सुमित्रानंदन पंत (आधुनिक कविता का विकास)

sumitranandan pant (adhunik kavita ka vikas)

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

सुमित्रानंदन पंत (आधुनिक कविता का विकास)

पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

और अधिकपदुमलाल पुन्नालाल बख्शी

    गत पचीस वर्ष के भीतर हिंदी के काव्य-क्षेत्र में बड़ा परिवर्तन हुआ है। इस परिवर्तन को स्पष्ट करने के लिए मैं यहाँ चार कवियों की चर्चा करता हूँ। आधुनिक हिंदी-कवियों में सबसे अधिक प्रसिद्धि बाबू मैथिलीशरण गुप्त की है। उन्हीं की रचनाएँ सबसे अधिक लोकप्रिय हैं, उनके कारण उनका जन्म-स्थान चिरगाँव (झाँसी) भी प्रसिद्ध हो गया है। आधुनिक युग की सभी भावनाएँ उनकी कृतियों में विद्यमान हैं। देश-भक्ति, आत्म-सुधार, स्वावलंबन, विश्व-प्रेम, उच्चादर्श, देशाभिमान और स्वधर्मानुराग—यही सब भाव उनकी कविताओं में मूर्तिमान् हैं।

    अपने कविता-काल के प्रारंभ से लेकर आज तक गुप्तजी सभी प्रकार के पाठकों में लोकप्रिय बने हुए हैं। पहले-पहल ब्रज-साहित्य के कल्पनोन्माद के विरुद्ध जो एक प्रतिक्रिया आरंभ हुई, वह सबसे प्रथम मैथिलीशरण जी की रचनाओं में ही बिलकुल स्पष्ट हुई है। उनकी 'भारत-भारती' में देश का यथार्थ चित्रण हुआ है। इसके बाद पौराणिक कहानियों को लेकर उन्होंने जो काव्य-कथाएँ लिखीं, उनमें सर्वत्र मानवीय भावों की ही प्रधानता रखी। तुलसीदास ने संसार में भगवान का दर्शन कराया, मनुष्य-जीवन में देवत्व का प्रदर्शन किया। गुप्तजी की यह विशेषता है कि उन्होंने देवों में मानवीय भावों की प्रतिष्ठा की। मनुष्यों की समस्त दुर्बलताएँ और क्षमताएँ उनके देव-तुल्य पात्रों में प्रकट हुई हैं। 'साकेत' की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण यही है। उसमें उर्मिला की गूढ़ व्यथा, सीता का प्रेम, राम और लक्ष्मण की स्नेह-जन्य दुर्बलता—ये सब ऐसी बातें हैं, जो गुप्त जी के पात्रों को हमारे अत्यधिक निकट ला देती हैं। रामचरित मानस में सीता का जो अलौकिक प्रेम और रामचंद्र का जो अचिंत्य स्वरूप अंकित हुआ है, वह पाठकों के लिए अनधिगम्य है। राम और सीता उनके आराध्यदेव हैं—उनसे उनके हृदय में आतंक, विस्मय और भक्ति का उद्रेक हो सकता है। किंतु गुप्त जी के चरित्र-चित्रण की यह विशेषता है कि इन्हीं पात्रों से पाठकों के हृदय में सह-वेदना और सहानुभूति के भाव जाग्रत् होते हैं।

    आधुनिक युग में सत्य की परीक्षा आरंभ होने पर लोग अपने अंतर्जगत् की यथार्थ परीक्षा करने के लिए उद्यत हुए, तब उन्होंने वहाँ एक अतींद्रिय जगत् का आभास पाया। वह जगत स्पष्ट रहने पर भी उतना ही यथार्थ है, जितना कि बाह्य जगत्। उसके प्रभाव का हम लोग अपने जीवन में अनुभव करते रहते हैं। जिस प्रकार अतीत काल के चरित्र जीवन पर अक्षय प्रभाव डालते हैं, उसी प्रकार हम लोग अपने जीवन में यह भी अनुभव करते हैं कि हम जो कुछ देख रहे हैं, उसी में हमारा अंत नहीं है। इसके अतिरिक्त भी हमारा एक जीवन है और उस जीवन का संबंध हमारे वर्तमान जीवन से है। इसी रहस्यमय जीवन को स्पष्ट करने के लिए हिंदी में वस्तुवाद के विरुद्ध जो एक प्रतिक्रिया आरंभ हुई, वह कवियों की रचनाओं में छायावाद के नाम से प्रकट हुई। लोग मानो यथार्थ जगत् की सीमाबद्ध मानव-लीला से विरक्त होकर किसी असीम या अनंत जीवन की प्राप्ति के लिए व्यग्र हो उठे। यह व्यग्रता छायावाद की रचनाओं में प्रकट हुई है। गुप्त जी की रचनाओं में भी हम उस भाव का पूर्वाभास पाते हैं, जो पीछे से छायावाद का नाम ग्रहण कर थोड़े ही दिनों में हिंदी के वर्तमान कवियों में अत्यंत लोकप्रिय हुआ है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्त जी की कविताओं में जहाँ एक ओर देश की उच्चतम आकांक्षा की ध्वनि है, दूसरी ओर नवयुग की सभी भावनाएँ भी स्थान पा चुकी हैं।

