मैं अनुवाद कैसे करता हूँ

मैं अनुवाद कैसे करता हूँ

अनुवाद भाषाओं और संस्कृतियों के बीच संगम का काम करता है। हिंदी में बहुत सारे अनुवाद हुए और हो रहे हैं। लेकिन एक समय हिंदी में एक ऐसी पूरी पीढ़ी पनप रही थी जो अँग्रेज़ी अनुवादों के माध्यम से संसार भर के साहित्य से प्रभावित हो रही थी और उसकी झलक अपनी रचनाओं में उभार रही थी। उन दिनों नए-नए वाद जन्म ले रहे थे, जिन पर अँग्रेज़ी में पढ़े ग्रीक, रोमन या जापानी साहित्य का असर नज़र आता था। अगर हम अँग्रेज़ी के ज़रिए संसार भर का साहित्य न पढ़ पाते तो हमारा मानस जो आज है, वह शायद न हो पाता। 

यों कहते हैं, ‘‘सबसे अच्छा अनुवाद वह है जिसमें अनुवाद की गंध तक नहीं हो; ताकि पाठक को ऐसा लगे कि वह मूल कृति ही पढ़ रहा है।’’ 

यह मेरा भी मूलमंत्र और उद्देश्य रहा है। मैंने भी बहुत अनुवाद किए हैं। पिछले तीस सालों से मैंने पेशेवर अनुवादक के रूप में काम नहीं किया है। थिसारस के लिए डाटा संकलन की ऊब से बचने के लिए ही मैं अनुवाद करता रहा हूँ। इसलिए मेरे कई पुस्तकाकार अनुवादों को किए जाने में और उनका प्रकाशन होने में कई साल लग जाते रहे हैं। मुझे परफ़ेक्शन की (पारमिता की) तलाश रहती है, भाषा से, शब्दों से खेलने में बार-बार सुधारने की लंबी प्रक्रियाओँ से गुज़रना पड़ता है। अँग्रेज़ी से या अँग्रेज़ी के माध्यम से मेरे दो बड़े और प्रकाशित काव्य-रूपांतर और अनुवाद हैं—‘विक्रम सैंधव’ (‘जूलियस सीज़र’ के मूल अँग्रेज़ी पाठ सहित हिंदी काव्य अनुवाद, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय), ‘फ़ाउस्ट : एक त्रासदी पहला भाग’ (भारतीय ज्ञानपीठ), ‘फ़ाउस्ट’ एक त्रासदी अविकल अनुवाद (पहला भाग और दूसरे भाग के पाँचों अंक) और संस्कृत से हिंदी में गद्य अनुवाद ‘सहज गीता’ (राधाकृष्ण प्रकाशन)।

यहाँ मैं अपनी लंबी अनुवाद प्रक्रिया के बारे में कुछ कहना चाहता हूँ। पहले मैं मूल पुस्तक के ज़ेरॉक्स प्रिंट निकलवा लेता हूँ। फिर हर पेज के सामने एक दो ख़ाली पन्ने जिल्द में इस तरह बँधवा लेता हूँ कि मूल पाठ बाईँ ओर हो और कोरे पन्ने दाहिनी ओर। (इससे यह लाभ होता है कि मूल पाठ हमेशा दिखाई देता रहता है।) पहली बार जो भी अनुवाद मन में आए, चाहे कविता हो या गद्य रूप में, वह सामने वाले कोरे पन्ने पर लिखता रहता हूँ। उसके पूरी तरह सही होने की परवाह नहीं करता। पूरी किताब का ऐसा अधकचरा अनुवाद हो जाने के बाद उठाकर रख देता हूँ। (कोई उसे देखे तो समझेगा कि मैं दोनों ही भाषाएँ नहीँ जानता!)। कुछ महीने बीतने देता हूँ। 

इसके बाद शुरू होता है दूसरा दौर। इस बार मैं अपने अधकचरे अनुवाद का मिलान मूल पाठ से करता हूँ। ढेर सारी ग़लतियाँ होती हैं—मूल से मेरे भटक जाने की। ये ग़लतियाँ सुधारता मैं पूरा पाठ सही-सही लिखने की कोशिश करता हूँ। यह रिवीज़न हो जाने के बाद फिर कुछ दिन मैं दिमाग़ को आराम देता हूँ। फिर से अपने समांतर कोश के डाटा में जुट जाता रहा हूँ। 

और फिर तीसरी बार रिवीज़न। इस बार दूसरे ड्राफ़्ट को जाँचता हूँ। पूरी तरह संतुष्ट होने की कोशिश करता हूँ। तीसरा दौर ख़त्म। 

इस तीसरे ड्राफ़्ट के आधार पर अब मैं अपनी स्वतंत्र रचना शुरू करता हूँ। उसके कई रिवीज़न करता हूँ। कुछ संतोष होने लगता है तो फिर मूल रचना से मिलाता हूँ। टाइप कराता हूँ या कंप्यूटर मेँ अंकित करता या करवाता हूँ। और फिर ठीक करता हूँ। तभी पाठक को लग सकता है कि वह मूल कृति ही पढ़ रहा है। अभी तक मेरे पास अलमारियों में मेरे किए हर अनुवाद के वे सब ड्राफ़्ट सुरक्षित हैं। हर किताब के ड्राफ़्ट अलग बोरे में बंद हैं। कभी मौक़ा मिला तो खोलूँगा...

14 जून 2015 को लेखक द्वारा फ़ेसबुक पर पूर्व-प्रकाशित

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