उपन्यास में वास्तविकता

upanyas mein wastawikta

जैनेंद्र कुमार

जैनेंद्र कुमार

उपन्यास में वास्तविकता

जैनेंद्र कुमार

और अधिकजैनेंद्र कुमार

    कलकत्ते में गुजराती भाषा-भाषियों का एक साहित्य-समाज है। हर पखवाड़े वे लोग मिलते हैं। इधर एक उपन्यास मिल-जुल कर पूरा किया जा रहा है। उसका आरंभ एक सदस्य ने किया, अगला खंड दूसरे ने लिखा और सुनाया, इस तरह सात या आठ बार में वह उपन्यास पूरा होगा। और उतने ही व्यक्ति क्रमशः उसे आगे बढ़ाएँगे।

    यह संवाद मुझे बहुत रुचिकर हुआ, देखा कि इससे सजीवता रहती है। ऐसे एक ही सूत्र के सहारे सब अलग रहकर भी एकत्र और अनुबद्ध होने का रस पाते हैं।

    उस समाज में एक सदस्य ने पूछा कि उपन्यास में वास्तविकता कितनी चाहिए? यह सवाल इस ढंग से पहले सामने नहीं आया था इससे अपने को टटोलने की जरुरत हुई। वास्तविकता से मतलब इंद्रियगम्य तथ्य ही न? जो हमें आँखों से दीखता है, स्पर्शादि से जान पड़ता है और तर्क बुद्धि से मान्य होता है, उतना ही हमारे लिए वास्तविक है।

    स्पष्ट है कि हमारे वास्तव से आगे और परे भी कुछ तो है ही। उसे हम अवास्तव कह सकते हैं पर क्या उसे असत्य भी कह सकते हैं? असत्य कहें तो ज़िंदगी हमारे लिए व्यर्थ हो जानी चाहिए और भविष्य कुछ रहना चाहिए। भविष्य, व्यतीत, उन्नति, विकास इत्यादि शब्द हैं तो इसका यही मतलब है कि वास्तव पर सत्य की सीमा नहीं है। वास्तव से परे भी सत्य है। इसलिए हमारे वास्तव की सीमा असल में हमारी ही सीमा है, सत्य तो असीम है।

    अक्सर दो शब्द एक-दूसरे के सामने यहाँ तक कि विरोध में रखकर देखे जाते हैं वे हैं, यथार्थ और आदर्श (द रीयल एंड आइडियल)। आदर्श यथार्थ में नहीं है, वह उससे बाहर होकर ही है और यथार्थ आदर्श का निषेधक होने को लाचार है; क्योंकि उसके पास कोई साधन नहीं है कि अपने से परे किसी अस्तित्व को वह जाने अथवा मान सके।

    इस द्वैत के आधार पर दो दर्शन बने। एक वह जिसके लिए ब्रह्म ही सत्य और संसार सब माया है। वास्तव जो है झूठ है, और जिसका कोई प्रमाण नहीं, जो सब युक्तियों और साक्षियों से अतीत है, पर ब्रह्म ही सत्य है। यह आध्यात्मिक दर्शन है। दूसरा भौतिक दर्शन है। उसके लिए यह रूपाकारमय जगत केवल है, बल्कि वही है। इसके अतिरिक्त और भिन्न होकर किसी अज्ञेय तत्व को मानना वहाँ कोरा भ्रम और जड़ता है। पहले के लिए जगत स्वप्न है और ब्रह्म ही सत्य है। दूसरे के लिए जगत सत्य है और आत्मा-परमात्मा वहम है।

    इन दोनों के बीच की सच्चाई आँकने की ओर जाने की मेरी वृत्ति नहीं है। वह मेरा वश भी नहीं, व्यक्ति स्वभावानुसार बरतता है। मौखिक चर्चा-विवाद से अदलता-बदलता कोई बिरला ही होगा। अक्सर चर्चाएँ आवर्त-चक्र ही रचती हैं और हर पहर को अपने माने हुए सत्य के आचरण से दूर डालती है।

