प्रसाद के नाटक

parsad ke natk

रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

और अधिकरामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

    मानव-अभिव्यक्ति के सशक्त प्रभावशाली माध्यमों में रूपक अथवा नाटक का मूर्धन्य स्थान है। कला और साहित्य का समस्त अंतः सौंदर्य, मन के सक्रिय सहयोग से श्रवणेंद्रिय एवं नेत्र द्वारा चर्वणीय और आस्वादनीय होता है। कला एवं साहित्य के अंतर्गत आने वाले समस्त रूप अथवा प्रकार (नृत्य, संगीत, चित्र, स्थापत्य, मूर्ति, कविता, उपन्यास, कहानी, गद्यगीत आदि) उक्त दोनों इंद्रियों में से प्रायः केवल एक के ही उपयोग (मन सहित) की अपेक्षा और आकांक्षा करते हैं अतःवे आँख, कान मन इन तीनों को सामूहिक उद्योग से अर्जनीय रस अथवा आनंद की मात्रा से न्यून का ही भरोसा बँधाते हैं। साहित्य के प्रकारों में परिगणित 'रूपक' अथवा 'नाटक' वस्तुतः ललित कला एवं साहित्य का एक मिश्रित रूप है। उसमें गीत वाद्य, नृत्य, अभिनय, चित्र, मूर्ति (अंतिम दोनों प्रेक्षागृह, मन-सौंदर्य, पट-दृश्यावली, पात्र-पात्रियों के सुंदर रूपाकार आदि के द्योतक हैं) का संगम हो जाता है। रूप, रंग और स्वर की इस ससृष्टि के साथ प्रेक्षकों अथवा सामाजिकों को कल्पना के सक्रिय सहयोग से प्राप्त आनंद, मनोरंजन और नाट्य-कृति में निहित 'कांतासम्मित' लोक-शिक्षण आदि मानसिक तत्वों एवं मंचसज्जा, मेकअप, प्रकाश-क्रीडा के विधान, पर्दे, वातावरण आदि उपकरणों को मिलाकर देखने से नाट्य-सृष्टि की व्यापक-गंभीर प्रभविष्णुता का सहज ही अनुमान हो सकता है। इसमें संदेह नहीं कि किसी महाकाव्य या खंड-काव्य आदि को पढ़कर भी इस कल्पना के बल से नाट्य-सुलभ सामूहिक प्रभाव और वातावरण की प्रतीति कर सकते हैं किंतु जीवित-जाग्रत प्रत्यक्ष की चाक्षुष प्रतीति एक ऐसा विशिष्ट प्रभाव रखती है, जिसे कि कल्पना, उक्त प्रतीति का स्थानापन्न होकर और गंभीरतम क्षमताओं और शक्तियों से संपन्न होते हुए भी, संभवतः उसी मात्रा में वेग में साथ संपादित नहीं कर सकती। संपूर्ण अंत:-मना पर गंभीर प्रभाव डालने के उद्देश्य से आविष्कृत नाटक नामक कला-साहित्य-रूप मानव की एक परमोच्च सफलता है।

    हिंदी में नाटक-रचना का श्री-गणेश भारतेंदु हरिश्चंद्र के साथ होता था। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, मराठी, गुजराती आदि समृद्ध भाषाओं के नाटकों से प्रेरणा ग्रहण कर हिंदी में मौलिक नाटकों के सृजन का सूत्रपात किया। पुराण, इतिहास, समाज और कल्पना के क्षेत्रों से रोचक वृत्त लेकर उन्होंने लोक-शिक्षा, समाज-संगठन और मनोरंजन के गंभीर और व्यापक उद्देश्य से प्रवाहपूर्ण, व्यंग्य-विनोद मिश्रित चटपटी और सरल लोक-भाषा में, जीवन के यथार्थ आदर्श का सामंजस्य करते हुए, बहुत से ऐसे नाटकों की रचना की, जो अत्यंत लोकप्रिय सिद्ध हुए। रचना-तंत्र की दृष्टि से उन्होंने प्राचीन भारतीय नाट्य-शास्त्र का ही अनुसरण किया। भारतेंदु का ध्यान मुख्यतः जन-जागरण, समाज-सुधार राष्ट्र प्रेम संबंधी भावनाओं तक ही सीमित रहा। अतः कल्पना की कुशल कारीगरी, मानव और प्रकृति का सामंजस्य, नाटक-शैली-शिल्प, मनोवैज्ञानिक सजीव चरित्र-सृष्टि समग्र शाश्वत मानव-जीवन की व्याख्या आदि उन बहुमूल्य नाट्य-तत्त्वों की ओर वे उतना ध्यान दे सके जो नाटक को श्रेष्ठतम साहित्य-रूप एवं जीवन की विशद व्याख्या बना देते हैं। पर इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतेंदु हिंदी के प्रथम मौलिक, श्रेष्ठ, लोकप्रिय एवं रससिद्ध नाटककार हैं।

    भारतेंदु के बाद न्यूनाधिक महत्त्व के सैकड़ों नाटककार हुए हैं किंतु उनमें से अपनी प्रतिभा का उज्ज्वलतम प्रकाश फैलाने वाले नाटककार हैं श्री जयशंकर 'प्रसाद'। नाटक के ही क्षेत्र में नहीं, साहित्य के प्राय सभी अन्य क्षेत्रों कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि—में वे नई-नई शैलियों और रूपों के प्रवर्तक हैं। हिंदी नाटकों के क्षेत्र में तो उनकी प्रतिभा अद्भुत अपूर्व है। प्रसाद जी का नाटक-रचना का काल-प्रसार सन् 1910 से 1933 तक है। उन्होंने 'सज्जन' (एकांकी, सन् 1910), 'कल्याणी-परिणय' (1912), करुणालय' (गीति-नाट्य, 1913), 'प्रायश्चित्त' (एकांकी, 1914), 'राज्य श्री' (1915), 'विशाख' (1922), 'अजातशत्रु' (1922), 'कामना' (अन्यापदेशिक नाटक, 1923-1924 में लिखित 1927 में प्रकाशित), 'जनमेजय का नागयज्ञ' (1923), 'स्कंदगुप्त' (1928-29), 'एक घूँट' (एकांकी, 1929 में लिखित 1930 में प्रकाशित), 'चंद्रगुप्त मौर्य' (1931) और 'ध्रुव-स्वामिनी' (1933) आदि नाटकों की रचना की है। वस्तुतः प्रसाद जी अपने मूल रूप में कवि हैं। उनकी समस्त साहित्य-सृष्टि में काव्य के व्यंजन प्रभूत मात्रा में विद्यमान हैं। साथ ही कल्पना के धनी होने से जीवन की नाटकीय स्थितियों के वे इतने कुशल आविष्कर्ता प्रयोक्ता हैं कि उनके द्वारा कविता, कहानी, उपन्यास आदि अन्य साहित्य-रूपों में भी मनोरम नाटकीय परिस्थितियों की सहज ही अवतारणा हो गई है। नाटक में कविता कविता में नाटक के तत्त्व, आमने-सामने से आती हुई कारों की सर्चलाइट की किरणों की तरह, एक दूसरे में मिल गए हैं।

    वो तो प्रमाद जी पी प्रत्येक नाट्य-कृति अपना स्वतंत्र महत्व रखती हैं किंतु 'राज्य-श्री', 'अजातशत्रु', 'जनमेजय का नागयज्ञ', 'स्कंदगुप्त', 'चंद्रगुप्त मौर्य' और 'ध्रुव-स्वामिनी' आदि कृतियाँ उनकी अक्षय कीर्ति की आधार है। आरंभ से ही 'प्रसाद' एक प्रयोगशील कलाकार रहे हैं। 'सज्जन' से लेकर 'ध्रुव-स्वामिनी' तक प्रयोगों की एक अविराम श्रृंखला जारी है। ये प्रयोग 'प्रसाद' जी ने एक अत्यंत सजग प्रबुद्ध कलाकार की भाँति देश-विदेश के नाट्य-शिल्प के क्षेत्र में होने वाले प्रयोगों परीक्षणों पर आलोचनात्मक दृष्टि रखकर, भारतीय नाट्य-तंत्र के व्यापक और समृद्ध ढाँचे में ही रहते हुए किए हैं। ये प्रयोग स्थूलतः चार शीर्षकों के अंतर्गत विभाजित किए जा सकते हैं।

    (1) कथानक-निर्माण अथवा वस्तु-संगठन-कौशल संबंधी, (2) प्रभावशाली चरित्र-कौशल संबंधी, (3) साहित्यक शैली-शिल्प संबंधी, तथा (4) मंच-प्रभाव संबंधी। प्रत्येक सजग कलाकार प्रयोगों की अटूट श्रृंखला के माध्यम से निर्दोष कृतित्व की सिद्धि की ओर बढ़ता जाता है। यह पूर्ण निर्दोषता तो मानव-अभिव्यक्ति के क्षेत्र में एक अज्ञात वस्तु ही है। 'प्रसाद' भी इस नियम के अपवाद नहीं।

    'प्रसाद' मूलतः कवि हैं। उन्होंने अपने कवित्व को इतिहास की विराट् रंग-स्थली में मानव-जीवन के जटिल क्रिया-कलापों के बीच दिखाकर पूर्ण व्यवहार अमिट प्रभावशाली बना दिया है। मानव-जीवन की विशद व्याख्या के उद्देश्य से भावमूलक कवित्व का मानवाश्रित उपयोग ललित विन्यास ही उनकी नाट्य-कला की मूल प्रेरणा है। नाटकों में जीवन-व्याख्या की प्रेरक विचारधारा का समावेश और कवित्व का यह ग्रहण भी प्रसाद की एक नवीन मौलिक जीवन-दृष्टि से प्रेरित प्रभावित है। अतः 'प्रसाद' की नाट्य-सृष्टि पर कुछ विस्तार से विचार करने से पूर्व उस जीवन-दृष्टि के विधायक तत्त्वों और उसके स्वरूप पर दृष्टिपात करना अत्यंत आवश्यक है। इस जीवन-दृष्टि को हम नवीन 'रोमांटिक' जीवन-दृष्टि कह सकते हैं जिसके विधायक तत्त्व रूढ़ परंपरा का त्याग, नवीन जीवन-दर्शन का ग्रहण, सौंदर्य-चेतना के प्रति एक अभिनव आकर्षण-कुतूहल, प्रेम की मानवीय संवेदना, अतीत के प्रति एक रहस्यात्मक मोह, प्रकृति तथा मानव का भावुक्तापूर्ण तादात्म्य, उच्चादर्शों के प्रति उत्कृष्ट अनुराग और शैली-शिल्प की स्वच्छंदता आदि तत्व है। इस जीवन-दृष्टि का स्वरूप, जीवन के विविध अनुभूति-क्षेत्र में अविभूर्त आनंद-वाद, रसवाद, जीवनवाद, भाग्यवाद, प्रकृतिवाद और भोगवाद आदि विचारधाराओं से सपुष्ट एक समृद्ध हुआ है। भारतीय अनिषद् और शैव-दर्शन में उपलब्द आनंद या शिवत्व की चराचर-व्यापी विराट् चेतना प्रसाद की जीवन-दृष्टि का मूलाधार है। यह आनंद-भावना प्रसाद-साहित्य में अखंड रूप से प्रवाहित हो रही है। रसवाद उसी आनंद या शिवत्व की भावना का साहित्यिक रूपांतर मात्र है। 'प्रसाद' विवेकवादी होकर रसवादी हैं अतः उनके साहित्य में सर्वत्र अनुभूति की ही प्रधानता है। जीवनवाद से 'प्रसाद' की वह विचारधारा फूटी है जो 'निगेटिव' अथवा निवृत्ति-मूलक जीवन-दर्शनों के विरुद्ध पॉज़िटिव अर्थात् प्रवृत्ति-मूलक जीवन-दर्शनों को स्वीकृति देती है। 'प्रसाद' में कर्म-प्रेरणा और उत्साह की कहीं भी कमी नहीं। यद्यपि 'प्रसाद' जीवन की इस पॉज़िटिव फ़िलॉसफ़ी के प्रचारक हैं पर वे इस निष्ठुर सत्य से भी अपरिचित नहीं कि मनुष्य पुरुषार्थी होने पर भी उसका जीवन प्रत्येक क्षण किसी ऐसी अंध शक्ति के हाथ क्रीडा कंदुक है जिसे वे नियति, भाग्य, अदृष्ट, अनागत आदि नामों से पुकारते हैं। उनके समस्त साहित्य में भाग्य संबंधी सैकड़ों उक्तियाँ बिखरी मिलेंगी। वे मानव-जीवन को विश्वात्मा का ही अंश होने के नाते प्रकृति से रहित कहीं भी नहीं देख पाते। प्रकृति उनकी मानवीय सृष्टि की अनिवार्य संगिनी है। भोगवाद को हम आनंदवाद, रसवाद, जीवनवाद और प्रकृतिवाद में ही समाविष्ट कर सकते हैं, पर आत्म-भाव से इंद्रियों के द्वारा स्वस्थ भोग का उनके साहित्य में (विशेषतः कामना, लहर, कामायनी, एक घूँट, इरावती आदि में) इतनी अधिक स्वीकृति है कि उसे स्वतंत्र दृष्टि के रूप में ही रखना उचित होगा। रोमांटिक जीवन-दृष्टि के उक्त तत्त्वों एवं उसकी पोषक धाराओं को समझ लेने पर ही 'प्रसाद' के नाटकों में निहित सामाजिक-सांस्कृतिक विचारधारा, रचनातंत्र-गत प्रयोग और भाव-विभूति के सौंदर्य का समवेत महत्त्व सौंदर्य आँका जा सकता है। यथार्थ के डंठलों पर आदर्श की घनी हरियाली और नाटकों के गंभीर 'टोन' का सीधा संबंध इसी जीवन-दृष्टि से है।

