क्या होम्स ब्योमकेश का पुरखा था...!

क्या होम्स ब्योमकेश का पुरखा था...!

उपासना 08 अगस्त 2023

सारे दिन हवाएँ साँय-साँय करती रही। बारिश खिड़कियों से टकराती रही थी, जिससे इस विशाल लंदन में भी जो इंसानों ने बनाया है, हम अपनी दिनचर्या भूलकर प्रकृति की लीला के विषय में सोचने पर मजबूर हो गए थे। जो मानव जाति पर उसकी सभ्यता के सींकचों से चीख़ रही थी। मानों पिंजरे में बंद कोई हिंसक पशु हो। शरलॉक होम्स, आग के पास बैठा क्लार्क रसल की बेहतरीन समुद्री कथाएँ पढ़ने में डूबा हुआ था। 

इस दृश्य ने मुझे घेर लिया। दूर सोसायटी के गेट पर खंभों से लिपटी नीली-हरी-बैंगनी रोशनी की लताएँ हैं। कारें क़तार से चुपचाप खड़ी हैं। नीम की पत्तियों पर स्ट्रीट लाइट का झक्क प्रकाश है... और ताबड़-तोड़ होती बारिश है। तेज़ हवाएँ नीम की शाख़ों को झकझोर रही हैं और लोग कह रहे हैं कि मई के महीने में गर्मी बादलों के बीच कहीं भटक गई है। उसे बाहर आने का रास्ता ही नहीं मिल रहा। यह मेरे दिल में एक छोटा-सा ख़याल था कि होम्स और ब्योमकेश में कितनी समानताएँ हैं। क्यों न इन पर कुछ लिखा जाए? लिखा जाए तो क्या लिखा जाए?

बेतरतीब कुछ नोट्स इधर-उधर लेती रही, पर लिखने की कोशिश करते हुए कोई शक्ल तैयार नहीं हो पा रही थी। कई बार लगा दफ़ा करो, ऐसा भी कौन-सा अंतराराष्ट्रीय महत्त्व का दस्तावेज़ तैयार होना है, जिसे न पढ़कर दुनिया मनुष्यता के सबक़ भूल जाएगी। पर कॉपी और पेन को इस ख़याल के साथ कोने में धकेल देने पर एक नामालूम-सी बेचैनी घेरने लगती है, जैसे कोई ख़याल भीतर बारहा उठने की कोशिश कर रहा हो; और मैं थपकियाँ देकर उसे सुला रही हूँ। आख़िरकार आजिज़ आकर सोचा, ठीक है, तुम जग ही लो अच्छे से। फिर तुम्हारी ख़बर ली जाए। गाँव-देहातों में एक बात कही जाती है, जिसका लब्बो-लुआब यह है कि अमुक को देखकर आँखें फूटे, अमुक बिना रहा भी न जाए... 

बेतरतीब ज़िंदगी में कुछ बेतरतीब नोट्स भी सही

जून की तपिश पर बारिश की फुहार शुरू ही हुई होती थी, झुलफुलाह के वक़्त रिक्शा क्वार्टर के सामने रुकता था। एकाध दिनों में स्कूल खुल जाने थे, यह कुछ सामानों से भरा क्वार्टर और कुछ गायें जिन पड़ोसी के भरोसे छोड़ी जाती थीं, वे उनींदी आँखों से दरवाज़ा खोलते थे। माता-पिता के लाख इसरार के बावजूद कि यहीं बाहर कमरे में सोए रहो, हम दूसरे कमरे में चले जाते हैं, वे प्रणाम-पाती कर निकल जाते। कमरे में जो चीज़ सबसे पहले पकड़ में आई अब जानती हूँ कि वह विह्स्की की गंध थी। भारी, पूरे कमरे को गिरफ़्त में लिए। पर उस समय इस गंध की चर्चा इतनी अवांछित थी कि महज़ यह पूछने पर यह गंध कैसी है? लोग इधर-उधर हो जाते। पर इस गंध के अलावा भी एक चीज़ थी जो मेरे आकर्षण का केंद्र थी, वेद प्रकाश शर्मा की मोटी ज्ञानवर्धक पुस्तकें। उम्र इतनी हो चुकी थी कि अब इन किताबों का अर्थ समझने लगी थी। ‘लत पड़ जाएगी’ के भय से बड़े अक्सर इन्हें छिपाकर रखते-पढ़ते। पर झुलफुलाह के उस हड़बड़ी भरे वक़्त में जब सभी यात्रा के सूटकेस, समान-असबाब ठिकाने लगा रहे होते, तब तक इन एकाध पड़ी किताबों को मैं सुरक्षित कोना पकड़ा चुकी होती थी। 