    भक्त अपनी भक्ति से अपनी मूर्ति बना लेता है। मूर्ति का सत्य भक्त का आत्मार्पण है। उपासक के स्वार्पण से अलग होकर मूर्ति पत्थर है। इसीलिए नास्ति को दृढ़ता से मानने वाला नास्तिक परम आस्तिक की भाँति व्यवहार करता दीखता है। और जिनके जीवन में तत्परता नहीं ऐसे अनेक आस्तिक जन, नास्तिक आचरण करते देखे जाते हैं। नास्तिक शहीद हो गए हैं और आस्तिक कलदार बटोरने में लगे हुए हैं। इससे प्रश्न यह मानने अथवा वह मानने का नहीं, बल्कि जो माने तो उसे पूरी सच्चाई और तत्परता से मानने का ही है। सच्चा भक्त शून्य की उपासना से भी फल पा जाएगा। जबकि उपासना ही शंकित हो तो कोई उपास्य उपासक को तार नहीं सकेगा। इसलिए केवल बौद्धिक धारणाओं को छोड़ दिया जाए। बौद्धिक प्रयोजन ही उनसे सध सकता है, जीवन का कुछ काम नहीं निकल सकता। एक धारणा दूसरी धारणा से अपने आपमें ग़लत या सही नहीं होती। उसे मानने वाले के जीवन की सच्चाई अथवा झुठाई की अपेक्षा ही उन धारणाओं में सत्यता या मिथ्यात्व आता है।

    पर हमें तो यहाँ उपन्यास में वास्तविकता कितनी चाहिए, इसी बात से मतलब है। इसके लिए आवश्यक है कि उपन्यास से हम क्या चाहते हैं? यह जानें। उपन्यास से क्या हम गति चाहते हैं? उत्कर्ष चाहते हैं? क्या हमें उसे व्यक्तिगत और लोक-जीवन के विकास का साधन बनाना चाहते हैं? या यह हम उससे नहीं चाहते? तो क्या सामाजिक धरातल की स्थिति पोषक वस्तु बनाना चाहते हैं? यानी खबरें चाहते हैं? अनुरंजन चाहते हैं? अपने परिचय की विस्तृति चाहते हैं?

    उपन्यास के बारे में मेरी अपनी धारणा यह है कि वह जीवन में गति देने के लिए है। गति यानी चैतन्य। गति धक्के की तरह नहीं। पीठ की ओर से धक्का दीजिए तो उसमें व्यक्ति आगे की ओर बढ़ता तो ज़रूर है, पर बिगड़ता भी बहुत है। तीव्र और आकस्मिक धक्के हों तो औंधे गिरने की संभावना है, इसलिए गति को चैतन्य के अर्थ में कहा। अर्थात् आगे के रास्ते को साफ़-साफ़ आँखों में उँगली डालकर बताने वाला उपन्यास, उपन्यास नहीं और साहित्य, साहित्य नहीं। गति की सेवा उपन्यास इस पद्धति में नहीं करता। जिसे इस ओर लोभ हो उसको फिर प्रचारवादी साहित्य (प्रोपेगेंडिस्ट लिटरेचर) कहना होगा। प्रोपेगेंडा बढ़ाता है, गति देता है, लेकिन परिणाम में उससे प्रतिक्रिया भी होती है। इसी से सत्साहित्य से प्रचार-साहित्य कहीं गर्वीला होता है। अधिक प्रभविष्णु और कुछ अधिक स्पष्ट भी मालूम होता है क्योंकि तरह-तरह की मान्यताओं के बीच सबको गिराकर किसी एक को प्रतिष्ठित करने की चुनौती की चमक उसमें है। सत्साहित्य में वह आवेश नहीं। उसमें नम्रता की लचक है। उसे तो समभाव और सहानुभूति का प्रसार करना है न। अतः, विग्रह में जो एक गर्मी और तेजी होती है, वह उसे नहीं चाहिए। विग्रही भाव गमक और चमक ले आता हो और प्रभाव को तात्कालिक भी बना देता हो, फिर भी साहित्य उससे लाभ नहीं उठाता। क्योंकि सच पूछिए तो यह प्रभाव एक के अहंकार के उत्तेजन से आने के कारण स्थाई नहीं होता।

