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श्री० सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

shree० surykant tripathi nirala

नंददुलारे वाजपेयी

अन्य

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नंददुलारे वाजपेयी

श्री० सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

नंददुलारे वाजपेयी

और अधिकनंददुलारे वाजपेयी

    यदि सामयिक हिंदी में कोई ऐसा विषय है जो अन्य सब विषयों की अपेक्षा अधिक क्लिष्ट और दुरूह समझा जा सके तो वह पं० सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का विकास है। इस कवि के व्यक्तित्व और काव्य के निर्माण में ऐसे परमाणुओं का सन्निवेश हुआ है जिनका विश्लेषण हिंदी की वर्तमान धारणा भूमि में विशेष कठिन किया है। हिंदी-भाषी जनता के साहित्यिक ज्योतिषियों ने, कहानीवाले सात अंधे भाइयों की भाँति, भाँति-भाँति से हाथी की हास्य-विस्मय-भरी रूपरेखाएँ बखान कीं, जिनसे 'निराला' जी की अपेक्षा समीक्षकों की निराली सामुद्रिक का ही परिचय मिला। जहाँ तक हमारी जानकारी और अध्ययन है हम निरालाजी के विकास के मूल में भावना की अपेक्षा बुद्धितत्व की प्रमुखता पाते हैं। यह उनके दार्शनिक अध्ययन का परिणाम है या उनके मानसिक संगठन का नैसर्गिक स्वरूप, यह हम नहीं कह सकते। बाबू जयशंकर प्रसाद की कविता में भी यह बौद्धिक विशेषता पाई जाती है, परंतु 'निराला' जी के साहित्य में तो यह स्पष्टतः एक बड़ी मात्रा में है। प्रसादजी की जिन जिज्ञासाओं का उल्लेख हम 'चित्राधार', 'प्रेम-पथिक' आदि की समीक्षा के प्रसंग में कर चुके हैं उनमें केवल बुद्धि धर्म ही नहीं, कल्पना आदि भी उपस्थित हैं, पर 'निराला' जी की अनेक कविताओं में केवल बौद्धिक उत्कर्ष अपनी पराकाष्ठा तक पहुँचा हुआ मिलता है। 'निराला' जी की कुछ रचनाओं में तो संपूर्ण वर्णन और वातावरण ऐसा है परिपाटीबद्ध काव्यालोचक की आस्वादसीमा के बाहर है। यह आलोचक की त्रुटि है, या निरालाजी की वे रचनाएँ साहित्य की परिभाषा में ही नहीं आतीं, यह निर्णय कौन करेगा?

    यदि हमें निर्णय करना हो तो हम साहित्य-कला का विस्तार कदापि संकुचित करने को सहमत होंगे। काव्य में बुद्धितत्व के लिए भी स्थान है, भावना के लिए भी, कल्पना के लिए भी। जिस किसी कृति में ओजस्विता हो, प्रवाह हो; जिसका प्रभाव हम पर पड़े उसमें काव्य की प्रतिष्ठा मानी ही जाएगी। यदि रस सिद्धांत के व्याख्याताओं में आज इतनी व्यापकता नहीं है तो उन्हें व्यापक बनना होगा। आधुनिक युग प्रत्येक दिशा में नई काव्यसामग्री का संग्रह करने को कटिबद्ध है। 'निराला' जी का एक अत्यंत बुद्धिविशिष्ट काव्यचित्र देखा जाए :—

    प्रथम विजय थी वह—

    भेद कर मायावरण

    दुस्तर तिमिर घोर-जड़ावत—

    अगणित तरंग-भंग—

    वासनाएँ समल निर्मल

    कर्दममय राशि-राशि

    स्पृहाहत जंगमता—

    नश्वर संसार—

    सृष्टि-पालन-प्रलय भूमि—

    दुर्दम अज्ञान-राज्य—

    मायावृत 'मैं' का परिवार

    पारावार केलि-कौतूहल

    हास्य-प्रेम-क्रोध-भय—

    परिवर्तित समय का

    बहु रूप रसास्वाद—

    घोर उन्माद ग्रस्त

    इंद्रियों का बारंबार बहिरागमन

    स्खलन पतन उत्थान-एक

    अस्तित्व जीवन का—

    महामोह;

