‘अँधेरे में’ कविता में स्वाधीनता आंदोलन का अतीत है

‘अँधेरे में’ कविता में स्वाधीनता आंदोलन का अतीत है

मुक्तिबोध और ‘अँधेरे में’ पर मैनेजर पांडेय और अर्चना लार्क की बातचीत :

अर्चना लार्क : ‘अँधेरे में’ कविता को अतीत और वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में किस तरह देखा जा सकता है?

मैनेजर पांडेय : ‘अँधेरे में’ कविता में स्वाधीनता आंदोलन का अतीत है। उसमें तिलक मौजूद हैं। गांधी बहुत ही शिद्दत से मौजूद हैं। गांधी के माध्यम से भविष्य की चिंता है। गांधी जी का जन आंदोलनों का जो तरीक़ा है, उसका उसमें समर्थन भी है। यही नहीं विदेश के कुछ अतीत के भी प्रसंग हैं, तोलस्तोय उसमें आते हैं। तोलस्तोय उसमें एक महान उपन्यासकार हैं। मुक्तिबोध उनकी संवेदना से अपनी कविता में संवेदना की समानता दिखलाते हैं। जहाँ तक वर्तमान का संदर्भ है, तो पूरी कविता में वर्तमान के तीन पक्ष हैं। पहला तो यह कि मध्यवर्ग के अवसरवाद की निर्मम आलोचना है—उस कविता में। मुक्तिबोध कई बार अलग से भी लिख चुके थे कि आज़ादी के बाद हिंदुस्तान का मध्यवर्ग अवसरवादी हो गया है। अब जब मध्यवर्ग अवसरवादी होगा तो जनता की चिंता और उसकी बेहतरी की कोशिशें कैसे आ सकती हैं—उस अवसरवाद के भीतर। इसके बाद भी एक बात और है कि जनता अपने वर्तमान के शोषण, दमन से परेशान होकर भविष्य की बेहतरी के लिए भी कोशिश करती है। इसलिए उसमें एक जन क्रांति का चित्रण भी है। इसलिए सारांश के रूप में कहा जा सकता है कि ‘अँधेरे में’ कविता में अतीत है, वर्तमान है और भविष्य की चिंता भी है।

अर्चना लार्क : ‘अँधेरे में’ कविता का विश्लेषण भारतीय काव्य निकष‍ के अनुसार किस हद तक किया जा सकता है?

मैनेजर पांडेय : ऐसा है कि भारतीय काव्य निकष‍ मुख्यत: भाव पर आधारित है। मुक्तिबोध की कविता बौद्धिक कविता है। इसलिए भारतीय काव्य निकष के आधार पर परीक्षण, मूल्यांकन व्यवस्थित और विस्तार से नहीं हो सकता है। कुछ भारतीय काव्य शास्त्र के प्रेमी लोग उसमें कुछ चीज़ें खोज सकते हैं। जानकार व्यक्ति, ध्वनि सिद्धांत की खोज कर सकता है। ज़िद करनी हो तो अलंकार भी खोज सकता है। लेकिन इससे उस कविता की अर्थवत्ता की ठीक से व्याख्या नहीं हो सकती है।

अर्चना लार्क : कविता को दर्शन, मानसिक परेशानी की अभिव्यक्ति, रचनाकार की जीवन-शैली का निचोड़, अभिव्यक्ति की गझिन सघनता के प्रचलित आयामों से इतर रूप में किस तरह से देखा जा सकता है?

मैनेजर पांडेय : इन सभी पक्षों को जानने के बाद एक इतर रूप समझ में आता है। मुक्तिबोध की वह कविता व्यक्ति के रूपांतरण की कविता है। एक मध्यवर्गीय व्यक्ति कैसे धीरे-धीरे अपनी चेतना को बदलते हुए जनतांत्रिक चेतना का व्यक्ति बनाता है और बन सकता है। यही व्यक्तित्वांतरण की समस्या ‘अँधेरे में’ कविता की मुख्य समस्या है।

अर्चना लार्क : मुक्तिबोध की अन्य रचनाओं से ‘अँधेरे में’ किस आयाम के कारण विशिष्ट साबित होती है?

