कोठी तो है काठ की
kothi to hai kath ki
कोठी तो है काठ की, ढिग-ढिग दीन्हीं आग।
पण्डित जरि झोली भये, साकत उबरे भाग॥
लकड़ी का मकान हो, उसमें जगह-जगह आग सुलगा दी गई हो और उसमें जोरों से आग लग गई हो। उसमें पंडित तथा अशिक्षित दोनों रहते हों, तुम्हें आश्चर्य होगा कि पंडित तो जलकर राख हो गए और अशिक्षित भागकर बच गए। यह शरीर तथा संसार काठ की कोठी है। इसमें विषय-वासना एवं शिक्षित कहलाने वाले लोग अपने ज्ञान के मद में पड़कर इस आग में जलकर मरते हैं और सरल-हृदय अशिक्षित लोग इससे भागकर बच जाते हैं।
- पुस्तक : बीजक: पारख प्रबोधिनी व्याख्या (पृष्ठ 462)
- संपादक : अभिलाष दास
- रचनाकार : कबीर
- प्रकाशन : कबीर पारख संस्थान
- संस्करण : 1969
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