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बुद्धिजीवी और गधे

बुद्धिजीवियों ने अपना वाहन नहीं बदला। आज भी गधे उनके पसंदीदा वाहन हैं। ...एक गधे को दूसरे गधे से बहुत ईर्ष्या होती है।                                                       

बुद्धिजीवी कभी घोड़े की सवारी नहीं करते। यह आज की बात नहीं है। किसी देश में और किसी भी काल में बुद्धिजीवियों ने घोड़े को अपना वाहन नहीं बनाया। गणेश जी बुद्धि विधाता हैं और उन्होंने अपना वाहन चूहे को बनाया। संभवतः बुद्धिजीवियों ने उनसे प्रेरणा लेकर और थोड़ी-सी अपनी बुद्धि का उपयोग करते हुए गधे को अपना स्थायी  वाहन बना लिया। 

चालू चौथा युग—जो अपनी तेज़ रफ़्तार के लिए विख्यात है—में भी बुद्धिजीवियों ने अपना वाहन नहीं बदला। आज भी गधे उनके पसंदीदा वाहन हैं। यह बुद्धिजीवियों का सौभाग्य है कि हर जगह उन्हें बहुतायत में किसिम-किसिम के गधे मिल जाते हैं। वे  मनमर्ज़ी से उनकी सवारी करते रहते हैं। 

गधे को भी उनसे कोई शिकायत नहीं है। जब बुद्धिजीवी उनकी सवारी करते हैं, तो उन्हें आनंद आता है। जितना बोझ वे लादते हैं, गधे का आनंद उतना ही बढ़ता जाता है। गधे की पीठ जब ख़ाली हो जाती है, तब उसका मन भारी हो जाता है। वह उदास हो जाता है कि उसका मालिक उसे सेवा करने का अवसर क्यों नहीं प्रदान कर रहा है। 

एक गधे को दूसरे गधे से बहुत ईर्ष्या होती है। यह इसलिए होती है कि दूसरे को मालिक ने निरंतर सेवा करने का अवसर दे रखा है। पहला उसे मुँह चिढ़ाता है कि तुम मेरे जैसे क़ाबिल नहीं हो। वह कहता है—“अगर तुममें क़ाबिलियत होती तो मालिक तुम्हें नहीं पूछता?” दूसरा भी अवसर की ताक में रहता है। मालिक से पहले की चुगली करता रहता है, खोट निकालने की कोशिश करता रहता है। अपनी गोटी लगाने की जुगत सोचता रहता है।

बुद्धिजीवी सभी गधों पर नज़र रखता है। वह बारी-बारी से सब की सवारी करता है। उसका एक ही मक़सद है सवारी करना। उसके लिए हर समय वाहन प्रस्तुत रहना चाहिए। गधे की बढ़ती हुई संख्या देखकर वह प्रसन्न होता रहता है। सच पूछिए तो उसे एक प्रकार से निःशुल्क सेवा प्राप्त हो जाती है। गधों की आपसी प्रतिस्पर्धा का वह भरपूर लाभ उठाता है। 

बुद्धिजीवी एक समय में विभिन्न गधों से संपर्क बनाए रखता है। इसलिए उसे सबकी ख़बर रहती है। जो गधे सेवा से सर्वाधिक दूर होते हैं, उनकी सेवा वह पहले लेता है। तब तक दूसरे की आकुलता बढ़ती रहती है। पहले की पीठ जब छिल जाती है, तब भी वह मालिक को छोड़ना नहीं चाहता। 

लेकिन बुद्धिजीवी को उसके लहू और ज़ख़्म की बू बर्दाश्त नहीं होती इसलिए वह उसे सेवा से बर्ख़ास्त कर देता है, लेकिन मरहम लगाते हुए—उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए।

कहता है—जाओ कुछ काल तक विश्राम करो। तुम्हारी याद मुझे आती रहेगी। जल्द ही तुम्हें सेवा करने का अवसर मिलेगा। 

गधा गदगद होकर विदा लेता है। 

दूसरा गधा तो इसी अवसर की तलाश में बैठा रहता है। सवारी के लिए उसकी पीठ खुजलाती रहती है। उसके मन की मुराद मिल जाती है। वह पुलकित होकर फ़र्शी सलाम बजाते हुए सेवा में हाज़िर हो जाता है। 

यह क्रम चलता रहता है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह सिलसिला चल रहा है और आगे भी चलता रहेगा। यह जितना बुद्धिजीवियों के हित में है, उतना ही गधे और उनके वंशजों के हित में है। 

बुद्धिजीवी सोचता है—गधा मैदान में चरता है और नदी का जल पीता है। इसके रख-रखाव पर उसे कोई भुगतान नहीं करना पड़ता। वह प्रदूषणमुक्त है, वाचाल नहीं है। बुद्धिजीवी की अपेक्षानुसार वह सदैव मूक है। उससे गोपनीयता भंग होने का कोई ख़तरा नहीं है। उससे वैचारिक प्रदूषण का भी कोई भय नहीं है। 

सोने में सुहागा यह कि जासूसी में तो इसका कोई सानी नहीं है। यह मुफ़्त में दुर्लभ सूचनाओं को एकत्र करता रहता है। इसकी एक और उल्लेखनीय ख़ासियत यह है कि अगर उसकी बिरादरी के सदस्यों का गला भी घोंट दिया जाए तो भी वह मुँह नहीं खोलता। यह कभी संगठित होने का प्रयास नहीं करता और हो भी नहीं सकता। 

अतः इसकी सवारी करते हुए सदैव ख़तरे से मुक्त रहा जा सकता है और सफ़र का भरपूर आनंद लिया जा सकता है। 

गधा सोचता है कि जब तक बुद्धिजीवी उस पर सवार है, उसे मैदान में चरने से कोई रोक नहीं सकता। नदी का जल पीने पर कोई टोक नहीं सकता। बुद्धिजीवी के संग-साथ रहने से थोड़ी-सी बुद्धि उसमें भी आ जाती है। वह सोचता है कि मैदान और नदी पर बुद्धिजीवी का भले ही मालिकाना हक़ नहीं है, लेकिन बुद्धिजीवी उसका अधिकृत रखवाला तो ज़रूर है।

अतः उसकी सेवा किए बग़ैर न मैदान में चरा जा सकता है, न प्यास बुझाई जा सकती है। उसे पीठ छिलने का दुख नहीं है। उसे दर्द में भी आनंद है। यदि बुद्धिजीवी उस पर सवार है तो उसे बोध होता है कि उसकी पीठ पर कोई मुस्तैद है। 

पीठ ख़ाली होने पर वह ख़ुद को असुरक्षित महसूस करता है। वह पीठ ख़ाली होते ही भयभीत हो जाता है कि कहीं बुद्धिजीवी उसे सेवा से बर्ख़ास्त न कर दे। इससे न केवल उसका अपना बल्कि उसकी भावी पीढ़ी का भविष्य भी ख़तरे में पड़ जाएगा। इसीलिए वह बुद्धिजीवी की सेवा प्राणपन से करता है। 

बुद्धिजीवी और गधा, दोनों के अपने-अपने दाँव-पेंच हैं। इस जटिल पहेली को सुलझाने का न कोई क़ायदा है, न कोई फ़ायदा। हमें गधे पर सवार बुद्धिजीवियों के अंतहीन क़ाफ़िले को देखते रहने का लुत्फ़ उठाते रहना चाहिए।

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