बनारस : आत्मा में कील की तरह धँसा है
                                                    
                                                     कुमार मंगलम
                                                                                                    15 दिसम्बर 2023
                                            
                                        एक
बनारस के छायाकार-पत्रकार जावेद अली की तस्वीरें देख रहा हूँ। गंगा जी बढ़ियाई हुई हैं और मन बनारस में बाढ़ से जूझ रहे लोगों की ओर है, एक बेचैनी है। मन अजीब शै है। दिल्ली में हूँ और मन बनारस में है। यह कभी भी, कहीं भी हो सकता है और अगर कहीं न हों तो अन्यमनस्क होकर जीना दूभर कर सकता है। बार-बार मन से मन को फ़रेब रचना होता है, एक दिलाशा हैं—बदलाव के सभी साधन। मन को सोचते हुए अक्सर दो कवि याद आते हैं : एक तो सूरदास हैं—'एक हुतो जो गए श्याम संग' और फिर याद आते हैं निराला—'एक और मन रहा राम का जो न थका'।
दो
सोचता हूँ कि अब तक पटना, बनारस, गांधीनगर में रहा हूँ और अब दिल्ली में रहता हूँ; लेकिन सूरदास की गोपियों और निराला के राम के मन की तरह मेरा मन बनारस में ही क्यों लगा रहता है। क्यों बनारस अधिक प्रिय है। शायद इस बात के कई जबाब हो सकते हैं, जिसमें कुछ संभावित जवाब तो यह भी है कि मेरे व्यक्तित्व की निर्मिति में इस शहर का योग है। मुझे पहला प्यार इसी शहर से हुआ, इसी शहर में हुआ… कि यह शहर जैसे प्रेम का शहर हो। असंभव प्यार का संभावनाशील शहर या संभव प्यार की सभी संभावनाओं का निषेध करता शहर। कबीर कहते हैं न : ‘खुले नैन मैं हँस हँस देखूँ सुंदर रूप निहारूँ…’ पर ऐसा क्या है अब? इस शहर में देखने को? सब कुछ तो उजाड़ हुआ जा रहा है—बनारस भी, बनारस का प्रेम और बनारस से हुआ प्रेम भी।
तीन
एक तो वैश्विक महामारी का यह कठिनतम समय और फिर यह बाढ़ कोढ़ में खाज की तरह आई है।
सामने घाट भर आया है।
यह महज़ एक वाक्य नहीं है। यह आपदा की सूचना है और विचार का अवकाश है। सामने घाट, सीर, छित्तूपुर की जितनी आबादी है; वे अचानक कहाँ जाएँगे रातों-रात। गांगेय नगर के वासी, सामान्य-जन, जिनके जीवन का आधार घाट और नदी है, वे मल्लाह, घाट पर खोमचे लगाने वाले, वह छोटी बच्ची जो दिया बेचती है, वह जो घाट पर मकई भुनती है बूढ़ी अम्मा, वह भैया जो नींबू की चाय पिलाते हैं हाजमोला डालकर, वह बाबा जो स्नानार्थियों का चंदन-टीका कर दक्षिणा पाते हैं। इन सबकी चिंता किसे है?
अभी कोरोना महामारी ने सब कुछ और सबको तोड़ रखा है… अभी कौन उबर पाया है! प्रतिदिन तीसरी लहर के भय के साये में जीते हम सब, हमारा मानुष-कुटुम्ब। और इस गांगेय नगर के सांसद तो तस्वीरें खिंचाने और सुरसा-मुँह जैसे प्रसार में व्यस्त हैं। क्या बनारस के रहवासी इस बात के लिए उन्हें धन्यवाद नहीं देंगे कि इन महाशय की वजह से गंगा नगर-भ्रमण को निकली है।
नगर के कुलीन
चित्त बदलने के लिए नदी की ओर
जाते हैं
नगर के जन जाते हैं नदी से अपना जीवन माँगने
अब नदी उन सबसे मिलने नगर आई है
नगर की व्यवस्था नदी से तब तक है
जब तक नदी नगर की शिकस्त में है
अब नदी है
