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वेई गड़ि गाड़ैं परी

wei gaDi gaDain pari

बिहारी

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वेई गड़ि गाड़ैं परी

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    वेई गड़ि गाड़ैं परी, उपट्यौ हारु हियैं न।

    आन्यौ मोरि मतंगु मनु, मारि गुरेरनु मैन॥

    नायिका परस्त्रीगामी नायक से कह रही है कि तुम्हारे हृदय पर जो चिह्न दिखलाई पड़ रहे हैं, वे किसी के हार के उभरे हुए चिह्न नहीं हैं। मुझे तो ऐसा लगता है मानों कामदेव रूपी शिकारी के द्वारा हाथी के सदृश तुम्हारे हृदय में गुलेल से मारी हुई गोलियों के चिह्न हैं। व्यंग्यार्थ यह है कि नायिका यह व्यंजित कर रही है कि तुमने रात भर तो परकीया से रमण किया है, दिन में तुम लोक-लाज के कारण उसके घर रह नहीं सकते थे, अत: तुम्हारा कामोन्माद तुम्हें घर ले आया है। अब तुम दिन भर मेरे साथ रति-क्रीड़ा करोगे। मैं जानती हूँ कि अगर मैं इतनी सुंदर और यौवन-संपन्न होती तो तुम यहाँ आते ही नहीं। वास्तव में हे प्रिय, तुम बड़े भ्रष्ट हो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बिहारी सतसई (पृष्ठ 227)
    • संपादक : हरिचरण शर्मा
    • रचनाकार : बिहारी
    • प्रकाशन : श्याम प्रकाशन, जयपुर
    • संस्करण : 2007

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