Font by Mehr Nastaliq Web

तसनीफ़ हैदर की किताब 'नर्दबाँ और दूसरी कहानियाँ' के बारे में

तसनीफ़ हैदर की कहानियों का संग्रह ‘नर्दबाँ और दूसरी कहानियाँ’ मेरे सामने है। संग्रह में आठ कहानियाँ हैं।

इस संग्रह ने हमारे समय के विरोधाभासी पहलुओं के संतुलित प्रस्तुतीकरण को बग़ैर मसीहाई और मलहमी दावेदारी के साधा है। यह एक पाठकीय टिप्पणी है और इसमें कथा-सारांश (Plot Summary) या नहीं है या केवल कुछ इशारे हैं।

संग्रह की पहली कहानी 'नर्दबाँ' है। फ़ारसी के सुनाई पढ़ते इस शब्द से लेखक की क्या मुराद है, वह आगे पता चलता है लेकिन रहस्य इसके अर्थ में क़तई नहीं है। कहानी का क़िस्सागो, शहर के एक खंडरात इलाक़े में टहल रहा है। शासकों तथा साम्राज्यों के अप्रासंगिक हो जाने पर टिप्पणी कर रहा है। वह कहता है कि तहक़ीक़ से उसने यह जाना कि अतीत में यहाँ बादशाह, बेगम और जनता के मनोरंजन के लिए कोई खेल होता था। कोई मेला यहाँ भरता होगा, जहाँ नौजवानों के बीच प्रतियोगिता भी होती थी; जो कि दरअस्ल एक घातक खेल हुआ करता था, जिसका ब्योरा वह आगे प्रस्तुत करता है।

‘मृत्यु’ मनोरंजन की तरह कथाओं का विषय रही है; इसीलिए ‘नर्दबाँ’ उन हदों को छूती है—जहाँ किसी स्क्विड गेम की तरह हम ऊबे-अघाए बादशाह या संपत्तिवानों का मनोरंजन करने वाले खेलों के खिलाड़ी हैं, जहाँ जीत में निचाट अर्थहीनता है और हार में मृत्यु। फिर भी, कहानी बग़ैर किसी केंद्रीय चिंता को लक्ष्य बनाए, जादुई और दास्तानवी विवरण का बहुत दिलचस्प नमूना देती है। यह पूरा ब्योरा अपनी बुनावट में इतना कसा हुआ है कि धीरे-धीरे खुलती-चलती कहानी को अचानक ज़रूरी गति देकर अंत तक ले आता है। एक कहानी के तौर पर, किसी असल जगह में घूमता हुआ क़िस्सागो एक ऐतिहासिक ‘प्रतीत’ होती घटना की बुनियाद रखता है, जिसका कथा के बाहर कोई अस्तित्व नहीं और उसको शुरू से अंत तक छिटकने नहीं देता। यह तारतम्यता बहुत प्रशंसनीय है।

हालाँकि निश्चित ही यह प्रासंगिक है, लेकिन एक्सिस्टेंटिअल क्राइसिस और सोशल कमेंट्री का तत्त्व बोझिल करने की हद तक लेखन में बढ़ा है, उससे कहानियाँ या उपदेश (Sermon) में बदल जाती हैं या फिर हम संपादकीय-सा कुछ पढ़ते हुए ठगे जाते हैं। यह रोचक है कि इस तरह के ब्योरे तसनीफ़ की कहानियों में या नहीं हैं या उनका होना एक कॉमिकल भूमिका में है, जो कथा की ही मदद करता है।  

‘एक क्लर्क का अफ़साना-ए-मुहब्बत’ ऐसे ही शुरू होती है, जहाँ प्रेम, विवाह और संबंधों पर सामाजिक नसीहत दी जा रही हो। कहानी का पात्र दो विरोधाभासी चुनावों के बीच धाराप्रवाह अपना पक्ष और नज़रिया पेश कर रहा है। विवाह-संस्था के प्रति उसके पास विस्तृत समीक्षा है। मुझे एक पल को हरिशंकर परसाई की ‘बुर्जुआ बौड़म’ कहानी भी याद आई, लेकिन वर्ग का प्रसंग उस तरह यहाँ नुमायाँ नहीं होता है; सिवाय इतने इशारे के कि कहानी कहने वाला एक क्लर्क है और क्लर्क का होना अपने आपमें एक आर्थिक-सामाजिक प्रवृत्तियों की ओर इशारा है। कहानी अपना गांभीर्य एकदम तोड़कर अंत में कॉमिकल हो जाती है और यही कहानी की सफलता है। कहानी में नसीहत-सी दिखती संजीदा बातों की एक लंबी अवधि अपनी यांत्रिकता में शिल्प के सिवा कुछ नहीं।