    'प्रसाद' ने इस जीवन-दृष्टि का निर्माण, परिष्कार, पुष्टि और विकास (1) जन्मातरीण संस्कार अथवा प्रतिभा (Intuition), (2) अध्ययन, (3) निरीक्षण, (4) चिंतन और (5) अनुभव द्वारा किया है। प्रातिभ-ज्ञान उपरोक्त विविध साधनों के मूल में है क्योंकि सब साधनो से संपन्न होने पर भी, इसके बिना उनमें समन्वय, व्यवस्था, संगठन और स्फूर्ति आदि गुण नहीं सकते। भारतीय संस्कृति, साहित्य कला आदि के गंभीर अनुशीलन से 'प्रसाद' की दृष्टि संतुलित प्रौढ़ हुई। जीवन (व्यक्ति समाज) के निरीक्षणों द्वारा प्रयोग-सिद्ध होकर वह प्रामाणिक हो गई, चिंतन के ताप से तरल होकर वह रसमयी हो गई और अनुभव द्वारा सहृदय-सवेद्य होकर वह प्रेषणीय हो गई। 'प्रसाद' की जीवन-दृष्टि ऐसे आँवे में पककर खरी दृढ हुई है। इसलिए उनकी उक्त दृष्टि से संपन्न समस्त कला-सृष्टि में दृढता और अन्विति है। उसके जीवन के गंभीर विश्वास अथवा अवस्थाएँ इसी दृष्टि से प्रसूत हैं। उनकी समस्त चरित्र-सृष्टि भी इसी संश्लिष्ट जीवन-दृष्टि की उपज है। नाटकों में जीवन की व्याख्या इसी दृष्टि से हुई है और नाटकों की समाप्ति के स्वरूप का नियंत्रण शासन भी इसी के द्वारा हुआ है। सांस्कृतिक नव-निर्माण के लिए नवीन जीवन-मूल्यों की स्थापनाएँ 'प्रसाद' जी ने अपनी इसी जीवन-दृष्टि पर पूरा भरोसा रखकर की हैं।

    जीवन-दृष्टि की इस व्याख्या के उपरांत अब हम 'प्रसाद' के नाटकों का एक सामूहिक परिचयात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे।

    कथानक और वेशकाल- ‘प्रसाद’ ने अपने नाटकों के कथानकों का संकलन इतिहास-पुराण, प्रस्तुत समाज और शुद्ध कल्पना---इन तीनों क्षेत्रों से किया है। 'करुणालय', 'विशाख', 'राज्य श्री', 'अजातशत्रु', 'स्कंदगुप्त', 'जनमेंजय का नागयज्ञ', 'चंद्रगुप्त मौर्य', 'ध्रुवस्वामिनी' आदि नाटकों के कथानकों का वृत्त ऐतिहासिक-पौराणिक, 'एक घूँट' का वर्तमान सामाजिक एवं 'कामना' का शुद्ध काल्पनिक है। लुप्त इतिहास की श्रृंखलाओं को जोड़कर अपनी जीवन-दृष्टि को प्रसारित करने एवं नाटकीय प्रभावोत्कर्ष के लिए, ऐतिहासिक नाटकों में भी नवीन पात्रों घटनाओं के निर्माण में कल्पना का पर्याप्त समावेश हुआ है, किंतु सामान्यतः इस वर्ग के सब नाटक इतिहासनिष्ठ हैं। नाटकों में संकलित इतिहास का काल-विस्तार भी ध्यान देने योग्य है। महाभारत काल और पुराण काल से लेकर ठेठ सम्राट हर्षवर्धन तक के काल का विस्तृत वृत्त लेकर 'प्रसाद' ने अपने नाटकों में अपने प्रगाढ़ इतिहास-प्रेम, दीर्घ कालव्यापिनी अखंड समन्वयात्मक ऐतिहासिक-दृष्टि और गंभीर इतिहासानुशीलन का बड़ा ही भव्य परिचय दिया है। प्रभाव (Appeal) की दृष्टि से विविध क्षेत्रों के कथानकों को लेकर विभिन्न नाट्य-रूपों (गीति-नाट्य, नाट्य-रूपक, अन्यापदेशिक नाटक आदि) के निर्माण में भी उन्होंने अपना हाथ आजमाया है। यद्यपि ऐतिहासिक नाटकों में इतिहास ही प्रमुख विषय है किंतु कहीं-कहीं तो वह सर्वथा निमित्त मात्र ही रह गया है और कहीं-कहीं काल विशेष का पूर्ण विश्वसनीय वाहक। सभी प्रकार के नाटकों में रस-सिद्धि ही प्रमुख उदेश्य दिखाई पड़ता है। मंच पर इतिहास की पुनरावृत्ति रस-सिद्धि की दृष्टि से बहुत ही प्रभाव-शालिनी होती है। अतः 'प्रसाद' ने इतिहास को ही अपनी नाट्याभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम बनाया। इस माध्यम का प्रयोग इन पाँच विशिष्ट उद्देश्यों से किया गया जान पड़ता है (1) भारत के अतीत की भव्य झाँकी दिखाकर स्मरणीय धर्म-संस्कृति का गौरव गान करने के लिए, (2) इतिहास के विराट् रंगमंच पर सुख-दुख, हास-रुदन, जय-पराजय, उत्थान-पतन के फूलों के बीच प्रवाहित होते मानव-जीवन की गतिविधि के चित्रण द्वारा शाश्वत मानव जीवन का वास्तविक स्वरूप दिखाकर जीवन की व्याख्या करने के लिए, (3) अप्रत्यक्ष रूप में युग-समस्याएँ सुलझाकर वर्तमान का कुहरा साफ़ करने के लिए, (4) राष्ट्रीयता का संदेश देकर अंतर्राष्ट्रीयता शुद्ध मानवीयता के सनातन आदर्शों के प्रचार के लिए, तथा (5) सात्त्विक मनोरंजन अथवा रससिद्धि के लिए।

    नाटक की पूर्ण सफलता के लिए यह आवश्यक नहीं कि कथानक सदा ऐतिहासिक पौराणिक ही हो, अथवा काल्पनिक-सामाजिक ही हो। वस्तुतः इनमें से कोई भी ढाँचा अपनाया जा सकता है। वास्तविक प्राण-प्रतिष्ठा तो रचना-तंत्र पर अधिकार, भाव-विचार की गंभीरता उद्देश्य की स्पष्टता पर ही निर्भर करती है। बढ़िया चिकनी मिट्टी के साथ ही हाथों की सफाई, चित्त की एकाग्रता और रूप-पारखी आँखों की भी अपेक्षा है। कथानक के बहुत रोचक होने पर भी विन्यास की अकुशलता से वह बड़ा अशक्त निस्तेज प्रमाणित हो सकता है। इसी प्रकार साधारण कथानक स्निग्ध, स्वच्छ सुडौल ढँग से सँवारा जाकर अत्यंत प्रभावशाली हो जाता है। प्रसिद्ध अथवा रोचक कथानक की उपस्थिति मात्र नाटक की सफलता की गारंटी नहीं देती अतः रसोत्पत्ति की दृष्टि से वस्तु का पुष्ट संगठन, उसके विविध अंगों का कौशलपूर्ण अवस्थान सुस्निग्ध घटना-क्रम स्थापन आदि बातें अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। 'प्रसाद' ने अपने कथानक-निर्माण में नाट्य-शास्त्र के अंतर्गत प्राप्त विशिष्ट रचना-विधियों का पर्याप्त उपयोग किया है और उसे पुष्ट निर्दोष बनाने का प्रयत्न भी किया है पर वे इस क्षेत्र में आंशिक सफलता ही प्राप्त कर सके हैं। इसका एक प्रमुख कारण है। 'प्रसाद', जैसा कि पहले कहा जा चुका है, मूलतः एक कवि थे अतः स्थूल-बाह्य कथानक के निर्माण में शिल्पाधिकार-प्रदर्शन की अपेक्षा वे भाव-सृष्टि के सूक्ष्म सौंदर्य के उद्घाटन एवं जीवन की गंभीर व्याख्या के कार्य में ही अपेक्षाकृत अधिक दत्तचित्त थे। उन्होंने कथानक को भी जो सजाने-सँवारने का प्रयत्न किया है वह भी वस्तुतः अपनी चरित्र-सृष्टि की सफलता के लिए किए गए उद्योग का अंगभूत मात्र है। (स्कंदगुप्त और ध्रुवस्वामिनी जैसी कृतियाँ इस कथन की अपवाद हैं। यदि 'प्रसाद' दूसरे पक्ष की ओर इतने आकृष्ट होते तो वे कदाचित् अध्यवसायपूर्वक कथानक निर्माण की निर्दोष सिद्धि सहज ही प्राप्त कर सकते थे, इसमें भी संदेह नहीं। पर जब दूसरी ओर हम यह देखते हैं कि उनकी उत्तरकालीन प्रौढ़ कृतियाँ (स्कंदगुप्त ध्रुवस्वामिनी आदि) ही कथानक-निर्माण-कौशल की दृष्टि से अधिक परिपुष्ट, स्वच्छ कातिमान है तो यह भी सहज ही कल्पित किया जा सकता है कि 'प्रसाद' वस्तु-संगठन की कला में भी निपुणता के आकांक्षी थे। उन्हें वांछित सफलता काफ़ी समय के बाद ही मिली। जो हो 'प्रसाद' का कथानक-निर्माण-कौशल प्रयोग पथ पर अनेक सीढ़ियों को पार करता हुआ ही सफलता की ओर अग्रसर होता हुआ दिखाई पड़ता है। इसपर थोड़ा और अधिक विस्तार से विचार किया जाए।

    सामान्य प्रेक्षकों के मनोरंजन रंगमंचीय सामूहिक प्रभाव की दृष्टि से देखने पर अधिकांश कृतियाँ भले ही मनोरंजन सिद्ध हो किंतु प्रयोगसिद्ध शास्त्रीय रचना-विधान की कसौटी पर, वस्तु-संकलन की दृष्टि से अधिकांश कृतियाँ निर्दोष नहीं हैं। वस्तु-संगठन और चरित्रांकन के संतुलन की दृष्टि से 'प्रसाद' की केवल दो ही रचनाएँ अधिकतम सफलता की अधिकारिणी समझी जाती है स्कंदगुप्त और ध्रुवस्वामिनी। शेष कृतियाँ न्यूनाधिक त्रुटियों, असंगतियों अभावों से युक्त हैं। 'सज्जन', 'प्रायश्चित्त', 'कल्याणी-परिणय', 'करुणालय', ‘विशाख' आदि कृतियों में तो कथानक के अनुरंजनकारी और चमत्कार-पूर्ण विन्यास का कोई विशेष प्रश्न ही नहीं क्योंकि यह सब अपने गुणदोषों को लिए हुए प्रयोगकालीन कृतियाँ हैं। सबमें कहानी की मृदु मथर धारा साधारण वैचित्र्य लिए दिखाई पड़ती हैं। स्थितियों के भावान्दोलक आरोह-अवरोह, चरित्र-चित्रण-कौशल या कोई गूढ मंच-प्रभाव लक्षित नहीं होता। हाँ, 'राज्यश्री' से लेकर 'ध्रुवस्वामिनी' तक रचना-कौशल अवश्य परिष्कार की एक सजग प्रौढ दृष्टि लेकर मोत्साह यात्रा करता हुआ दिखाई पड़ता है। 'कामना' में मन के भावों को नराकार बनाकर उन्हें नाटकीय पात्रता प्रदान की गई है। इस कृति में घटना-व्यापार तो बहुत है पर पात्रों के चरित्र-विकास की कोई गुंजाइश नहीं क्योंकि मनोजगत में भावों की मूल प्रकृति प्रायः सर्वत्र एकरस ही बनी रहती है। हाँ, नाटकीय चमत्कार उत्पन्न करने के आग्रह से उनके चारित्र्य में मानवोचित उत्कर्षापकर्ष का आरोप भले ही कर दिया जाए। 'एक घूँट' की आत्मा नाटकीय होकर विचारात्मक है। एक विशिष्ट तथ्य तक पहुँचने के उद्देश्य से पात्रों के संवाद चलते रहते हैं। नाटकीय वातावरण के उपयुक्त बीच-बीच में कुछ उपकरण हैं अवश्य पर वे नाटक के गद्यात्मक अथवा विचारात्मक रूपाकार के शासन के कारण अशक्त से ही हैं। इस प्रकार नाट्य-सौंदर्य की दृष्टि से विचारणीय कृतियाँ केवल पाँचन्छ ही बच रहती हैं 'राज्यश्री', 'अजातशत्रु', 'जनमेजय का नागयज्ञ', 'स्कंदगुप्त', 'चंद्रगुप्त' और 'ध्रुवस्वामिनी'। इन कृतियों के संबंध में समीक्षा-जगत में स्थिर किए गए या किए जा सकने वाले कुछ तथ्य ये हैं -

