कुँवर नारायण की कविता और नाटकीयता

कुँवर नारायण की कविता और नाटकीयता

अमितेश कुमार 19 सितम्बर 2023

नाटक केवल शब्दों नहीं, अभिनेता की भंगिमाओं, कार्यव्यापार और दृश्यबंध की सरंचना के सहारे हमारे मानस में बिंबों को उत्तेजित कर हमारी कल्पना की सीमा को विस्तृत कर देते हैं और रस का आस्वाद कराते हैं। जिस नाटक के बिंब-निर्माण की भाषा सशक्त होती है, उसके बारे में हम कहते हैं कि यह नाटक कविता हो गया है। श्रेष्ठ नाटक कविता के समान ही भाषा की व्यंजना शक्ति का, बिंबमयता का, सघनता का, तीव्रता का, संगीत और लय का, शब्द और अभिव्यक्ति की अनिवार्यता का उपयोग करता है। (नेमिचंद्र जैन : 1965) 

क्या कविता में भी नाटकीयता की संभावना हो सकती है? आख़िर कविता में नाटक की खोज क्या है? यहाँ स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि अभिप्राय काव्य या छंदबद्ध नाटकों से नहीं है। फ़िलहाल हमें इस लेख में कुँवर नारायण के दो काव्य-संग्रह ‘आत्मजयी’ और ‘वाजश्रवा के बहाने’ में निहित नाटकीयता पर बात करनी है। टी.एस. एलियट अपने निबंध ‘द थ्री वाइसेज ऑफ़ पोएट्री’ में लिखते हैं, ‘‘कवि की पहली आवाज़ वह आवाज़ है, जिसमें वह अपने आपसे बात करता है या किसी से नहीं। दूसरी आवाज़ वह आवाज़ है जिसमें वह छोटे या बड़े श्रोता समूह को संबोधित करता है। कवि की तीसरी आवाज वह है जब वह कविता की भाषा में बोलने वाले एक नाटकीय चरित्र को रचने की कोशिश करता है; जब वह कह रहा हो, वह नहीं जो अपने आपमें कहता हो, बल्कि केवल वही जिसे वह दो काल्पनिक चरित्रों की आपसी बातचीत के दायरों में रहकर कह सकता हो।’’ 

एलियट आगे कहते हैं कि इनमें पहली और दूसरी आवाज के बीच का जो अंतर है, वह काव्यात्मक संप्रेषण की समस्या है और दूसरी व तीसरी आवाज़ का बीच का जो फ़र्क़ है वह नाटकीयता, अर्द्ध-नाटकीयता और अनाटकीयता के बीच अंतर की ओर संकेत करता है। यहाँ यह कह देना मुनासिब होगा कि एलियट ने कविता और नाटक के संबंध पर विस्तृत विचार किया है। इस क्रम में वह नाटकों में रचित उन छंदों की नाटकीयता के सूत्र को समझने की कोशिश करते हैं जो नाटक में कविता को संभव बनाता है और जिसके काव्य को एक साधारण दर्शक भी महसूस करता है। 

ऊपर जो एलियट ने कहा है, उसका संबंध कविता के वाचन से जुड़ा है : आख़िर कविता किस तरह से संबोधित यानी कविता में वाचक कैसे बोलता है, किससे बोलता है। इसमें जब कविता के भीतर ही एक से अधिक किरदार आ जाते हैं तो एलियट के अनुसार वहाँ नाटकीयता संभव हो सकती है। इस मंतव्य के ज़रिए ‘आत्मजयी’ और ‘वाजश्रवा के बहाने’ में निहित नाटकीयता को आसानी से खोजा जा सकता है, क्योंकि एक तो यह दोनों खंडकाव्य है और इनमें एक से अधिक किरदार भी हैं और दोनों ही में अधिकांश कविता किसी न किसी संबोधन के ज़रिए है। 