    तब रह जाती है वह गति जो आदमी उत्तेजनावश नहीं बल्कि स्वतः स्फूर्ति से करता है। उस गति का वह स्वयं स्वामी होता है। साहित्य को वही गति इष्ट है अर्थात् साहित्य चैतन्य को ही उद्बोधन पहुंचाता है। उस उद्बोधन के प्रकाश में, अपनी परिस्थितियों की अपेक्षा, व्यक्ति फिर स्वयं अपना मार्ग पाता और उसपर बढ़ चलता है। सबके लिए एक रास्ता तो नहीं है क्योंकि सब एक जगह नहीं है, पर साहित्य सबके लिए है। अतः साहित्य उन दिशाओं से संबंध नहीं रखता जो परस्पर विपरीत हो सकती हैं, बल्कि उसका उन चैतन्य के विकास से संबंध है जो किसी भी दिशा में गति करने की सामर्थ्य को समृद्ध करता है। इसी से बाहरी बातों में साहित्य की रुचि-अरुचि तनिक भी बंटी हुई नहीं देखी जाती।

    जीवन की गति को इस प्रकार चहुँ ओर प्रवृत्त करने का काम साहित्य से अनायास संपन्न होता है। कारण, वह व्यक्ति के अंतश्चैतन्य को तीव्र करता है। दृष्टि-गोचर होने वाले सब जगद्-व्यापार वास्तव में उसी भीतरी प्राणों की अभिव्यक्ति होने के कारण स्वयमेव साहित्य के बल से मुखरित और उद्भासित होते हैं।

    यही कारण है कि साहित्य गति देते हुए भी स्थिति को भंग नहीं करता। उससे गति को वेग मिलता है तब स्थिति को समर्थन भी प्राप्त होता है। दुनिया में स्थिति पालक और सुधारक नाम के दो पक्ष परस्पर समक्ष खड़े होकर एक-दूसरे को ललकारते देखे जाते हैं। साहित्य दोनों के लिए सहारा है। देखा जाता है कि जिन शास्त्रों को लेकर पुराणवादी अपने पक्ष को पुष्ट करते हैं, अधुनातनवादी भी अपने समर्थक में उन्हीं शास्त्रों का प्रमाण देते हैं, बेशक उन दोनों के हाथों शास्त्र का अपलाप होता है। तो यह भी शास्त्र का गुण है कि उसमें दोनों को अपना-अपना अभिमत समर्थित दिखाई दे। इस विशेषता के कारण शास्त्र को निकम्मा ठहरा सकते हो, तो भी वह एकांतिक नहीं है। एक वर्ग या एक पक्ष को दूसरे की तुलना में नीचा या ग़लत बतलाने का सीधा काम शास्त्र या साहित्य नहीं करेगा।

    कर्म-पक्ष के लोगों में साहित्य तथा शास्त्र के लिए जो उपेक्षा और अवहेलना देखी जाती है उसका कारण भी यही है। राजनीति भेद पर चलती है। एक की विजय वहाँ दूसरे की पराजय पर ही होती है। शक्ति-संपादन की पद्धति ही कुछ ऐसी है। पड़ोसी अपेक्षाकृत निर्धन हो, तब तक धन में सुख कहाँ? दाएँ-बाएँ करोड़पति हों तो अपने लाख में संतोष किसी तरह हो सकेगा। कर्म-संकुल सतह पर जो एक फेन दिखाई देता है, वह यही है। अहंकारों का एक घमासान चल रहा है। सब बढ़ा-बढ़ी में लगे हैं। नौ को पीछे डाल जो दसवाँ आगे दीख सकता है, वही कुछ है। पर चूँकि कोई ग्यारहवाँ उससे आगे है इससे नौ की पराजय में उसे संतोष नहीं रहता। सांसारिक गति इसी परस्पर की स्पर्धा से उत्तेजना पाकर आवेगमयी दीखती है।

    पर वह भ्रमित गति है। वह कहीं पहुँचती नहीं, भरमाती ही है। मुक्ति उससे पास नहीं आती, जगजाल ही बढ़ता है। यद्यपि इस तरह संसार में चकराता प्राणी प्रतिक्षण अपने को चलता हुआ अनुभव करता है पर ज़रा सोचे, देख पाए कि वह कोल्हू के बैल की तरह से चलता हुआ भी वहीं का वहीं है।