पहले-पहल सिर्फ़ वेद प्रकाश शर्मा मिले। उनको निपटाते-निपटाते कहीं से सुरेंद्र मोहन पाठक मिल गए। और भी मिले पर उस नितांत अपरिपक्व और हठीली समझ में वेद प्रकाश शर्मा ही ज़रा बेहतर लगे थे। इस मामले में गाँव समृद्ध था। हरी दीवारों वाला छोटा कमरा, कमरे से लगे आँगन में सीधी खड़ी सीढ़ियाँ आकाश में पहुँचती-सी प्रतीत होतीं। हरी दीवारों की खिड़की पर भारी कथा-ग्रंथ ढेर की भाँति सजे थे। यह ढेर नितांत सेकुलर, खुले मिज़ाज का, छुआछूतरहित हुआ करता था। कौन नहीं था उस ढेर में—गुलशन नंदा, रानू, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक, केशव पंडित, इब्ने सफ़ी, अमृता प्रीतम से लेकर प्रेमचंद, शरतचंद्र, निराला, महादेवी तक। मिट्टी की कहतरी में लाल मलाई की परत के नीचे दही था। इस हुनर में कम ही औरतें बहुत माहिर थीं। असल बात धैर्य की हुआ करती थी। कहतरी को सावधानी से सँभाले मैं खिड़की से अक्सर कोई किताब खींच लेती। इस खींच लेने की दिनचर्या में एक दिन हाथ में ‘रीमा भारती’ आ गईं। अभी खोलकर देख ही रही थी कि तमाम जन असहज हो गए। चाचा लगभग चिल्ला ही पड़े, ‘उ रहे दे, दूसर देख!’ दूसरी किताब ले तो ली, लेकिन दिमाग़ में कीड़े रेंगने लगे थे ‘साला है क्या उसमें!’ कुछ दिनों बाद ही यह सुअवसर हाथ लगा। जेठ की दुपहरिया थी। गोतिया के वही चाचा पहुँचे थे। तब हमारे मिट्टी के घर में आरामदायक ठंडक हुआ करती थी। दुआर पर महुआ का घना पेड़ था। पेड़ के नीचे फूस और छप्पर की पलानी थी। नंगी खाट पर लेटने से पहले वह लोटा भर पानी मँगाकर पीते। कँधे पर पड़ी गमछी इत्मीनान से सिर के नीचे आ टिकती और उपन्यास का श्रीगणेश होता। इन्हीं किन्ही दुपहरियों में नींद में ग़ाफ़िल पाठक महोदय की छाती से फिसलकर उपन्यास गिरा पड़ा था। मेरे लिए यह मौक़ा था। पढ़ने में गति अच्छी हो चुकी थी सो आधे घंटे में ही ‘रीमा भारती’ देवी के कारनामे खुलने लगे थे। अजीब-सा भय और जुगुप्सा महसूस होने लगी थी। 

‘है क्या यह औरत!’ 