‘आत्मजयी’ जैसा कि लेखक ने ही कहा है कि ‘कविता के माध्यम से कुछ विचार है जिसका एक स्रोत है ‘कठोपनिषद’ का प्रसंग जहाँ वाजश्रवा नचिकेता को मृत्यु को दान देते हैं। मृत्यु से साक्षात्कार के इस प्रसंग में ही नाटकीयता है, लेकिन नाटकीयता निर्मित करने का कवि का ध्येय नहीं है। कवि का ध्येय है सनातन से चली आ रही जीवन के सार्थकता के बिंदुओं पर विचार करना, मृत्यु के रास्ते से, जो नचिकेता के मन में चल रहा है। आत्मजयी और वाजश्रवा के बहाने में तीनों चरित्रों (नचिकेता, वाजश्रवा, यम) के बीच संवाद है, उनका एकालाप है, स्वगत भी है और इन के बीच स्वतंत्र रूप में वाचक के तौर पर कवि की उपस्थिति है। कविता में कौन बोल रहा है, इसकी योजना से कविता में नाटकीयता का समावेश होता है; एलियट की निष्पत्ति के तर्ज़ पर कह सकते हैं कि नाटकीयता का संकेत तो इन दोनों खंडकाव्यों की चरित्र-योजना में ही है।  

एलियट जो सूत्र बताते हैं उसके केंद्र में संवाद की उपस्थिति है, लेकिन नाटकीयता केवल संवादों से ही संभव नहीं हो सकती; उसके लिए जिस तत्त्व को ज़रूरी माना गया है वह है—‘संघर्ष’। पाश्चात्य नाट्यशास्त्र में ‘संघर्ष’ (Conflict)  में ही ड्रामा की मौजूदगी मानी गई है। नाटक में चाहे वह विरोधी परिस्थितियों से उपजा हो या एक पात्र की अन्य पात्रों से टकराहट या सामीप्य से उपजी परिस्थितियों से या एक ही पात्र के भीतर के संघर्ष से। कभी-कभी नाटक में बाहरी संघर्ष की अपेक्षा चरित्र के भीतर का आंतरिक संघर्ष अधिक ड्रामा संभव करता है।

शेक्सपियर के ‘ओथेलो’ में बाहरी घटनाक्रमों की भरमार है, लेकिन ‘ओथेलो’ की नाटकीयता का सबल पक्ष है ‘ओथेलो’ के भीतर का तनाव जिसके कारण परिस्थितयों का संघर्ष गहन होता गया है, फलस्वरूप नाटकीयता की भी वृद्धि होती है। शेक्सपियर के चरित्रों का यही आंतरिक संघर्ष जो मनुष्य की बुनियादी भावनाओं से उपजता है, उनके नाटकों को कालातीत बनाता रहा है। ‘आत्मजयी’ और ‘वाजश्रवा के बहाने’ में दोनों ही चरित्रों का आंतरिक संघर्ष है। अस्तित्व के जिन प्रश्नों से दोनों ही जूझते हैं, वह मनुष्य के अस्तित्व से जुड़े सनातन प्रश्न है। दोनों ही खंडकाव्यों में चरित्रों के भीतर के संघर्ष के अलावा बाहर का संघर्ष भी मौजूद है। ‘आत्मजयी’ के पीछे दूसरे विश्वयुद्ध का बाद के यूरोप का कवि के द्वारा देखा गया अनुभव भी है जो ‘आत्मजयी’ के नचिकेता के भीतर जिज्ञासाओं और बेचैनियों मे मौजूद हैं। वह अपने अस्तित्व को लेकर जूझ रहा है, और इससे चितनशील मनुष्य जूझता है।

