'रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं'

'रफ़्तगाँ में जहाँ के हम भी हैं'

आदिम युग से ही कृति के साथ कर्ता भी हमेशा ही कौतूहल का विषय बना रहा है। जो हमसे भिन्नतर है, वह ऐसा क्यों है, इसकी जिज्ञासा आगे भी बनी ही रहेगी। इन्हीं जिज्ञासाओं में एक जिज्ञासा का लगभग शमन करते हुए कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी ने लगभग ढाई-सौ पृष्ठों के आयतन में ‘आँसू और रौशनी’ को भरा है। ‘आँसू और रौशनी’ कई सारे रूप-विधाओं में है। भूमिका में पंकज चतुर्वेदी खुद लिखते हैं, ‘‘इस साक्षात्कार में दोस्तों को कई विधाओं का संश्लेषण महसूस होगा...।’’ लेकिन सटीक तौर पर देखें तो ‘आँसू और रौशनी’ आलोकधन्वा का जीवनीनुमा एक लंबा मुवाजहा ही है जिसमें आलोकधन्वा अपनी ‘जीवनानुभूति के गंभीर भूमि’ को वैध क़रार करने के लिए स्वयं मौजूद हैं। इस वैधता में उनके पास बड़े कवियों, जैसे निराला, मुक्तिबोध, शमशेर इत्यादि, का साथ भी है। इस लंबी बातचीत में एक कवि दूसरे कवि कि ज़मीन पर पाठक को स्थापित करने का काम करता है। 

आलोकधन्वा पर केंद्रित इस संवाद में कवि-कर्म के पीछे का मानस खुलता है। एक कवि अपने देश-काल को किस तरह देखता है और अपने पुरखे कवि-कलाकारों के ‘ट्रेडीशन’ से कैसे प्रभावित होता है, यह संवाद में उभरता है। 

चेतना और भावनाओं के फ्यूज़न को एक कवि से बेहतर कौन समझा सकता है?—

‘‘केवल विचार से तो ‘सिंथेटिक’ क़िस्म की कविता लिखी जा सकती है।’’

लेकिन मूल-प्रश्न आवश्यकता का है—इस संवाद की क्या आवश्यकता हो सकती थी? शायद इसका उत्तर यह है कि, कला की गहनतम दूरियों में जाने की कोशिश के लिए इस तरह के संवाद आवश्यक हैं। जो आगे तक हो आए हैं, उनके अनुभवों को जानने की आवश्यकता ही इस तरह के संवादों की आवश्यकता है। लोकतांत्रिकता बरक़रार रखने के लिए संवाद आवश्यक हैं।

इस वार्ता की किताब में एक कवि दूसरे कवि के कई सारे पक्षों को सामने लेकर आता है। उसके जिए गए जीवन का नॉस्टेल्जिया, परिवेश के बारे में जागरूकता, साधारणता से लगाव, कवि का दार्शनिक पक्ष (जैसा कि इस संवाद में आलोकधन्वा स्वयं कहते हैं कवि एक दार्शनिक भी है), दुनिया से उसकी हमदर्दी और बदले में हमदर्दी की चाह,—

‘‘मैं कोई लोकप्रियतावादी कवि नहीं हूँ, किसी तरह की लोकप्रियता की चाहत में कविता नहीं लिखता, बल्कि अपनी वेदना के बारे में दूसरों से संवाद करना चाहता हूँ।’’

मौजूदा समय की चिंता और कवि की मित्रता को दर्ज करने का काम करता है। 

आलोकधन्वा का कवि व्यक्तित्व बड़े ही कोमल तरह से हाशिए पर पड़ी औरतें, चरवाहों और माँझियों को छूता है। शहरीकरण के दौर में प्रकृति और मानवता का जो ह्रास हो रहा, उसको आप इन पंक्तियों में देख सकते हैं :

‘‘कवि मरते हैं
जैसे पक्षी मरते हैं
गोधूलि में ओझल होते हुए’’