    इसी कारण यह कहकर कि उपन्यास का इष्ट गति है, यह अच्छी तरह समझ लेना होगा कि इस गति का संबंध बाहरी किसी दिशा से नहीं है। स्थूल दृष्टि से कहें तो उपन्यास का लक्ष्य बाह्य गतियों को मंद करना भी कहा जा सकता है। वासनाओं के वशीभूत होकर जो अहंकृत दौड़-धूप की जा रही है, उपन्यास उसकी तो व्यर्थता ही प्रगटाता है। एक आदमी ने ज़िंदगी में तीस-चालीस बरस बिताकर इस दुनिया में ख़ूब रुपया बनाया और इज्जत बनाई। आस-पास के लोग उसकी उन्नति पर चकित हैं। पर उपन्यास तो उसे इंसानियत की तराजू पर ही तौलकर बतलाएगा। तब बिल्कुल संभव है कि जगत में जो लखपति होने के कारण अपनी आकांक्षा का विषय था, उपन्यास में इंसानियत में दिलचस्पी होने के कारण वही आपकी करुणा का पात्र बन जाता है।

    फिर भी यह स्पष्ट रहे कि गति-विरोधी स्थिति का समर्थन भी उपन्यास में नहीं है। मात्र स्थिति जड़ता है। पत्थर, सौ-दो-सौ पाँच सौ वर्ष हो जाएँगे, वैसा का वैसा ही पत्थर रहेगा। इसी से तो वह पत्थर यानी जड़ है। आदमी पैदा होगा और बढ़ेगा। वह क्षण-क्षण बदलेगा, यहाँ तक कि गिनती के पचास-साठ सौ सालों के निरंतर परिणमन के बाद उसकी चरम परिणति होगी, मृत्यु। इस मृत्यु के कारण ही वह सजीव है। जो मर नहीं सकता, वह जीवित भी नहीं है। फूल आज खिला है, कल मुरझा जाएगा। वह मुरझाने की शक्ति की फूल की असलियत है। नहीं तो दो साल से कागज़ी फूलों का गुलदस्ता ज्यों का त्यों मेरे आले में रखा है। जो है उससे वह कुछ भी नहीं हो सकता। इसी से वह फूल नहीं है, छल है, सच्चाई उसमें नहीं है, सिर्फ़ कला उसमें है।

    इस ढंग से देख सकते हैं कि मात्र स्थिति सदोष है। चैतन्य को प्रबुद्ध और ग्रहण करने की वृत्ति जिस उपन्यास में नहीं है और जो सिर्फ़ मनोरंजन करता है, वह स्थिति-तुष्टि देता है। स्थिति-तुष्टि तामसिक है। इसलिए स्थिति के प्रति एक प्रकार का असंतोष तो साहित्य के फलस्वरूप व्यक्ति में जागना ही चाहिए। केवल मनोरंजन से असंतोष उल्टे सोता है। अनुरंजन साहित्य की शर्त तो है क्योंकि नीरस कोई वस्तु हमारी वृत्तियों की जड़ों तक नहीं पहुँच सकती। नीरस तत्त्व-शास्त्र से हमारी चेतना का संस्कार नहीं होगा। हमारी सवृत्तियों को चेताने वाला कोई प्रभाव होगा तो वह हमें थकाने और उकताने वाला नहीं हो सकता। वह ज़रूर प्रभाव बौद्धिक से गहरे तल पर जानेवाला होना चाहिए। रस वह है जो बुद्धि के स्तर पर चूक नहीं जाता, वह उससे नीचे के स्तरों को भी छूता और भिगोता है। इसी से शास्त्र निरे प्रतिपादन नहीं हैं, वरन् उनमें प्रसाद है, ऋत है, ऋजुमा है और वर्णन का सौंदर्य भी है।

    इस प्रकार उपन्यास स्थिति से परिबद्ध नहीं होना चाहिए। स्थिति का भंग उसमें इष्ट हो सो नहीं। समाज की रीति-नीति को ध्वस्त करने का कोई क्रांतिकारी लक्ष्य उपन्यास अथवा साहित्य नहीं हो सकता। क्योंकि स्थिति उखड़ी तो गति ही औंधी गिरी। क्रांति इस तरह साहित्य के निकट एक आलंकारिक (रोमांटिक) शब्द से अधिक नहीं है, उसके पीछे चलना मृग-तृष्णा के पीछे भागना है। उसमें उपलब्धि नहीं सिर्फ़ तृष्णा है। पर आज की प्रचलित रीति-नीति में बंद होकर बैठना भी नहीं हो सकता। उसके प्रति आलोचना और अतृप्ति की वृत्ति ज़रूरी है। जिसमें यह नहीं वह उपन्यास अपना दायित्व पूरा नहीं करता।

