था तो कैसे कहा जाए कि वैसे प्रतापी लोग अब नहीं हैं? ज़रूर कोई-न-कोई पराक्रमी मनुष्य कहीं-न-कहीं विरह ज्वाला में संतप्त हो रहा होगा। कार्य जब है, तो कारण भी होगा ही। इतिहास बदल थोड़े जाएगा। और इस घटना के बाद जब कोई कालिदास को मनहूस नहीं कहता तो मुझे ही क्यों कहेगा?

    आशा करता हूँ, इस बार आम्रमंजरी को मुरझाना नहीं पड़ेगा। आहा, कैसा मनोहर कोरक है। बालिहारी है इस 'आताम्रहरित-पाण्डुर' शोभा की। अभी सुगंधित नहीं फैली है, किंतु देर भी नहीं है। कालिदास ने आम्र-कोरकों को बसंत काल का 'जीवित सवैरव’ कहा था। उन दिनों भारतीय लोगों का हृदय अधिक संवेदनशील था। वे सुंदर का सम्मान करना जानते थे। गृहदेवियाँ इस लाल-हरे-पीले आम्र-कोरक को देखकर आनंद—विह्वल हो जाती थीं। वे इस 'ऋतुमंगल' पुष्प को श्रद्धा और प्रीति की दृष्टि से देखती थीं। आज हमारा संवेदन थोथा हो गया है। पुरानी बातें पढ़ने से ऐसा मालूम होता है जैसे कोई अधभूला पुराना सपना है। रस मिलता है, पर प्रतीति नहीं होती। एक अजब आवेश के साथ पढ़ता हूँ—

    आत्ताम्पहरियपाण्युर जीवितसब्बं बसंतमासस्य।

    विट्ठोसि चदकोरशच उदुमंगल तुमं पसाएमि॥

    आम्रकोरकों को प्रसन्न करने की बात भावोच्छ्वास की बहक के समान सुनाई देती है। मनुष्यचित्त इतना नहीं बदल गया है कि पहचान में ही आए। पहले लोग अगर आम्र-कोरक देखकर नाच उठते थे तो इन दिनों कम-से-कम उछल ज़रूर पड़ना चाहिए। पुष्प-भार से लदे हुए आम-वृक्ष को देखकर सहज भाव से निकल जाने वाले सैकड़ों मनुष्यों को मैंने अपनी आँखों देखा है। कोई नाच नहीं उठता। परंतु एक बार मैं भी थोड़ा विह्वल हुआ था और एक कविता लिख डाली थी। छपाई तो अब भी नहीं है, पर सोचता हूँ छपा देनी चाहिए। बहुत होगा, लोग कहेंगे, कविता में कोई बार सार नहीं है कौन बड़ा कवि हूँ जो अकवि कहाने की बदनामी से डरूँ? यह कविता आम कोरकों की अद्भुत विह्वलकारिणी शक्ति का परिचायक होकर मेरे पास पड़ी हुई है।

    कामशास्त्र में 'सुबसंतक' नामक उत्सव की चर्चा आती है। सरस्वती कंठाभरण में लिखा है कि सुबसंतक बसंतावतार के दिन को कहते हैं। बसंतावतार अर्थात् जिस दिन बसंत पृथ्वी पर अवतरित होता है। मेरा अनुमान है, बसंतपंचमी ही वह बसंतावतार की तिथि है। ‘मात्स्यसूक्त’ और 'हरिभक्तिविलास' आदि ग्रंथों में इसी दिन को बसंत का प्रादुर्भावदिवस माना गया है। इसी दिन मदन-देवता की पहली पूजा विहित है। यह भी अच्छा तमाशा है। जन्म हो बसंत का और उत्सव मदन देवता का। कुछ तुक नहीं मिलता। मेरा मन पुराने ज़माने के उत्सवों को प्रत्यक्ष देखना चाहता है, पर हाय, देखना क्या संभव है? 'सरस्वती-कंठाभरण' में महाराज भोजदेव ने सुबसंतक की एक हल्की-सी झाँकी दी है। इस दिन उस युग की ललनाएँ कंठ में कुवलय की माला और कान में दुर्लभ आम्र-मंजरियाँ धारण करके गाँव को जगमग कर देती थीं—