    प्रतिपद पराजित भी अप्रतिहत बढ़ता रहा,

    पहुँचा मैं लक्ष्य पर

    इस रचना में शुष्कता चाहे जितनी हो पर हम यह कहे बिना नहीं रह सकते कि एक विशेष उदात्त चित्र हमारे सामने आता है। इसमें दार्शनिक तथ्य की प्रधानता अवश्य है, पर काव्यालंकारों से सजा कर इसे उपस्थित किया गया है। इसका स्थाई भाव उत्साह है और यह वीर रस की रचना है।

    प्राचीन काव्यसमीक्षा के शब्दों में 'निराला' जी की उक्त कविता व्यंजनाविशिष्ट नहीं है वरन् अभिधाविशिष्ट है। इसमें रस व्यंग्य नहीं है बल्कि वाच्य है। प्राचीन शास्त्र कहते हैं कि ध्वनिमूलक काव्य ही श्रेष्ठ है, पर इस आग्रह को हम हद के बाहर लिए जा रहे हैं। नवीन काव्य जिस नैसर्गिक अदम्यता को लेकर आया है, उसमें यह संभव नहीं कि वह परंपरा प्राप्त ध्वन्यात्मकता का ही अनुसरण करता चले। प्रचलित प्रणाली को तोड़ने में, नवीन युग का संदेश सुनाने में काव्य अपनी क्रम-प्राप्त मर्यादाओं को भी उखाड़ फेंकता है। यह ध्वनि और अभिधा काव्यवस्तु के भेद नहीं हैं केवल व्यक्त करने की प्रणाली के भेद हैं। हमें प्रत्येक प्रणाली को प्रश्रय देना चाहिए, कि किसी एक को। अभिधा की प्रणाली इस स्पष्टवादी युग की मनोवृत्ति के विशेष अनुकूल है। जहाँ तक हम समझ सके हैं व्यंजना की प्रणाली में यदि कुछ विशेषता है तो यही कि उसमें काव्य को मूर्त्त आधार अधिक प्राप्त होता है। व्यंजना का अर्थ ही है संकेत, प्रतीक आदि। परंतु अभिधा में स्पष्टता अधिक है। व्यंजना के अतिशय्य से काव्यचातुरी बढ़ती है, जो प्रत्येक अवसर पर अभीष्ट नहीं कही जा सकती और सब से बड़ी बात तो यह है कि ये अभिव्यक्ति की प्रणालियाँ मात्र हैं जो काव्यवस्तु को देखते हुए छोटी चीज़ है। 'निराला' जी ने अपनी बुद्धिविशिष्ट रचनाओं को अभिधा-शैली में और स्वच्छंद छंद में लिखा है। काव्य के मूल्यांकन में हम अभिव्यक्ति की शैली को ही सब कुछ नहीं मान सकते। विशेषतः एक विद्रोही कवि जब नवीन प्रवाह को काव्य में प्रसारित करता है, वह अभिव्यक्ति की प्रणाली का ग़ुलाम होकर नहीं रह सकता। निराला ही नहीं, 'प्रसाद' सरीखे साहित्य-शास्त्र के अध्येता भी रचनात्मक साहित्य में बराबर नियमभंग करते रहे हैं। यह अनिवार्य है और साहित्यिक विकास के लिए उपयोगी भी है।

    मुक्त छंद में निरालाजी ने जहाँ एक ओर 'जूही की कली' जैसी कोमल कल्पना विशिष्ट रचना दी है वहीं 'जागो फिर एक बार' जैसे उदात्त वीर रस का काव्य भी दिया है। इतना हम अवश्य कहेंगे कि उनके मुक्त काव्य में स्वच्छंद कल्पना का अति स्वाभाविक प्रवाह है। काव्य का चिर दिन से चले आते हुए छंद-बंध से छूटना हिंदी में एक स्मरणीय घटना है। इस श्रेय के अधिकारी निरालाजी ही हैं।