    इस जगह आरंभ के प्रश्न को लिया जा सकता है। अगर उपन्यास जीवन के विकास-साधन के लिए है, तो वास्तविकता उसकी मर्यादा नहीं हो सकती। वास्तविकता का धरातल उठेगा उससे, जो स्वयं उससे ऊँचा होगा। इससे उपन्यास को वास्तविकता पर नहीं, उससे ऊँचे पर होना होगा। मैं मानता हूँ कि यह आवश्यक है। उपन्यास वास्तविक होने के लिए नहीं है। वह वास्तविक नहीं होना चाहिए। वास्तविक होने की कोशिश करते वह अपने को निरर्थक ही कर सकता है। उपन्यास के पात्र यदि हम-आप की तरह डेढ़-डेढ़ दो-दो मन के होने लगेंगे तो इससे दुनिया का कुछ नहीं होगा। उनसे सच्चे अर्थ में हमें लाभ तो तभी कुछ होगा जब वे हमसे कम माँसल और अधिक मानसिक होंगे। उनमें आत्मा अधिक होगी और पंचभूत कम होगा। उसके लिए आवश्यक है कि उपन्यास के पीछे एक आदर्श की प्रेरणा हो। आदर्श की प्रेरणा को कोई रोमांटिक कहे तो मुझे आपत्ति नहीं, आसानी से यह मान लूँगा कि उपन्यास के लिए रोमांटिक-वृत्ति आवश्यक है। यानी वास्तविकता से परे, अलग, ऊँचे जाने वाली वृत्ति भी उपन्यासकार में नितांत आवश्यक है। जो एकदम वास्तविकता में लिप्त है फिर चाहे वह कितना भी बड़ा आदमी माना जाता हो, सफल उपन्यास नहीं लिख सकता। एकदम जरूरी है कि वह कुछ अबोध भी हो, मिस्टिक हो। ज्ञात और वास्तविक के प्रति किंचित उपेक्षाशील वह हो सके और अज्ञात के प्रति उन्मुख। कर्तव्य के साथ वह कुछ स्वप्न भी रखता हो। ज़रूरी है कि स्वप्न के लिए वह वास्तव को बलिदान कर सकता हो। ऐसा नहीं, तो उपन्यास चित्र-विचित्र घटनाओं या पात्रों का आकलन भर हो जाएगा। यह स्वप्न-शील आदर्श-प्रणता होने पर कितनी भी तत्त्व-चिंता अथवा मनः समीक्षा का चातुर्य उपन्यास में डाला जाए, वह लोगों के मन को नहीं जीत सकेगा, कोई उत्कर्ष-साधन कर सकेगा।

    इस दृष्टि से मैंने उन भाई को खुले कह दिया कि उपन्यास में वास्तविकता नहीं चाहिए। अब यह व्यक्ति के ऊपर है कि वह वास्तव से किस हद तक छुट्टी पा सकता है। असमर्थ व्यक्ति देवताओं की कथा नहीं लिख सकता। ऐसे असमर्थ को वास्तविकता की धरती नहीं छोड़नी चाहिए, पर जिसमें सामर्थ्य है और अपनी कल्पना के ज़ोर से देवताओं को मनुष्य से भी अधिक प्रबल और प्रभावक रूप में चित्रित कर सकता है, वास्तविकता के नाम पर उसे इस काम से रोका जा सकेगा। हमको जानना चाहिए कि हमसे अधिक हमारे देवता जीते हैं। उनकी आयु अधिक है, उनकी शक्ति अधिक है। केवल उनमें शरीर कम है। वे आदर्शप्राण और भावनामय होने के कारण ही क्या अधिक सत्य नहीं हैं? तुलसी से तुलसी के राम कहीं अधिक सत्य हैं। क्योंकि तुलसी इतिहास द्वारा खोजे और पहचाने जा सकते हैं, पर उनके राम के संबंध में तो ऐसा मालूम होता है कि उनके पिता दशरथ, माता कौशल्या और पत्नी सीता लोक-कथा के ही प्राण हैं, स्थूल जगत के हैं ही नहीं। राम अनैतिहासिक, अनाधिभौतिक हैं। लगभग वे पूर्णतया आध्यात्मिक हैं। तभी तो वे इतने अधिक सत्य हैं कि आज हिंदुस्तान का जीवन उनके नाम के बिना चल ही नहीं सकता।