    सियारामशरण गुप्त हिंदी के प्रख्यात कवि मैथिलीशरण गुप्त के अनुज हैं। उन पर गुप्त जी का विशेष प्रभाव पड़ा है। उनकी शैली और भाषा तो गुप्त जी की शैली और भाषा का ही आभास देती है; परंतु दोनों की विचारधाराओं और काव्यवस्तु में बड़ी विभिन्नता है। मैथिलीशरण गुप्त ने विषय की महत्ता पर सदैव ध्यान दिया है। उनके काव्य-नायकों के चरित्र उदात्त हैं, काव्य वस्तु महत् है और उनका काव्य-क्षेत्र भी अत्यंत विस्तृत है। सियारामशरण ने सर्वसाधारण के दैनिक जीवन को ही अपनी कविता के लिए उपयुक्त समझा है। सुख-दुःख की जो घटनाएँ हमारे जीवन में प्रतिदिन होती रहती हैं, भावों के जो घात-प्रतिघात हम लोगों को हमें मोह जाल में फँसाएँ रहते हैं, वे सभी उनके वर्णनीय विषय हैं। उनकी कहानियाँ विक्षुब्ध करते रहते हैं, आशा-निराशा, संयोग-वियोग, उत्थान-पतन की जो लीलाएँ और नाटकों में हम यही बात पाते हैं। कवि द्रष्टा कहे जाते हैं, परंतु सियारामशरण जी ऐसे दर्शक हैं, जो कभी भी तटस्थ या विरक्त नहीं रह सकते उनका हृदय सदैव उन घटनाओं से द्रवीभूत होता रहता है, जिनका वे वर्णन करते हैं। उनकी रचनाओं में उनका यह उद्वेग, उनका यह क्षोभ बिलकुल स्पष्ट लक्षित होता है। मैथिलीशरण गुप्त अतीत और वर्तमान के चित्र प्रदर्शित कर हमें भविष्य का संकेत कराते हैं। उनकी वाणी में आशा और विश्वास की दृढ़ता है। उनमें गंभीरता और स्थिरता है; पर सियारामशरण जी की रचनाओं में एक अधैर्य है असहिष्णुता है, असंतोष की तीव्र भावना और विद्रोह है। उनकी गणना आधुनिक क्रांतिकारी कवियों में अवश्य नहीं की जा सकती, परंतु इसमें संदेह नहीं कि उनकी रचनाओं में वह अशांति अवश्य है, जो क्रांति का पूर्वाभास देती है।

    'प्रसाद' जी प्रतिभा-संपन्न कलाकार थे। उनकी शैली उन्हीं की शैली है। उनके सभी ग्रंथों में एक विशेष प्रकार की मौलिकता निहित है, जिस पर 'प्रसाद' जी के व्यक्तित्व की पूरी-पूरी छाप है। लोगों ने कितने ही कवियों का अनुकरण किया है; पर 'प्रसाद' जी का अनुकरण कोई नहीं कर सका। उनकी भाषा संस्कृत-मिश्रित अवश्य है; परंतु उसमें एक विशेष ओज और भाषा की विशेषता के कारण वे पहले लोकप्रिय नहीं हुए। उनकी लोकप्रियता तब बढ़ी, जब लोगों ने उनकी कृतियों का ध्यानपूर्वक अध्ययन किया। उनके सर्वश्रेष्ठ काव्य 'कामायनी' पर उन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिला भी, तो मृत्यु के बाद।