मैनेजर पांडेय : मुक्तिबोध की अनेक कविताओं में वे समस्याएँ मौजूद हैं जो ‘अँधेरे में’ कविता में भी हैं। उनकी एक कविता है—‘चकमक की चिनगारियाँ’। यह बहुत अच्छी कविता है, पर ‘अँधेरे में’ कविता की विशेषता उनकी अन्य कविताओं की विशेषता से दो-तीन वजहों से अलग है। पहली विशेषता कि यह व्यापक फ़लक पर लिखी गई महाकाव्यात्मक आयाम की कविता है, जिसकी संरचना में नाटकीयता भी है और प्रगीत का भी समावेश है। ‘अँधेरे में’ कविता के भीतर कविताएँ हैं। इसमें एक प्रसिद्ध गीत भी है, जो मध्यवर्ग की आलोचना करता है : 

‘‘ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धांतवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!’’

यह जो मध्यवर्ग के अवसरवाद की और संकीर्ण मानसिकता की आलोचना है, यह उस कविता का हिस्सा है; पर स्वतंत्र कविता के रूप में भी यह महत्त्व का साबित होता है। मुक्तिबोध की इस कविता में और भी कविताएँ हैं। दूसरी बात यह है कि इसमें भविष्य-दृष्टि भी बहुत है—व्यापक भविष्य-दृष्टि। 

अर्चना लार्क : मुक्तिबोध के प्रकृति पर्यवेक्षण और उससे जुड़ी अभिव्यक्ति को किस ढंग से देखा समझा जाना चाहिए? वह अपनी रचनाओं में जिस ढंग से प्रकृति के अवयवों को लाए हैं, उससे रचनाकार की किस दृष्टि का संकेत मिलता है?

मैनेजर पांडेय : यह अलग से कहने की अवश्यकता समझ में नहीं आती कि मुक्तिबोध मार्क्सवादी चेतना के कवि थे और मार्क्सवाद जीवन को समग्रता में देखता है। मनुष्य के जीवन का कोई पक्ष ऐसा नहीं है जो दूसरे पक्ष से न जुड़ा हो। नितांत व्यक्तिगत लगने वाली बात भी राजनीतिक घटना बन सकती है। सामाजिक घटना बन सकती है। इसीलिए मुक्तिबोध इसी समग्रताबोध के साथ भारतीय समाज, उसकी परिस्थिति उसकी परिणति आदि-आदि को देखते हैं। यही उनकी दृष्टि की व्यापकता भी है। समाज के साथ प्रकृति का संयोग उनकी व्यापक दृष्टि की तरफ़ संकेत देता है।

अर्चना लार्क : मुक्तिबोध की गहन रचनात्मकता के संबंध में विभिन्न प्रकार की राय प्राप्त होती है। आपकी दृष्टि में मुक्तिबोध के रचनात्मक व्यक्तित्व को किस रूप में देखा जा सकता है?

मैनेजर पांडेय : मुक्तिबोध मार्क्सवादी चेतना के चिंतक भी हैं, कवि भी हैं और इसीलिए उनकी सभी रचनाओं में सभी तरह की रचनाओं से मेरा मतलब है कि मुक्तिबोध ने तीन तरह का लेखन किया है—कविताएँ लिखी हैं, कहानियाँ लिखी हैं, एक ‘विपात्र’ नाम का उपन्यास भी लिखा है। सबमें मुक्तिबोध भारतीय समाज की समस्याएँ, जन-जीवन की वास्तविकताओं, उन समस्याओं और वास्तविकताओं के साथ आम जनता के संघर्ष और उस संघर्ष में सहभागी बनने वाले लोगों की क्रियाशीलता मुक्तिबोध की रचनाओं का मुख्य विषय हैं। 

अर्चना लार्क : मुक्तिबोध ने सौंदर्य और रचना प्रक्रिया के संबंध में अपनी अवधारणा बताते हुए संवेदनात्मक उद्देश्य पर अधिक बल दिया है। उनकी ‘अँधेरे में’ कविता का संवेदनात्मक उद्देश्य क्या समझा जाना चाहिए?

