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मलयज की डायरी

malyaj ki Diary

मलयज

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मलयज की डायरी

मलयज

और अधिकमलयज

    1 जनवरी, 1961

    तुम दुनिया हो। जिसके कोई चेहरा नहीं होता, धुँधली, चटख और मद्धिम पृष्ठभूमि के बीच से झाँकता हुआ, अपने ‘होने’ के अहसास से चमकता हुआ चेहरा...

    तुम में वह व्यक्तित्व का विशिष्ट बोध नहीं है, जो तुम्हें इस घर की आत्मा से जोड़े...तुम इस घर को कभी महसूस नहीं कर सकतीं, तुम दुनिया हो जिसका कोई चेहरा नहीं होता...

    और हम अपने उस व्यक्तित्व के विशिष्ट बोध में ही जीते हैं, वह हमारे लिए एक पवित्र वस्तु है...तुम में यदि यह व्यक्तित्व का विशिष्ट बोध होता तो तुम उस ट्रेज़ेडी को, उस दुखी पवित्र कोमल आत्मा को देख लेतीं जो इस घर के कोने-कोने में छिपी हुई है। जो मौन इशारे करती है, बोलती नहीं बस चुप-चुप हवाओं में एक शांत रोशनी की फीकी धार बहाती रहती है, उसमें मुखरता नहीं, चटख शोख़ी नहीं, धुँधलके में कोमल खारे आँसुओं के बीच निखरे धुले चेहरे की मासूमियत है और घुटनों के बल झुककर बुदबुदाती हुई प्रार्थना की काँपती हुई अधर-मुद्रा...

    तुम इसे कभी महसूस नहीं कर पाओगी। क्योंकि तुम दुनिया हो और दुनिया चेहरे नहीं देखती, केवल शोर सुनती है, जितना ही चटख शोर होगा उतना ही वह आकर्षित होगी...और वह शोर में ही डूब जाती है।

    तुम मेरे लिए डूब गई हो।

    यह कैसा बना निरंध्र अवसाद मन में घिर गया है। इतना कोमल और नाज़ुक कि कोई तेज़ आवाज़, कोई शोख़ चेहरा भी उसे जैसे छील देता है, खरोंच पैदा कर देती है, और तबियत डूबने लगती है।

    घर में जैसे कोई एक दूसरा ही घर बन गया है इस घर में सिर्फ़ मैं रहता हूँ। अपनी चंद किताबों कॉपियों के साथ। वह दूसरा घर जैसे मेरा नहीं है। उसमें झाँकते ही जैसे कोई परायापन मुझे छू जाता है, वृत्तियाँ सहम जाती हैं और पीछे ठिठक जाती हैं...उस दूसरे घर में और सब हैं। बहनें-भाई, माँ-बाप और नौकर, मेहमान...सिर्फ़ मैं नहीं हूँ। उस घर को पहचानता हूँ। उस घर में मेरी परछाई अब भी पड़ी है, दीवारों पर फ़र्श पर किवाड़ों, खिड़कियों से लिपटी मेरी परछाई। जिसे लोगों ने बार-बार छीला काटा और अपनी भावनाओं की आँच में सेंककर अपने मन लायक कोई आकार देना चाहा।

    वे—दूसरे घर के बाशिंदे—मुझे नहीं उस परछाईं को आकार देते हैं, मनचाहा आकार, और कहते हैं मन में कि मैं कितना बदल गया हूँ। कितना सख़्त हूँ, कितना स्वार्थी हूँ...रूखा हूँ बेमसरफ़ हूँ...

    मैं जानता हूँ कि ये सब नाम मुझ पर फेंके गए हैं क्योंकि मेरी परछाई वहाँ उस घर में है और उसे मुझे सहना है।

    और मेरे घर का सादापन मुझे कभी-कभी भयंकर लगता है। तबियत घुटती है। पर इस घर में तो कोई नहीं आता। मैंने दरवाज़े कब बंद किए, पर फिर यह दूसरा घर ही क्यों बनाया?

    यह कैसा नया वर्ष है जो आज पहले ही दिन अवसाद बनकर मन पर छाता जा रहा है, भीतर तक गड़ता जा रहा है और एक निरर्थकता की भावना मुझे दबोचती जा रही है...

    क्या यह दुर्गति स्वयं अपनी बनाई हुई है?

    कौन सवाल करे और कौन जवाब दे। क़लम हाथ में फिसलती जाती है। पता नहीं क्या है जो लिखवाए जा रहा है...कभी-कभी तो यह आत्म-विश्लेषण भी व्यर्थ लगता है, वह ज़रा-सा संतोष भी अब नहीं मिलता जो पहले मिलता।

    ...एक नाम है जो रह-रहकर हवा में उछाल दिया जाता है और नेज़े की तरह मन में चुभ जाता है।

    वह आती है और चली जाती है। जैसे मैं ख़ामोश ठंडी रात के सीने में खिंची हुई उठी सीढ़ी हूँ और कोई भारी पैरों से छ्प- छ्प करके ऊपर नीचे चढ़ता-उतरता है बस इसके सिवा अब कोई अनुभूति नहीं होती।

    पर भीतर ही भीतर एक बार यह अनाभिराम अनुभूति और होती है कि मैंने सीने से कोई चीज़ कसके दबाई फिर दरिया में धीरे से डाल दी है...

    बुलबुले दिनभर, रात को भी जब तक नींद जाए फूटते रहते हैं। कि कुछ डूब गया है, कुछ डूब गया है...छोटे-छोटे दिन जाड़े के छोटी-छोटी मछलियों की तरह उन फूटते बुलबुलों को देखते रहते हैं, पर यह नहीं जान पाते कि हर सूर्यास्त के साथ एक वह और चीज़ क्या है जो बार-बार डूबती है...