    ऐतिहासिक प्रसंग को भी हमें भूलना नहीं चाहिए। जिस समय निरालाजी के स्वच्छंद छंद का विकास हुआ उसके पहले पं० सुमित्रानंदन पंत की कोमल रचनाएँ हिंदी-जनता का श्राकर्षण प्राप्त कर रही थीं। 'प्रसाद' जी का 'आँसू' तब तक प्रकाशित नहीं हुआ था। गुप्तजी माइकेल मधुसूदन का अनुवाद कर रहे थे। पं० रामचंद्र शुक्ल अपनी रसात्मक प्रणाली से तुलसी, जायसी आदि का काव्य-सौष्ठव परख रहे थे। हिंदी में सत्काव्य की अनुभूति का समय रहा था। वह हिंदी के नवीन विकास की किशोरावस्था थी। यह आज से सात आठ वर्ष पहले की बात है। इस अवस्था में यौवन की दृढ़ता अथवा शक्ति का परिचय थोड़ी ही मात्रा में था। पं० रामचंद्र शुक्ल अधिक से अधिक द्विजेंद्रलाल की सहायता लेकर रवींद्रनाथ के संबंध में दो-एक आक्षेप कर सकते थे। इस परिस्थिति में निरालाजी के स्वच्छंद छंदों से—जिसमें पूरी परंपरा का तिरोभाव कर दिया गया था—एक नया आत्मविश्वास बढ़ा। स्वच्छंद-छंद के मूल में ही यह मनोवृत्ति थी। इस आत्मविश्वास को और भी दृढ़ करने में 'निराला' जी की वे कविताएँ समर्थ हुईं जिनमें बुद्धितत्व प्रधानता थी, किंतु की जिनमें वाणी की ओजस्विता का अद्भुत प्रदर्शन था।

    यह 'निराला' जी का प्रथम विकास था इसके अनंतर निरालाजी छंदों-बद्ध संगीतात्मक सृष्टि की ओर झुके। यह उनका दूसरा चरण है। 'परिमल' की छंदोबद्ध अधिकांश रचनाएँ इसी समय की हैं और 'पंतजी और पल्लव' की समीक्षा भी इसी के आसपास प्रकाशित हुई। कविता में भावना की प्रमुखता हो चली पर 'निराला' जी की बौद्धिक प्रक्रिया भी उसके साथ-साथ रही। निरालाजी द्वारा पेटेंट किया हुआ 'काव्य निर्वाह' शब्द इसी बुद्धितत्व का संकेत है। इसका निरालाजी ने सदैव आग्रह किया। 'पंत' जी की रचनाओं में उन्हें इसी के अभाव की सब से अधिक शिकायत रहती है। यह बुद्धितत्व आधुनिक भावनाविजड़ित कविता में निस्संगता लाने में और कोरी भावुकता या कल्पनाप्रवणता को संग्रथित कलासृष्टि का स्वरूप देने में समर्थ हुआ। एक-दूसरे से असंपृक्त या टूटी हुई कल्पनाओं को एकतानता मिली बुद्धि और भावना के इस संयोगकाल का स्वरूप संक्षेप में उनकी इस 'अंधिवास' कविता में देखिए—

    उसकी अश्रुभरी आँखों पर

    मेरे करणांचल का स्पर्श

    करता मेरी प्रगति अनंत

    किंतु तो भी है नहीं विमर्ष

    छूटता है यद्यपि अंधिवास

    किंतु फिर भी मुझे कुछ त्रास

    यही स्वरूप उनकी 'पंतजी और पल्लव' समीक्षा में भी देखा जा सकता है जिसमें उन्होंने 'विश्ववाद' के 'बौद्धिक तत्व से शृंगारी कवियों के लघु चित्रों का प्रतिपादन किया है, पर भावना-भूमि में श्राकर नवीन भाषा और व्यापक भावों के लिए पंतजी की प्रशंसा की है।

    इस द्वितीय चरण में जहाँ कहीं निरालाजी बुद्धि और भावना का रमणीय योग करने में समर्थ हुए हैं, कविताएँ विशेष उज्ज्वल और निखरी हुई हैं। अनेक छोटी रचनाओं में ही नहीं 'यमुना', 'स्मृति', 'बासंती', 'वसंत समीर', 'बादलराग' आदि लंबी कृतियों में भी यह सुयोग सफलतापूर्वक सिद्ध हुआ है। इनमें बुद्धितत्व भावना के साथ सन्निविष्ट होकर, अधिकांश में अपना स्वतंत्र अस्तित्व छोड़कर, मिल गया है जिससे तल्लीन वातावरण बनकर काव्य-वैभव का विशेष विकास हो सका है।