मैनेजर पांडेय : मुक्तिबोध यह मानते थे कि ज्ञान और समझ की प्रक्रिया होती है। यह दो तरह से निर्मित होती है और अनुशासित होती है। एक को वह संवेदनात्मक ज्ञान कहते थे और दूसरे को ज्ञानात्मक संवेदन कहते थे। असल में होता क्या है कि आप कुछ चीज़ें महसूस करते हैं फिर उसके बारे में सोचना शुरू करते हैं। महसूस करने से सोचने की जो प्रक्रिया शुरू होती है, उससे जो ज्ञान प्राप्त होता है उसको मुक्तिबोध संवेदनात्मक ज्ञान कहते हैं, और जो चीज़ें जानी हुई होती हैं और उन जानी हुई चीज़ों से जो भाव और संवेदना पैदा होती है उनके योग को मुक्तिबोध ज्ञानात्मक संवेदन कहते हैं। मान लो कि कोई इंसान गाँव गया और उसने देखा कि कितना जाति-भेद है, जड़ता है; उससे समाज के बारे में नई संभावनाएँ बनती हैं। नई मानसिकताएँ बनती हैं। इसको मुक्तिबोध ज्ञानात्मक संवेदन कहते हैं। संवेदनात्मक उद्देश्य अनुभव का, अनुभव से पैदा हुए भाव का, भाव से पैदा हुए ज्ञान का उद्देश्य मुक्तिबोध के अनुसार सामाजिक होना चाहिए। सामाजिक होने का मतलब है कि जो समाज में शोषित हैं, पीड़ित हैं, जो दुखी हैं, जो पराधीन हैं; उनकी मुक्ति होनी चाहिए। मुक्तिबोध ने एक कविता में लिखा है : 

‘‘समस्या एक—
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी, सुंदर व शोषण-मुक्त
कब होंगे?!’’

यही उनके सामने सबसे बड़ी समस्या थी। यही चिंता ‘अँधेरे में’ कविता में उनकी है।

अर्चना लार्क : मुक्तिबोध की रचनाओं में मिलने वाला खुरदुरापन उनके जीवन के किस आयाम का परिणाम समझा जा सकता है?

मैनेजर पांडेय : पहली बात तो यह कि मुक्तिबोध मराठी भाषी व्यक्ति थे। उनकी मातृभाषा मराठी थी। हिंदी सीखी थी उन्होंने। सीखी हुई हिंदी में वह सहजता नहीं होती जो मातृभाषा वाली सहजता होती है। दूसरी बात यह है कि आधुनिक काल के अनेक कवियों ने यह महसूस किया है, बंगाल के प्रसिद्ध कवि हैं सुकांत भट्टाचार्य उन्होंने लिखा है कि एक भूखे आदमी के लिए चाँद एक सुलझी हुई रोटी है। यही नहीं उन्होंने लिखा कि कठिन, कठोर गद्य लाओ, माने यह जो बहुत कोमल ललित क़िस्म की भाषा होती है, उसमें कठोर वास्तविकता की ठीक-ठीक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है। जीवन ही जब खुरदुरा हो तो जिस माध्यम से वह व्यक्त होगा कविता में, चित्र में तो उसमें भी खुरदुरापन होगा। 

अर्चना लार्क : ऐसा लगता है कि ‘अँधेरे में’ कविता में आने वाले राजनेताओं के प्रति मुक्तिबोध की गहरी आस्था थी, लेकिन उन्होंने उन लोगों को जिस ढंग से प्रस्तुत किया है; उससे किस आशय को ग्रहण किया जा सकता है?

मैनेजर पांडेय : ‘अँधेरे में’ कविता में दो राजनेता मौजूद हैं—एक तिलक हैं। तिलक की विचारधारा में अनेक जटिलताएँ हैं, पर यह निर्विवाद बात है कि वह पक्के साम्राज्यवाद विरोधी नेता थे। मुक्तिबोध के ज़माने में भारत साम्राज्यवाद से जिस तरह साँठ-गाँठ कर रहा था, अब पचास गुना बढ़ गया है। तिलक की मूर्ति की नासिका से ख़ून बह रहा है। ख़ून नासिका से तब बहता है किसी मनुष्य के जब उसका दिमाग़ दबाव में हो और चीज़ें बर्दाश्त के क़ाबिल न हों, उससे जो तनाव पैदा होता है; उससे ख़ून बहता है। तिलक की मूर्ति का जो चित्र उन्होंने प्रस्तुत किया है, उससे लगता है कि तिलक भारत की वर्तमान राजनीति से असंतुष्ट हैं। उससे अलग सबसे अधिक गांधी के प्रति मुक्तिबोध के मन में लगाव है, श्रद्धा है। इसीलिए गांधी उसमें कुछ बातें कहते हैं। कविता का वह हिस्सा याद होगा गांधी यह कहते हैं, हम लोग पिछले ज़माने के लोग हैं; यानी भविष्य का संघर्ष तुम लोगों को करना है, हम लोगों को जो करना था हम कर चुके। इसलिए हमें सिर्फ़ फॉलो करने की ज़रूरत नहीं है। गांधीवाद का जो हश्र हुआ है, उससे मुक्तिबोध ख़ुद बहुत दुखी थे। 

नए ब्लॉग

जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

पास यहाँ से प्राप्त कीजिए