    'प्रसाद' जी की सृजन-शक्ति भी अपूर्व थी। उन्होंने कविताएँ लिखीं, कहानियाँ लिखीं और नाटक तथा उपन्यास भी रचे। इस सब में उनकी अपूर्व सृजन-शक्ति विद्यमान है। वे हिंदी के एक मात्र ऐतिहासिक नाटककार कहे जा सकते हैं। उनके नाटकों में ऐतिहासिक वातावरण बड़ी कुशलता से निर्मित किया गया है। उनके पात्र इतिहास के नर-कंकाल नहीं हैं, अतीत युग के सजीव चरित्र हैं। उन्होंने अपनी कथाओं में समाज का यथार्थ चित्र अंकित करने का प्रयत्न नहीं किया, इसके विपरीत अपनी विशिष्ट भावना के अनुसार एक औपन्यासिक संसार की रचना कर उसमें भिन्न-भिन्न पात्रों के मानसिक जगत् का अंतर्द्वंद्व दिखलाया है। उनका कोई भी पात्र ऐसा नहीं है, जिसे हम अपना परिचित साथी समझ सकें। पाठकों के लिए वे सभी अपरिचित व्यक्ति के समान हैं। पर ऐसे पात्रों के प्रति भी पाठकों के हृदय में सहवेदना का भाव जाग्रत करने में 'प्रसाद' जी सफ़ल हुए हैं और उनकी सबसे बड़ी विशेषता यही है।

    सुमित्रानंदन पंत अल्मोड़ा के निवासी हैं। हिंदी के वही एक ऐसे कवि हैं, जिनकी यथार्थ शिक्षा प्रकृति देवी की गोद में हुई है। बाल्यकाल से लेकर आज तक वे प्रकृति की उपासना में निमग्न हैं। उनकी कविता के प्रवाह में हम पर्वत की निर्झरिणी की गति देखते हैं। उनकी रचनाओं में वही कोमलता, वही स्निग्धता, वही मधुरता और वही उच्छृंखलता है, जो हम प्रकृति में सहज ही पाते हैं। पंत जी ने अपने लिए नए छंदों की रचना की, नई उपमाओं की सृष्टि की और एक नया ही पथ खोज निकाला। उनकी भाषा भी उनकी कल्पना के उपयुक्त है—उसमें मधुरता है, सुकुमारता है और क्षिप्रगति है। शब्दों के चयन में उन्होंने कौशल दिखाया है।

    मुझे स्मरण है कि 1920 में इलाहाबाद के जैन-बोर्डिंग हाउस में एक कवि-सम्मेलन का आयोजन किया गया था। उसके सभापति थे पंडित अयोध्यासिंह उपाध्याय। उस सम्मेलन में पंत जी ने जब अपनी कविता पढ़ी, तब सारी उपस्थित जनता मुग्ध हो गई। उपाध्याय जी ने उन्हें माला पहनाई। उस समय पंत जी सोलह वर्ष के रहे होंगे। उनके स्वर में जो माधुर्य था, वही माधुर्य उनकी रचना में था। उनमें जो सुकुमारता और सुंदरता थी वही उनकी भाषा में थी। इसके पहले उनकी कविता प्रकाशित भी हो गई थी। मुझे ऐसा जान पड़ा था कि पंत जी ने अपनी एक भाषा के इंद्रजाल में सब लोगों को वशीभूत कर लिया है। मैं विज्ञ की तरह सिर हिलाकर अपने को उस इंद्रजाल से बचाना चाहता था। मैंने कहा कि शब्दों के अर्थहीन सौंदर्य में क्या रखा है। तब पंत जी ने मुझको 'कलरव' नाम की कविता दी। नदी की कलरव-ध्वनि, पत्तों की मर्मर-ध्वनि और खगों के कलरव में जो रमणीयता और सुंदरता है, वही उन्होंने अपनी उन तीन कविताओं में व्यक्त कर दी थी। मैं निरुत्तर हो गया; पर उनकी कविता के इस इंद्रजाल से बचने के लिए मैं और भी अधिक प्रयत्न करने लगा। एक दिन उन्होंने मुझको 'मौन निमंत्रण' और 'शिशु' नामक कविताएँ सुनाईं और उन्हें सुनकर मैं अवाक् रह गया। उसी दिन से मैं उनका भक्त अनुचर हो गया। आज हिंदी की जो पाँच पुस्तकें मुझे सबसे अधिक प्रिय हैं उनमें एक पंत जी का ‘पल्लव’ है।

