कुँवर नारायण की कविता और मुक्तिबोध की आलोचना-दृष्टि

कुँवर नारायण की कविता और मुक्तिबोध की आलोचना-दृष्टि

सुशील सुमन 19 सितम्बर 2023

मौजूदा समय के संकटों और चिंताओं के बीच जब हमें मुक्तिबोध याद आते हैं, तो न केवल उनकी कविताएँ और कहानियाँ हमें याद आती हैं, बल्कि उनका समीक्षक रूप भी शिद्दत से हमें याद आता है। मुक्तिबोध ने अपने आलोचना-कर्म (सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों क़िस्म की आलोचना) में जिस कठोर वस्तुनिष्ठता के साथ वर्तमान सभ्यता और समाज की गहरी छान-बीन की है, उसने उनके कवि-व्यक्तित्व के निर्माण और विकास में अनवरत एक दृढ़-स्तंभ की भूमिका निभाई है। मुक्तिबोध की व्यावहारिक समीक्षाओं में भी जो उनका साहित्यिक मानदंड और सामजिक सरोकार है, वह हमारे आज के परिवेश को बहुत मज़बूती से एड्रेस करता है। अपने समय की रचनाशीलता के प्रति जैसी उनकी सुस्पष्ट और निर्भ्रांत राय है, वैसी स्पष्टता समकालीन रचनाशीलता के प्रति हम आज के बहुत कम आलोचकों में देखते हैं। जयशंकर प्रसाद जैसे अपने पूर्ववर्ती कवि से लेकर रामधारी सिंह दिनकर, त्रिलोचन-शमशेर जैसे वरिष्ठ और हमउम्र कवियों या कुँवर नारायण जैसे अपेक्षाकृत नए कवि की कविताओं के प्रति उनकी पसंद-नापसंदगी के तर्कों और मानकों पर जब हम नज़र डालते हैं, तो पाते हैं कि सामाजिक सरोकार, राजनीतिक चेतना, मूल्य-बोध आदि के स्तर पर मुक्तिबोध का काव्य-बोध रचना से आलोचना तक कहीं नहीं डिगता। हमेशा बेहद सतर्क और संघर्षधर्मी नज़र आता है। मुक्तिबोध की इन आलोचकीय विशेषताओं से हमारी पीढ़ी, रचनाओं को समझने और सराहने का विवेक और हुनर अर्जित कर सकती है। यह सीख हमारे समय की मुश्किलों से लड़ने में हमारे लिए मददगार साबित होगी।

मुक्तिबोध ने कुँवर नारायण के कविता-संग्रह ‘परिवेश : हम-तुम’ पर एक लेख लिखा, जो कि ‘माध्यम’ के नवंबर,1964 के अंक में प्रकाशित हुआ। मुक्तिबोध कुँवर नारायण की कविताओं को पसंद करते थे। इस लेख में उन्होंने कुँवर नारायण की कविताओं की विशेषताओं पर विस्तार से बातचीत की है। सबसे पहले उन्होंने कुँवर नारायण के काव्य-शिल्प पर बात की है। इस आरंभिक कविता-संग्रह में ही कुँवर नारायण जी ने ऐसी काव्य-कला अर्जित कर ली थी, जिसने मुक्तिबोध को बख़ूबी आश्वस्त किया। मुक्तिबोध उनकी कविताओं के शिल्प-पक्ष की विवेचना करते हुए लिखते हैं, ‘‘कवि कुँवर नारायण ने अपना एक शिल्प विकसित कर लिया है, जिसमें कहने की सादगी, संवेदना की तीव्रता, रंगों की गहराई और ख़यालों की लकीर साफ़-साफ़ उभरकर आती हैं। फलतः, न केवल आत्म-पक्ष का वरन् बाह्य-पक्ष का भी चित्रण हो जाता है। मुख्य बात यह है कि रंगों की गहराई में ख़यालों की लकीरें खो नहीं जातीं; एक भाव का दूसरे भाव से जो अंत:संबंध है, वह स्पष्ट प्रस्तुत होता है। ...और, यदि मैं अपनी व्यक्तिगत शब्दावली में कहूँ तो, उसका तकनीक वस्तुतः जनतांत्रिक है। कवि की पीड़ित अंतरात्मा और व्यथित विवेक-चेतना की अभिव्यक्ति के लिए ऐसी ही शिल्प-व्यवस्था की ज़रूरत थी।’’ कुँवर नारायण की काव्य-यात्रा के अपेक्षाकृत प्रारंभिक चरण में ही उनके शिल्प की इतनी गहरी पहचान, मुक्तिबोध की सूक्ष्म आलोचनात्मक दृष्टि के संग-संग, कुँवर नारायण जी द्वारा तभी हासिल कर ली गई उनकी काव्यात्मक प्रौढ़ता का पता देती है।