    लघुकाय 'राज्यश्री' के पहले संस्करण का साहित्यिक सौंदर्य कोई विशेष महत्वपूर्ण नहीं। 'राज्यश्री' के अधिकांश दृश्य बहुत छोटे-छोटे हैं। घटना-श्रृंखला इस छोटी-सी कृति के लिए बहुत बोझीली है। दूसरे संस्करण में जोड़ा गया चौथा अंक आवश्यक ही है क्योंकि यह हर्षवर्धन राज्यश्री के चरित्रगत दिव्य गुणों का विशिष्टीकरण और विस्तार मात्र है। सामूहिक प्रभाव की दृष्टि से यह कृति पर्याप्त सशक्त है। घटना-विस्तार के कारण राज्यश्री को छोड़कर और किसी का भी चरित्र विकसित नहीं हो पाया है।

    'अजातशत्रु' में कोशल, मगध और कौशांबी इन तीन घटना-केंद्रों तक कथा का विस्तार आवश्यक ही किया गया है। प्रसेनजित, उदयन, वासवदत्ता आदि पात्रों की कोई विशेष सार्थकता नहीं। मगध की मुख्य कथा कुल 26 में से केवल 8 दृश्यों में ही समाप्त हो गई है। कार्य-व्यापार की अधिकता और संघर्षमूलक ऐतिहासिक परिस्थितियों (अजात-बिंबसार गृह-कलह, विरुद्धक-प्रसेनजित्-गृहकलह, करुणा-हिंसा अथवा गौतम-देवदत्त-संघर्ष) के चित्रण के कारण चरित्र-प्रस्फुटन का बहुत कम अवकाश बचा है। फलतः अजातशत्रु आदि के चरित्र परिवर्तन अस्वाभाविक ढंग से करने पड़े हैं। मागंधी-शैलेंद्र जैसे प्रासंगिक-काल्पनिक उपकथानक मूल कथा के प्रवाह को अवरुद्ध करते हैं। अंतर्द्वंद्व के अभाव में बलात् हुए चरित्र-परिवर्तन ऐतिहासिक परिस्थितियों के विस्तार का सीधा परिणाम है। नाटक का नायक कौन है—मल्लिका, गौतम अथवा अजातशत्रु? यह विषय भी इस भाग-दौड़ में विवादास्पद ही बना रह गया है। नायक के मुख्य गुण किसी एक ही पात्र में केंद्रित होकर अनेक पात्रों में इधर-उधर बिखरे पड़े हैं। हाँ, तीन अंकों में कार्य की पाँचो अवस्थाओं को बैठाने का प्रयास अवश्य संतोषजनक दिखाई पड़ता है।

    'जनमेजय का नागयज्ञ' में लेखक का ध्यान ब्राह्मण-क्षत्रिय-संघर्ष तत्संबंधी घटनावली तथा वतावरण-निर्माण पर ही अधिक टिका है। फलतः मनसा, सरमा जैसी पात्रियों के चरित्र का ही विकास कुछ अच्छा हो पाया है, अन्य पात्र बौने रह गए हैं। कार्य की अवस्थाओं, संधियों आदि का विधान भी बहुत अकुशल और दुर्बल है। नाटक के आरंभ में पात्रों के कुलशील का भी वैसा रोचक जिज्ञासा-वर्धक परिचय नहीं मिलता जैसा 'चंद्रगुप्त', 'स्कंदगुप्त' और 'ध्रुवस्वामिनी' आदि में। नाटक की समाप्ति पर जो सामूहिक प्रभाव उत्पन्न होता है वह भी कथा की मूल धारा के वेगवान् स्वाभाविक पर्यवसान के रूप में नहीं। संवाद (भाषण) भी अनेक स्थानों पर बहुत बड़े-बड़े उकताने वाले हो गए हैं। घटना-व्यापार और चरित्र की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रिया भी नाटक के प्रतिपाद्य के साथ एकजीव नहीं हो पाती। इस प्रकार अंगी और अंगों का सुंदर संगठन नहीं हो पाया है।

    'स्कंदगुप्त' नाट्य-तंत्र की दृष्टि से 'प्रसाद' की सर्वश्रेष्ठ कृति कही जाती है। पाँच अंकों में कार्य की पाँच अवस्थाओं, सधियों और अर्थ-प्रकृतियों का सफाई के साथ कलापूर्ण अवस्थान हुआ है। कथानक यद्यपि स्कंद-कालीन व्यापक राजनीतिक-धार्मिक ऊहापोह से लबालब भरा है पर यह अनुपात बुद्धि द्वारा इस कोशल से सजाया गया है कि इतिहास के वातावरण की सफल अवतारणाओं के साथ ही पात्रों का अंत-प्रकृति-प्रकाशक चारित्र्य अपने पूर्ण वैचित्र्य के साथ संतोषजनक रूप में चित्रित हो सका है। स्कंदगुप्त, देवसेना, विजया, भटार्क आदि पात्रों का चरित्र-चित्रण अंतर्द्वंद्व बहिर्द्वंद्व की स्वाभाविक क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से, बहुत सुडौल स्पष्ट, महीन-रेखाओं में उभर आया है। नाटक में आदि से अंत तक जिज्ञासा-कौतूहल बराबर बना रहता है। स्कंद की आधिकारिक कथा के साथ प्रासंगिक कथाएँ (अनंतदेवी, पुरुगुप्त-प्रपचबुद्धि, देवसेना-विजया, बंधुवर्मा-जयमाला) यहुत सफाई के साथ गुँथी हुई हैं। आवश्यक प्रसंगों की अवतारणा नहीं के बराबर है। कार्य-व्यापार और चरित्र-चित्रण में संतुलन है। प्रत्येक अंक कई दृश्यों में विभाजित है किंतु दृश्यों का परिवर्तन दृश्य-संख्या के द्वारा सूचित नहीं किया जाकर पट-परिवर्तन के द्वारा किया गया है।

    'चंद्रगुप्त' प्रसाद की एक अत्यंत सशक्त कृति है। सामूहिक प्रभाव की दृष्टि से यह बहुत रोचक है। किंतु कथानक में इतिहास-निष्ठा के आग्रह से लगभग 24-30 वर्षों की दीर्घकाल-व्यापिनी घटनाओं के ठूँस दिए जाने से उसमें 'विशाख' अथवा 'ध्रुवस्वामिनी' का सहज-प्रसन्न प्रवाह नहीं रह गया है। घटना-बाहुल्य के कारण बहुत बातें केवल सूचित कर दी जाती हैं। ऐतिहासिक युग के चित्रण के आग्रह से पात्रों के चरित्रों में विकास का अवकाश बहुत ही कम रह गया है। केवल चाणक्य के चरित्र में ही अच्छा विकास हो पाया है। उसका मस्तिष्क तो नाटक में सूर्य की तरह तप रहा है पर हृदय-पक्ष (जिसका उद्घाटन चाणाक्य के चरित्र को मानवीय बनाने के उद्देश्य से नाटककार का लक्ष्य है) अनावृत्त-सा ही रह गया है। शेष पात्र अविकसित से हैं। प्रासंगिक कथाएँ (अलका-सिंहरण, कल्याणी-पर्वतेश्वर, राक्षस-सुवासिनी, चंद्रगुप्त-मालविका) संख्या में इतनी अधिक विस्तार में विषम अनुपात में हैं कि मूल कथा का प्रवाह अवरुद्ध होता जाता है। चतुर्थ अंक ऊपर से जुड़ा हुआ जान पड़ता है—चाहे वह प्रथम तीन अंकों से निकाले गए बहुत महीन रेशमी धागों से ही सिला हो। तृतीय अंक के बाद चंद्रगुप्त-कार्नेलिया विवाह, सिंहरण द्वारा चंद्रगुप्त की अधीनता-स्वीकृति राक्षम द्वारा चंद्रगुप्त के मंत्री-पद के लिए स्वीकृति आदि बातें चंद्रगुप्त को निष्कटक अवश्य प्रगट करती है पर तृतीय अंक की समाप्ति के साथ ही दर्शक-मन की सब जिज्ञासाएँ पूरी तरह शांत हो चुकने से चौथा अंक आसीज के बादलों-सा जान पड़ता है। नायक-नायिका के निर्णय का प्रश्न भी बहुत गंभीर है। नायक चंद्रगुप्त है अथववा चाणाक्य? नायिका पारिता है अथवा अलका है, कल्याणी या मालविका? इस संबंध में लेखक का मन्तव्य भी बहुत स्पष्ट नहीं दिखाई पड़ता। समन्वित प्रभाव की दृष्टि से अवश्य 'चंद्रगुप्त' एक शक्तिशाली रोचक रचना है।

    'ध्रुवस्वामिनी' मंच-सज्जा अभिनय, वस्तु-संगठन चरित्र-चित्रण, समस्या उसका समाधान तथा वातावरण-चित्रण आदि सभी दृष्टियों से एक अत्यंत श्रेष्ठ कलाकृति है। कोई प्रासंगिक उपकथा नहीं। कहानी अगहन की नदी सी-सहज गति लिए बढ़ती जाती है। आद्यन्त जिज्ञासा बनी रहती है। कार्य-व्यापार की श्रृंखला बराबर जुड़ी चलती है। कार्य की अवस्थाओं, संधियों अर्थ-प्रकृतियों का विधान भी अत्यंत कौशलपूर्ण ढंग से हुआ है। सारी कथा केवल तीन अंकों में विभाजित है, अंकों का दृश्यों में विभाजन कहीं नहीं। स्थान, समय कार्य-व्यापार में अन्विति अच्छी प्रकार बैठ गई है। ध्रुवस्वामिनी के चरित्र में अंतर्द्वंद्व बहिर्द्वंद्वव का बहुत ही मार्मिक चित्रण हुआ है जो संभवतः कहानी की सुडौलता के कारण ही संभव हो सका है।

    कथानक से प्रत्यक्ष या परोक्ष संबंध रखने वाली कुछ अन्य बातों का भी उल्लेख यहाँ असंगत होगा। आकाश-भाषित, स्वगतकथन, अतिप्राकृतिक तत्त्वों का समावेश (ध्रुवस्वामिनी स्कंदगुप्त में धूम्रकेतु का कथानक में सगुफन) 'प्रायश्चित्त', 'करुणालय', 'सज्जन', 'राज्यश्री' (प्रथम संस्करण), 'ध्रुवस्वामिनी' आदि कृतियों में हुआ है जो स्वाभाविक नहीं जान पड़ता। 'सज्जन' 'राज्यश्री' (प्रथम संस्करण) में नादी-पाठ, नट-नटी, सूत्रधार आदि का विधान किया गया है जो आगे चलकर

    छोड़ दिया गया। 'करुणालय', 'सज्जन', राज्यश्री' 'जनमेजय का नागयज्ञ आदि नाटकों में शास्त्रीय भरत-वाक्य के ढंग पर मंगल-कामना या मंगल-घोष का विधान, विष्कंभक, गर्भाफ आदि का प्रयोग उन कृतियों के बाद नहीं हुआ। कविता में संवादों की जो भद्दी परंपरा 'विशाख', 'सज्जन', आदि में दिखाई पड़ती है, यह भी आगे चलकर छूट गई है। 'विशाख' में बातचीत में पुराने ढंग की तुकबाज़ी का भी भद्दापन प्रक हुआ है। मंच पर व्यस्त पात्रों के वाक्य के पकड़ते हुए आना भी बड़ा अस्वाभाविक लगता है। स्कंदगुप्त में भी यह (देवकी की मृत्यु के आयोजन पर स्कंद का प्रवेश) दिखाई पड़ता है। प्रसाद ने प्राचीन ढंग के विदूषक भी रखे हैं—यथा, ‘विशाख' में राजा का सहचर महापिंगल 'स्कंदगुप्त' में मुदगल आदि। महापिंगल का आचरण बहुत हलका हो गया है। 'प्रसाद' ने प्राचीन नियमों का उल्लंघन (परिष्कार?) करते हुए मंच पर हत्या, मृत्यु आदि के दृश्य भी दिखाए हैं। अनेक स्थानों में तो मृत्यु केवल सूचित ही कर दी जाती है। इस संबंध में 'प्रसाद' ने पूर्ण स्वतंत्रता बरती है। दृश्य या अंक के आरंभ में रंग-संकेत की शैली भी ('एक-घूँट', 'करुणालय', 'ध्रुवस्वामिनी' आदि में) पाश्चात्य नाटकों के अनुकरण पर प्रयुक्त की गई है। प्रसाद' ने गीतों का विधान भी किया है। कहीं-कहीं तो वे अवसरोपयोगी, आभिप्राय, सरल महत्वपूर्ण हैं। किंतु जहाँ वे बार-बार गाए जाते हैं, अत्यधिक कलापूर्ण अलंकृत हैं, संवादों में तुकबाज़ी के रूप में प्रयुक्त हुए हैं, वहाँ वे बड़े उबाने वाले हो गए हैं।

