Font by Mehr Nastaliq Web

दूसरी गोलमेज़-परिषद् में गांधी जी के साथ : दो

dusri golmez parishad mein gandhi ji ke saath ha do

घनश्यामदास बिड़ला

घनश्यामदास बिड़ला

दूसरी गोलमेज़-परिषद् में गांधी जी के साथ : दो

घनश्यामदास बिड़ला

और अधिकघनश्यामदास बिड़ला

    30 अगस्त, ’31

    ‘राजपूताना जहाज़’

    जहाज़ पर मर्यादा प्रायः भंग हो गई है। 1927 में मैं आया था तो कपड़ों का स्वांग रचना पड़ा था। रात के कपड़े, दिन के कपड़े, पूरा झमेला था। घंटा भर तो प्राय: कपड़े बदलने में ही लगता था। धोती कुर्ता पहनना तो मानो गुनाह था। अब की बेर यह हाल है कि धोती-कुर्ते वाले जहाज़ पर बेखटके फिरते हैं। तो कोट पूछने वाला है, किसी को संकोच है। मुझे अब मालूम होने लगा है कि अपने धोती-कुर्ते छोड़ आया, यह ग़लती हुई। जहाज़ के मुसाफ़िर, कप्तान वग़ैरह भी धोती-कुर्ते को बर्दाश्त कर लेते हैं। यों तो उन्हें बुरा ही लागता होगा, पर शिमले का आदेश है कि गांधी के आराम का ध्यान रखो, इसीलिए सब कुछ बर्दाश्त कर लेते है।

    पंडित जी के लिए चुल्हा अलग बन गया है। गंगाजल भी साथ है। मिट्टी का कनस्तर, स्वदेशी साबुन, दातौनों का बड़ा-सा बंडल। उधर गांधी जी का चर्खा, पीजन, बड़ी-बड़ी विचित्र चीज़ें साथ छल रही है। जहाज़ वाले भी देखते है कि यह शिवजी की बरात अच्छी आई। आते-जाते तिरछी नज़र डाल जाते हैं, पर ऊपर से पूरा अदब दिखाते हैं।

    जहाज़ चलते ही गांधी जी ने अपना असबाब संभालना शुरू किया। इस ट्रंक में क्या है। उसमें क्या है? यह पूछताछ शुरू हो गई। बेचारी मीराबेन तो झट समझ गई कि तूफ़ान आने वाला है। महादेव और देवदास तो बंबई गांधी जी के साथ ही पहुँचे थे। इसलिए सारे प्रबंध का भार मीराबेन के ऊपर ही था। और जहाँ गांधी जी ने हिसाब पूछना शुरू किया, मीरा समझ गई कि ख़ैर नहीं है। पहले-पहल तो गांधी जी ने पूछा, इस ट्रंक में क्या है? मीरा ने कहा— बापू, इसमें आपके कपड़े हैं। गांधी जी ने कहा मेरे कपड़े है? इतने बड़े ट्रंक में? मीरा ने कहा—लेकिन यह भरा हुआ नहीं है। गांधी जी— हाँ, तो तुम इसे भर देना चाहती थी, यह नहीं सोचा कि हिंदुस्तान में तो मेरे कपड़े बिना ट्रंक के ही चलते थे।

    मीरा ने ट्रंक खोलकर सामग्रियाँ सामने रखी तो गांधी जी का चेहरा लाल हो गया। सामान ज़्यादा था, किंतु एक भी पैसा अधिक ख़र्च हो, यह गांधी जी को असह्य था। पेटियाँ सारी मंगनी में लाई गई थी, किंतु गांधी जी को संतोष हुआ। पूरा घंटा तो उन्हें अपनी मंडली को धमकाने में ही लगा। अंत में यह तय हुआ कि थोड़ा-सा सामान छोड़कर बाक़ी अदन से वापस कर दिया जाए। गांधी जी बोले—“आज तो मैं इस सामान को देखकर घबरा गया हूँ। काग़ज़ रखने के लिए भी यह लोग पेटी लाए हैं, मानो मैं अब पुरानी आदतों को छोड़ने वाला हूँ।”