    कहा जाता है कि 'गुंजन' में पंत जी जीवन क्षेत्र के भीतर अधिक प्रविष्ट हुए हैं। उनकी काव्य-शैली भी उसमें अधिक संयत और गंभीर है। 'गुंजन' के संबंध में स्वयं कवि ने लिखा है कि वह प्राणों का उन्मन 'गुंजन' है। यौवन-काल के औत्सुक्य पूर्ण लालसापूर्ण भावों का उद्गार उसमें है। युवावस्था में जो आदेश आता है, उसमें जीवन की मधुरता पाने के लिए जो आतुरता रहती है, उसी जीवन की इसमें अभिव्यक्ति हुई है। संसार में वेदना है; परंतु उसी वेदना को सहने से हृदय कोमल होता है, उसमें उज्ज्वलता आती है, उसी से वह संसार से आत्मीयता स्थापित कर लेता है। स्वार्थ की क्षुद्र सीमा से उसे छुटकारा मिल जाता है। तब समस्त विश्व से वह संबंध जोड़ लेता है। संसार में जो सुख-दुःख के भाव होते रहते हैं, उन सब को सह लेता है। अकेले में वह शून्यता का अनुभव करता है; परंतु जब वह अपने जीवन को विश्व के जीवन में मिला देता है, तब वह सार्थकता प्राप्त करता है और सुख का अनुभव करता है। संसार में सुख-दुःख का मिलन आनंद से रहित नहीं है। सुख-दुःख दोनों को समान भाव से ग्रहण करने में ही माधुर्य है। ऐसा कोई नहीं है जिसके हृदय में सुख के फूल के साथ दुःख के काँटे हो। परंतु इसी सुख-दुःख में संसार का जीवन है। दुःख को आनंद-रहित नहीं समझना चाहिए, क्योंकि दुःख के आस्वादन करने पर ही हमें आनंद का अनुभव होता है। जैसे अंधकार के बाद प्रकाश होता है, वैसे ही दुःख के बाद सुख भी होता है। सुख और दुःख दोनों अस्थिर हैं। जीवन नित्य है। काँटों में रहकर ही फूल खिलते हैं, अग्नि में जलकर ही सोना उज्ज्वल होता है। दावाग्नि से जल जाने पर वन में मेघ की वृष्टि होने पर नए अंकुर उठते हैं। उसी प्रकार दुःख में भी हमको सुख छिपा फूल खिलते हुआ मिलता है। हमें सुख द्वारा दुःख को अपनाना चाहिए। मिथ्या पीड़ा से हम लोग प्रतिपल व्याकुल होते हैं। जीवन में हम तरह-तरह की इच्छाएँ करते हैं। वे इच्छाएँ मन में ही प्रकट होती हैं और मन में ही विलीन हो जाती हैं। इन इच्छाओं से हमारे अभीष्ट साधन में बाधा होती है। समभाव से सुख और दुःख दोनों को ग्रहण करने की इच्छा ही आत्म-तत्त्व प्राप्त करने का साधन है। मनुष्य जब सचराचर विश्व को अपना लेता है, तब वह सुख प्राप्त करता है। जब तक वह विश्व से यह संबंध नहीं जोड़ लेता तब तक उसे मानव जीवन अपूर्ण लगता है। सचराचर विश्व में जीवन की जो धारा बह रही है, उसी में मनुष्य को उल्लास का अनुभव होना चाहिए। तभी वह प्रकृति की सभी लीलाओं में आनंद का अनुभव कर अपने को सुखमय बना डालेगा। विश्व में छोटी-से छोटी वस्तु भी उपेक्षणीय नहीं है। छोटे-छोटे जल-कणों से समुद्र बनता है। छोटे-छोटे अणुओं से विश्व की रचना हुई है, जो छोटा है, वही बढ़कर बड़ा हो जाता है। संसार में सर्वत्र सौंदर्य है, सर्वत्र आनंद है; हमें विश्व के प्रति सहानुभूति ही होनी चाहिए। हमें फूल की तरह अपना सौरभ संसार में फैला देना चाहिए। एक क्षुद्र सीमा में बद्ध रहकर अनंत की ओर अग्रसर होना चाहिए। उसी अनंत में लीन हो जाने पर हम जीवन का यथार्थ आशय समझ जाएंगे। यही कवि के 'गुंजन' का आशय है।

