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आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ

आजकल पत्नी को निहार रहा हूँ,
सच पूछिए तो अपनी किस्मत सँवार रहा हूँ।

हुआ यूँ कि रिटायरमेंट के कुछ माह पहले से ही सहकर्मीगण आकर पूछने लगे—“रिटायरमेंट के बाद क्या प्लान है चतुर्वेदी जी?”

“अभी तक तो कुछ सोचा नहीं। वैसे साहित्य पढ़ूँगा। कविताएँ लिखूँगा।”

“क्या चतुर्वेदी जी! कविता लिखना भी कोई काम है? क्या मिलता है इससे? रही बात पढ़ने की तो अब पढ़ने की उम्र भी नहीं रही।”

मैं मौन साध लेता। इसी बीच एक सीनियर अधिकारी से भेंट हो गई। सीनियरिटी और कुछ दे या न दे, अनुभव का ख़ज़ाना देती है। सीनियर लोग बोलते रहते हैं कि उनके बाल यूँ ही नहीं सफ़ेद हुए हैं। उनके दिमाग़ में अनुभव की आग है। ख़ैर, उन्होंने भी वही प्रश्न उछाल दिया और लगे हाथ नसीहत भी दे डाली—“24 घंटे पत्नी के सामने रहना बहुत कठिन है। रिटायरमेंट के बाद कुछ ज़रूर कीजिए।”

हम सरकारी सेवक सीनियर की बात काटने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। लिहाज़ा मैंने अपनी ही बात रखी—“सर! मेरी पत्नी बहुत सुशीला हैं। अब उनके साथ जीवन के शेष वर्ष बिताना मेरे लिए नौकरी करने से कहीं अधिक मूल्यवान है। वैसे भी 60 वर्ष के बाद कंसल्टेंट की नौकरी मिलती है। वेतन चौथाई मिलता है और दुःख की बात यह है कि परामर्शी से कोई परामर्श नहीं लेता। लोगों को लगता है कि परामर्शी बेवजह के बोझ होते हैं। अपने मातहतों के तहत काम करना बहुत आहत करता है। इस हिसाब से पत्नी के साथ बालकनी में बैठकर सुबह-शाम चाय की चुस्कियों के बीच स्नेहिल संवाद करना श्रेयस्कर होगा। पूरी जवानी बीत गई और अर्द्धांगिनी को जीवन का चौथाई समय भी नहीं दिया। कायदे से वह आधे की हक़दार हैं। नौकरी में इतना मुब्तिला रहा कि धूमिल के शब्दों में कहूँ तो ऑफ़िस निकलते वक़्त पत्नी को चूमना तक भूल गया।”

सीनियर अफ़सर ने हँसते हुए कहा—“चतुर्वेदी जी! रिटायरमेंट के बाद आप आज़ाद हैं। आज़ादी का जश्न मनाइए। लेकिन एक बार मैं फिर कहता हूँ कि 24 घंटे पत्नी के साथ बिताना कोई हँसी-खेल नहीं है।”

मैंने कहा—“पत्नी तो सुमुखी होती है। माफ़ कीजिएगा, आप तो उसे ऐसे बोल रहे हैं जैसे कि वह शेरनी हो। मुझे  विद्यापति याद आते हैं। उनके शब्दों को याद करते हुए मैं तो कहना चाहता हूँ कि जन्म-अवधि भर मैं उसका रूप निहारूँ तो भी ये नयन तृप्त नहीं होंगे।”

“चतुर्वेदी जी! आपकी उमर अब रोमांटिक होने की नहीं है। बाघ जब बूढ़ा हो जाता है तो बकरी उससे मज़ाक़ करने लगती है। अब जीवन में कुछ नहीं बचा है। राम नाम जपिए। यही मुक्ति का मार्ग है।”

थोड़ी देर मौन रहने के बाद साहब, शर्मा जी का क़िस्सा लेकर बैठ गए। वही शर्मा जी जो मत्स्य पालन विभाग में अधिकारी थे। मछली जल में तैरती है और वह हवा में उड़ते रहते थे। आशय यह कि महीने में 20 दिन विमान में ही रहते थे। संयोग से उनकी पत्नी ही उनकी निजी सहायक थी। मेरी उत्सुकता बढ़ गई—“सर, वे बहुत भाग्यशाली थे। दफ़्तर में भी पत्नी का सान्निध्य। मिलना सौभाग्य की बात है। बिल्कुल पारिवारिक वातावरण में ऑफ़िस चल रहा होगा।”

“अरे चतुर्वेदी जी! आप भी बड़े भोले जीव हैं। उनका तो जीना मुश्किल हो गया था। अंत में, उन्होंने विभाग के प्रमुख से अनुरोध कर पत्नी का स्थानांतरण दूसरे तले पर करा दिया था। आप नहीं समझते हैं, दिन-रात पत्नी के सम्मुख रहना दुष्कर है। आप इसे बाद में समझेंगे।”