और नदी की ज़िद है
नगरवासी लापता हैं।
चार
अभी कुछ दिन पहले ही गंगा की दुर्गति देखी : एक अविचारित और अवैज्ञानिक राजहठ देखा कि गंगा के गर्भ में गंगा नहर बनवाई गई है। ड्रेजिंग के नाम पर गंगा की बालू गंगा के पेट पर ही रख दी गई। अब गंगा बढ़ियाई हुई हैं तो बालू के उस पठार का दबाव तो शहर की तरफ़ हुआ ही, इसके साथ ही उस नहर की भी दुर्गति हुई। इस बाढ़ ने उस नहर को, जिस पर यह ज़िम्मेदारी थी कि वह बाढ़ और घाटों पर पड़ने वाले दबावों को रोके, बर्बाद कर दिया। बाढ़ के बाद जो सिल्ट घाटों पर आएगा उसे हटाने के लिए एक अलग फंड़ है। उस सिल्ट को वापस गंगा में डाल देना है। सरकारी धन 'गोइठा में घी सुखाने' की तरह ही है। बारह करोड़ की योजना इस बाढ़ में स्वाहा हुई है। आइए सांसद महोदय आपकी इस अदूरदर्शिता के लिए भी धन्यवाद दे दूँ। यह एक ऐसा यथार्थ है जो आपकी अमरता की कल्पना का विपरीतार्थक है। बनारस को आपकी इस कल्पनाहीनता का वहन करते रहना है।
पाँच
बनारस को नया क्योटो होना था अथवा नया रोम। बनारस को कभी बनारस नहीं होना था। यह एक राजनैतिक सूचना है, बनारस के लिए जिसका आधार वह फ़रेब है। बनारस जो अब बदल रहा है, टूट रहा है, बिखर रहा है, अपना स्वभाव और गतिकी बदल रहा है तो बनारस को कहाँ खोजेंगे? प्रिंसेप के स्केचों में, भारतेंदु, प्रसाद, रुद्र काशिकेय, शिवप्रसाद सिंह, ज्ञानेंद्रपति, श्रीप्रकाश शुक्ल और व्योमेश शुक्ल की रचनाओं में या बनारस की इस बदलली घाट-किनारे की भूमंडलीय और बाज़ार की सर्वग्रासी अपसंस्कृति में? नगर-सभ्यता के प्राचीनतम अवशेषों की शिनाख़्त कहाँ होगी? विश्वनाथ कॉरीडोर एक नया धंधा है—धर्म और राजनीति का। बनारस के घाटों और गंगा के जीवन को समझना है तो रमाशंकर सिंह के विचारचेता निबंध को पढ़िए, निश्चय ही आपको नई नदी से नदी-जीवन से साक्षात्कार होगा।
छह
बनारस को भूलने की एक गंदी बीमारी है। बनारस को सब कुछ देखने की एक अजीब उत्सुकता है। सब कुछ जानने की बेचैनी और सब कुछ भूलकर अपने जीवन में एक स्थायित्व को बनाए रखना बनारसीपन है। तमाम बातों की तरह बेतरह लोग निकलेंगे घरों से—तालाबंदी देखने, बाढ़ देखने, आग देखने। देखेंगे, बतियाएँगे और फिर भूल जाएँगे और जीवन चलता रहेगा। पान है, घुलाना है और थूक देना है।
सात
बनारस कई हैं! आप किस बनारस को जानना चाहते हैं? सामने घाट वाला बनारस या भैंसासुर घाट वाला, पक्का महाल वाला या कबीरचौरा वाला, बीएचयू लंका वाला कि विद्यापीठ वाला, कचहरी वाला की यूपी कॉलेज वाला, अस्सी वाला कि दशाश्वमेध वाला? बजरडीहा वाले बनारस को तो आप रहने ही दीजिए।
आठ
केदारनाथ सिंह का आधा बनारस, अष्टभुजा शुक्ल का दोनों हाथ हिलाता बनारस, ज्ञानेंद्रपति का काशी करवट कि काशी की नई करवट, श्रीप्रकाश शुक्ल का पक्का महाल वाला बनारस अथवा काशीनाथ सिंह का पप्पू की अड़ी वाला बनारस सब छोड़ दीजिए। नरेंद्र मोदी का क्योटो वाला बनारस देखिए। 'रहे दा गुरू, ढ़ेर पकवलS घंटा बनारस के कवनो फरक ना पड़े के ह, बोला महादेव आ जाये दा एह बनारस के तेलहंडा में…'
                                    
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