‘एक दस्तबुरीदा रात का क़िस्सा’ अपेक्षाकृत लंबी कहानी है और अजीब-ओ-ग़रीब भी। नामालूम-नए एक शहर में कहानीकार अपनी पड़ोसी के ज़िक्र और उसके जीवन के प्रति दिलचस्पी से कहानी की शुरुआत करता है। हुकूमत के प्रति अपने भय तथा संकोच को बयान करता है। लगता है जैसे किसी प्रतिबंधित स्थिति और समय में इस पूरे कथानक की ज़मीन हो जहाँ पुलिस की आवाजाही है। शुरुआत में प्रतीत होता है कि इस कहानी में भय और स्वतंत्रता का लैंगिक परिप्रेक्ष्य दिखाया जाना है।

यह कहानी बहुत आसानी से स्त्री और पुरुष नैरेटिव में स्थानांतरित होती रहती है। बिना पूर्वसूचना के घटनाओं में प्रवेश करती और बाहर आती है, जैसे कोई स्वप्नदृश्य हो। स्वतंत्रता और प्रेम की अभी-अभी स्पष्ट दिखती सभी रेखाएँ धूमिल तथा गड्डमड्ड होती जाती हैं। कहानी की कई पंक्तियाँ अपनी बुनावट में बहुत सहज हैं, जैसे—

धूप अब पीछे सरकते-सरकते मुझसे बहुत दूर हो गई है। यानी मुझे एक सुनहरी पट्टी दिखाई दे रही है, मगर मैं साये में हूँ और ठंडी हवा मेरे जिस्म से मस हो रही है और बार-बार मुझे अहसास दिला रही है कि अब मुझे उठना चाहिए। फिर भी मैं बैठा हूँ। नीचे नहीं जाना चाहता। वो भी तो सामने दीवार ही पर कोहने टिकाए शिकस्त खाती हुई धूप की तरफ़ देख रही है, मगर उसकी पुश्त पर धूप की वही पट्टी चमक रही है। क्या उसे तपिश का अहसास हो रहा है या धूप मुर्दा हो चुकी है?
 
‘बुज़दिल’ अगली कहानी है। कहानी का समय हमारा समय है, जहाँ सांप्रदायिक तनाव एक न्यू नॉर्मल है और उसको पोषित करती एक व्यवस्था में हम सब हैं। एक अकेला पिता जिसके बच्चे का ख़याल उसका पड़ोस उससे अधिक रख रहा है, वह एक ऐसी दुर्घटना से गुज़रता है; जिससे पैदा हुआ तनाव पहले क्रोध में बदलता है फिर वैमनस्य में। पिता की जीवनशैली में वह गतिविधियाँ तसनीफ़ ने सावधानी से बताई हैं, जो उसके अंदर इस संभाव्य वैमनस्य के बीज डालती हैं, लेकिन वह दुर्घटना तक नमूदार नहीं होती। इस तनाव को तसनीफ़ ने अपने ढंग से कहानी में सुलझाया है। वह लेखक के तौर पर इस कहानी में बहुत अधिक मौजूद हैं, लेकिन बग़ैर कथा को मैसेज पर न्यौछावर करते हुए।

‘घिघियाँ’ इस संग्रह की संभवतः सबसे महत्त्वपूर्ण तथा सबसे अधिक महत्त्वाकांक्षी कहानी है। ‘घिघियाँ’ का पात्र अतीत के महाअपराध का पीढ़ियों से चले आ रहे, बक़ौल ‘इमाम साहब’ आख़िरी भोक्ता है। इस कहानी में भी ‘समय’ महत्त्वपूर्ण पहलू है, लेकिन अंत आते हुए कहानी, पीड़ा, यंत्रणा और अपराधबोध की गहनता बताने के लिए समय को लाँघ जाती है, बग़ैर उसकी महत्ता को गौण करे। ‘घिघियाँ’ वह कहानी है, जहाँ संतापों और अपराधों को कहानी में लाने के रवायती ढंग से हम कुछ दूर जा सकते हैं। जिस तरह मार्क्वेज़ के गाँवों की ‘अनिद्रा महामारी’ और रूसी उपन्यासों के पात्र तड़पते हैं तथा ईसाइयत में पनाह पाते हैं, ‘घिघियाँ’ का पात्र बैठकर पीढ़ियों की कथा कह रहा है।