    यहाँ वास्तव और सत्य के अंतर को चीन्हना होगा। वास्तव में फैक्ट और सत्य ट्रुथ| उपन्यास सत्य की शोध है। उसकी लगन सत्य दिशा में है। वास्तव (फैक्चुअल) से उपन्यास आगे (ट्रुथ) की ओर गति करता है अर्थात् वास्तव पर केवल उपन्यास के पैर चाहिए। उसकी अभिलाषा वास्तव में नहीं हो सकती। उपन्यास का सत्य केवल उसका शरीर वास्तव है। जीने के लिए बेशक शरीर चाहिए, पर वह आत्मा के मंदिर के रूप में हो। अर्थात् शरीर आत्माभिव्यक्ति के साधन रूप में ही सह्य है। यों वह अपने-आप में बाधा है। शरीर की अधिकता जीवन के उत्कर्ष को रोकती है। शरीर को जिसने लाड़-लड़ाया, वह जीवन में महत्त्व संपादन नहीं कर सका। इसी तरह वह उपन्यास जिसने जगत को यथार्थ और वास्तव के आगे माथा झुकाया, उसी कारण हीन रह गया। सिर तो हवा में ही रहता है, हाँ, पैर जरूर धरती पर चाहिए।

    इसलिए मैंने वहाँ उन भाई से कहा कि उपन्यास में वास्तविकता यथावश्यक से अधिक बिल्कुल होनी चाहिए। यथावश्यकता का कोई परिमाण नहीं, जितनी न्यून हो उतना भला। वह तो सिर्फ़ सत्य-प्रतीति को पाठक तक वहन करने के लिए है। वह वाहन है, उसकी पीठ पर अधिष्ठित होना चाहिए सत्य। उदाहरण और रूपक से नीति-शिक्षा और आध्यात्म-सार लोगों के हृदयों में डालना है। वह उदाहरण जितना अधिक आडंबर से हीन ही हो और अपने समूचेपन में उस सार को ही व्यक्त करता हो, उतना ही श्रेष्ठ है। रूपक की अपनी सत्ता ही नहीं है। जो पात्र वहाँ सामने आते हैं, वे व्यक्ति नहीं व्यक्तिकरण हैं। वे प्रतीक-भर हैं। सामाजिक मनुष्य के निकट सत्य-तत्त्व की प्रतीति पहुँचाने में सुविधा, सामाजिक पात्रों को वाहन बनाकर कथा रचने से होती है, इसलिए उसके चारों ओर सामाजिकता का वातावरण भी रचा जाता है। ताकि पाठक को ऐसा लगे कि कुछ बताने के लिए मेरे आगे गढ़ंत गढ़ा जा रहा है। उसे ऐसा लगे कि यह सब कुछ उसके सामने किया नहीं जा रहा है, बल्कि सचमुच हो ही रहा है।

    इसी में से यह परिणाम हाथ आता है कि रचनाकार को अपनी रचना के पीछे एकदम लुप्त रहना चाहिए। उसे अपनी ओर से कुछ नहीं कहना है। सारे पात्र उसी को तो कह रहे हैं। उनसे अलग होकर उपन्यास में यदि और कुछ कहा जाता है तो वह उपन्यास की श्रेष्ठता को नहीं बढ़ाता, किंचित उसको ऋण ही करता है। पात्रों का कार्यकलाप ही बस है। उस द्वार के अतिरिक्त जैसे लेखक स्वयं पाठक के हाथ में जाने को उद्यत नहीं। कला की इस आवश्यकता के कारण सामाजिक उपन्यास के बाह्य रूप को बेशक अत्यंत वास्तविक होकर सामने आना चाहिए। ध्यान रहे कि वास्तविक होने की आवश्यकता कला की आवश्यकता ही है। वह स्वयं वास्तविकता की अवश्यकता नहीं। शरीर स्वच्छ, नीरोग और पुष्ट चाहिए। इसलिए नहीं कि वह पंचभौतिक है अथवा उसे सुदंर दिखना है, बल्कि केवल इसलिए कि आत्मा उसमें स्वस्थ रहे। एक तरह से देह धारण करके देही को अलक्ष्य रहने में सुविधा होती है। शरीर है, इसी से उसके भीतर हृदय प्रकट होकर भी छिपा रह सकता है। माया की यही सार्थकता है कि वह ईश्वर को छिपाकर धारण करे।