ज़ाहिर है कि मुक्तिबोध केवल काव्य-शिल्प से प्रभावित होकर कुँवर नारायण को एक महत्त्वपूर्ण कवि के रूप में रेखांकित नहीं कर रहे थे, काव्य-संवेदना के स्तर पर भी कुँवर नारायण की कविताओं से वे गहरे प्रभावित थे।  एक सार्थक जीवन के प्रति कुँवर नारायण के दृष्टिकोण तथा उनके मानक की विवेचना करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं :

‘‘कुँवर नारायण की कविता में अंतरात्मा की पीड़ित विवेक-चेतना और जीवन की आलोचना है। एक ओर जब कि कवि यह कहता है :

कि या तो अ ब स की तरह जीना है,
या सुकरात की तरह ज़हर पीना है!

तब यह कहकर वह आज की एक अत्यंत गहन मानव-समस्या पर दृष्टिपात कर रहा है। किंतु [वह] शायद यह भी जानता होगा कि इन दो ध्रुवों के बीच एक हालत है—ज़हर पीने के बहुत-बहुत पहले से सुकरात की तरह जीना।’’

मुक्तिबोध के लिए केवल सुकरात की तरह ज़हर पी लेना ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि सुकरात की तरह जीना ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। कहना न होगा कि किसी भी समय में सुकरात की तरह जीने के लिए,  हरदम ज़हर पीने के वास्ते तैयार रहना ही होगा।

मुक्तिबोध, कुँवर नारायण की कई जगहों पर कठोर आलोचना भी करते हैं। ख़ासकर उनके सामाजिक विश्लेषण की। वह लिखते हैं, ‘‘मैं बहुत बड़ी ग़लती करूँगा यदि यह न कहूँ कि अपने परिवेश का, अर्थात् समाज और सभ्यता का, जो विश्लेषण उसके पास है, वह अपूर्ण, विकृत और असंगत है। मैं उस विश्लेषण की बात कर रहा हूँ जो काव्य में प्रकट हुआ है। ...पीड़ित विवेक चेतना के लिए यह भी आवश्यक है कि वह सही-सही बौद्धिक विश्लेषण करे। यदि कुँवर नारायण किसी अन्य प्रकार के कवि होते, तो मेरे लिए, शायद यह कहना आवश्यक न होता।’’

इसके साथ ही वहाँ मुक्तिबोध कवि की खुलकर तारीफ़ भी करते हैं, जहाँ कुँवर नारायण लाखों दिलों की ख़ुशी की कामना करते दिखाई देते हैं :

सीले, व्यथावादी अक्षरों के बीच
ताज़ी धूप आने दो :
इन्हें लाखों दिलों की ख़ुशी में
जी भर नहाने दो।

इन पंक्तियों की व्याख्या करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं : 

‘‘मुझे, व्यक्तिशः, इस बात की बहुत ख़ुशी है कि लेखक ‘लाखों दिलों’ से चौकन्ना है। यही नहीं, कवि के अंत:करण में जो एक गहन दुख-भाव है, वह उसे जन-जन से हटाकर एकांत में बंद कर देने के बजाय, अपने स्वयं के ही तटस्थ विस्तार द्वारा उत्पीड़ितों की ओर नहीं, तो कम-से-कम उत्पीड़ितों की छाया की ओर, अवश्य उन्मुख कर देता है।’’

हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि मुक्तिबोध यह समीक्षा कुँवर नारायण की बिल्कुल शुरुआती कविताओं के आधार पर लिख रहे थे। कुँवर नारायण उसके बाद लगभग पचास वर्षों तक कविताएँ लिखते रहे और स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता के अग्रणी कवि के रूप में स्थापित हुए। लेकिन मुक्तिबोध ने उनके भीतर के एक संभावनाशील बड़े कवि को तभी पहचान लिया था। मुक्तिबोध का ‘अंतरात्मा की पीड़ित विवेक-चेतना’ शीर्षक यह आलेख उनकी सूक्ष्म आलोचकीय दृष्टि और कुँवर नारायण की काव्य-शक्ति, दोनों का पता देता है।

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