मैं क्या हूँ
मैं क्या हूँ
मैं क्या हूँ

अपने पिता वाजश्रवा से धर्म-कर्म-संबंधी मतभेदों के परिणामस्वरूप अत्यंत खिन्न नचिकेता आत्महत्या के लिए अपने को पानी में डुबा देता है, लेकिन वह मरता नहीं। मरने से पहले पानी से बाहर अचेतावस्था में निकाल लिया जाता है। इसी अचेतावस्था में वह स्वप्न देखता है—यम से साक्षात्कार का। यह स्वप्न मिथक को वर्तमान में बरतने की आधुनिक युक्ति भी है। ‘आत्मजयी’ में नचिकेता के भीतर का संघर्ष है, मृत्यु से साक्षात्कार का जो जीवन को समझने के लिए है तो ‘वाजश्रवा के बहाने’ में पुत्र के लौट आने के बाद पिता वाजश्रवा का अपनी सीमाओं का स्वीकार बोध और उसके अस्वीकार के असमंजस का संघर्ष है।

मैं जिन परिस्थितियों में ज़िंदा हूँ
उन्हें समझना चाहता हूँ
वे उतनी ही नहीं
जितना संसार और स्वर्ग की कल्पना से बनती हैं
क्योंकि व्यक्ति मरता है
और अपनी मृत्यु में वह बिल्कुल अकेला है विवश
असान्त्वनीय

चौरासी वर्ष के पिता नचिकेता के लौटने पर अपने संघर्षों का हवाला देकर दोनों के जीवन की अभिन्नता की बात कहते हैं और यह जीवन के अंतिम पहर पर खड़े व्यक्ति का स्वाभिमान भी है जो अपने मन में कहीं अपने किए को स्वीकार करके जीवित है, लेकिन बाहर से अपना औचित्य साबित करना चाहता है। वह कहता है कि आयु के चौथे पहर में जीने का अर्थ समझना कठिन होता है और मृत्यु का सामना करने के लिए अपने चारों ओर प्रपंच की रौनक़ को बनाए रखना होता है : 

और यह पीढ़ियों का द्वंद्व 
जिससे हर भावी मनुष्य को ही उलझना है 
लाखों व्याख्याएँ संभव हैं पुरानों की
असंख्य दावे और मुक़दमे
        चलते रहेंगे अनंत काल तक :
                  और अंत में 
                 (विचित्र विरोधाभास है इस अंत में)
                                     फ़ैसला तुम्हें छोड़ना होगा
                                     फिर किसी अज्ञात नवागंतुक पर जो अभी जनमा नहीं

और यहाँ बाहरी संघर्षों की व्यर्थता पर भी एक संवाद है। यहाँ कविता एक सभ्यता-समीक्षा है और मानवता की उस होड़ पर विचार है जिसमें अकारण युद्ध हो रहे हैं, दुश्मनियाँ गढ़ी जा रही हैं और सब एक दूसरे को पीछे छोड़ने के लिए दौड़ रहे हैं... ऐसा क्यों है? और इमकी शाश्वतता मानव-सभ्यता के इतिहास में इतनी रही है फिर भी इससे सबक़ नहीं है, ये तनाव कविता की चिंता में आद्यंत मौज़ूद है :

दल और क़तारें बनाकर जूझते सूरमा 
         क्या जीतना चाहते हैं एक दूसरे को मारकर
         जबकि सब कुछ जीता
         हारा जा चुका है
        जीवन की अंतिम सरहदों पर

नचिकेता और वाजश्रवा इन दो चरित्रों के बीच परस्पर संघर्ष दो पीढ़ियों का और दो विचारों का भी संघर्ष है। संघर्ष के यह कई सिरे मिलकर नाटकीयता को संभव करते हैं इसका एक प्रमाण तब भी मिलता है जब दशकों के समयांतराल पर लिखे गए इन संग्रहों को साथ-साथ पढ़ते हैं तो इन संघर्षों का विरोधाभास नाटकीयता को और तीव्र बनाता है। इसे दोनों संग्रहों के बारे में दी गई कवि की सम्मतियों के ज़रिए भी पढ़ा सकता है। ‘आत्मजयी’ के बारे में कुँवर जी ने लिखा है कि “आत्मजयी मानव की शाश्वत दशाओं के बारे मे लिखा एक खंडकाव्य है जो मृत्यु के भय से उबरने और सार्थक जीने की उसकी भावना पर आधारित है।’’ यानी ‘आत्मजयी’ में दो विरोधी युग्म जीवन और मृत्यु हैं। ‘वाजश्रवा के बहाने’ की भूमिका में कहा गया है कि ‘आत्मजयी’ में यदि मृत्यु की ओर से जीवन को देखा गया है तो ‘वाजश्रवा के बहाने’ में जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की कोशिश है। दोनों ही खंडकाव्यों में कविता के बुनियादी विचार के लिए जीवन और मृत्यु का युग्म रचा गया है। इन दोनों ध्रुवांतों को आमने-सामने रखने से नाटकीयता संभव हुई है। युग्म की रचना और उनको आमने-सामने रखकर एक तनाव की रचना कविता की भाषा में भी दिखती है जो कई जगहों पर है। जैसे एक उदाहरण : 