    सभी देशों और सभी कालों में मनुष्यों ने अपनी सौंदर्य भावना, विस्मय और प्रेम को अप्सरा के रूप में प्रकट किया है। कथाओं में अप्सरा किसी-न-किसी को मोह में और प्रेम में डालने के लिए प्रकट होती है। सभी बच्चे अपने शैशव-काल में अपनी माताओं से इसी अप्सरा की कथा सुना करते हैं, और तब उनके हृदय में उसी अप्सरा के संबंध में किसी रूप राशि की कल्पित मूर्त्ति प्रकट हो जाती है। यौवनावस्था में वे अपनी प्रियतमा को इसी कल्पित अप्सरा के रूप में देखते हैं। कहा जाता है कि अप्सरा इंद्रलोक में नाचती है। देवों की सभा में वह जाने कितनों को अपने कटाक्षों से चंचल करती है। मेघों में जो बिजली चमक जाती है, वही कदाचित् उसके कटाक्षों का आभास देती है। आकाश में जो इंद्रधनुष उदित होता है, उसी से उसके वस्त्र की छवि का अनुमान किया जा सकता है। नीले आकाश में चंद्रमा उसकी वेणी के फूल की सुधि दिलाता है। स्वर्ग-गंगा में वह जल-विहार करती है। वहाँ हंसों के समान चंद की प्रतिच्छायाएँ जल की तरंगों में तैरती हुई-सी मालूम होती होंगी। उसी के कानों के कण मानो तारे बन गए हैं। उसी की देह की कांति कमलों के समान चंचल तरंगों में प्रतिबिंबित होती है। वह बादल पर चलती है। चंद्रमा में जो मृग का बच्चा है, उसे वह गोद में लेकर मानो इंद्रधनुष के पुल पर से चलकर आकाश को पार करती है। स्वर्ग की यह कल्पित अप्सरा पृथ्वी पर युवती के रूप में अवतीर्ण होती है। युवती जो कटाक्ष करती है, उसकी शिक्षा मानो वह उसी से पाती है। कल्पना में कवियों ने इसी रूप-राशि का निर्माण किया है। वह रूप-राशि सबसे अलक्षित है; परंतु विश्व में व्याप्त है। संसार में जहाँ कहीं सुंदरता, सुकुमारता और विशदता है, वहीं उसका अस्तित्व है। तितलियों के पंख, चंद्रमा की किरणों से प्रतिबिंबित शीत-बिंदु, अस्फुटित कली, चंचल तरंग या अविकसित कमल में उसकी बास है। अंधकार में उसी के केश की श्यामता है। लहरें उसी के हार हैं। फूलों की लालिमा में उसी के पद-पाद की शोभा है। बर्फ़ से आच्छादित पहाड़ों में उसी की देह की कांति है। उषाकाल की लालिमा उसी के चर्म की लालिमा है। चंद्रमा की ज्योति से उद्भासित मेघ मानो उसके पर हैं। तारों का कंपन मानो उसी के हृदय का स्पंदन है। सौंदर्य की वह भावना चिरकाल से विद्यमान है। वह कभी बंद नहीं हुई, वह कभी क्षीण नहीं हुई। प्रत्येक युग में सौंदर्य की भावना में नवीनता जाती है। इस प्रकार किसी-न-किसी रूप में उस रूप-राशि का दर्शन हम लोग करते ही हैं। क्या मनुष्य, क्या देवता, क्या ऋषि, सभी प्रकार के लोगों के लिए यह रूप आकर्षक है। मनुष्यों की सभी इच्छाएँ उसमें लीन हैं। सुख-दुःख, पाप-पुण्य, सभी में उस रूप-राशि की विद्यमानता है और उसका कभी अंत नहीं होने का। जब तक संसार में सौंदर्य है, तब तक सौंदर्य को मूर्तिमती बनाकर अप्सरा के रूप में हम देखेंगे ही।

    मेरी समझ में तो पंत जी की सबसे बड़ी विशेषता है, उनकी यही अप्सरा-सी कल्पना। अपने जीवन के प्रारंभ-काल में उन्होंने संसार को रहस्यमय देखाः किंतु उस रहस्य का उद्घाटन करने के लिए उन्होंने ज्ञान का आश्रय नहीं लिया। एकमात्र कल्पना से ही उन्होंने संसार को समझने की चेष्टा की। उन्हें विस्मय हुआ, आतंक हुआ, आनंद हुआ, मोह हुआ। पर इन सभी भावों के उद्रेक से वे प्रकृति के और भी अधिक समीप हो गए। प्रकृति उनके लिए जड़ वस्तु नहीं, सुंदरता की सजीव देवी है, जो उनकी सहचरी होकर सदैव उनके साथ बनी रहती है। प्रकृति के इस जीवन से पृथक् होकर पंत जी ने जो कुछ भी लिखा है, उसमें भावों की वह सुकुमारता है और कल्पना की वह नवीनता। पंत जी यथार्थ जगत् के कवि नहीं। जीवन-संघर्ष से उनका कोई प्रयोजन नहीं। संसार की समस्या उनके लिए नहीं। आत्मचिंतन उनका काम नहीं। वे तो प्रकृति के कवि हैं—कल्पना उनका क्षेत्र है और सौंदर्य उनका राज्य।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बख्शी ग्रंथावली खंड-6 (पृष्ठ 384)
    • संपादक : नलिनी श्रीवास्तव
    • रचनाकार : पदुम लाल पुन्ना लाल बख्शी
    • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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