    कथानक और देश-काल का परस्पर घनिष्ठ संबंध है। कथानक किसी भी प्रकार का हो---चाहे काल्पनिक ही—उसमें किसी किसी देश और काल की अवतारणा है। ऐतिहासिक कृतियों से, विश्वसनीयता और रसोद्बोधन की दृष्टि से, देश-काल के चित्रण इतिहासानुमोदित होना अत्यंत आवश्यक है। उनके द्वारा भौगोलिक, ऐतिहासिक, सामाजिक-राजनीतिक, धार्मिक-नैतिक-आध्यात्मिक सादि सभी परिस्थिनियों का सम्यक् ज्ञान कराने के लिए तत्संबंधी युग के रहन-सहन, बोल-चाल, खान-पान, आमोद-प्रमोद, वेश-भूषा, रीति-नीति, युद्ध-विगह, मत-विश्वास, संस्था-विचार आदि का यथातथ्य रूप में इस सीमा तक प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है कि हम कृति अथवा नाट्य का आनंद लेते समय उस युग के पवन में ही साँस लेते जान पड़े। किंतु यह भी विरमृत हो जाए की साहित्य में कल्पना भी एक अनिवार्य तत्व है अतः नाटक में इतिहास की अवतारणा इस जड़ सीमा तक भी हो जाए कि कल्पना के लिए किंचित् भी अवकाश रहे। अतः प्रमुख इतिहासनिष्ठ घटना-व्यापारों परिस्थितियों के ठूँठों पर कल्पना का रमणीय हरीतिमा-प्रसार किया जा सकता है। 'प्रसाद' ने भारतीय इतिहास को इतिहास के प्रबुद अन्वेषक की तीक्ष्ण दृष्टि से पूर्ण तथा शोध कर प्रस्तुत किया है अतः वह प्रामाणिक तथा 'इतिहास-रस' का संचार कराने में पूर्ण समर्थ हैं। 'प्रसाद' के नाटकों में एक मासल प्राणवान् अतीत मुसकरा रहा है। देश-काल को प्रत्यक्ष कराने वाले घटना-व्यापरों के साथ ही सनदु, कुभा, शिप्रा, सिंधु, विपाशा, रावी, कपिशा, उद्भाण्ड, अवन्ती, उज्जयिनी, दशपुर, विदिशा, मूलस्थान, मगध, कोशल, कौशांबी, तक्षशिला, पाटलीपुत्र, कुमुमपुर, गांधार, मालव, अंतर्वेद, पंचनद, सप्तसिंधु, आर्यावर्त, लोहित्य, स्कंधावार, शिविर, गिरिसंकट, आर्य, महादेवी, भद्र, आर्यपुत्र, वत्स, महावलाधिकृत, कुमारामात्य, महा-प्रतिहार, महादंडनायक, परमभट्टारक, महासंधिविग्रहिक, युवराज भट्टारक, अश्वमेघ-पराक्रम, महेंद्रादित्य ऐसे ही सैकडों विशिष्ट शब्दों का प्रयोग समस्त नाट्य-सृष्टि में इतिहासोपयोगी सजीव वातावरण की सृष्टि में बहुत सहायक होता है।

    पर, देश-काल-संबंधी बात यहीं समाप्त नहीं होती। यो तो किसी युग का तटस्थ चित्रमान ही मनोरंजन रस-संचार की दृष्टि से पर्याप्त शक्तिशाली सिद्ध होता है पर ध्वनि अथवा अनुरणन उत्पन्न करने में समर्थ कुशल कलाकार अपने अंकित चित्र को प्रस्तुत देश-काल की परिस्थितियों समस्याओं और उनके चित्रण-समाधान के दोहरे उद्देश्य की सिद्धि से साभिप्राय बना देते हैं। वस्तुतः इस विशिष्ट प्रयत्न में ही लेखक की जातीय जीवन अथवा विश्व-जीवन-संबंधी व्याख्या निहित रहती है। पराधीन भारत की शारीरिक, मानसिक आत्मिक स्थिति का गूढ़ चित्रण पादाक्रांत, लुंठित धूलिसात् भारतीय जीवन की विषम समस्याओं का सर्वांगपूर्ण समाधान किस मनोयोग के साथ प्रसाद जी ने किया है, यह कृतियों का अनुशीलन करके जाना जा सकता है।

    पात्र-सृष्टि

    'प्रसाद' के नाटकों का सर्वाधिक आकर्षक उपकरण उनकी बहुरंगी गंभीर पात्र सृष्टि है। नाटक के तत्त्वों में पात्र-सृष्टि एक अत्यंत व्यापक तत्व है जिसमें संवाद, शैली उद्देश्य तत्त्व भी सहज ही समाविष्ट हो जाते हैं। कथानक का अपना सौंदर्य जो भी हो पात्र-सृष्टि ही वास्तव में इसे प्राणवान बनाती है। 'प्रसाद' के नाटकों में कथानक का वैशिष्ट्य होकर पात्र-सृष्टि का ही अधिक महत्त्व है। वस्तुत 'प्रसाद' को अपने नाटकों के माध्यम से जो कुछ कहना है उसके लिए कथानक कदाचित् निमित्त मात्र ही है, कथानक के सौंदर्य का महत्त्व चरित्र-सृष्टि की सफलता की सिद्धि में सहायक होने भर में है। रसात्मक कथानक तो भारतीय नाटकों की अपनी विशेषता है। 'प्रसाद' उसके साथ पाश्चात्य ढंग का सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चरित्र-चित्रण मिलाकर नाटक के स्वरूप को पूर्ण समृद्ध करना चाहते हैं। इस सामंजस्य में ही उनकी मौलिकता है। अस्तु, ज्यों-ज्यों 'प्रसाद' की नाट्य-कला का विकास होता गया त्यों-त्यों उसमें सधे सुडौल हाथों के रेखांकन की स्थिरता सुगढ़ता आती गई। पात्र-सृष्टि और चरित्र चित्रण-कौशल में ही लेखक की प्रतिभा की खरी परीक्षा होती है। जीवन के अंतरंग का व्यापक अनुभव, लोक-व्यवहार का ज्ञान, वस्तु-व्यापार-स्थिति, सूक्ष्म पर्यवेक्षण-शक्ति, जगत जीवन के प्रति विकसित हुई अपनी मौलिक दृष्टि, मानव-जीवन की व्याख्या और मनोविज्ञान की गहराई, रचना-तंत्र (Technique) के अभ्यास से प्राप्त सिद्धहस्तता और लेखक के व्यक्तित्व के निर्माण करने वाले तत्त्वों—अध्ययन, पांडित्य, भावुकता, कल्पना आदि का उत्कर्ष आदि समस्त गुणों शक्तियों का समवेत परिचय हमें उसकी चरित्र-सृष्टि के द्वारा ही प्राप्त होता है। वस्तुतः इन गुणों शक्तियों के उत्कर्ष के अनुपात में ही उस सृष्टि की सफलता एवं प्रभावशालिता दिखाई पड़ती है। प्रसाद की पात्र-सृष्टि भी इस सत्य का अपवाद नहीं।

    पात्र-सृष्टि में प्रसाद की अंतर्वाह्य दृष्टि का बोध उनके बहुविध क्षेत्रों से चुने हए पात्रों की विविधता से होता है। इस विविधता को हम लिंग, जाति, वर्ग, पद-व्यवसाय, विचारधारा, वृत्ति, प्रकृति आदि में विभाजित कर सकते हैं। नमस्त स्त्री-पुरुष पात्र निम्नलिखित आधारों पर वर्गीकृत किए जा सकते हैं :

    (1) जाति-वर्ग ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र : जन्म के आधार पर निर्धारित वर्गों से पात्रों का चयन किया गया है। ब्राह्मण-वर्ग में केवल यज्ञोपवीनधारी द्विज ही होकर उन सब वर्गों के पात्र सम्मिलित हैं जो सार्वभौम ब्राह्मणत्व नामक आचारचिंता-विशिष्ट सात्विक गुण के अभ्यासी अथवा धारणकर्ता हैं। सारिपुत्र और मिहिरदेव जैसे आचार्य; गौतम, दाण्ड्यायन, वशिष्ठ, दिवाकरमित्र,

    विश्वामित्र, च्यवन, शौनक, प्रेमानंद एवं जगत्कारू जैसे महात्मा, ऋषि, मुनि, संयासी और तपस्वी, तुरकावषेय, सोमश्रवा और काश्यप जैसे पुरोहित, प्रपचबुद्धि एवं सत्यशील जैसे बौद्ध कापालिक और बौद्ध महत अपने समस्त गुणावगुणों के साथ इस वर्ग में समाविष्ट किए जा सकते हैं। क्षत्रियों में चंद्रगुप्त मौर्य, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, स्कंदगुप्त, अजातशत्रु आदि राजा-सम्राट, राज-माताएँ, राजकुमारियाँ, सेनापति, राज-परिजन आदि सम्मिलित हैं। विजया वेश्या-वर्ग की है। भाइ वाला (एफ घूँट) शुद्र जाति का है। इसी प्रकार तक्षक, आर्य, यवन, शक, हूण आदि जातियों के पात्र भी गुण-कर्म आदि के आधार पर किसी किसी वर्ग के अधिकारी है।

    (2) पद-व्यवसाय : यह वर्ग प्रथम में अधिक सूक्ष्म है क्योंकि पद-व्यवसाय, गुण-रुचि प्रवृत्ति के अनुसार कोई भी व्यक्ति प्राप्त अथवा ग्रहण कर सकता है। इस वर्ग के पात्रों में पर्याप्त विविधता है। मालिन (सुरमा), विदूषक (मुद्गल, वसंतक, चदुला), दस्यु (शांतिदेव, विकटघोष), झाडूवाला (एक घूँट में), पहरी, सैनिक, दूत (साइवर्टीयस, मेगास्थनीज), दौवारिया, नर्तकी, कचुकी, दागी, वेश्या (श्यामा), शिकारी (लुब्धक, भद्रक), वैद्य (जीवक), कवि (मातृगुप्त, रमाल), सेनापति (वन्धुल, पर्णदत्त , चण्डभार्गव) श्रमण स्थविर (प्रत्यातकीर्ति), यात्री (हुएन-च्यांग), भिक्षु (धर्मसिद्धि, शीलभद्र) दंडनायक, अमात्य, सहचर, दास, विद्यार्थी (उत्तक, त्रिविक्रम), हिजडे, बौने, कुबड़े आदि विविध पद-व्यवसाय के पात्र 'प्रसाद' की पात्र-सृष्टि को विस्तार विविधता प्रदान करते हैं।

    (3) विचार धारा वृत्ति प्रकृति : इसी प्रकार इस तृतीय आधार पर भी पात्रों का वर्गीकरण हो सकता है। यह आधार प्रथम दो आधेरों से भी अधिक सूक्ष्म है। चाणक्य और मुकुल (एक घूँट) तार्किक हैं। रसाल मानगुप्नत कवि है। आनंद प्रेम का प्रचारक है। प्रेमलता, ध्रुवस्वामिनी, देवसेना, वाजिग, फोमा, गरमी, चंद्रलेखा, मणिमाला, कल्याणी, कार्नेलिया आदि पात्रियाँ स्नेहमयी, अनुरागमयी, कल्पनाशील और अनुभूति-प्रवण नारियाँ हैं। इसी प्रकार गौतम, मातृगुप्त, चाणक्य, दाण्ड्यायन, स्कंद, प्रेआनंद आदि भी अपनी विशिष्ट प्रकृति के कारण पात्र-विभाजन का एक स्वतंत्र आधार प्रस्तुत करते हैं।