    छणपिट्ठ धूसरत्थणि, महुमअतम्मच्छि कुवलआहरणे।

    कण्णकअ चूअमंजरि, पुत्ति तुए मंडिओ गामो।।

    पर यह अपेक्षाकृत परवर्ती समाचार है। इसके पहले क्या होता था? क्या बसंत के जन्मदिन को मदन का जन्मोत्सव मनाया जाता था? धर्मशास्त्र की पोथियों में लिखा है कि बसंतपंचमी के दिन मदन-देवता की पूजा करने से स्वयं श्रीकृष्णचंद्र जी प्रसन्न होते हैं। यह और मज़ेदार बात निकली। तांत्रिक आचार से विष्णु भजन करने वाले बताते हैं कि ‘काम-गायत्री’ ही श्रीकृष्ण गायत्री हैं। तो कामदेव और श्रीकृष्ण अभिन्न देवता है? पुराणों में लिखा है कि काम-देवता श्रीकृष्ण के घर पुत्र रूप में उत्पन्न हुए थे, वह कथा भी कुछ अपने ढंग की अनोखी ही है। कामदेव प्रद्युम्न के रूप में पैदा हुए, शंबर नामक मायावी असुर उन्हें हर ले गया और समुद्र में फेंक दिया। मछली उन्हें खा गई। संयोगवश वही मछली शंबर की भोजनशाला में गई और बालक फिर उसके पेट से बाहर निकला। काम देवता की पत्नी रति देवी वहाँ पहले से ही मौजूद थीं, और ऐसे मौक़ों पर जिस व्यक्ति का पहुँचना नितांत आवश्यक होता है—वे नारद मुनि भी वहाँ पहुँच गए। रति को सारी बातें उन्हीं से मालूम हुई। प्रद्युम्न पाले गए, शंबर मारा गया, श्रीकृष्ण के घर में पुत्र ही नहीं, पुत्रवधू भी यथासमय पहुँच गई; इत्यादि-इत्यादि। पुराणों में असुर प्रायः ही शैव बताए गए हैं। कामदेव उनके दुश्मन हो यह तो समझ में जाता है, पर भागवतों से उसका संबंध कैसे स्थापित हुआ? मेरा मन अधभूले इतिहास के आकाश में चील की तरह मँडरा रहा है, कहीं कुछ चमकती चीज़ नज़र आई नहीं कि झपाटा मारा। पर कुछ दिख नहीं रहा है। सुदूर इतिहास के कुज्झटिकाच्छन नभोमंडल में कुछ देख लेने की आशोपासना ही मूर्खता है। पर आदत बुरी चीज़ है। आर्यों के साथ असुरों, दानवों और दैत्यों के संघर्ष से हमारा साहित्य भरा पड़ा है। रह-रहकर मेरा ध्यान मनुष्य की इस अदभुत् विजय-यात्रा की और खिंच जाता है, कितना भयंकर संघर्ष वह रहा होगा जब घर में पालने पर सोए हुए लड़के तक चुरा लिए जाते होंगे और समुद्र में फेंक दिए जाते होंगे; पर हम किस प्रकार उसको भूल-भालकर दोनों विरोधी पक्षों के उपास्य देवताओं को समान श्रद्धा के साथ ग्रहण किए हुए हैं? आज इस देश में हिंदू और मुसलमान इसी प्रकार के लज्जाजनक संघर्ष में व्यापत हैं। बच्चों और स्त्रियों को मार डालना, चलती गाड़ी से फेंक देना, मनोहर घरों में आग लगा देना मामूली बातें हो गई हैं। मेरा मन कहता है कि ये सब बातें भुला दी जाएँगी। दोनों दलों की अच्छी बातें ले ली जाएँगी, बुरी बातें छोड़ दी जाएँगी। पुराने इतिहास की ओर दृष्टि ले जाता हूँ तो वर्तमान इतिहास निराशाजनक नहीं मालूम होता। कभी-कभी निकम्मी आदतों से भी आराम मिलता है।