    जब मैं बहुत-बहुत दुखी होता हूँ तब कितने अपने लगते हो, मेरे शहर! इस छोटे-से दिल में बहुत पीड़ा होती है और बहुत से बने हुए ठिठुरे हुए आँसू, अब तुम कितने अच्छे लगते हो, मेरे शहर!

    और मैं जानता हूँ कि तुम्हारी हथेलियाँ छूछी हैं मेरे लिए और तुम्हारी सड़कें और गलियाँ वीरान हैं मेरे लिए और तुम्हारे पेड़ों की शाखों में एक भी घोंसला नहीं है मेरे लिए, और ही किसी मकान में कोई फड़कता हुआ छोटा-सा दिल है, पर फिर भी तुम कितने अपने और कितने अच्छे लगते हो, मेरे शहर!...

    सड़क पर निकल आता हूँ और रात में झूलती हुई और रात की टटोलती हुई भीड़ को देखता हूँ। लेकिन देखता भी नहीं, बस एक तरफ़ जाती हुई भीड़ में मैं भी अपने पाँव डाल देता हूँ... और फिर पाता हूँ कि भीड़ छँट गई है। मैंने वह सब्जी मंडीवाला रेलवे पुल पार कर लिया है, हवा का अहसास इस पार कुछ तेज़ है इसीलिए लगता है कि कुछ पार कर आया हूँ और सड़कें आगे रात की नमी में चित पड़ी कुछ-कुछ कोहरीली हो गई हैं जैसे ऊँघने लगी हों...

    अपने उस छोटे से दिल में डूबा होता हूँ और बाहर का मद्धिम शोर नहीं सुनता हूँ। आकृतियाँ मनुष्यों को और सवारियों की बगल से गुज़र जाती हैं। ध्वनियाँ एक दूसरे से लड़ती रहती हैं गौरय्यों की तरह सुनाँ हैं और सिमटे हुए ख़ामोश दृश्यों की भाषा बोलने लगती हैं। मंद भोनी फुसफुसाहटों में वे लिपिहीन शब्द मेरी आँखें सुनती हैं, और आँखें कुछ नहीं देखती हैं।

    फिर जाने किस कोने से छोटी लाइन के स्टेशन की बत्तियाँ उभर आती हैं। घने पेड़, सड़क के दोनों ओर और ऊपर अँधेरा और अँधेरे के ऊपर छिटपुट तारे हैं जो अचल, शांत चमकते होते हैं...इमली के पेड़ के नीचे बिजली का खंबा, उसकी पत्तियों के एक छोटे-से घने क्षेत्र पर पीला सूखा पाउडर जैसे छिड़क रहा होता है और बाएँ ओर स्टेशन के मुख्य द्वारा पर इलाहाबाद शहर की नीली न्यान-बत्ती ठंडी जलती रहती है...

    कई खिड़कियों से फलरसेंट रॉड की तेज़ सफ़ेद-नीली रोशनी नीचे सड़क को भिगोती रहती है और इमली के पेड़ों के पीछे दीवार पर पेड़ की छाया साफ़-साफ़ कटी हुई होती है...

    एकाएक जैसे वातावरण की चुप्पी मुझे आग़ोश में भींचकर छोड़ देती है, और मैं चौंक जाता हूँ...बगल से एक टूटा-फूटा इक्का खड़ड़खड़ड़ करता निकल गया है, और उस पर लगे लैंप की पीली रोशनी में घोड़े की पसली एक पल को चमक कर अँधेरे में लुप्त हो गई है...और घोड़े की पसलियों में जैसे पेड़ की घनी कटी हुई छाया तेज़ बरछे की तरह एक पल को घुस गई है, और कोई चिड़िया चीख़ी है, कोई हवा ठिठकी है, सितारे सहमे हैं, आदमी रुके हैं, शोर थमा है, कुहरा उठा है, बस यह घोड़ा अपने बूढ़े कोचवान को बिठाए सूना-सूना बगल से गुज़र गया है...

    आगे तिराहा है। बाएँ और लंबे-लंबे निचाट मैदान है। मैदानों को चीरती हुई रेलवे लाइन गुज़र गई है। लाइन के परे गहरा नाला है जिससे हमेशा सड़े हुए कीचड़ की गंध आती रहती है... यह गंध कुहरे में मिली है और एक दीवार उस नाले के पीछे-पीछे आगे जाकर दाएँ के पीछे की हरियाली अँधेरे में खो गई है...

    आगे और मैदान हैं। मैदाना में कहीं खेत हैं, और कहीं छोटे-छोटे तालाब, जिनमें पानी सूखने पर पालतू सुअर लेटे रहते हैं...

    मैदान के ऊपर धुआँ नीचे उतरकर जमा हुआ है, और घुटन होती है...

    जिधर धुआँ नहीं है उस रास्ते पर मैं मुड़ गया हूँ। पर एकाएक मेरी तीव्र इच्छा होने लगी है कि कोई चीख़ पड़े और में भीतर किसी पिघलती हुई चीज़ को थामकर उस चीख़ को सूनूँ

    मैंने अपने और तुम्हारे बीच एक लकीर खींच दी है। एक गहरी लकीर। कभी-कभी लगता है संसार की जितनी सुंदर वस्तुएँ हैं सबके बीच वह लकीर उभर आई है—सो दृश्य और सारे चित्रों को यह लकीर काट रही है...

    मन कैसा-कैसा होने लगता है। वह लकीर पसीजने लगती है, पर मिटती नही, कभी नहीं मिटती...

    स्रोत :
    • पुस्तक : मलयज की डायरी भाग-2 (पृष्ठ 1-31)
    • रचनाकार : मलयज
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
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