बहरहाल, स्त्री की आलोचना सुनना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। सीनियर नहीं होते तो मैं उन्हें करारा जवाब देता। हमारे देश में स्त्रियों की पूजा करने की बात की जाती है और हम उन्हें सम्मान तक नहीं दे सकते। ऐसी सीनियरिटी का मैं क़तई आदर नहीं करता। अब आप ही बताइए जो पत्नी हमें राजकुमार की तरह तैयार कराकर दफ़्तर भेजती है। शाम को झरोखे पर बैठकर पलक पाँवड़े बिछाए मेरे शुभागमन की प्रतीक्षा करती है, उसके बारे में ऐसी बातें मेरे कान में गरम शीशे की तरह उतर रही थी। मुझे ऐसी नेक सलाह की ज़रूरत क़तई नहीं थी। जो भी हो, इस दुनिया में राय बहादुरों की कमी नहीं है। पत्नी जो गृहस्थी बसाती है, उस पर साहबों ने सदियों से हाउस वाइफ़ का टैग लगा दिया। भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने पत्नियों को मान देते हुए ऐसे शब्दों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगा दिया। अब समय आ गया है कि आगामी वर्षों में पति हाउस हसबैंड की भूमिका तब तक सँभालें जब तक स्त्रियाँ स्वयं इस शब्द के प्रयोग पर बैन की माँग नहीं करें।

मुद्दे की बात यह है कि काम के घंटे पर इन दिनों तरह-तरह की बहसों का सिलसिला जारी है। जिसमें हमारे सीनियर अफ़सर की तरह कुछ स्वनामधन्य मुख्य कार्यपालकों द्वारा नसीहतें दी जा रही हैं कि उनका वश चले तो वे 90 घंटे काम लें। उनका यह भी कहना है कि घर पर बैठकर पत्नी का मुँह कब तक निहारोगे? सब जानते हैं कि महानगरों में वीक एंड में ख़ुशियों का शुभागमन होता है। उन महानुभावों को क्या कहा जाए? उनकी भी सीमाएँ समझे जाने योग्य हैं। वे लोग बड़े टेक्नोक्रेट हैं, भाषा वैज्ञानिक तो हैं नहीं। हमारी भाषा हिंदी में देखने के लिए दर्जन भर से अधिक शब्द हैं। प्रमाण स्वरूप मानस में देखने के लिए बाबा तुलसीदास ने देखना, अवलोकन करना, ताकना, पेखना आदि अनेक शब्दों का यथा अवसर प्रयोग किया है। इन सब में विलक्षण है निहारना। निहारना घूरना नहीं है। शायद ही कोई व्यक्ति हो जो अपनी पत्नी को निहारता रहे। पत्नी की आँखों में तेज होता है। नयन की उपमा शर से दी गई है। जिसमें हिम्मत है, वही आँख-से-आँख मिलाकर बातें कर सकता है। निहारना कायर आदमी के वश की बात नहीं है। एक बार आँखें मिलतीं हैं तो ज़िंदगी भर का क्या, जनम-जनम का सच्चा सौदा हो जाता है। इसके बिना भी क्या जीना? नौकरी ही सब कुछ नहीं है साहब! पत्नी के साथ बिताए पलों की तुलना आप दो टके की नौकरी के साथ नहीं कर सकते। जिन आँखों में प्यार बसता है, जिनसे यह संसार बसता है, उसे निहारूँ नहीं तो क्या करूँ? दफ़्तर में तो ऐसे-ऐसे अफ़सरों से पल्ला पड़ता है कि उसका मुँह देखने का मन नहीं करता। पापी पेट का सवाल नहीं हो तो नौकरी की हक़ीक़त किसे नहीं पता? जब शाम को लौटता हूँ कि पत्नी का चाँद-सा मुखड़ा देखकर दफ़्तर का दुखड़ा भूल जाता हूँ। साहब! सच कहूँ तो जीवन की आपाधापी में हम इतने व्यस्त होते हैं कि पत्नी को निहारना क्या ठीक से देखना तक भूल जाते हैं या भूल गए हैं। एक दिन एक बुज़ुर्ग व्यक्ति ने कहा कि तुम्हारी पत्नी बहुत सुंदर है, तब उस दिन मैंने पत्नी को ग़ौर से देखा और एक अच्छी कविता रच डाली। पत्नी का जीवन में कविता की तरह ही आगमन होता है। इन दिव्य क्षणों को कोई जड़ मति ही मिस करना चाहेगा। देखना मेरी दृष्टि में अकर्मक क्रिया है, लेकिन निहारना सार्थक और सकर्मक क्रिया है।

सच कहूँ तो, एक जनम क्या, सात जन्मों तक मैं पत्नी को निहारता रहूँगा। कवि विनोद कुमार शुक्ल के शब्दों को उधार लेते हुए कहना चाहूँगा कि इसे मेरी प्रथम और आख़िरी इच्छा समझी जाए। अभी सेवा में कुछ माह शेष है। मैं आज ही स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन कर रहा हूँ। मेरी इस अंतिम इच्छा के सम्मान में इसे स्वीकार किया जाए। अब मैं पत्नी की सेवा में स्वयं को नियुक्त करता हूँ। एक बार नौकरी में जाने पर आदमी कभी रिटायर नहीं होता। मैं अपने नए असाइनमेंट से बहुत एक्साइटेड हूँ।

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