    तो यह जो भागवत पुराण का शंबर असुर है, इसका नाम अनेक तरह से पुराने साहित्य में लिखा मिलता है। शंबर भी मिलता है, शंबर भी और संबर या शाबर भी। कोई विदेशी भाषा का शब्द होगा, पंडितों के नाना भाव से सुधारकर लिख लिया होगा। यह इंद्रजाल या जादू विद्या का आचार्य माना जाता है अर्थात् 'यातुधान’ है। यातु और जादू शब्द एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न रूप हैं। एक भारतवर्ष का है, दूसरा ईरान का। ऐसे अनेक शब्द है। ईरान में थोड़ा बदल गए हैं और हम लोग उन्हें विदेशी समझने लगे हैं। ‘ख़ुदा’ शब्द असल में वैदिक ‘स्वधा' शब्द का भाई है। 'नमाज़' भी संस्कृत 'नमस्' का सगा संबंधी है। ‘यातुधान' को ठीक-ठीक फ़ारसी देश में सजा दें तो 'जादूदाँ’ हो जाएगा। कालिका पुराण में शाबर असुर के नाम पर होने वाले शाबरोत्सव का उल्लेख है, जिसने अश्लील गाली देना और सुनना ज़रूरी हुआ करता था। यह उत्सव सावन में मनाया जाता था और वेश्याएँ प्रमुख रूप से उसमें भाग लेती थीं। संसार में सभी देशों में एक दिन साल से ऐस ज़रूर मनाया जाता है जिसमें अश्लील गाली-गलौच आवश्यक माना जाता है। अपने यहाँ फागुन चैत में इस प्रकार का उत्सव मनाया जाता है। इसी को मदनोत्सव कहते हैं। मैं सोचता हूँ कि क्या मदनोत्सव के समान एक और उत्सव इस देश में प्रचलित था जिसके मुख्य उद्योक्ता असुर लोग थे? असुरों के साथ मदन देवता के संघर्ष से क्या इसीलिए दो विभिन्न संस्कृतियों का द्वंद प्रकट होता है? कौन बताएगा?

    आर्यों को इस देश में सबसे अधिक संघर्ष असुरों से ही करना पड़ा था। दैत्यों, दानवों और राक्षसों से भी उनकी बजी थी, पर असुरों से निपटने में उन्हें बड़ी शक्ति लगानी पड़ी थी। वे भी बहुत उन्नत। हर तरह से वे सभ्य थे। उन्होंने बड़े-बड़े नगर बसाए थे, महल बनाए थे, जल-स्थल पर अधिकार जमा लिया था। गंधर्वों, यक्षों और किन्नरों से आर्यों को कभी विशेष नहीं लड़ना पड़ा। ये जातियाँ अधिक शांतिप्रिय थीं। विलासिता की मात्रा इनमें कुछ अधिक थी। काम-देवता या कंदर्प वस्तुतः गंधर्व ही हैं। केवल उच्चारण बदल गया है। ये लोग आर्यों से मिल गए थे। असुरों ने इनसे बदला लिया था पर अंत तक असुर विजई नहीं हुए। उनका संघर्ष असफल सिद्ध हुआ।

    लेकिन आम्र-मंजरी के साथ बिच्छू का संबंध अब भी मुझे चक्कर में डाले हुए है। पोथियों पढ़ता हूँ, उनका सम्मान भी करता हूँ, पर लोक-प्रवादों को हँसकर उड़ा देने की शक्ति अभी संचय नहीं कर सका हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि इन प्रवादों में मनुष्य समाज का जीवंत इतिहास सुरक्षित है। जब कभी लोक-परंपरा के साथ किसी पोथी का विरोध हो जाता है, तो मेरे मन में कुछ नवीन रहस्य पाने की आशा उमड़ उठती है। सब समय नई बात सूझती नहीं; पर हार मैं नहीं मानता। कभी-कभी तो बड़े-बड़े पंडितों की बात में मुझे असंगति दिख जाती है। कहने में हिचकता हूँ, नए पंडितों के क्रोध से डरता हूँ, पर मन से यह बात किसी प्रकार नहीं जाती कि पंडित की बात की संगति लोक परंपरा से ही लग सकती है। कहीं जैसे कुछ छूट रहा हो, कुछ भूल रहा हो। एक उदाहरण दूँ।