    द्वितीय चरण के उपरान्त निरालाजी का तृतीय चरण गीत रचना का है। गीतों में कुछ तो दार्शनिक हैं, पर अधिकांश प्रेम और शृंगार विषयक हैं। इनमें मधुर भावों की व्यंजना हुई है। विराट बौद्धिक चित्रों के स्थान पर उज्ज्वल रम्य आकृतियाँ अधिक हैं। यह परिवर्तन 'निराला' जी द्वारा बुद्धितत्व के कलात्मक परिपाक की दिशा में एक सीढ़ी और आगे हैं। जहाँ 'परिमल' की अनेक कविताओं में बुद्धिजन्य प्रक्रिया काव्य के साथ दूध-मिश्री के से मिश्रण में नहीं मिल सकी वहाँ गीतों में ऐसा प्रायः सर्वत्र हुआ है। किंतु साथ ही 'परिमल' की स्वच्छंद काव्य प्रसृति की अपेक्षा इन गीतों में आलंकारिक बंधन अधिक हैं।

    निरालाजी का वास्तविक उत्कर्ष अपने युग की भावना और कल्पनामूलक काव्य में सचेत बुद्धितत्व का प्रवेश है। इससे काव्य-कला का बड़ा हित-साधन हुआ। कविता के कलापक्ष की उपेक्षा सीमा पार कर रही है और कोरे भावनात्मक उद्गार काव्य के नाम पर खप रहे थे। निरालाजी ने इस विषय में नया दिग्दर्शन कराया। आधुनिक कवियों में इस विशेषता को लिए हुए निरालाजी क्षेत्र में एक ही हैं। इस दिशा में काम करते हुए उन्होंने पहले पहल मुक्त छंद की सृष्टि की जो उक्त उद्देश के विशेष अनुकूल सिद्ध हुआ। मुक्त छंद के अतिरिक्त उन्होंने हिंदी पद-विन्यास को भी अधिक प्रौढ़ तथा अधिक प्रशस्त बनाने का सफल प्रयास किया। अत्यंत सार्थक शब्दसृष्टि द्वारा निरालाजी ने हिंदी को अभिव्यक्ति की विशेष शक्ति प्रदान की है। संगीतज्ञ होने के कारण शब्द-संगीत परखने और व्यवहार में लाने में वे आधुनिक हिंदी के दिशा-नायक हैं। अनुप्रास के वे आचार्य हैं।

    निरालाजी के काव्य में करुणा की अथवा शृंगार की दुर्बल भावनामूलक अभिव्यक्ति हमें नहीं मिलती। वे एक सचेत कलाकार हैं इसलिए उनके काव्य में संयम और अति कहीं नहीं हैं। उनमें एक अनोखी तटस्थता है जो उन्हें काव्य की भावधारा के ऊपर अपना व्यक्तित्व स्थिर रखने की क्षमता प्रदान करती है।

    निरालाजी के शृंगारिक वर्णनों में एक दार्शनिक तटस्थता है—

    पल्लव पर्यंक पर सोती शेफालि के

    मूक-आह्वान भरे लालसी कपोलों के व्याकुल विकास पर

    करते हैं शिशिर से चुंबन गगन के।

    यह रूपक एक दार्शनिक कवि ही बाँध सकता था। इसी प्रकार पति-प्रिया कामिनी को रात्रि-जागरण के उपलक्ष में यह उपहार कौन दे सकता था—

    वासना की मुक्ति-मुक्ता त्याग में तागी

    'निराला' जी ने अपनी दार्शनिकता के द्वारा अनेकशः ऐसी पंक्तियों की सृष्टि की है और कर रहे हैं जो आधुनिक हिंदी में अप्रतिम हैं। यह उद्धरण के लिए उपयुक्त स्थल नहीं है।