    उपर्युक्त वर्गीकरण-विभाजन से यह स्पष्ट है कि 'प्रसाद' ने सहस्त्रमुखी जीवन के सभी स्तरों और अंचलों—अभिजात-दीन, जटिल-सरल, महत्वाकांक्षी-संतोषी, भौतिक-आध्यात्मिक, यथार्थवादी, तर्क-प्रधान, अनुभूति-प्रधान, अंतर्मुखी-व हिर्मुखी, निवृत्तिमूलक-प्रवृत्तिमूलक, पुरुषार्थी-नियतिसमर्पित, थमिक-विलासी, ग्रामीण-नागरिक, कृत्रिम-स्वाभाविक—का अनुशीलन किया है। फिर भी यह मानना होगा कि उनकी दृष्टि समाज के अभिजात, दार्शनिक राजकीय वर्ग की ओर जितनी थी उतनी समाज के निम्न वर्ग की ओर नहीं। उनके पात्रों में अतिशय निम्न वर्ग के पात्र हैं किंतु प्राय वे सब एक विशाल यंत्र के पुर्जे ही बनकर चल रहे हैं। उनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं। हाँ, भरत-वाक्या या मंगल-घोषों में प्राणिमात्र (जिसमें शोषित, दीन-हीन मानव-वर्ग सम्मिलित है) की सुख-शांति आनंद-कल्याण की भावना सर्वत्र व्यक्त की गई है। किंतु युग-प्रवृत्ति के अनुसार अथवा शुद्ध मानवीयता के नाते उनके किसी स्वतंत्र नाटकीय विश्लेषण-विवेचन का एकाग्र प्रयत्न प्राय कहीं नहीं दिखलाई पड़ता। 'एक घूँट' में भी उच्च, भद्र बौद्धिक-हार्दिक जीवन का ही व्याख्यान अधिक है जबकि वहाँ समाज के दीन प्रारिणयों के जीवन चित्रण की पर्याप्त गुंजाइश निकल सकती थी। वास्तव में 'प्रसाद' के लिए यह स्वाभाविक ही था क्योंकि प्रत्येक कलाकार अपने ही संस्कार, वातावरण रुचि आदि से ही सहज-स्वाभाविक रूप में नियंत्रित रहता है। अतः इसे हम कोई त्रुटि भी नहीं कह सकते। जो कुछ भी हमारे सामने है हमें तो उसी का विश्लेषण-विवेचन करना है।

    ऊपर पात्रों का वर्गीकरण-विभाजन जिन आधारों पर किया गया है वे आधार अपने आप में वस्तुतः बड़े स्थूल बाह्य हैं। चरित्रों के विभाजन का एक मात्र सूक्ष्म पक्का आधार सार्वदेशिक सार्वकालिक मानवी प्रवृत्तियाँ अथवा मानसिक वृत्तियाँ ही हो सकती हैं और इस आधार को ग्रहण करने पर 'प्रसाद' की चरित्र-सृष्टि का विश्लेषण करना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है। गीता में सात्विक, राजसिक, तामसिक इन तीन वृत्तियों अथवा प्रकृति-गुणों के ढाँचे में सूक्ष्म-स्थूल आदि सबका सम्यक् विवेचन पूर्ण संभव हो सका है। अतः हम भी सात्विक, राजसिक तामसिक—इन वर्गों में ही पात्रों का विभाजन करके अपना काम चलाएँगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि संसार में तो कोई व्यक्ति पूरा सात्विक ही होता है, पूरा राजसिक ही और पूरा तामसिक ही। हाँ, कुछ अत्यंत विरल अपवाद भले ही हो सकते हों। सामान्यतः मानव-प्राणियों में आत्यंतिक प्रवृत्ति नहीं देखी जाती।

    'प्रसाद' की पात्र-समष्टि में सात्विक वृत्ति के पात्रों की संख्या काफ़ी बढ़ी है। गौतम, सारिपुत्र, मोग्गलायन, मिहिरदेव, प्रेआनंद, च्यवन, शौनक, चाणक्य, बिम्बसार, चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, बंधुवर्मा, मणिमाला, मल्लिका, कल्याणी, अलका, देवसेना, चंद्रलेखा, कार्नेलिया आदि पात्र अपनी सात्विक ज्योति से समस्त नाट्य-सृष्टि को आलोकित किए हुए हैं। गहराई से विचार करने पर ये पात्र चार श्रेणियों में विभक्त किए जा सकते हैं— (1) जो जन्मान्तरीण संस्कारों के कारण प्रकृति से ही शुद्ध सात्विक है... यथा, गौतम, मणिमाला, देवसेना, ध्रुवस्वामिनी आदि, (2) जो परिस्थितिवशव घटना-प्रवाह में पड़कर जीवन-संग्राम में चोट खाकर, अपने ग्रणो को सहलाते हुए एक कोमल-स्निग्ध सहानुभूतिपूर्ण हृदय दार्शनिक मस्तिष्क के सम्बल से जीवन का पथ पार कर रहे हैं यथा, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त विक्रआदित्य आदि (3) जो राग-भोगों से तृप्त होकर स्वभावतः परिपक्व फल की तरह जीवन-तरु से मुक्त हो चुके हैं अथवा होने के लिए विवेक-वैराग्य आदि का अभ्यास कर रहे हैं, जैसे राजा विम्बसार, प्रमेंनजित्, राजमाताएँ आदि और (4) जो बीज-रूप से सात्विक प्रकृति के तो हैं किंतु अवसरों की हवाओं में उड़कर विषयगामी, महत्वाकांक्षी बने सत्ता-प्राप्ति के लिए षड्यंत्रों का सृजन कर रहे हैं। ऐसे पात्रों में अपने चरित्र में सुधार कर सकने की भी क्षमता है—उदाहरणार्थ, अजातशत्रु, भटार्क, विरुद्धक, छलना, विकटघोष आदि। इन पात्रों में से अधिकांश का मनो-विधान प्राय दार्शनिक-धार्मिक टाइप का है। इनमें से प्रथम श्रेणी के पात्र तो प्रायः निकलुप हैं। सब मिलाकर देखने पर ये पात्र न्यूनाधिक मात्रा में सदाचारी, कल्याणकारी, प्रती, संयमी, त्याग-तपोनिष्ठ, सेवापरायण, लोकोपकारी, प्रगान, संघर्ष-मुक्त, आत्मतत्त्व-चिंतनमग्न, संसारत्यागी, विरागी, निरीह विश्वप्रेम के संदेशवाहक है। वे व्यक्ति देश को अंतर्बाह्य संघर्ष-विद्रोह से मुक्त कराकर जगत का पाप-नारमात करने वाले हैं। तटस्थ या उदासीन पात्र भी लोक-जीवन को प्रत्यक्ष पक्षे रूप में बहुत गंभीरता से प्रभावित किए रहते हैं। नाटक के घटना-चक्र में घुमाव-फिराव में इनका बहुत लम्बा हाथ रहता है। और इन्हीं के प्रभावों से नाटक लेखक की जीवन-दृष्टि-सम्मन समाप्ति की ओर बहुत भात मर गति से वर चलता है। 'प्रसाद' के नाटकों में पायल व्याप्त सांस्कृतिक स्वर के मूल उदूषक में ही विशिष्ट पात्र हैं। विश्व-प्रेम, करुणा, क्षमा, उदारता, संतोष, मेंरा, त्याग आदि गंभीर जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा इन्हीं पात्रों के क्रिया-कलापों, विचारों उपदेशों से संभव हो सकी हैं। राजसिक तामसिक जीवन अचलो की समस्त दुखदावा को शांत कर उनमें शांति, क्षमता करुणा की हरियाली और तरावट का प्रसार इन्हीं का प्रसाद है। नाटकों में वर्णित रसों के अंगीभूत शांत रस की स्थिति के भी आधार ये ही हैं। कल्पना दार्शनिकता के उपकरणों से संयुक्त हुए इनके उद्गार प्रसाद-साहित्य की अमूल्य निधि हैं। 'प्रसाद' अपने नाटकों में मुख्यतः इन्हीं पात्रों के माध्यम से बोले हैं।

    दूसरा वर्ग राजसिक पात्रों का है। राजसिक पात्रों की भी, सात्विक पात्रों की ही तरह, अनेक कोटियाँ अथवा श्रेणियाँ निर्धारित की जा सकती हैं। परमोच्च राजसिक पात्रों की स्थायी प्रवृत्ति शुद्ध सात्विक की ओर ही है। किंतु नियत कर्तव्य की प्रेरणा और व्यक्तिगत सामाजिक उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए उन्हें कर्म-क्षेत्र में उतरकर, दंडग्रहण, शस्त्र-संचालन, कुचक्र-निवारण आदि कार्य करने पड़ते हैं। ऐसे कार्यों में आत्मा विकारों के कर्दम से असम्पृक्त नहीं रह सकती। इस श्रेणी में स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, चाणक्य आदि पात्र रखे जा सकते हैं। दूसरी श्रेणी में वे ही पात्र रखे जा सकते हैं जिनकी प्रकृति कर्म-मात्र में है, जो कर्म से उत्पन्न पाप-पुण्य आदि सब सहर्ष भोगने को तैयार हैं। सिकंदर आदि वीरपात्रों का उस श्रेणी में रखा जाना संभवतः उपयुक्त होगा। तीसरी श्रेणी के पात्र वे हैं जो अपनी कोई निजी प्रेरणा या आत्म-ज्योति के अभाव में कर्म-चक्र में यत्रवत् घूमते रहते हैं। निम्न बौद्धिक वर्ग के राज-कर्मचारी, सेवक, भृत्य, नर्तकी, दौवारिक आदि पात्र राजसिक पात्रों की इस श्रेणी में रखे जा सकते हैं।

    वास्तव में बहुत बड़ी संख्या ऐसे पात्रों की भी है जिन्हें हम सात्विक, राजसिक अथवा तामसिक जैसी स्पष्ट कोटि में नहीं रख सकते। वे समशीतोष्ण रक्त वाले पात्र ऐसे साधारण प्रवाह जीव हैं जो लहरों से लड़े बिना धारा में बहते चलते हैं अथवा एक विशाल राजयंत्र के पुर्ज़े बने चुपचाप अपनी जगह घूमते रहते हैं। उनमें सत्व, रज और तम तीनों का ही मिश्रण मिल सकता है। वे केवल कड़ियों को जोड़ने का कार्य करते रहते हैं। उनकी सीढ़ी बनाकर महत्वाकांक्षी लोग आगे बढ़ते रहते हैं।

    राजसिकता शुभ्र सात्विकता तामसिकता की मध्यवर्तिनी स्थिति है, अतः राजसिक वर्ग की स्थिति बहुत चंचल तरल है। नीति-न्याय की स्थापना के लिए राजसिक वर्ग के राजकीय पात्रों को कभी राज्य-सत्ता की रक्षा के हेतु राजनीतिक वात्या-चक्रों में फँसना पड़ता है, कभी रक्त की लाली से असि-धारा का श्रृंगार करना पड़ता है और कभी तामसिक शक्त्तियों के अंध घटाटोप को चीरने का विराट् उपक्रम करना पड़ता है। न्याय की विजय धर्म की प्रतिष्ठा के साथ ही वे सत्व का पूरा-पूरा आनंद लूट सकते हैं। इस प्रकार विकट कर्म तुमुल कोलाहल के बीच अधिकांश राजसिक पात्रों के जीवन-व्यापार चलते हैं। सत्तारूढ़ सम्राट, अधिरकार-पद-यश के आकांशी राजकुमार-राजकुमारियाँ अपनी जीवन-स्थिति से चिंतित राजकुल से संबंधित व्यक्ति आदि इस मैदान के खिलाड़ी हैं। राजसिक (कई जगह सात्विक भी) पात्रों की स्थिति कहीं भी निरापद नहीं। उन्हें संबद्ध तामसिक शक्त्तियों से टकराकर अपनी धातुओं की कड़ी परीक्षा देनी पड़ती है। इस 'मध्यम वर्ग' के पात्रों की स्थिति-रक्षा अमत् शक्तियों की जय अथवा पराजय पर आश्रित है। व्यत्तियों, विचार-धाराओं, परिस्थितियों की पारस्परिक टक्करों के कटाव इसी राजसिक अथवा मध्यम वर्ग के पात्रों को सहने पड़ते हैं। संघर्ष सर्वत्र दो पक्षों को बीच रहता है

    (1) सात्विक-राजसिक पात्रों के साथ तामसिक पात्रों का संघर्ष

    (2) एक संस्कृति, जाति, राज्य अथवा धर्म का दूसरी संस्कृति, जाति, राज्य तथा धर्म के साथ संघर्ष यथा, यवन आर्य संस्कृति का (चंद्रगुप्त मौर्य में), नाग जाति आर्य जाति का (जनमेजय के नागयज्ञ में); शक तथा हृण आर्य जाति का (ध्रुवस्वामिनी, स्कंदगुप्त), भारत के परस्पर विभिन्न राज्यों का (चंद्रगुप्त), बौद्ध-ब्राह्मण धर्मों का (स्कंदगुप्त, विशाख)।