वह दिन था कि आज का दिन.... फिर कभी रीमा जी के दर्शन की इच्छा नहीं हुई। उन दिनों का ही एक क़िस्सा सुना था। पिता बताते थे कि सन सत्तासी-अट्ठासी की बात होगी। बख़्तियारपुर स्टेशन का एक दीवाना जो सिर्फ़ दुपहर के खाने पर, तथा रात को सोने घर जाता था। बाक़ी उसका पूरा वक़्त पियरलेस की एजेंटी के अलावा बख़्तियारपुर स्टेशन पर चाय पीते और जासूसी उपन्यास पढ़ते गुज़रता था। कहते हैं कि एक बार एजेंटी के काम से वह कानपुर गया था। लौटते वक़्त ट्रेन में उसके पास कोई नया उपन्यास नहीं था। न पर्याप्त पैसे ही थे। आख़िर में उसने किसी प्रकार जुगाड़ बिठाकर अपनी पहनी हुई शर्ट बेची तथा उन्हीं पैसों से उपन्यास ख़रीदे और पढ़ता घर आया। एक और मज़ेदार बात है कि उन्हीं दिनों मेरी युवा चाची किसी तवायफ़ की ज़िंदगी पर लिखा उपन्यास पढ़ रही थीं और घर में छोटा-मोटा सा हल्ला ही मच गया था। जब एक दिन वह उपन्यास पढ़ते-पढ़ते रोने लगीं और रोते-रोते मूर्च्छित हो गईं... होश में आने के बाद वह देर तक यही बड़बड़ाती रहीं—‘ए बाछी! बड़ा दुख बा जीवन में।’ और पता है शरलॉक होम्स क्या कहता है, ‘माय डियर वाटसन! काम ही दुख की सबसे बड़ी औषधि है।’ 

शरलॉक होम्स से परिचय ज़रा देर से हुआ। परिचय होने के बाद समझ में आया कि जासूसी और रहस्य कथाओं के नाम पर मैंने अब तक भोंडी नक़लें, सतही, सस्ती और नितांत अकलात्मक चीज़ें देखी हैं। ब्योमकेश को शरलॉक होम्स से काफ़ी पहले जानना हुआ था। बासु चटर्जी के निर्देशन में बने टेलीविज़न सीरीज के माध्यम से। नब्बे के दशक का बचपन होने के बावजूद, रेडियो कभी मेरी स्मृति, मेरे अनुभव में रहा ही नहीं। टी.वी. बहुत देर से घर आया। एक चीज़ था अख़बार। इधर-उधर अड़ोस-पड़ोस से मिली कॉमिक्स, बाल पत्रिकाएँ, गृहणियों की पत्रिकाएँ, सत्यकथा तथा सरस सलिल जैसी चटक पत्रिकाएँ आदि इत्यादि। ...तो हमेशा मेरे लिए कहानी पढ़ना—कहानी देखने या कहानी सुनने से अधिक लक्ज़री चीज़ रही है। और ईमानदारी से कहूँ तो आज भी यदि किसी उपन्यास पर फ़िल्म बनी हो तो बजाय देखने के मैं उस उपन्यास को पढ़ना अधिक पसंद करती हूँ। ब्योमकेश बक्शी और शरलॉक होम्स की कहानियाँ तक़रीबन एक साथ ही पढ़ने को मिली मुझे। इस आलेख को लिखने से पूर्व मुझे यह इच्छा हो रही थी कि कोई इम्तिहान के पर्चे पर मुझे प्रश्न लिखकर दे कि शरलॉक होम्स और ब्योमकेश बक्शी का चरित्र-चित्रण कीजिए। तथा दोनों का तुलनात्मक अध्ययन कीजिए। कुछ भी इनके विषय में लिखने से पूर्व मैं यह याद रखना चाहती हूँ कि सबसे पहले रहस्य की नई साहित्यिक शैली लिखने की उपलब्धि एडगर एलन पो के हिस्से दर्ज है। यद्यपि रहस्य-रोमांच कोई बिल्कुल ही नया साहित्यिक रूप नहीं था, तथापि तर्क तथा बुद्धिमतापूर्ण क्रम के रूप में यह सर्वथा नया था। जैसा कि पो भी अपनी इस कहानी ‘The Murders In The Rue Morgue’ को ‘Tales of logical reasoning’ कहते हैं। वह एडगर एलन पो ही थे, जिन्होंने सबसे पहले एक चरित्र का परिचय दिया जिसने मामले के ज्ञात तथ्यों का विश्लेषण करके रहस्य सुलझाया था। 