    निरालाजी छायावादी कवि कहे जाते हैं। उनका छायावाद कहाँ है? मुक्त छंदों में उनका दार्शनिक छायावाद 'विराट सत्ता' और 'शाश्वत ज्योति' के रूप में व्यक्त हुआ है। कितने ही स्थानों पर निरालाजी इसे 'अमर विराम' ('जागरण'), 'माता' ('पंचवटी प्रसंग'), 'श्यामा' ('एक बार बस और नाच तू श्यामा') आदि पदों में व्यक्त करते हैं। 'यमुना' में उसे वे कहीं 'श्याम' और कहीं 'अतीत' कहते हैं। इनके द्वारा कवि उसी 'शाश्वत ज्योति' की व्यंजना करता है। यह उनके छायावाद का एक पहलू है। दूसरा पहलू है 'जड़' जीव जगत में सर्वत्र उसी शाश्वत ज्योति का प्रकाश देखना। यदि वह दार्शनिक छायावाद है तो इसे उसका प्रयोग समझना चाहिए। उसमें एक ज्योति है, इसमें अनेक खंड चित्र उसी एक ज्योति से ज्योतित दिखाए गए हैं। यही निरालाजी का 'निर्वाह' है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक दृश्यवस्तु का पर्यवसान एक ही 'अदृश्य', 'अनंत' में होता है। छोटी-बड़ी मानवीय वासनाएँ भी 'बुद्धं शरणं गच्छ' के उपरांत शुद्ध स्वरूप प्राप्त करती हैं। 'वासना की मुक्ति-मुक्ता' के पद से वासना की भी परिष्कार द्वारा मुक्ति में परिगति की गई है। यही परिष्कार (निखार) निरालाजी के छायावाद की विशेषता है। बाबू जयशंकर प्रसाद मानवीय माध्यम द्वारा रहस्यात्मक अनुभूतियाँ प्राप्त करते और व्यक्त करते हैं। वे मनुष्यता से (अर्थात् मानवीय वृत्तियों से) इतना आकर्षित हैं कि मनुष्य ही उनके चैतन्य की इकाई (unit) बन गया है, पर निरालाजी के लिए यह जीवजगत मिथ्या है। उनकी इकाई वही 'शाश्वत ज्योति' है जो उनकी कविता और उनके दार्शनिक, सामाजिक, कलात्मक विचारों के मूल में है। यह Metaphysical दृष्टिकोण निरालाजी के छायावाद का आधार है। किंतु इस दृष्टि-कोण के होते भी निरालाजी की रचना में सांप्रदायिकता नहीं है, वह शुद्ध काव्य परिच्छेद में व्यक्त हुई है। निरालाजी का विकास तो इसी दिशा में हुआ है। यदि केवल एक वाक्य में निरालाजी के काव्य की व्याख्या करनी हो तो इस तरह हम कहेंगे कि निरालाजी हिंदी काव्य के प्रथम दार्शनिक कवि और सचेत कलाकार हैं।

    कविताओं के भीतर से जितना प्रसन्न अथच अस्खलित व्यक्तित्व 'निराला' जी का है उतना 'प्रसाद' जी का है पंतजी का। यह निरालाजी की समुन्नत काव्य-साधना का प्रमाण है। निरालाजी के 'कवि' में जड़त्व का अंकुश कहीं नहीं मिलता जब कि 'प्रसादजी' की भावनाएँ कहीं-कहीं साधारण तल तक पहुँच गई हैं और पंतजी का शृंगार यत्र-तत्र ऐंद्रियता की दशा तक पहुँच गया है और उनकी कविता यदा-कदा 'अपनी तारीफ़' तक करने लगी है। निरालाजी की 'यमुना' की तुलना यदि पंतजी की 'उच्छ्वास', 'आँसू' अथवा 'ग्रंथि' से की जाए—इन सब में विषय—साम्य है—तो निरालाजी का निर्लेप व्यक्तित्व देखकर मुग्ध होना पड़ता है। पंतजी के व्यक्तित्व में इतना परिष्कार नहीं है। यहाँ हम वर्णित विषय की नहीं, वर्णित विषय के भीतर से रचयिता के व्यक्तित्व की बात कह रहे हैं। अवश्य ही निरालाजी के दर्शन का यह चमत्कार विशेष रीति से उल्लेखनीय है। निरालाजी का श्रृंगार सर्वत्र संयमित है। काव्य में प्रत्येक प्रकार का श्रृंगार-वर्णन करते हुए भी निरालाजी का व्यक्तित्व कहीं भी शारीरिक अथवा मानसिक दौर्बल्य से आक्रांत नहीं देख पड़ता। आधुनिक हिंदी के किसी भी कवि के संबंध में यही बात नहीं कही जा सकती। यह हिंदी के लिए बहुत बड़ी विशेषता है।

    *** *** ***

    ये पंक्तियाँ समाप्त करते-करते हमें निरालाजी का यह पत्र प्राप्त हुआ है जिसका उद्धरण अप्रासंगिक होगा :—