    (3) अंत संघर्ष : देश-प्रेम कर्तव्य-प्रेम के साथ प्रणय का—देवसेना, कल्याणी, कार्नेलिया ध्रुवस्वामिनी, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त।

    (4) गृह-कलह (अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी आदि नाटकों में।)

    इस प्रकार सारी नाट्य-सृष्टि में व्याप्त इन अंतर्बाह्य संघर्षों में अधिकांश पात्र-पात्रियाँ आँधी में उड़ती, नीम की सूखी पत्तियों की तरह दिखाई पड़ रही हैं। राजसिक-तामनिक प्रवृत्तियों के अनुसार मोटे ढंग से दो वर्ग बनाए जा सकते हैं। एक ओर तो सातविक-राजसिक प्रवृत्ति के प्रतीक चंद्रगुप्त मौर्य, चाणक्य, अजातशत्रु, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य, सिकंदर, हर्षवर्धन, प्रन्यातचीनि, निहरा, ध्रुवस्वामिनी, देवसेना, जयमाला, कमला, अलका, कल्याणी, मणिमाला, राज्यश्री, मल्लिका, कार्नेलिया, मालविका आदि हैं और दूसरी ओर तामसिक शक्त्तियों के नद, रामगुप्त, आंभीक, प्रपंचबुद्धि, देवदत्त, भटार्क, पुरगुप्त, मागंधी, मनगा, अनलनी, विजया, छलना आदि पात्र-पात्रियाँ हैं। सात्विक, राजसिक और तामसिक शक्त्तियों की इस टक्कर में ही पात्रों के चरित्रों का प्रस्फ़ुटन और विकास होता है। कभी प्रकाश की जीत होती है तो कभी अंधकार की। इस प्रकार प्रकाश और अंधकार का द्वंद्व नाटकों के अंत तक चला चलता है। और अंत में धर्म, न्याय और सत्य रूप प्रकाश की सर्वत्र विजय होती है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है संघर्ष को इस घाट लगाने का सारा श्रेय सात्विक वर्ग के पात्रों का है जो अपनी सदाशयता, कल्याण-कामना, धर्मबुद्धि से घटना-चक्र को ठीक दिशा में घुमा-फ़िरा कर ले जाते हैं। आदर्शवादी 'प्रसाद' को यह गवारा नहीं कि वे मंच पर कभी भी असत् पक्ष की विजय दिखावें। प्रेमचंद ने 'गोदान' में जीवन के घने निर्मम यथार्थ के आगे एक बार घुटने टेक दिए हैं। स्वयं 'प्रसाद' ने 'कंकाल' में समाज जीवन की घोर वास्तविकता दिखा दी पर मंच पर वे कभी भी पुरुगुप्त अथवा रामगुप्त को विजय दिखाने का साहस कर सके। 'प्रसाद' का यह आदर्श-प्रेम विचारणीय है।

    तामसिक चरित्रों के परिवर्तन पर कुछ ध्यान देने की आवश्यकता है। दुष्ट तामसिक प्रवृत्ति के पात्र नाटक को गति और व्यापार प्रदान करने वाले हैं। इनके द्वारा फैलाए गए अंधकार के विरोध (Contrast) में ही प्रकाश की अनुभूति अधिक स्पष्ट, गहरी और मधुर होती है। नाटकों में दुष्ट पात्र प्राय ये हैं—अन्याय-पूर्वक दूसरों की संपत्ति-अधिकार को हड़पने वाले, मद्यप, क्रूर, क्लीव, विलासी सम्राट आदि जो बलात्कार स्वेच्छाचार आदि अनैतिक आचरणों से नहीं डरते, नारी के मान और लज्जा का दिनदहाड़े अपहरण करने वाले, न्यायोचित अधिकार के विरुद्ध कुचक्र और षड्यंत्रों की रचना करके राजनीति और धर्मनीति को पकिल करने वाले, उद्दाम विजय-लालमा की तामसिक तुप्ति के लिए घर-बार, खेती-बाड़ी जलाने-लुटाने वाले बर्बर आक्रमणकारी, दस्युवृत्ति से जीवन-निर्वाह करने वाले परपीड़क डाकू-लुटेरे आदि; धर्म के नाम पर अलौकिक सिद्धियों का चमत्कार दिखाकर अपनी धार्मिक सत्ता का भोली-भाली जनता पर आतंक जमाने वाले, दभी, धर्मान्ध, विमूढ क्रूर श्रवण-भिक्षु, पंडे-पुरोहित, तांत्रिक आदि; व्यक्तिगत विद्वष प्रतिहिंसा की भावना से धधकती हुई अतृप्त, प्रणयवंचित, कामाध, रूपविताएँ, अधिकार प्राप्ति और सत्ताभोग की आकांक्षिणी सुंदरी विपथगामिनियाँ आदि।

    नाटकों का अधिकांश कलेवर इन्हीं संघर्षों असत् पात्रों की गतिविधियों से भरा हुआ है।

    'प्रसाद' ने नियमबद्ध रूप से प्राय सर्वत्र असत् पर सत् की विजय दिखाई है। दुष्ट पात्रों को या तो समाप्त कर दिया है या उनमें वांछित परिवर्तन उपस्थित किया गया है। रामगुप्त का वध कर दिया जाता है। 'ध्रुवस्वामिनी' में शकराज चंद्रगुप्त के हाथों मौत के घाट उतार दिया जाता है। शकटार के हाथों नद की जीवन-लीला समाप्त हो जानी है। 'विशाख' में महापिंगल का वध हो जाता है। विजया अपराध प्रमाणित हो जाने पर आत्म-ग्लानि से आमहत्या कर लेती है। 'प्रायश्चित्त' के अंत में जयचन्द गंगा में डूब मरता है। 'राज्य-श्री' में दुष्ट देवगुप्त प्रसन्नतापूर्वक राज्यवर्द्ध के हाथों मृत्यु स्वीकार करता है। अनेकों स्थानों पर मृत्यु या वध केवल सूचित मात्र कर दिया गया है—यथा, राज्यश्री में राज्यवर्ध्नन की हत्या प्रभाकरवर्द्धन का निधन। 'जनमेजय का नागयज्ञ' में जनमेजय के द्वारा हुई बहा हत्या सूचित मात्र कर दी गई है। प्रायः सभी नाटकों में शांति, प्रेम और करुणा की विजय होती है। 'जनमेजय का नागयज्ञ' पाप-ताप की शांति के पश्चात् विश्व-प्रेम के गंभीर स्वर के साथ समाप्त होता है। राज्यश्री का अंत भी पाप की पराजय, धर्म की विजय लोक-सेवा कल्याण-कामना के साथ होता है। विकट-घोष सुरमा महाश्रवण सुएनच्याग से क्षमा माँगते हैं और उन्हें क्षमादान मिलता है। 'सज्जन' नाटक धर्मराज युधिष्ठर की उदारता के बखान धर्म की जय के साथ समाप्त होता है। कामना में संतोष, विवेवा सत्य की विजय एवं कामना की पराजय होती है। 'करुणालय' की समाप्ति अहिंसा की विजय से होती है। अजातशत्रु तो क्षमा, करुणा पश्चात्ताप की भावना से फूट-फूट कर भरा हुआ है। प्रसेनजित् सेनापति बंधुल की हत्या करके मल्लिका के आगे प्रायश्चित्त करता है। अजातशत्रु माता वासवी से क्षमा माँगता है। श्यामा मल्लिका के आगे आत्म-ग्लानि से भरकर अपने को धिक्कारती है। पितृ-द्रोही विरुद्धक पिता प्रसेनजित् से क्षमा माँगता है। छलना अपने पति बिंबसार के चरण पकड़कर अपना परितोष करती है और अपनी बड़ी सौत वासवी से स्वाभाविक स्नेह पाती है। 'विशाख' में नरदेव विशाख के द्वारा क्षमा कर दिया जाता है। 'चंद्रगुप्त' में आततायी पर्वतेश्वर अपनी ही प्रेमिका कल्याणी के छुरे से मृत्यु के घाट उतारा जाता है, किंतु 'चंद्रगुप्त' में कल्याणी की आत्म-हत्या तथा मालविका का प्रेम-पथ पर नौरव आत्मोत्सर्ग और 'विशाख' में महारानी का सहमा गंगा में डूब मरना आदि कार्य-व्यापारी से दर्शक के मन पर एक बहुत कोमल और गहरा दक्का लगता है।

    प्रकृति पर विचार किए बिना ‘प्रसाद' की पात्र-सृष्टि का अध्ययन ‘लवण बिना व्यंजन' है। मानव और प्रकृति एक ही विश्व-चेतना के दो अंश हैं अतः स्वभावतः दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। 'प्रसाद' का प्रकृति के साथ निःशेष सादात्म्य हो गया है अतः प्रकृति उनकी चरित्र-दृष्टि का प्राणतत्व है। मनोविज्ञान से आनंदवादी और जीवन-दृष्टि से रोमांटिक कवि 'प्रसाद' ने प्रकृति को शुद्ध मानवीय और आध्यात्मिक धरातलों पर पहुँचा दिया है। वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति में प्रकृति में जो आध्यात्मिकता दिखाई पड़ती हैं प्रायः उसी कोटि की आध्यात्मिकता 'प्रसाद' में भी दिखाई पड़ती है। आश्रमों, अरण्यों और लता-कुंजों का मानव-हृदय पर जो स्निग्ध-गंभीर प्रभाव प्राचीन साहित्य में अंकित किया गया है ठीक वैसे ही प्रभाव की प्रतीति 'प्रसाद' के नाटकों में होती है। 'जनमेजय का नागयज्ञ’ में महर्षि च्यवन का आश्रम भगवान् वादरायण का आश्रम, 'एक घूँट' में अरुणाचल आश्रम, 'चंद्रगुप्त' में दाड्यायन का आश्रम वैसे ही प्रभाव की सिद्धि कराने में सहायक होते हैं। सांस्कृतिक महानता के जो तत्त्वमूत गुण हैं वे आश्रम-कुंजों और प्रकृति के ही सान्निध्य में उत्पन्न हो सकते हैं। अतः मानवता, कल्याण करुणा की विजय के ध्येय से रचना करने वाले 'प्रसाद' ने प्रकृति को अपने समस्त साहित्य में सर्वाधिक महत्त्व दिया है। विपथगामी आततायी पात्रों में परिवर्तन प्रायः सर्वत्र प्रकृति के ही प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रभावों द्वारा कराया गया है। सात्त्विक पात्रों का हृदय तो प्रकृति के साथ दूध-पानी आकाश-नीलिमा हो गया है। प्रकृति ज्वलनशील किंतु शांतिकामी हृदयों को सर्वत्र शीतलता, शांति सुख-संतोष प्रदान करने वाली सत्ता के रूप में दिखाई गई है। हतचेतन अस्तित्त्व अपने जीवन की बंद पड़ी घड़ी को जब चाहे तब प्रकृति की चिर-चेतन घड़ी से मिलाकर ठीक कर सकता है। इस प्रकार प्रकृति 'प्रसाद' के नाटकों का एक बहुमूल्य तत्त्व है।

    इस धारणा के पोषण में 'प्रसाद' के नाट्य-साहित्य में प्राप्त अनेक भावनाएँ सारांश रूप में प्रस्तुत की जा सकती हैं। प्रकृति से घुल-मिलकर रहने वाली जाति में 'महत्त्व और आकांक्षा का अभाव और संघर्ष का लेश भी नहीं हैं’ (कामना 1/3)। 'अन्न के पके खेतों में पवन के सर्राटे से उठने वाली लहरों का आनंद लेने के लिए दरिद्रता कैसी' (कामना 2/7)। 'नैसर्गिक जीवन की ओर लौटने और कृत्रिमता का पीछे छोड़ने में ही सुख है।' (कामना 3/1)। 'प्राकृतिक जीवन व्यतीत करने वालों को ही प्रभु समस्त आलोक, चैतन्य और प्राण-शक्ति देते हैं’ (चंद्रगुप्त 1/11)। 'चंद्र, सूर्य नक्षत्र का दीपक जलाकर आकाश के वितान के नीचे शस्य-श्यामला पृथ्वी की शय्या पर शयन करने वाला ही आनंद-समुद्र में शांति द्वीप का अधिकारी हो सकता हैं (चंद्रगुप्त 3।5) 'गौरवमय अरुणोदय का दर्शन करने वाला जगत की मंगल-कामना करके निष्काम हो सकता है और समस्त भ्रांतियों से मुक्त होकर जीवन के अमृत तत्त्व को समझ सकता है’ (चंद्रगुप्त 4।13)। 'कानन के वातावरण में ही आर्द्र हृदय में करुण कल्पना का आविर्भाव, सात्त्विक रोमांच और कामनाओं की प्रफुल्लता का अनुभव हो सकता है' (अजातशत्रु 3।1)। 'अपने नीड़ों की ओर प्रसन्न कोलाहल से लौटता हुआ व्योम-विहारी पक्षियों का झुंड स्वस्थ शांतिपूर्ण विश्राम की प्रेरणा देता है' (ध्रुवस्वामिनी)। इस प्रकार की भावनाएँ हैं जो 'प्रसाद' की नाट्य-सृष्टि में पात्रों के जीवनानुभाव के छन्ने में से छनकर निकली है।

