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नैना नैंक न मानहीं

naina naink na manhin

बिहारी

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नैना नैंक न मानहीं

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    नैना नैंक मानहीं, कितौ कह्यौ समुझाइ।

    तनु मनु हार हूँ हँसैं, तिन सौं कहा बसाइ॥

    हे सखी, मैं अपने इन नेत्रों को चाहे कितना ही समझाऊँ, किंतु ये मेरी थोड़ी-सी भी बात नहीं मानते हैं। ये ऐसे चपल हैं जो तन-मन हार जाने पर भी हँसते रहते हैं। ऐसे नेत्रों पर क्या वश चल सकता है? नायिका के इस कथन का व्यंग्यार्थ यह है कि उसके नेत्र इतने चंचल और रूपासक्त हैं कि नायिका उन्हें वश में करने के लिए लाख प्रयत्न करती है, किंतु वे चंचलतावश अपनी सारी मर्यादा तोड़कर प्रिय को देखकर मुस्करा देते हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बिहारी सतसई (पृष्ठ 264)
    • संपादक : हरिचरण शर्मा
    • रचनाकार : बिहारी
    • प्रकाशन : श्याम प्रकाशन, जयपुर
    • संस्करण : 2007

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