    पाँच बजे अपने बैठने का स्थान चुनने के लिए गांधी जी छत पर आए। मैंने कहा—“जहाज़ का अंतिम हिस्सा तो बहुत हिलता है, इसलिए काफ़ी कष्टप्रद है—एक मिनट भी मुझसे तो यहाँ खड़ा नहीं रहा जाता, इसलिए इसे देखना ही फ़िज़ूल है।” जहाज़ के बीच का हिस्सा ही देख ले और मेरे लाख विरोध करने पर भी जहाज़ के अंतिम हिस्से का एक ख़तरनाक कोना पसंद किया। मैं तो हक्का-बक्का-सा रह गया। क्या कोई समझदार मनुष्य ऐसी तकलीफ़ से भरी हुई निकम्मी जगह पसंद कर सकता है? किंतु— “यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:”।

    गांधी जी कि विचार-श्रृंखला यह थी कि जो स्थान अच्छा है, वहाँ हमारे बैठने से किसी को कष्ट हो सकता है, अच्छे स्थान में एकांत भी संभव नहीं—इसलिए यह बुरा स्थान ही हमारे लिए अच्छा है—मैनें कप्तान तक दौड़-धूप की, उनका विचार बदले, इसकी काफ़ी कोशिश की। पर “हज़रते दाग़ जहाँ बैठ गए बैठ गए!” गांधी जी तो टस-से-मस भी हुए। आख़िर पंडित जी ने अपना ज़ोर आज़माना शुरू किया। उन्होंने आग्रह किया कि गांधी जी फ़र्स्ट का टिकट बदला ले। संध्या-समय घूमते-घूमते मैंने भी थोड़ा आग्रह किया। गांधी जी ने पूछा—तुम क्यों आग्रह करने लगे? मैंने कहा—आपने टिकट तो सेकंड का लिया है। किंतु आपकी प्रतिष्ठा के कारण फ़र्स्ट के तमाम हक़ आपको स्वत: मिल जाएँगे। फ़र्स्ट की छत पर कनात लगा कर आपके लिए प्रार्थना घर बनवा दिया है, क्या यह उचित नहीं कि आप फ़र्स्ट के पैसे ही दे दें? गांधी जी ने कहा—नहीं इस दलील से तो यह सार निकलता है कि हम फ़र्स्ट के तमाम हक़ों को स्वयं त्याग दें। नतीजा यह हुआ कि गांधी जी ने फ़र्स्ट की छत पर घूमना उसी समय बंद कर दिया। प्रार्थना की कनात तो एक ही दिन काम आई। आज तो उन्होंने प्रार्थना अपने निकम्मे स्थान पर ही की।

    प्रार्थना करते समय जहाँ गांधी जी ध्यान करते थे, वहाँ मैं यह सोचता था कि भगवान, प्रार्थना समाप्त हो तो यहाँ से उठूँ। बैठने वाले दो मिनट में ही आधे बीमार हो जाते है। वमन नहीं हुआ, यह ख़ैरियत। कहते हैं जहाँ चाँद-सूरज की गति नहीं है, वहाँ भगवान् विराजते हैं। हमारे जहाज़ के बारे में यह कुछ अंश में कहा जा सकता है जहाँ भले आदमियों की होश-हवास के साथ गति नहीं है, वहाँ गांधी जी विराजते है। कोई मिलने वाला जाता है, तो एक मिनट से ज़्यादा रूकना भी पसंद नहीं करता। बंबई से चलते ही समुद्र तूफ़ानी हो गया। इसलिए गांधी जी का स्थान ऐसा रहता, जैसे हिंदुस्तान का डोलर-हिडा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : डायरी के कुछ पन्ने (पृष्ठ 11)
    • रचनाकार : घनश्यामदास बिड़ला
    • प्रकाशन : सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली
    • संस्करण : 1958
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए