‘रेशमा हमारी क़ौम को गाती हैं, किसी एक मुल्क को नहीं’

‘रेशमा हमारी क़ौम को गाती हैं, किसी एक मुल्क को नहीं’

राजेंद्र देथा 13 जुलाई 2023

थळी से बहावलपुर, बहावलपुर से सिंध और फिर वापिस वहाँ से अपने देस तक घोड़े, ऊँट आदि का व्यापार करना जिन जिप्सी परिवारों का कामकाज था; उन्हीं में से एक परिवार में रेशमा का जन्म हुआ। ये जिप्सी परिवार क़बीलाई ढंग से अपना सामान लादे आवाजाही करते और इस आवाजाही में साथ देता उनकी ज़मीन का गीत। उन्हीं परिवारों में से एक परिवार में जन्मी ख्यात कलाकार रेशमा।

चूरू के रतनगढ़ के गाँव लोहा में पैदा हुईं रेशमा जब अपने शैशवकाल में थीं, तभी विभाजन में उनका परिवार भी पाकिस्तान चला गया। जैविक संरक्षकों की मृत्यु के कारण दोनों बहन-भाई का पालन-पोषण नानी और मौसी ने किया।

दोनों भाई-बहन सामान्य ढंग से बड़े हो रहे थे। रेशमा को अपने भाई के ब्याह की चिंता होने लगी, और इसी चिंता में वह शाहबाज़ कलंदर की दरगाह पर एक विशेष दिन उसे सेहरा बाँधे हुए देखने की मन्नत माँगने गईं। वह दिन रेशमा के जीवन में एक अलग दिन था। उन्होंने सूफ़ी लय में राग छोड़ी—‘‘ओ लाल मेरी पत रखियो बला झूलै लालण…’’ उर्स में पाकिस्तान रेडियो के डायरेक्टर सलीम गिलानी भी मौजूद थे। रेशमा के कंठ का अध्ययन कर गिलानी सा’ब ने अपने रेडियो के साथियों से इस बारह बरस की लड़की को अपने स्टूडियो में आने का न्योता दिया। इस पर रेशमा ने भी कह दिया किस्मत में रहा तो ज़रूर आऊँगी।

रेशमा रेडियो से बहुत मुहब्बत करती थीं। इसी मुहब्बत में उन्होंने स्वयं से कहा, ‘‘रेशमा, ये रेडियो वाले डिब्बे में तू कैसे आएगी?’’ इतना कहकर गिलानी सा’ब का रेशमा ने मन ही मन में शुक्रिया कहा।

साल दो बीत गए। एक रोज़ वह गिलानी साब का विजिटिंग कार्ड लेकर कराची पहुँची—रिकार्डिंग के लिए। गार्ड से बहुत सारी बहस के बाद वह सलीम गिलानी के दफ़्तर तक पहुँची। गिलानी सा’ब बड़े ख़ुश हुए। उन्होंने हाथों-हाथ रिकॉर्डिंग का इंतज़ाम करने के लिए अपने कनिष्ठों को आदेश दिया। वयस्क होती इस लड़की (रेशमा) के लिए यह सब नया था। एकदम। वह असहज हो रही थी। उसने अचानक टेक्निकल टीम से कहा, ‘‘इस टीवी को ‘परली’ तरफ़ कर दो।’’ रिकॉर्डिंग समाप्त हुई और वह वर्तमान बारहवीं में 95 प्रतिशत पाई लड़की की तरह एकदम ख़ुश होकर लौट आई।

इस रिकॉर्डिंग का प्रसारण कब होगा, यह रेशमा को नहीं बताया गया और वैसे भी ख़ुशी से बावळी हो रखी इस लड़की ने पूछा ही क्यों होगा?

ख़ैर, बात आई-गई हुई। रेशमा की सगाई हो गई थी, मुकलावा (गौना) होना बाक़ी था। वह एक दिन परिवार में शादी के बाबत कपड़े ख़रीदने बाज़ार जा रही थीं कि तभी अचानक उसे एक पोस्टर दिखा जिसमें उनका बड़ा-सा फ़ोटो छपा था। सामंती क़बीलों की यह लड़की परेशान हुई और ताँगे से उतरकर दुकान वाले से कहा कि इसे हटाओ। दुकानदार ने उसे उसके प्रसिद्ध होने का प्रमाण बताने की कोशिश की। वह एक पोस्टर ख़रीदकर घर गईं, और नानी-मासी को दिखाया। घर में सब परेशान। समाज क्या कहेगा? सगाई की हुई लड़की की फ़ोटुएँ छप रहीं। घर में डाफाचूक (किंकर्तव्यविमूढ़) स्थिति हो गई। रेशमा को अचानक एक रास्ता यह सूझा कि सलीम सा’ब को ख़त लिखा जाए : जब वह इतना वायरल कर सकते हैं तो अवायरलीय तकनीक भी तो होंगी ही उनके पास। रेशमा ने ख़त भेज दिया। सलीम सा’ब का जवाब आया और वह यह कि तुम्हारे संगीत को चाहने वालों का ही क़िस्सा था—पोस्टर आदि का छपना। सलीम सा’ब ने आगे लिखा कि—प सदर-ए-मुल्क—अयूब खान आपको सुनना चाहते हैं।

सलीम गिलानी रेशमा के घर आए और समाज के सामने यह बात रखी कि समाज का नाम बढ़ेगा, घटेगा नहीं। फिर क्या था! प्लेन से रेशमा अपने परिवार के साथ इस्लामाबाद पहुँची, और सुरक्षित पहुँची—इसलिए ग्यारह रुपए का प्रसाद चढ़ाया गया। फिर वहीं कार्यक्रम में रेशमा ने सदर के सामने अपना सुर भरा।

रेशमा के दो-चार साक्षात्कार देखने के बाद पता चलता है कि वह ठेठ थळियल, बहुत अनौपचारिक और इन सबके बाद मज़ाहिया क़िस्म की स्त्री थीं। अपनी देशजता को वह कभी भूल नहीं पाईं। ताउम्र पाकिस्तान-हिंदुस्तान को अपनी दोनों आँखें मानने वाली रेशमा अपने ज़मीनी वतन राजस्थान को बहुत याद करती थीं। वह अपनी हर उपलब्धि को अपने ख़ुदा के नाम करतीं और कहतीं, ‘‘रेशमा कौन थी तू और परवरदिगार कहाँ ले आया तुझे।’’

रेशमा अपने हर वाक्य में वही ध्वन्यात्मक फ़ील करवाती हैं जो हाड़ौती के व्यक्ति को चूरू-बीकानेर का व्यक्ति करवाता है। यथा : गाणा-गूणा, लेत्ती है, पीत्ती है, जात्ती है…

रेशमा कई देशों में घूमीं। अपने प्राचीनबोध में वह रूस की स्त्रियों को बुलडोज़र और टोरंटो को टरेंटो और हर महानगर को गाँव कहती रहीं, यथा : कनाडा गाँव, अमरीका गाँव।

रेशमा ढाट की मशहूर लोकगायिका माई ढाई से अधिक पढ़ी-लिखी नहीं थीं। न ही ढाई की तरह किसी प्रकार का शास्त्रीय संगीत जानती थीं। न ही किसी ढंग का समयगत राग। वह कहती थीं कि सुर ख़राब होता है तो मुझे लग जाता है कि रेशमा कुछ गड़बड़ है।

रेशमा हिंदी की संगीत पट्टी में तब अचानक लोकप्रिय हुईं, जब सुभाष घई ने ‘हीरो’ फ़िल्म में उनसे ‘लंबी जुदाई…’ शीर्षक गीत गवाया। वह उम्र भर पंजाबी (मुल्तान, बहावलपुर मूलतः) संगीत की गाने की परंपरा को समृद्ध करती रहीं। कुछ राजस्थानी गीतों को भी वह बहुत सुंदर गा चलीं : ‘सैंणा रा वायरिया…’, ‘केसरिया बालम…’, ‘मूमल…’ उनमें सिरै हैं।

‘हाय ओ रब्बा नंईयो लगदा दिल मेरा…’, ‘औंदिया आ नसीबां नाल ए घड़ियां…’, ‘तू मिल जावें दुख मुक जांदे ने…’ जैसे कई मशहूर गीतों को रेशमा ने आवाज़ दी। वह साठ के उतरते दशक की मशहूर गायिका थीं। अपने संगीत सफ़र में ही आठवें दशक में गले के कैंसर ने उसे परेशान करना शुरू कर दिया। परवेज़ मुशर्रफ़ ने अपनी सरकार में इस स्वर-कोकिला के लिए अच्छी-ख़ासी राशि स्वीकृत करवाई। लेकिन वह भी सरकार-परिवर्तन जुमले के हत्थे चढ़ गई। वह अंतिम बार हिंदुस्तान 2006 में लाहौर-अमृतसर बस शुरू होने पर आई थीं।

3 नवंबर 2013 को रेशमा ने लाहौर के एक अस्पताल में आख़िरी सुर छोड़ इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

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यहाँ प्रस्तुत आलेख का शीर्षक आलोकधन्वा की रेशमा के लिए लिखी गई कविता की शुरुआती पंक्तियाँ हैं। इस आलेख में व्यक्त जानकारियाँ रेशमा के कुछ साक्षात्कारों से ली गई हैं।

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