    'प्रिय वाजपेयी जी,

    आज आप की 'निराला' आलोचना पढ़ी। विचारों के लिए तो मैं कुछ कह ही नहीं सकता। कारण, वे आपके हैं; पर इतिहास के लिए अवश्य कहूँगा कि सुमित्रानंदन जी को प्यार करने के आठ महीने पहले मैं हिंदी जनता की आँख की किरकिरी हो चुका था। उनको अच्छी तरह लोगों ने तभी जाना जब मौन निमंत्रण से शायद 1924 की 'सरस्वती' के फ़रवरी वाले अंक से लगातार उनकी रचनाएँ निकलने लगीं। मैं आठ महीने और पहले से 'मतवाला' के मुखपृष्ठ पर रहा था; जिसका आप ने उद्धरण दिया है—छूटता है यद्यपि अधिवास और बाद की रचना कहकर भावना-संबलित बतलाया है, 'मतवाला' के निकलने से भी पहले 'माधुरी' के पहले साल निकल चुकी है और मेरे पास 1916 की लिखी हुई पड़ी थी। शिवपूजनजी ने 'माधुरी' में भेज दी थी। समन्वय में इससे पहले और रचनाएँ निकल चुकी हैं। पंत जी का उच्छवास” सिर्फ़ छपा था। पर वह हिंदी-जनता के पास, 6-7 पृष्ठों काII क़ीमत पर पहुँच चुका था, मैं नहीं कह सकता। गुप्तजी का 'ब्लैकवर्स' वीरांगना काव्य भी पंतजी की सृष्टियों से पहले 'सरस्वती' में निकला। आप का शायद मतलब है पंतजी ने भावना का प्रसार किया, और तभी से जब वे मुसक्यानों से उछल-उछल लिखते थे।

    आपका

    निराला

    इसके संबंध में हमें यही कहना है कि यह तो हमारे ‘प्रसाद, निराला, पंत’ शीर्षक से ही प्रकट है कि हम हिंदी के क्षेत्र में 'निराला' जी का प्रवेश पंतजी से पहले मानते हैं। दो-एक रचनाओं के आगे-पीछे निकलने की बात दूसरी है। जहाँ हमने ऐतिहासिक प्रसंग का उल्लेख किया है वहाँ हमारा आशय उस वातावरण का चित्रण करना है जिसमें निरालाजी का मुक्तकाव्य प्रकट होकर हिंदी में आत्म-विश्वास की उमंग उत्पन्न कर सका। निरालाजी के बुद्धि और भावनातत्वों के विकास पर लिखते हुए हम सन् संवत् की चर्चा नहीं कर रहे थे, हम तो काव्यकला की दृष्टि विकास देख रहे थे। ऊपर उनके 'गीतों' की चर्चा करते हुए हम ने यह बात स्पष्ट भी कर दी है। यह तो हमने कहीं नहीं लिखा कि पंतजी ने हिंदी में भावना का प्रसार किया अथवा निरालाजी पर उसका प्रभाव पड़ा—वरन् हम तो दार्शनिक काव्य के भीतर से निखरे हुए निराला जी के व्यक्तित्व को हिंदी के लिए अप्रतिम मानते हैं और नवीन प्रगीतात्मक (Lyrical) काव्यशैली में की गई उनकी अनेक रचनाओं को बेजोड़ समझते हैं। उनकी रचनाएँ तीन श्रेणियों में आती हैं, 1. बौद्धिक या दार्शनिकता प्रधान (जैसे 'जागरण' ) 2. विशुद्ध प्रगीत (Lyrics) जैसे 'जूही की कली', 'विधवा', 'जागो फिर एक बार', 'सरोज स्मृति' आदि और 3. श्रालंकारिकता प्रधान और 'उदात्त जैसे—'गीतिका' के कुछ गीत, 'राम की शक्तिपूजा' आदि। इधर उनकी रचनाओं ने हास्य और विनोद की नूतनशैली धारण की है। 'कुकुरमुत्ता' उसका अभिनव उदाहरण है। निराला जी की बहुमुखी प्रतिभा का उनसे पता चलता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी साहित्य : बीसवीं शताब्दी (पृष्ठ 137)
    • रचनाकार : नंददुलारे वाजपेयी
    • प्रकाशन : इंडियन बुकडिपो
    • संस्करण : 1949

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