    क्षेमेंद्र बहुत बड़े सहृदय और बहुश्रुत आयार्च थे। उन्होंने बहुत सी पोथियाँ लिखी हैं। एक का नाम है 'औचित्यंविचार’ चर्चा। उसमें उन्होंने संज्ञा शब्दों के औचित्य के प्रसंग में कालिदास के 'विक्रमोवंर्शीय नाटक का वह श्लोक उदद्भुत् किया है जिसमें राजा ने विरहातुर अवस्था में कहा है कि वैसे ही तो दुर्लभ वस्तुओं के लिए मचल पड़ने वाला पंचबाण (कामदेव) मेरे चित्त को छलनी किए डालता है, अब मलय-पवन से आंदोलित इन आम-वृक्षों ने अंकुर दिखा दिए। अब तो बस भगवान ही मालिक हैं—

    इदमसुलभवस्तुप्रार्थनादुर्निवारः

    प्रथमपि मनो में पंचबाणः क्षिणोति।

    किमंतु मलयवातान्दोलितैः पाण्डुपै—

    रुपवनसहकारैर्दर्शितेष्वंकुरेषु॥

    अब सहृदय-शिरोमणि क्षेमेंद्र कहते है कि यह कामदेव को पंचबाण कहना उचित ही हुआ है। कामदेव के पंचबाणों में एक तो यही आम्रमंजरी का अंकुर है। लेकिन मैं बिल्कुल उलटा सोच रहा हूँ। मैं कहता हूँ, पंचबाण कहने से ही तो आम्र-कोरक भी कह डाले गए, फिर दुबारा उनकी चर्चा करना कहाँ संगत है? मैं अगर अच्छा पंडित होता तो क्षेमेंद्र की भी ग़लती निकालता और कालिदास का भी अनौचित्य सिद्ध करता, लेकिन खेद के साथ कहता हूँ कि मैं “अच्छा” पंडित नहीं हूँ। मेरा मन पूछता है कि क्या कालिदास आम्र-मुकुलों को मदन-देवता के पाँच बाणों में नहीं गिनते थे? वैसे तो संसार के सभी फूल मदन देवता के तूणीर में ही सकते हैं, पर कालिदास के युग में लोक-प्रचलित कोई विश्वास ऐसा अवश्य रहा होगा कि आम पाँच बाणों से अतिरिक्त है। ऐसा होता तो कालिदास इस श्लोक में 'पंचबाण' शब्द का प्रयोग करते। सबूत दे सकता हूँ। पर सुनता कौन है? कालिदास ने एक जगह आम्र-कोरकों को यह आशीर्वाद दिलाया है कि तुम काम के पाँच बाणों से अभ्यधिक बाण बनो। इस 'अभ्यधिक' शब्द का सीधा अर्थ तो यही मालूम होता है कि पाँच से अधिक छठा बाण बनो। पर पंडित लोग कहते हैं कि इसका सही अर्थ है पाँचों में सबसे अधिक तीक्ष्ण। होगा बाबा, कौन झमेले में पड़े। क्या अतीत के अंधकार मैं झाँकने से कुछ दिख नहीं सकता? मदन-देवता हमारे साहित्य में कब आए और उनके बाणों का भी क्या कोई इतिहास है? और फिर बिच्छू से इसका कोई नाता-रिश्ता भी है क्या?