    जैसे अंगूर पर छिलका होता है, वैसे ही उपन्यास पर वास्तविकता का परिधान चाहिए। छिलका केवल रस की सुरक्षा के लिए है। जिसे रस चाहिए वह छिलके को देखेगा भी नहीं। रस पीना है तो उसे छानकर छिलका फेंकने के लिए तैयार होना होगा। यह सही है कि छिलका होने पर रस एकत्र होने का अवसर ही पाएगा। लेकिन बस, इससे अधिक उस छिलके का प्रयोजन नहीं है। वास्तविकता का प्रयोजन भी इससे अधिक नहीं है।

    यह भी मुझे जान पड़ता है कि कार्य के पीछे के कारण को, घटना के पीछे के हेतु को पकड़ने के लिए बाहरी बहुत कुछ छोड़ते जाना होगा। अशर्फ़ी के लिए कौड़ी छोड़नी होगी। अमरता के लिए शरीर को मरने देना होगा। इसी तरह जो ऐक्य इस तमाम अनेकता को धारण कर रहा है उसको पाने के लिए एक-एक को छोड़ते भी जाना होगा।

    तभी तो है कि नित्य-नैमित्तिक जीवन की स्थूल घटनाओं का लेखा उपन्यास में नहीं मिलता। उपन्यास के पात्र रोज सबेरे सात बजे ही स्नान करते नहीं दिखाए जाते, उनके दाँतुन करने और भोजन करने आदि का जिक्र है। उपन्यास अपने चरित्र को जानने और जतलाने के लिए इन सब स्थूल व्यापारों के पार देखेगा। इन सब व्यापारों की संभावना और उद्भावना को धारण करनेवाली जो उस चरित्र की मानसिकता है, उसके व्यक्तित्व की भीतरी व्यथा और सत्यता है, उसे दिखलाने का उपन्यास प्रयासी होगा।

    पत्तों की गिनती में वृक्ष का सत्य निहित नहीं है। उसके शोध में गहरे जाना हो तो, उसका रस लेना होगा। उस रस की बूंद में ऊपर से यह पता चलेगा कि यह किस वृक्ष का है और इसके कैसे पत्ते रहे होंगे। रस की बूँद में पेड़ की लंबाई-चौड़ाई और उसकी विविधता का कुछ भी प्रभाव नहीं रह जाता। उस रस के पृथक्कण से इसीलिए वृक्ष का अधिक सत्य प्राप्त किया जा सकता है क्योंकि वहाँ उसकी रूपाकारमय बृहत्ता एकदम गौण वस्तु रह जाती है।

    उपन्यास में वास्तविकता का यही स्थान है। सुधी पाठक के लिए वह वाहन-भर है। रसोपलब्धि की दृष्टि से वह परिहार्य तक ठहरती है। धरती पर का आदमी जिन तरह-तरह की लाचारियों के कारण उभर नहीं सकता, क्या उन लाचारियों में उपन्यास के नायक को भी बाँधना होगा? मैं मानता हूँ कि उपन्यास के नायक हमारे भीतर की संभावनाओं के चित्र अधिक हैं। वे हमारी अपूर्णता की पूर्तियाँ हैं। वे हमारे फ़ोटोग्राफ़ नहीं हैं, उससे अधिक हैं। चित्र फ़ोटोग्राफ़ से अधिक होता है। उपन्यास लेखक भी फ़ोटोग्राफ़र नहीं है वह चित्रकार है, यानी उसमें विवेक है। उस विवेक द्वारा वास्तव के पर्याप्त अंश को वह छोड़ देता है।

    जानता हूँ कि आजकल यथार्थ का एक बाद भी है तो भी मैं नहीं मानता कि आदर्श को हक नहीं है कि यथार्थ को अस्वीकार करे। उपन्यास वास्तव में उस आदर्श की ओर उठने के प्रयास में ही बनना चाहिए। यथार्थ से उठना और यथार्थ को उठाना नहीं है तो उपन्यास का प्रयोजन ही क्या? हाँ, प्रयोजन खोज ला सकते हैं और उन पर उपन्यास लिखे भी जा सकते हैं, पर क्या सचमुच उनको उपन्यास कहना ही होगा?

    स्रोत :
    • पुस्तक : हिंदी साहित्य शास्त्र (पृष्ठ 59)
    • रचनाकार : जैनेन्द्र कुमार

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