सर आर्थर इग्नाशियस कॉनन डायल जिन्होंने शरलॉक होम्स को रचा, मेडिकल कॉलेज के अपने एक प्रोफ़ेसर डॉ. जोसेफ़ बेल से बहुत प्रभावित थे। मरीज़ की उपस्थिति में उसके व्यवहार तथा शारीरिक बनावट का निरीक्षण करके रोगी के व्यवसाय तथा अन्य व्यक्तिगत विवरणों की सटीक जानकारी दे देते थे। कॉलेज के अलावा कॉनन डायल ने कुछ वक़्त तक एडिनबर्ग की रॉयल इन्फ़ॉर्मरी में उनके क्लर्क के रूप में भी काम किया। जिससे डायल को डॉक्टर बेल के तरीक़ों को और क़रीब से जानने का मौक़ा मिला। होम्स के चरित्र को रचते हुए लेखक ने अपने गुरु के इन गुणों का पूरा उपयोग किया। जैसा कि होम्स अपने विषय में स्वयं कहता है, ‘मेरे लिए हर चीज़ का ग़ौर से निरीक्षण करना मेरी दूसरी प्रवृत्ति बन चुकी है।’ वह स्वयं को सलाहकार जासूस कहता है। वहीं ब्योमकेश बक्शी को जासूस कहा जाना पसंद नहीं। वह स्वयं को सत्यान्वेषी कहता है, अर्थात् सत्य की खोज करने वाला। हालाँकि कठिन रहस्यों को सुलझाने तथा परिणाम जान लेने की हवस दोनों की एक-सी है। दोनों आगंतुक के पहनावे, चेहरे और चाल-ढाल को परखकर उस पर टिप्पणी देकर पहली बार में ही अपने मुवक्किल को चौंकाने में माहिर हैं। दोनों तर्क आधारित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। वे नायक हैं, किंतु इससे बचते हैं। निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, निष्कर्ष उनके अन्वेषण प्रक्रिया के सोपान हैं। हालाँकि इस प्रक्रिया की गति अत्यंत तीव्र है। ब्योमकेश जिसे ‘नैतिक चरित्र’ कहता है, होम्स उसे गुप्त रहस्य कहकर संबोधित करता है। इन दोनों विशेषणों में समय और मानसिकता दोनों का फ़र्क़ है। होम्स विक्टोरियन नैतिकता वाले युग का होते हुए भी अपेक्षाकृत संतुलित सोच तथा नैतिकता के दायरे को खुला रखने वाला चरित्र है। वहीं उसकी कहानियों में सनसनीख़ेज़ मसालों की बजाय घटनाओं का विवरण तथा चरित्र पर फोकस किया गया है। यहाँ एक लेखिका की चर्चा विषयांतर नहीं होगी, वह हैं Marie Belloc Lowndes. इनकी एक प्रसिद्ध कहानी है ‘The lodger’ A story of the London Fog. यह कहानी इस रूप में  याद की जाती है जो ऐसे मनोवैज्ञानिक सस्पेंस का परिदृश्य रचती है जिसके केंद्र में हत्या या हत्यारे से अधिक वह तनाव अथवा दबाव है जो हत्यारे के आस-पास के लोग झेल रहे हैं। इस भय की निर्मिति लेखिका ने बहुत कुशलता से की है। मानो सब कुछ साक्षात् घटित हो रहा हो। अमूमन जासूसी कहानियाँ हत्या की वीभत्स विधियों, अपराधी की चालबाज़ियों एवं हिंसा को रोमांच का केंद्र बनाते हैं। इसके ठीक उलट Marie Belloc Lowndes ने मानवीय प्रवृति की उत्तेजक भावनाओं को अपनी कहानी के केंद्र में रखा है। जो इसे अलग ही ऊँचाई देते हैं। वहीं होम्स या ब्योमकेश की कहानियाँ भी बेशक हत्या या ठगी की घटनाओं पर आधारित होती हैं, किंतु वे अश्लीलता या वीभत्सता नहीं रचतीं। इन कहानियों में अपने तौर अनूठा कलात्मक संस्कार है। 