    पुराणों की गवाही पर मान लिया जा सकता है कि असुरों की आख़िरी हार अनिरुद्ध और ऊषा के विवाह के अवसर पर हुई थी। असुरों की ओर से भगवान शंकर का समूचा दल लड़ रहा था। शिवजी श्रीकृष्ण से गुँथे थे, प्रद्युम्न अर्थात् कामदेवता स्कंद (देवसेनापति) से। शिवजी के दल में भूत थे, प्रमय थे, यातुधान थे, बेताल थे, विनायक थे, डाकिनियाँ थीं, प्रेत थे, पिशाच थे, कुष्मांड थे, ब्रह्मराक्षस थे—यानी पूरी सेना थी, साँप, बिच्छू भी रहे होंगे। और तो, मलेरिया का बुख़ार भी था। इस लड़ाई में असुर बुरी तरह हारे। शिवजी भी हारे। देवताओं के दुर्धर्ष सेना-पति को कामावतार प्रद्युम्न से हारना पड़ा। मोर समेत बिचारे भाग खड़े हुए। भागवत में यह कथा बड़े विस्तार से कही गई है। इसके बाद इतिहास में कही असुरों ने सिर नहीं उठाया। शिवजी की सेना प्रथम बार पराजित हुई। कैसे और कब प्रद्युम्न ने आम्र-कोरकों का बाणसंधान किया और बेचारा बिच्छू परास्त हुआ, यह कहानी इतिहास में दबी रह गई। लेकिन लोग जान गए हैं और बच्चों की दुनिया को भी पता लग ही गया है।

    मैं दूसरी बात सोच रहा हूँ। फूल तो दुनिया में अनेक हैं। आम, लेकिन, फूल की अपेक्षा फल-रूप में अधिक विख्यात है। कवि लोगों की बात छोड़िए। वे लोग कभी-कभी बहुत बढ़ा-चढ़ाकर बोलते ही हैं। अपने भीतर ज़रा सी सुड़सुड़ी हुई नहीं कि समझ लेते हैं कि सारी दुनिया इसी प्रकार पागल हो गई है। हम लोग भी जानते हैं कि आम की मंजरी मादक होती है लेकिन कवि तो कहता है कि जब दिगंत सहकार मंजरी के केसर से मूर्च्छमान हो और मधुपान के लिए व्याकुल बने हुए भौंरें और गली-गली घूम रहे हों, तो ऐसे भरे बसंत में किसके चित में उत्कंठा नहीं लहरा उठती?—

    सहकारकुसुमकेसरनिकरभरामोदमूर्च्छितदिगन्ते।

    मधुरमधुविधुरमधुषे मधौ भवेत् कस्य नौत्कण्ठा॥

    अब, अगर किसी सभा में आप यही सब लोग पूछ बैठें, तो प्रायः सौ फ़ीसदी भले आदमी ही 'मम' 'मम' कहकर चिल्ला उठेंगे। पर कवि तो अपनी ही सी कहे जाएगा। लेकिन बढ़िया आम दिखाकर अगर आप पूछे कि इसे पाने की उत्कंठा किसे नहीं है, तो सारी सभा चुप रहेगी। बस मन ही मन कहेंगे, ऐसा भी पूछना क्या उचित है? आम देखकर किसका जी नहीं ललचाएगा? एक बार कविवर रवींद्रनाथ चीन गए थे। उन्हें आम खाने को नहीं मिला। उन्होंने अपने एक साथी से विनोद में कहा—“देखिए, मैं जितने दिन तक जिऊँ उसका हिसाब कर लेने के बाद उसमें से एक साल कम कर दीजिएगा, क्योंकि जिस साल में आम खाने को नहीं मिला उसको में व्यर्थ समझता हूँ।” अबतक यह रिपोर्ट नहीं मिली कि किसी कवि ने आम्र-मंजरी की सुगंधि पाने के कारण अपने जीवन के किसी वर्ष को व्यर्थ समझा हो। तो मेरा कहना यह है कि आम के फूलों का वर्णन इतना होना ही नहीं चाहिए। अरबिंद का हो, अशोक का हो, नवमल्लिका का हो, नीलोत्पल का हो, इनमें फल या तो आते ही नहीं या आते भी हैं तो नहीं आने के बराबर। ये काम देवता के अस्त्र बन सकते हैं, क्योंकि ये अप्सरा जाति के पूरक हैं। इनका सौंदर्य केवल दिखावे का है। कामदेवता के ये दुलारे हो सकते हैं। पर आम को क्यों घसीटते हो बाबा? यह अन्नपूर्णा का प्रसाद है। यह धन्वंतरि का अमृत-कलश है। यह धरती माता का मधुर दुग्ध है।