    प्रकृति मानव को प्रत्येक क्षण अपने बहुमूल्य और रहस्यपूर्ण प्रभाव मग लुटा रही है, जिसके कान खुले हों, सुन ले। कल्पना-प्रधान रूपक 'कामना' में एक वृद्ध सहसा एक आशंका से घबराकर पूछ उठता है कि क्या अब पक्षियों के स्वभइक संदेश बंद हो जाएँगे? (कामना 1।5)। मणिमाला सिंधु-तट के परम शान प्राकृतिक वातावरण अनुभव करती है कि मानव-जीवन को जो कुछ भी प्राप्त हो सकता है, यह सब आज मुझे मिल गया (जनमेजय का नागवज्ञ 3।1)। सिंधु-तट पर चाणक्य को अनुभव होता है'मेघ के समान मुक्त वर्षां सा जीवन-दान, सूर्य के समान अबाध आलोक विकीर्ण करना, सागर के समान कामना-नदियों को पचाते हुए सीमा के बाहर जाना; यही तो बाह्मण का आदर्श है (चंद्रगुप्त 4।6)। मोमधवा आग्नि से कहता है—'क्यों भाई आस्तिक, रमणीयता के साथ ऐसी शांति कहीं और भी तुम्हारे देखने में आई है? और मणिमाला शीला को संबोधन करके कहती है—'सिंधु की सुंदर तरंग-भंगी हिमालय के शीत-सुरभि पवन के साथ निसर्ग मनोहर क्रीड़ा कर रही है। बहन शीला, यहाँ के तरुवर कैसी निराली काट-छाँट के हैं (जनमेजय का नागयज्ञ 3।1)।' ऐसी बहुमूल्य अनुभूतियाँ संदेश प्रकृति की आत्मा में गहरी डुबकी लगाए बिना मिल सकते हैं क्या?

    प्रकृति मानव-हृदय में सहानुभूति, ममता, करुणा, क्षमा, सहिष्णुता, उदारता, सेवा, संतोष आदि उच्च मानवीय गुणों की प्रतिष्ठा करती है और उसमें अनमोल अनुभूतियों का संचार करती है। जनमेजय अपने गुरु भाई से पूछते हैं—'अब तो वृद्ध हो गए होंगे! महावट का वृक्ष वैसा ही हरा-भरा है? (जनमेजय का नागयज्ञ 1।3)। भूतमाय-व्यापी यह भाव कितना मर्मस्पर्शी है। (कालिदास के अभिज्ञान-शाकुंतल में शकुंतला की भी इसी प्रकार की एक जिज्ञासा सहसा स्मरण हो रही है)। माणवक आस्तीक से कहता है—'देखो, उस तपोवन में शन्य-श्यामला धरा और सुनील नभ का, जो एक दूसरे से इतने दूर हैं, कैसा सम्मिलन है (जनमेजय का नागयज्ञ 3।6)। आस्तीक को भगवान् वादरावण के आश्रम की प्रायमीलना-जग्मिी में, पशु-पक्षियों में, तापा बालकों में परस्पर स्नेह का, तृण-तृण को शांति के आश्वासन की पुचकार का, स्नेह का, दुलार, स्वार्थ त्याग का प्यार, सर्वत्र विपन हुआ अनुभव हो रहा है (जनमेजय का नागयज्ञ, 3।6)। महत्वकांक्षाओं में पर्द-चिरे अजातशत्रु से मल्लिका कहती है— ‘शीतल हो, विश्राम लो। दिखो, वह अशोक की शीतल छाया तुम्हारे हृदय को कोमल बना देगी, बैठ जाओ' (अजातशत्रु 7)। आचार्य मिहिरदेव कोमा से कहते हैं—'चल कोमा, हम लोगों को लताओं, वृक्षों, चट्टानों से छाया और सहानुभूति मिलेगी। इस दुर्ग से चल...। हम लोग अखरोट की छाया में बैठेंगे—झरनों के किनारे, दाख के कुंजों में विश्राम करेंगे' (ध्रवस्वामिनी, 2)। प्रकृति उदार और दानी है। अतः प्रकृति की गोद में पलने वाले के लिए ये अनुभूतियाँ सहज-सुलभ हैं। उत्तक कहता है—'फूल प्रकृति की उदारता का दान है। पवन उससे सौरभ लेता है, उसे कोई रोक नहीं सकता' (जनमेजय का नागयज्ञ, 1।2)। प्रकृति का एक लघु दृश्य मात्र गंभीर रहस्यपूर्ण अनुभूति का प्रसाद देता है। कार्नेलिया कहती है—'उस संध्या के दृश्य ने मेरी तन्मयता में एक स्मृति की सूचना दी है। सरला संध्या, पक्षियों के नाद से शांति को बुलाने लगी है' (चंद्रगुप्त, 4।9)। प्रकृति माँ की तरह मानव-सृष्टि की रक्षा में लीन रहती है। कार्नेलिया कहती है—'देखते-देखते, एक-एक करके दो-चार नक्षत्र उदय होने लगे। जैसे प्रकृति, अपनी सृष्टि की रक्षा, हीरो की कील से जड़ी हुई काली ढाल लेकर कर रही है और पवन किसी मधुर कथा का भार लेकर मचलता हुआ जा रहा है (चंद्रगुप्त, 4।9)। मणिमाला झरने की शोभा पर इतनी लट्टू है कि वह आस्तीक से कहती है—'हाँ भाई, मैंने इस झरने का बहना अभी जी भरकर नहीं देखा। तुम चलो, मैं अभी थोड़ा ठहरकर आती हूँ' (जनमेजय का नागयज्ञ, 2।1)। अलका अपने देश की प्रकृति की आत्मा को थाह कर कहती है—'मेरा देश है, मेरे पहाड़ हैं, मेरी नदियाँ हैं और मेरे जंगल हैं। इस भूमि के एक-एक परमाणु मेरे हैं और मेरे शरीर के एक-एक क्षुद्र अंश उन्हीं परमाणुओं के बने हैं, (चंद्रगुप्त, 1।10)। इसी प्रकार कार्नेलिया सपनों के देश भारत की प्राकृतिक शोभा में, दूध में चीनी की तरह घुलकर जो उद्गार व्यक्त करती है वे बिजली के अक्षरों में आकाश पर लिखकर स्थिर रखे जाने योग्य हैं- चंद्रगुप्त मुझे इस देश से... भारत मानवता की जन्मभूमि है, (चंद्रगुप्त, 3।2)।

    ऐसा आध्यात्मिक संदेश देने वाली प्रकृति को बिसरा कर मानव कितना दयनीय है। कामना विलास से कहती है- 'परंतु विलास, देखो यह हरी-हरी घास रक्त से लाल-लाल रंगी जाकर भयानक हो उठी है' (कामना 2।1)। कोमा कहती है- 'सब जैसे रक्त के प्यासे। प्राण लेने और देने में पागल। वसंत का उदास और अलस पवन पाता है, चला जाता है। कोई उस स्पर्श से परिचित नहीं। ऐसा तो वास्तविक जीवन नहीं है' (ध्रुवस्वामिनी, 2)।

    पात्र-सृष्टि-संबंधी शेष बातें दो उप-शीर्षकों के अंतर्गत रखी जा सकती हैं-

    (1) अंतर्पक्ष (2) बहिर्पक्ष। अंतर्पक्ष में मनोविज्ञान, भाव-रस, दार्शनिकता-काल्पनिकता-भावुकता तथा बहिर्पक्ष में भाषा, अलंकार संवाद आदि सम्मिलित किए जा सकते हैं। पहले हम अंतर्पक्ष को लें-

    गाय-सृष्टि में मनोविज्ञान पर दो प्रकार से विचार हो सकता है :-(1) लेखक की भाव-विभूति और लेखक का मनोविज्ञान-संबंधी सूक्ष्म और स्वार्थ ज्ञान और (2) नाटककार द्वारा रचित पात्रों के कार्य-व्यापारों का मनोविज्ञान-गमन होना तथा पात्रों के आंतरिक भावों की स्थिति। इस प्रकार मनोविज्ञान ही जड़ें नाटक में बहुत गहराई तक फैली रहती हैं। नाट्य-सृष्टि लेखक की ही सृष्टि है अतः मूलतः सारा प्रश्न लेखक के मन के अध्ययन तक सिमट आता है। मन के दो पक्ष होते है—भावना और बुद्धि अथवा हृदय और मस्तिष्क। सफल नाट्य-सृष्टि में दोनों का मजुल सामजन्य होता है। सर्वत्र नाटककार की बौद्धिक और हार्दिक शक्त्तियों का ही प्रकाश होता है। कल्पना का अभिनिवेश, नाटक के विविध तत्वों अथवा अंगों का, रस-निष्पत्ति के उद्देश्य से आनुपातिक विन्यास और कला-संबंधी विविध कौशल—ये सब नाटककार के बौद्धिक विकास एवं क्षमता के परिचायक हैं। पात्रों के भाव-प्रपंच से ही लेखक के भाव-कोष की संपन्नता, विविधता एवं विशालता का पता चलता है। इसी प्रकार पात्रों के क्रिया-कलापों एवं उनमें व्यंजित विचारों में लेखक की विचारधारा निहित रहती है। नाट्य-सृष्टि में लेखक अपने विचारों को पात्रों के संवाद आदि के माध्यम से ही व्यक्त करता है। वह उपदेशक या मंच-वक्त्ता की तरह विचारों का सीधे-सीधे प्रचार करके उनको साहित्य की विशिष्ट पद्धति में ढालकर रमणीय रसात्मक बना देता है। इस प्रकार नाट्यों के समस्त स्नायु-जाल में मनोविज्ञान सक्रिय रहता है। 'प्रसाद' की नाट्य-सृष्टि भी इस सत्य का अपवाद नहीं।

    भारतीय आचार्यों ने काव्य की आत्मा 'रस' निर्धारित की है। रस का आधार है भाव। मानव-हृदय एक अतलान्त महासमुद्र के समान है जिसमें सैकडों जटिल भाव-तरगें विविध प्रकार की गति, प्रकार स्वर लिए जागृत, स्वप्न, मुगुप्ति—इन तीनों अवस्थाओं में निरंतर क्रियाशील रहती है। जीवन के समस्त बाह्य क्रिया-कलापों की मूल प्रेरिका ये ही भाव-तरगें हैं अतः मानव-आचरण के प्रभावशाली चित्रकार के लिए जटिल मानव-हृदय के क्रिया-कलापों एवं बाह्य जगत में इन भावों स्थितियों के पारस्परिक घात-प्रतिघात का सूक्ष्म सर्वांगपूर्ण ज्ञान अनिवार्य है। यह ज्ञान कोरे शास्त्रानुशीलन से नहीं अपितु प्रत्यक्ष जीवनानुभव से ही संग्रहीत होने पर अनुभव-सिद्ध अतः प्रामाणिक होता है। कलाकार की आत्म-चेतना में रस-रूप हुए ऐसे ही अनुभव-सिद्ध ज्ञान के बल पर अत्यंत सजीव, यथार्थ प्रभावशाली पात्र-सष्टि संभव है।