शरलॉक होम्स झक्की है। कुछ खरा और साफ़ कहने वाला भी। ब्योमकेश अपेक्षाकृत विनम्र है। अपने युगीन मापदंडों के विपरीत दोनों को प्रबुद्ध, साहसी तथा आत्मविश्वासी स्त्रियाँ पसंद हैं। शरदेंदु बंद्योपाध्याय ने शरलॉक होम्स से प्रेरित होकर ही ब्योमकेश बक्शी का चरित्र गढ़ा होगा, किन्तु ब्योमकेश का होम्स से प्रेरित होना वैसा ही है, जैसे कोई गर्भवती स्त्री किसी सुंदर, हृष्ट-पुष्ट बच्चे को देखकर वैसी ही संतान की कामना करती है। अपने परिवेश तथा बनावट में ब्योमकेश कॉपी कैट न होकर पूर्णतः भारतीय संवेदनाओं और स्वतंत्र अस्तित्व धारण किया चरित्र है। बेशक ऑब्जर्वेशन करने की दोनों की अंतर्दृष्टि में काफ़ी समानताएँ हैं। विकीपीडिया की मानें तो ब्योमकेश बक्शी से प्रेरणा लेकर ही सत्यजीत रे ने निजी जासूस फेलूदा की रचना की। 

गहरी रात में अनजानी जगहों से होकर गुज़र रही रेलगाड़ी की पीली रोशनी में भूतिया कहानियों तथा जासूसी कथाओं का रोमांच मुझे बाँधता रहा है। वैसे भी लगातार अनावृत होती जा रही दुनिया में यही कुछ चीज़ें हैं जो निचले दर्जे की वृत्तियों के प्रति उत्सुक दिमाग़ को साहित्य के तथाकथित प्रतिबंधित क्षेत्र से कभी-कभी मनचाहा स्वाद देती हैं। मुझे इससे समस्या नहीं। ईमानदार स्वीकृतियाँ जीवन की सबसे आसान चीज़ें हैं। अस्ल में जो कुछ विचित्र है, वह स्मृति में अटका रहता है। युद्ध में हुई हिंसा असल में दिनचर्या सरीखी है। उनमें हिंसा तो है, किंतु उसका व्यक्तिगत बोध नहीं है। न उसका भय है। इस तरह देखें, लूटमार के उद्देश्य से भी की गई हत्याएँ घृणित अपराध तो अवश्य हैं, किंतु उनमें विशिष्ट कुचक्र जैसा कुछ नहीं है। वे मनुष्य की अतिक्रूर, गहरी कंदराओं से निकली ठंडी छुरी की चमक की भाँति सिहरन से नहीं भरतीं। किंतु हत्या या ठगी जो नितांत व्यक्तिगत कारणों से सोच-समझकर की गई हो, अशुभ दुख और अधीर भय से भर देती हैं। 

होम्स कहता है, ‘अजीबोग़रीब घटनाओं के लिए हमें जिंदगी में ही झाँकना चाहिए। जो कल्पना की किसी भी उड़ान से ज़्यादा रोमांचकारी है।’ 

भारत के चलताऊ सस्ते जासूसी उपन्यासों को पढ़ने के बाद जब होम्स और ब्योमकेश को पढ़ा है, तब इनके बीच का बड़ा अंतर साफ़-साफ़ दिखता है। इन दोनों के चरित्रों में विशिष्ट साहित्यिक आभा है। वे कहीं हल्के या उथले नहीं होते। क्रोध में उत्तेजित होने पर भी उनकी मानसिक चेतना मलिन नहीं होती। कथाओं के केंद्र में अपराध के बनिस्पत अपराधी व विशिष्ट मानवीय जटिलताएँ हैं। होम्स पढ़ता है। और बातों ही बातों में उसके द्वारा दिए जाने वाले किताबों के उदाहरण भी दिलचस्प हैं। वह Willion Winwood Read की किताब The Martyrdom of Man को अबतक की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक कहता है। इस किताब के प्रशंसकों में एच. जी. वेल्स, जॉर्ज ऑरवेल तथा विंस्टन चर्चिल भी हैं। आगे यह बताना भी गैरमौजूँ नहीं होगा कि कुछ लोगों के अनुसार यह पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता की महत्त्वपूर्ण किताब है। विनवुड रीड तथा चार्ल्स डार्विन के बीच अक्सर पत्राचार होता था। रीड द्वारा पुस्तक में अफ़्रीका के अनुभव विज्ञान के लिए कुछ रूपों में सहायक रहे। और इसमें राजनीतिक उदारवाद तथा सामाजिक डार्विनवाद के संदर्भ हैं। 