    मेरा अनुमान है कि आम पहले इतना खट्टा होता था और इसका फल इतना छोटा होता था कि इसके फल को कोई व्यवहार में नहीं लाता था। संभवतः यह भी हिमालय के पार्वत्य देश का जंगली वृक्ष था। इसके मनोहर कोरक और दिगंत को मूर्च्छित कर देने वाला आमोद ही लोकचित्त को मोहित करते थे। धीरे-धीरे यह फल मैदान में आया। मनुष्य के हाथ-रूपी पारस से छूकर यह लोहा भी सोना बन गया है। गंगा की सुवर्णप्रसू मृत्तिका ने इसका कायाकल्प कर दिया है। मैं आश्चर्य से मनुष्य की अदभुत शक्ति की बात सोचता हूँ। आलू क्या से क्या हो गया। बैंगन, कंटकारी से वार्ताकु बन गया। आम भी उसी प्रकार बदला है। जाने मनुष्य के हाथों से विधाता की सृष्टि में अभी क्या-क्या परिवर्तन होने वाले हैं। आज जो दुर्भिक्ष और अन्न संकट का हाहाकार चित्त को मथ रहा है, वह शाश्वत होकर नहीं आया है। मनुष्य उस पर विजयी होगा। कितने अव्यवहार्य पदार्थों को उसने व्यवहार्य बनाया है, कितनी खटाई उसके हाथों 'अमृत' बनी है। कौन जाने यह महान 'गोधूम' लता (गेहूँ) किसी दिन सचमुच गाँवों को लगने वाले मच्छरों को भगाने के लिए धुआँ पैदा करने के काम आती हो? निराश होने की कोई बात नहीं है। मनुष्य इस विश्व का दुर्जय प्राणी है।

    हाँ, तो उसी बहुत पुराने जमाने में गंधर्व या (जैसा कि इसका एक दूसरा उच्चारण संस्कृत में प्रचलित है) कंदर्प देवता ने अपने तरकस में इस बाण को सजाया था। कवियों को उसी आदिम काल का संदेश बसंत में सुनाई देता है। लोग क्या ग़लत कहा करते हैं कि 'जहाँ जाए रवि तहाँ जाए कवि? किस भूले युग की कथा वे आज भी गाए जा रहे हैं? कालिदास ज़रूर कुछ झिझके थे। शायद उनके ज़माने में सहृदय लोग आम को अरविंद, अशोक और नवमालिका की पंगत में बैठाने में हिचकते थे। अच्छा करते थे। वात्स्यायन कामशास्त्र में जहाँ आम और माधवीलता के विवाह के विशुद्ध विनोद का उत्सव सुझा गए हैं, वहाँ नवाभ्रमादनिका या आम के नए टिकोरों को खाने के उत्सव को भूले नहीं हैं। आम की मंजरी विधाता का वरदान है, पर आम का फल मनुष्य की बुद्धि का परिणाम है। मनुष्य प्रगति को अनुकूल बना देने वाला अद्भुत प्राणी है। यह विशाल विश्व आश्चर्यजनक है, पर इसको समझने के लिए प्रयत्न करने वाला और इसे करतलगत करने के लिए जूझने वाला यह मनुष्य और भी आश्चर्यजनक है। आम्रमंजरी उसी अचरज संदेश लेकर आई 'उद्दमंगल तुमं पसाएमि'॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय निबंध (पृष्ठ 393-401)
    • संपादक : जगदीश चतुर्वेदी
    • रचनाकार : आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1982

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