आलोकधन्वा की जीवन-यात्रा और साहित्यिक यात्रा के बारे में ख़ुद उनसे सुनने को मिलता है। कविता में उनके आगमन से लेकर उनके समय के वरिष्ठ साहित्यकारों का उनके ऊपर प्रभाव, और तमाम ऐसी घटनाओं का ज़िक्र ‘आँसू और रौशनी’ में होता है। किन्हीं संवादों में वह कवि की तरह प्रतिष्ठित हैं, और कहीं एक अदद इंसान की तरह। संवाद में जहाँ पर आलोकधन्वा अपने संपूर्ण व्यक्तित्व की हैसियत से मौजूद हैं, वहाँ पर भी उनमें एक कवि नज़र आता रहता है। यद्यपि वह कहते हैं, ‘‘दुनिया बड़ी है, वह सिर्फ़ कविता नहीं है, पर उसमें कविता है’’, फिर भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति में उनका दृष्टिकोण एक कवि का ही है। रूस के यूक्रेन आक्रमण पर वो युद्ध का विरोध करते हैं, जैसा कि एक कवि को करना ही चाहिए। बड़े आश्चर्य की बात है कि तमाम दुनियावी मुद्दों को सिर्फ़ कवि की नज़र से देखा गया है।

चेखोव का एक कथन है : ‘‘कलाकार की भूमिका है सवाल करना, उनका उत्तर देना नहीं।’’ एक कलाकार के तौर पर पंकज चतुर्वेदी क्या सवाल करते हैं, और चेखोव द्वारा इंगित ‘सवाल’ क्या हैं? आलोकधन्वा स्वयं किन सवालों को उठाते हैं? कलाकार के लिए कौन से सवालों का उठना मूल्यवान है? क्या ये सिर्फ़ वे सवाल जो एक स्थापित उद्देश्य की पूर्ति करते हैं? इस किताब के लेखक की हैसियत से पंकज चतुर्वेदी, सिर्फ़ इसके लिपिक नहीं हो सकते हैं। आलोकधन्वा में कई विरोधाभासों को यह किताब सामने लेकर आती है। उन विरोधाभासों से वह ‘अवेयर’ हैं या नहीं? या उन्होंने 'डेलीबेरेटली' इन विरोधाभासों को पाठक के सामने पेश किया है? क्योंकि वह विरोधाभास उत्पन्न करते हुए स्वयं चलते हैं। मसलन संवादांश 27 में, आलोकधन्वा कहते हैं, ‘‘मेरे माँ-बाबूजी, दोनों कोई जाति या छुआछूत नहीं मानते थे...’’ और वहीं 31वें संवादांश में, गाँव में जब हाथी आता, तो हमारे घर में जो ‘ब्राह्मण रसोइया’ था...’’ अगर घर में छुआछूत नहीं था, तो रसोइया ब्राह्मण ही क्यों था? पंकज जी क्या सिर्फ़ रसोइया लिखकर काम नहीं चला सकते थे? यह लेखक और कवि के उद्देश्य हैं या नहीं किंतु किताब सवालों को खड़ा करती है।

इस किताब में कहीं भी आलोकधन्वा के संपूर्ण व्यक्तित्व का ज़िक्र नहीं है। आप रचनाशीलता दर्शाना चाहते हैं तो एक कलाकार के उन्मादों को भी दिखाना ज़रूरी है। रामविलास शर्मा और निराला का कई बार ज़िक्र हुआ है। लेकिन रामविलास शर्मा ने जब निराला पर लिखा तो उनकी कुंठाओं को भी सामने लेकर आए। क्रेमलिन में रहते हुए भी लेनिन साधारण कपड़े पहनते थे! इस वाक्य के बाद विस्मयादिबोधक चिह्न इसलिए क्योंकि इस तथ्य को सुनकर लेखक को भी अचरज होता है। साधारणता का महिमामंडित होना अपने आप में ‘आयरनी’ है। राजकमल चौधरी ने आलोकधन्वा को ‘रेस्टलेस सोल’ कहा। इस पर आलोकधन्वा का कथन है, ‘‘ ‘रेस्टलेसनेस’ ही न किसी आदमी को बड़ा बनाती है।’’ जैसा कि ब्लर्ब में ममता कालिया ने लिखा है, ‘‘ऐसे समय में जब संवाद मंथर पड़ रहा है...’’ ऐसे संवादों की सख़्त आवश्यकता है किंतु त्रुटियाँ कहीं भी हों, अनुत्तरित नहीं जा सकतीं। साथ ही साथ एक बड़ी आवश्यकता है निष्पक्षता। 