डार्विन का उल्लेख करते हुए शरलॉक होम्स (जो ख़ुद भी एक बेहतरीन वायलिन वादक है) कहता है कि ‘वह दावा करता है कि संगीत को उत्पन्न करने तथा उसकी तारीफ़ करने की क्षमता मनुष्य में वाणी से भी पहले उत्पन्न हो चुकी थी। शायद इसलिए हम संगीत से इतना प्रभावित होते हैं। हमारी आत्माओं में इन धुंध भरी शताब्दियों की धुंधली-सी यादें हैं। जब यह संसार अपने शिशुकाल में था।

जी हाँ, चार्ल्स डार्विन महोदय को वर्तमान भारत सरकार ने पाठ्यक्रम से बेदख़ल कर दिया है। मानव उत्पति की उनकी नई थ्योरी क्या है पता नहीं। अलबत्ता सुना है कुछ विश्वविद्यालयों में जासूसी कथाओं के भारतीय नक़लची लेखक पढ़ाए जाएँगे। 

दूसरी ओर ब्योमकेश बक्शी भी अध्ययनशील चरित्र है। ‘विपदा का संहार’ कहानी में वह बहुप्रचलित भस्मासुर का उदाहरण देने के बजाय, फ्रेंकेस्टाइन को चुनता है। उसकी पसंदीदा लिस्ट में कुछ और भी किताबें हैं। जैसे वाल्टर स्कॉट की ‘ब्राइड ऑफ़ लेमरमूर’। 

लंदन का कोहरा 

प्राग को पहले पहल निर्मल वर्मा की नज़र से देखा। रस्किन बॉन्ड ने मसूरी के पहाड़, गलियाँ और चीड़ के ऊँचे पेड़ दिखाए। शरलॉक होम्स तथा डॉक्टर वाटसन के पीछे-पीछे दूर तक लंदन के कुहरे में घूमती रही हूँ। लंदन का ब्रिज, नहरें, खुले-सूने मैदान और उदास शामें! 

सितंबर की शाम थी और अभी सात भी नहीं बजे थे। पर दिन काफ़ी बेजान-सा था। और उस बड़े शहर में घना बरसने वाला कोहरा छाया था। सड़क पर जलते लैंप की रोशनी सड़क किनारे एक कमजोर गोले के रूप में चमक रही थी। दुकानों की खिड़कियों से बहती पीली चमक, भीड़-भाड़ वाली उस जगह पर धुएँदार माहौल में मिल गई थी। मेरे ख़याल से रोशनी की इन सँरी रेखाओं पर मंडराता कभी न ख़त्म होने वाला चेहरों का हुजूम बाद ख़ौफ़नाक और भुतहा जान पड़ रहा था—उदास चेहरे और ख़ुश चेहरे, थके हुए और ज़िंदादिल चेहरे, सारी आदमजात की तरह ये उदासी से रोशनी में आते और फिर उदासी में चले जाते।

मैंने कलकत्ता देखा है

ख़ास तौर पर बंगाल का पश्चिमी हिस्सा मेरी माँ का प्रिय रहा है। उसने कभी कलकत्ते को कलकत्ता नहीं कहा। वह हमेशा कैलकटा कहती थी। और ऐसा कहते हुए उसके चेहरे पर पुराने ज़माने के साक्षरों-सा गर्वबोध चमक उठता था। उसका बंगाल और बंगाली प्रेम मुझ पर एक दिव्य किस्म की स्मृति-सा छा गया है। और शायद यही वजह है कलकत्ता देखे होने के बावजूद ब्योमकेश और अजीत बाबू के साथ कलकत्ता घूमना अलग तरह का अनुभव रहा। कहानियों में ‘चाय के अड्डे’ के धुरंधरों का जैसा ज़िक्र हुआ है, उसे वही समझ सकता है जिसने बंगाल में चाय टपरी की धुआँधार बहसें और विश्लेषण सुने हों।


                                          

नए ब्लॉग

जश्न-ए-रेख़्ता (2023) उर्दू भाषा का सबसे बड़ा उत्सव।

पास यहाँ से प्राप्त कीजिए