तीन अन्य कहानियाँ हैं, जिन्हें बेहतर है इन सभी के साथ पुस्तक में ही पढ़ा जाए।

वह बातें जो तसनीफ़ हैदर के यहाँ बहुत अधिक हैं और कुछ कम हो सकती हैं, वह है गद्य/कहानी को रवानी में लाने के लिए काव्य-भाषा का अधिक प्रयोग। कहीं-कहीं यह बहुत अच्छा लगता है, जैसे ‘एक दस्तबुरीदा रात का क़िस्सा’ कहानी में धूप का विवरण। लेकिन ‘बुज़दिल’ की शुरुआत में यह मुझे बोझिल लगा, क्योंकि यह कहानी के कथ्य से एकदम अलग-थलग खड़ा है, वहीं जीवन की अनिश्चितता के बीच जिए जाने के हौसले के लिए ‘बुज़दिल’ कहानी में एक पात्र नून-मीम राशिद की नज़्म की पंक्ति को उद्धृत कर देता है।  

यह जोड़ता चलूँ कि मैं कुछ समय से उन सभी कहानियों से बहुत ऊबा हुआ था जिसमें जादू बहुत था, लेकिन कहानी नदारद थी। यह चमत्कृत होने और ठगे रह जाने के बीच का धुँधलापन है, जिसमें आँख को कहानी सुझाई न दे। पात्र या तो प्रतीक हैं या धारणा। कहानी बीच में ही हाँफते हुए, वह कहने लगती जिसे लेखक शुरू से लिए बैठा था।

~~~

'नर्दबाँ और दूसरी कहानियाँ', तसनीफ़ हैदर का कहानी-संग्रह (उर्दू) है। इस कहानी-संग्रह को 'और' प्रकाशन, दिल्ली ने प्रकाशित किया है।

'बेला' की नई पोस्ट्स पाने के लिए हमें सब्सक्राइब कीजिए

Incorrect email address

कृपया अधिसूचना से संबंधित जानकारी की जाँच करें

आपके सब्सक्राइब के लिए धन्यवाद

हम आपसे शीघ्र ही जुड़ेंगे

28 नवम्बर 2025

पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’

28 नवम्बर 2025

पोस्ट-रेज़र सिविलाइज़ेशन : ‘ज़िलेट-मैन’ से ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’

ग़ौर कीजिए, जिन चेहरों पर अब तक चमकदार क्रीम का वादा था, वहीं अब ब्लैक सीरम की विज्ञापन-मुस्कान है। कभी शेविंग-किट का ‘ज़िलेट-मैन’ था, अब है ‘उस्तरा बियर्ड-मैन’। यह बदलाव सिर्फ़ फ़ैशन नहीं, फ़ेस की फि

18 नवम्बर 2025

मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं

18 नवम्बर 2025

मार्गरेट एटवुड : मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं

Men are afraid that women will laugh at them. Women are afraid that men will kill them. मार्गरेट एटवुड का मशहूर जुमला—मर्द डरते हैं कि औरतें उनका मज़ाक़ उड़ाएँगीं; औरतें डरती हैं कि मर्द उन्हें क़त्ल

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

30 नवम्बर 2025

गर्ल्स हॉस्टल, राजकुमारी और बालकांड!

मुझे ऐसा लगता है कि दुनिया में जितने भी... अजी! रुकिए अगर आप लड़के हैं तो यह पढ़ना स्किप कर सकते हैं, हो सकता है आपको इस लेख में कुछ भी ख़ास न लगे और आप इससे बिल्कुल भी जुड़ाव महसूस न करें। इसलिए आपक

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

23 नवम्बर 2025

सदी की आख़िरी माँएँ

मैं ख़ुद को ‘मिलेनियल’ या ‘जनरेशन वाई’ कहने का दंभ भर सकता हूँ। इस हिसाब से हम दो सदियों को जोड़ने वाली वे कड़ियाँ हैं—जिन्होंने पैसेंजर ट्रेन में सफ़र किया है, छत के ऐंटीने से फ़्रीक्वेंसी मिलाई है,

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

04 नवम्बर 2025

जन्मशती विशेष : युक्ति, तर्क और अयांत्रिक ऋत्विक

—किराया, साहब... —मेरे पास सिक्कों की खनक नहीं। एक काम करो, सीधे चल पड़ो 1/1 बिशप लेफ़्राॅय रोड की ओर। वहाँ एक लंबा साया दरवाज़ा खोलेगा। उससे कहना कि ऋत्विक घटक टैक्सी करके रास्तों से लौटा... जेबें

बेला लेटेस्ट