मैं अपनी अनास्था में अधिक सहिष्णु हूँ।
अपनी नास्तिकता में अधिक धार्मिक।
अपने अकेलेपन में अधिक मुक्त।
अपनी उदासी में अधिक उदार

या यह हिस्सा जहाँ दो के बीच चयन का द्वंद्व है : 

तुम्हें यह संसार चाहिए? या वह?” 

    जब कहता “यह” तो पूछा जाता
              “वह क्यों नहीं?”
जब कहता “वह” तो पूछा जाता “यह” क्यों नहीं 

खीझकर वह जब कहता—“दोनों!” 
तो दोनों छिन जाते उससे...

कौतूहल नाटकीयता का एक अनिवार्य तत्त्व है। संस्कृत के आचार्यों ने भी कहा है कि नाटक में अद्भुत रस की उपस्थिति अवश्य रहनी चाहिए। इस रस की सृष्टि के लिए नाटकों में हमेशा कुछ न कुछ घटते रहने की संभावना की रचना की जाती है, जिससे दर्शक और पाठकों में एक कौतूहल होता है कि आगे क्या होगा? ‘आत्मजयी’ में इस लिहाज़ से घटनाएँ अधिक हैं—नचिकेता का पिता से सवाल, पिता का तिरस्कार, नचिकेता का आत्महत्या का प्रयास, यम का आगमन और उससे संवाद। ‘वाजश्रवा’ में घटनाएँ कम हैं—नचिकेता का वापस लौटना और पिता का आत्मबोध। दोनों ही खंडकाव्यों में पर्याप्त कार्य-व्यापार की उपस्थिति किसी भी रंग-निर्देशक को यह आश्वस्ति दे देगी कि वह इनको मंच पर सशक्त दृश्य-योजना के साथ प्रस्तुत कर सकता है, क्योंकि कविता की सरंचना में केवल स्थिरता ही नहीं गति की भी मौजूदगी है।

‘आत्मजयी’ की तीसरी कविता ‘वाजश्रवा का क्रोध’ का इस लिहाज़ से उल्लेख करना ज़रूरी है कि उसमें अचानक एक स्थिरता भंग होती है और जिसे नाटकीयता का स्फोट कहा जा सकता है, वह प्रकट होता है। नचिकेता को लगातार मिलती पिता की उलाहना का सिलसिला भंग होता है, अचानक कविता की ही योजना में एक वाक्य आता है—“मृत्यवे त्वां ददामि”। इस एक वाक्य की स्थिति यानी लोकेशन से कविता का क्रम भंग होता है और द्वंद्व का नाटकीय क्षण संभव होता है इस यह विवरण के साथ।– 

अकस्मात वज्र वाक्य
क्रुद्ध वाजश्रवा के वे क्रोध से धधकते शब्द, 
नचिकेता के कोमल अंतस पर 
छाप-सी झुलस आई—
मृत्यवे त्वां ददामि