भूमिका में लेखक ने दो हिदायतों को हाइलाइट किया है। किंतु ग़ौर से देखिए तो 38वें संवादांश में न तो भास्वरता है, न ही झंकृति। और ऐसी कई विसंगतियाँ मिलती चली जाती हैं। जहाँ कौतूहलता का उदय होना चाहिए था, वहाँ आश्चर्य खेलता है। यह कहते हुए भी कि वे लोकप्रियतावादी कवि नहीं हैं, आलोकधन्वा में कालजयिता की चाह तो है। 73वें संवादांश में आलोकधन्वा कहीं न कहीं ये चाहते हैं कि ‘‘हिंदी के लिए ज़िंदगी-भर त्याग-तपस्या करने का’’ लेखक को पुरस्कार मिले। वह मानते हैं कि लोग विनोद कुमार शुक्ल की हीरो-वर्शिप करते हैं, लेकिन फ़िर हिंदी साहित्य का संसार और उसकी ज़मीन इस चीज़ से कहाँ ख़ाली है? परसाई ने अपने एक लेख 'अहले वतन में इतनी शराफ़त कहाँ है' में इस समस्या को रेखांकित किया था। वह अपनी कविताओं को स्वयं उद्धृत करते हैं। जीवन सूत्रात्मक नहीं होता। बक़ौल मुक्तिबोध, ‘‘दुनिया में नाम कमाने के लिए कोई फूल नहीं खिलता।’’ लेकिन आदमी तो खिलता है, और हर बात को ध्यान में रखते हुए वह अपनी कविता लिखकर ही जाना चाहेगा। लेकिन आदमी होकर भी यह दावा करना कि वह मुक्तिबोध के फूल जैसा है, यह भी अपने सवाल खड़े करता है। 

आलोकधन्वा अपने सवालों को बेहद क़रीने से उत्तरित करते हैं। लेकिन कहीं-कहीं प्रश्नों का सटीक उत्तर देना उन्हें ठीक नहीं लगता या अक्षरशः बात न लिखे जाने की छूट की वजह से शायद पंकज चतुर्वेदी की ही त्रुटि हो, लेकिन उनके ऊपर रेणु के व्यक्तित्व और रचनाशीलता का क्या प्रभाव पड़ा इस पर उन्होंने रेणु के डील-डौल, दिखावट और विचारशीलता बताते रह जाते हैं। अंत में एक बेहद बेतुका-सा प्रभाव बतलाते हैं : ‘‘उनका पहला असर मुझ पर यह हुआ कि वह देखने में वैसे ही कलाकार लगे, जैसे हमारे गाँवों में होते हैं।’’

कहीं न कहीं पंकज चतुर्वेदी इन विसंगतियों से परिचित हैं। जहाँ एक तरफ़ संवाद को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि आलोकधन्वा के साथ-साथ पंकज चतुर्वेदी भी उनके जीवन के नॉस्टेल्जिया में अभिरुचि रखते हैं, वह उस नॉस्टेल्जिया के प्रतिवाद में आलोकधन्वा के एक कथन को पेश करते हैं :

‘‘कुछ लोग समझते हैं कि आलोकधन्वा में इतना नॉस्टेल्जिया है कि ये रोज़-रोज़ माँ की तरफ़ जाएगा… अब आप बताइए... माँ की तरफ़ नहीं जाएँगे, …क्या ख़ून-ख़राबे की ओर जाएँगे?’’

एक ऐसी ही चीज़ और देखने को मिलती है। इस संवाद में कविताओं के लंबे-लंबे उद्धरण हैं। लेकिन आलोकधन्वा एक जगह पर यह कहते हैं कि कविताओं को बातचीत में उद्धृत किया ही जाना चाहिए। इस तरह से एक प्रतीत होती हुई बात को पंकज चतुर्वेदी आलोकधन्वा की ओर से कही जाने वाली इस बात से इसका औचित्य सिद्ध करवाते हैं।

बहरहाल, हर रचना में ऐसी विसंगतियाँ होती ही हैं और जबकि यह संवाद अपने आप में एक 'रैरिटी' है, इसको एक विधा में और स्थापित होने में कुछ वक़्त लगेगा। एक कवि के ‘आँसू और रौशनी’ को उसकी आँखों और कमरे से उठाकर बाहर लाया गया है। इस प्रयास का स्वागत है। यह ऐसी नींव की ईंट है जिस पर आने वाले समय में ऐसी विधा और फूलेगी, चमकेगी और कई जिज्ञासाओं का जवाब देती हुई स्थापित होगी। अंत में, हर पाठक की अपनी क्षमताएँ होती हैं। वह जितना देख सकता है देखता है, धीरे-धीरे दृष्टि और चेतना के विकास के क्रम में हो सकता है कि आगे फिर पढ़ें तो उसे कुछ और नया मिले। जैसा कि आलोकधन्वा भी मानते हैं : ‘‘जितने हम लायक़ हैं, उतना ही सुन पाते हैं!… और कम सुन पाते हैं, तो इतना जीवन पाते हैं। पूरा सुन पाते, तो कितना जीवन पाते!’’

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