गति भंग यानी स्थिति में परिवर्तन की सूचना कविता में रहस्यात्मक तरीक़े से भी होती है। नए घटनाक्रम का प्रवेश नाटकीयता से होता है जो कौतूहल से भरा होता है। आगे कविता में पता चलता है कि यह यम के प्रवेश का क्षण है जो अपने घावों से भरे हुए पाँव को घसीटते हुए आ रहे हैं, जिसके आभास से नचिकेता संशय से भर जाता है और फिर यम के बोल पढ़ने का विवरण देखिए :

लगता था मानो कहीं काल
विपरीत मंत्र पढ़ता जिससे
पृथ्वी अपना मुँह खोल-खोल
मुर्दों को उगले देती थी, 
ख़ाली जगहों में बढ़-बढ़कर
ज़िंदों को निगले लेती थी!

दोनों ही खंडकाव्यों में, जिसमें एकालाप अधिक हैं, सघन बिंबों की ऐसी रचना मौजूद है जो कविता की भाषा में दृश्य को संभव करती है। ऐसा लगता है कवि अपने अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिए पृष्ठभूमि के रूप में एक दृश्यबंध रचता है जिसके अगले सिरे पर घटनाएँ संभव होती है। कभी यह प्रस्तुति कविता की मंच पर हुई तो यह पृष्ठभूमि रंग-संकेतों का काम कर सकती हैं। जैसे नचिकेता के स्वप्न दृश्य का यह विवरण :

प्लावनकारी जल का आतंक फोड़ता-सा
बाहर निकला कुछ दूरी पर
छोटा-सा द्वीप—
गरजती लहरों से लड़ता।
तट पर दिखा नचिकेता को
कोई टूटा-फूटा मंदिर
अंदर प्रतिमा-सी दिव्य
एक तारा जैसे अंधियारे में 
देता प्रकाश धीमा-धीमा।

सभ्यता के द्वंद्व और जीवन-अनुभवों की टकराहटों के मिश्रण से नाटकीयता रची जाती है जो कभी दृश्य रूप में दिखता है तो कभी संवादों से सामने आता है। ‘आत्मजयी’ जहाँ घटनाबहुल है, वहाँ दृश्यों की नाटकीयता अधिक दिखती है। वहीं ‘वाजश्रवा के बहाने’ में जीवन पर विचार है और उसके दर्शन के सघन बिंब हैं तो वहाँ संवादों की नाटकीयता है।

‘आत्मजयी’ की रचना-प्रक्रिया के बारे में लिखते हुए कुँवर नारायण ने फ़िल्म-निर्माण की प्रक्रिया को याद किया है। फ़िल्म में भी दृश्यों की गहन रचना से नाटक पैदा किया जाता है जो इस खंडकाव्य में भी है। मृत्यु के प्रश्नों की जिज्ञासा का समाधान कवि को कठोपनिषद में मिलता है और कुँवर नारायण को शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ का संवाद याद आता है : ‘‘स्वर्ग और पृथ्वी पर बहुत सी चीज़ हैं होरेसियो, उन सबसे कहीं अधिक जितना तुम अपने दर्शन में सोच पाते हो।’’ नचिकेता की प्रश्नाकुलता के संदर्भ में क्या ये अकारण है कि कवि को ‘हैमलेट’ नाटक की याद आती है? जिसके काव्यमय संवादों का उल्लेख टी.एस. एलियट अपने एक प्रसिद्ध लेख ‘पोएट्री एंड ड्रामा’ में भी करते हैं। संघर्ष और तनाव, विरोधी युग्मों की विरोधाभासी छवि से निर्मित बिंब, सघन दृश्य-रचना, इत्यादि नाटकीयता के तत्त्व, जीवन-दर्शन के साथ मिलकर कविता की शक्ति को तो बढ़ाते हैं इसकी संप्रेषणीयता को भी बढ़ाते हैं। इस संदर्भ में यह कहना ज़रूरी लगता है कि कविता की आवृत्ति यानी इसके ज़ोर-ज़ोर से पाठ करने से दोनों ही खंडकाव्यों की सशक्त ध्वनि-योजना से नाटकीयता का व्यावहारिक अनुभव भी होता है।  

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