    'प्रसाद' भावों के बहुत कुशल शिल्पी हैं। यो तो उनकी नाट्य-सृष्टि में प्राय सभी रसों का न्यूनाधिक उत्कर्ष दिखाई पड़ता है पर श्रृंगार, वीर शांत रसों की व्यंजना अत्यंत ही पुष्ट विशद है। श्रृंगार रस प्राय सभी नाटकों में उपस्थित है और वह अंग अथवा अंगी रूप में आया है। श्रृंगार रस के वर्णन के संबंध में ध्यान देने की बात यह है कि 'प्रसाद' ने सर्वत्र प्रेम को विलास से भिन्न जीवन की एक पवित्र अनुभूति, शक्ति प्रेरणा के रूप में ग्रहण किया है। कालिदास की कृतियों की तरह 'प्रसाद' की कृतियो में भी काम अथवा विलास की सर्वत्र पराजय और पवित्र प्रेम की विजय हुई है। जहाँ उद्दाम विलास-वासना के सतरंग-इत्रभीने तिक्त मादक चित्र हैं वे सब शुद्ध प्रेम की भावी विजय के लिए पृष्ठभूमि और विरोध (Contrast) के लिए ही रखे गए हैं। 'प्रसाद' में प्रेम इंद्रियों के विरोध से नहीं किंतु इंद्रियों के मर्यादित सयमित प्रयोग से ही निष्पन्न होता है। 'प्रसाद' में पवित्र प्रेम का अर्थ है उदात्त मानवीय प्रेम, जो देवत्व राक्षसत्त्व के बीच प्रवाहित होते हुए मानवत्व की धारा का प्राण-प्रवाह बनकर बहता है। एकनिष्ठ, विश्वासपूर्ण मर्यादित मानवीय प्रेम का चरमोत्कर्ष ही 'प्रसाद' का आदर्श अथवा पवित्र प्रेम है, बस आगे कुछ नहीं। अस्तु, कामना, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, अजातशत्रु आदि नाटकों में वर्णित प्रेम इस कथन का प्रमाण है। अलका, ध्रुवस्वामिनी, कार्नेलिया, देवसेना, मालविका, कोमा, कल्याणी, चाणक्य, मातृगुप्त, स्कंदगुप्त, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य (हम चंद्रगुप्त मौर्य को इस श्रेणी में नहीं रखना चाहेंगे) राक्षस आदि पात्र 'प्रसाद' के सुप्रसिद्ध प्रणयी पात्र हैं। प्राय ये सभी पात्र जीवन में एकनिष्ठ प्रेम की शक्ति लेकर ही क्रियमाण हैं। प्रेम ही उनके जीवन का अंतर्सूत्र, प्रेरणा और प्राण है। प्रेम-वृत्ति जीवन में जो भी सूक्ष्मतम पुरस्कार दे सकती है, इनमें से अधिकांश ने वह पाया है—चाहे रोकर, चाहे हँसकर। प्राय ये सभी पात्र प्रलय-वृष्टि के पश्चद्वर्ती भोर की किरणों में मुस्कराती सौम्य धरती अथवा आकाश से दिखाई पड़ते हैं।

    प्रेम से संबंधित ही सौंदर्य का प्रश्न है। शारीरिक, प्राकृतिक और मानसिक काल्पनिक सौंदर्य और प्रेम में घनिष्ठतम संबंध है। 'प्रसाद' ने सर्वत्र बाह्य सौंदर्य अथवा रूप की पराजय दिखाकर (उदाहरणार्थ- कामना, लालसा, विलास मागन्धी, विजया आदि पात्रों में) आत्मिक सौंदर्य की ही विजय दिखाई है। प्रेम और सौंदर्य का यह स्वरूप और धरातल 'प्रसाद' की आदर्शवादी विचार-धारा से ही निर्मित है।

    वीर-रस 'प्रसाद' का अत्यंत प्रिय रस है। चंद्रगुप्त और स्कंदगुप्त दोनों वीर-रस-प्रधान रचनाएँ हैं। श्रृंगार के छप्पन मसाले जुटाने में तो 'प्रसाद' प्रसिद्ध ही हैं पर वीर रस की निष्पत्ति का भी प्रायोजन वे जिस उत्साह से करते हैं वह भी पग आध्या है। स्कंदगुप्त, पादन, बंधुवर्मा, सिहरण, सिकंदर, श्रवण, देवसेना, कल्याणी, ध्रुवस्वामिनी, जयमाला आदि महाप्राण पात्रों के माध्यम से 'प्रसाद’ ने क्षात्र तेज और ओज की जो विशुद्वारा का है वह रस में कई उफ़ान ला देती है।

    शातरम में पात्र बिंबसार, गौतम, प्रेमानद, बासवी, मनिरा, प्रभातति वेदव्याम, आदि है जो जंठगी नपती धरती पर छिड़काव करते रहते हैं। पारगम रस की अभिव्यक्ति अजातशत्रु में पर्याप्त सुंदर हुई है। विदूषकों, बौनों, कुबड़ों, हिजड़ों, नट-गदाग्यिो वेश्या मेंरयो ऐसे ही अन्य पात्रों के द्वारा जो हास्य की सृष्टि हुई वह पर्याप्त मनोरंजन है। 'प्रसाद' का हास्य बहुत शिष्ट, सौदृश्य गंभीर है। यह कथा की मूल धारा से संबद्ध अतः आभिप्राय है। हाँ, विशाल के महापिगल जैसे पात्रों का हास्य अवश्य कुछ मर्य्यादानीत-सा हो गया है। इसी प्रकार अन्य रसों की भी स्थितियाँ दिखाई पाड़ती हैं।

    भावों के धान-प्रतिपात के चित्रण में भी 'प्रसाद' बहुत कुशल हैं। विम्यगार, चाणक्य (अतीत का स्मरण करते हुए), पाटार, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, मागन्धी, राज्यश्री आदि पात्रों में लेखक ने भावों के जो रेगिस्तानी प्रमः उठाए हैं वे अनन्द्र को मार्मिक अनुभूति के द्योता हैं।

    दार्शनिकता-काल्पनिकता-भावुकता भी अंतर्पक्ष के अंतर्गत है क्योंकि ये मन की ही वृत्तियाँ हैं। दार्शनिकता मस्तिष्क की मृति है जो जगत जीवन की स्थिति पर बौद्धिक दृष्टि से क्यों, क्या, कैसे करके सृष्टि के मूल स्वरूप के संबंध में अंतिम तथ्य जानने को विकल रहती है। यह वृत्ति प्रायः, जन्मजात मांनी है जो जीवन की अनुकूल स्थितियों में कुछ निर्बल और प्रतिकूल परिस्थितियों में अत्यंत प्रखर सक्रिय हो जाती है। भावुकता के संयोग से इसमें एक विचित्र लोन दीप्ति जाती है अन्यथा वह विकृत होकर तर्क-शुष्क मरुस्थल में जा भटकती है। बिंबसार एक भावुक दार्शनिक पात्र है जो प्रोढ़ गंभीर स्वर में जगत-जीवन की किर सुंदर व्याख्या करता है। गौतम आदि पात्र विश्वप्रेम की भावना से भरे हुए नामागील भावुक दार्शनिक हैं। काल्पनिकता भी मूलतः नतिरी निति गो भागुरना पर भी निति हो रमपना बन्नुना-ज्यापाशी गीत मगीर-गोना फलो गाती है। यदि भावुकता का सामना उसमें मिल पाता तो फिर क्या कहना प्रणयीनगो में दार्शनिकता तो क्या, हाँ सौंदर्य-भावुकता-बंद-जिज्ञासा माता और भावुकता का मार मनातो; पा सामंजस्य होता है। देवसेना, मालविका, कोमा, कार्नेलिया आदि पात्र इसी वर्ग के हैं। इस वर्ग के पात्र समस्त क्षुब्द वातावरण में एक सजीव कमनीयता माधुर्य का संचार करते रहते हैं—आँधी के बाद जैसे जूही-बेला की गध लिए चाँदनी रात का पवन!

    अंतर्पक्ष की स्पष्ट, सुडौल प्रभावशालिनी अभिव्यक्ति के लिए बहिर्पक्ष का विधान किया जाता है। भाषा के द्वारा ही भावों की अभिव्यक्ति होती है। 'प्रसाद' की भाषा विचार का एक स्वतंत्र ही विषय है। उसपर कठिनता, अलंकार-बहुलता, अस्वाभाविकता आदि कई आरोप लगाए जाते हैं। यहाँ स्थानाभाव से इस वाद-विवाद में उलझकर हम इतना ही कहेंगे कि 'प्रसाद' की औसत भाषा साधारणतः पुष्ट, मृसण, कातिवानू और प्रवाहपूर्ण है। नाटकों में भाषा के प्राय तीन रूप दिखाई पड़ते हैं- (1) संस्कृत-गर्भित और अलंकारबहुल भाषा (2) औसत दर्ज़े की शिष्ट भाषा, और (3) खटमिट्ठी चरपरी भाषा जो प्राय हास्य-व्यंग्य आदि के अवसरों पर प्रयुक्त होती है। 'प्रसाद' की भाषा की समस्त श्री एक ही साथ वहाँ बिखर पड़ती है जहाँ भारतीय धर्म-संस्कृति का स्तवन होता है, भारतीय अतीत का महिमा-गान होता है, भावों का उत्कर्ष विचारों का गाम्भीर्य प्रकट होता है, अथवा प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन एवं रहस्यधूमिल, अतींद्रिय, सौंदर्यलोक का काल्पनिक व्याख्यान होता है। ऐसे अवसरों पर उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षाओं के लच्छो वाली कुलीन भाषा एक विचित्र बाँकपन, शालीनता और मरोर लिए उपस्थित होती है।

    भाषा के साथ ही संवाद का प्रश्न है। संवादो में भाषा पात्रानुसार स्वरूप-परिवर्तन करती चलती है। 'प्रसाद' के संवाद कुछ स्थलों पर बहुत लंबे-लंबे उकताने वाले ही हो गए हैं- जैसे, “जनमेजय का नागयज्ञ' में। किंतु समस्त कृतियों को देखने पर रोचकता, सादगी, प्रवाह, स्वाभाविकता और पात्रोंपयुक्तता का भी प्रभाव नहीं। संवाद प्राय सर्वत्र कथा को विकसित करने वाले एवं पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाले हैं। कहीं-कहीं संवाद केवल भावुकता के प्रदर्शन मात्र ही होकर रह गए हैं।

    'प्रसाद' की पात्र-सृष्टि की ये ही कुछ मुख्य विशेषताएँ हैं जो अपने गुण-दोषों के साथ विद्यमान हैं। आलोचकों ने 'प्रसाद' की पात्र-सृष्टि के अनेक अवगुणों, असंगतियों, त्रुटियों, अस्वाभाविकताओं आदि की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है। 'प्रसाद' के कथानकों की उलझन विस्तार के कारण पात्रों को विकसित होने का अवसर नहीं मिला है। उनके चरित्र एकागी हैं। पात्रों की संख्या में अनावश्यक वृद्धि हो जाती है। कई पात्रों की सृष्टि का उद्देश्य समझ में नहीं आता। अनेक घटना केंद्रों तक कथा को फैलाकर और आवश्यक मापानी की अवधारणा करने से चरित्र -विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। अधिकांश पात्र साधारण लेकिन धरातल से बहुत ऊपर के हैं। भाषा नाटकोपयुककत्त नहीं—बहुत कठिन, अस्वाभाविक केवल भाजनोनिन है। सभी पात्र—चाहे वे किसी वर्ग या मनोविधान के हों—प्राय अभिजात वर्गोचित ही आचरण करते हैं। सर्वत्र आदर्शों की ही विजय हुई है। बहुत कम गीत सरल, स्वाभाविक एवं नाटकोपयोगी हैं, आदि-आदि आपत्तियाँ आक्षेप हैं जो पवम्य विचारणीय है। ध्रुवस्वामिनी ही एक मात्र अभिनयोपयोगी नाटक है, अन्य नाटक अत्यंत को होने के कारण सफलतापूर्वक मंच पर खेले नहीं जा सकते। रंगमंच के संबंध में विचार करना भी आवश्यक है, जो स्थानाभाव से यहाँ संभव नहीं।

    उपसंहार

    'प्रसाद' ने पराधीन हामोन्मुग देश के वातावरण में क्षुब्ध-कुपित होकर रक्त में विशुग लिए कल्याणमयी वेगवती प्रेरणा से अपनी रस-मुखी लेखनी पकड़ी। धन संभवतः उनका उद्देश्य नहीं रहा। उच्च कोटि का सात्विक मनोरंजन, रस अथवा आनंद की सृष्टि और मिनर समस्त गनुप-कालिमा का प्रक्षालन, जिसमें मानव-चेतना का उन्नयन सन्निहित है, उनका एकमात्र उद्देश्य रहा। इस उद्देश्य की सिद्धि से यश के पद स्वयं उनकी ओर दौड़ पड़े। उनके तात्कालिक अथवा व्यवहारिक प्रयोजन ये तीन दिखाई पड़ते हैं— (1) भारतीय इतिहास का जीर्णोद्धार पुनर्लेखन और भारतीय संस्कृति के पुनरुथान का प्रयत्न, (2) पराधीन देश की मुक्ति के लिए अनिवार्य, संगठन-सूत्र में बाँधने वाली राष्ट्रीयता का शंखनाद और राष्ट्रीयता में से होकर जाने वाली अंतर्राष्ट्रीयता अथवा महज मानवता का प्रचार और (3) विचार-प्रौढ़ता भाव-गांभीर्य, चरित्रांकन-कौशल और नाट्यल के योग द्वारा नाट्य-कला की पूर्णता की प्रगति और हिंदी नाट्य-साहित्य की श्री-वृद्धि। इन व्यापक उद्देश्यों के अंतर्गत वे सब छोटे-मोटे उद्देश्य समाहित हैं जो व्यक्ति के सुख तथा समाज के कल्याण और दोनों के योग से मानव-संस्कृति का उसलाम रूप संगठित करते हैं।

    इस महत् उद्देश्य से सृजित नाट्य-साहित्य में ही 'प्रसाद’ का गंभीर संदेश ध्वनित होता है। इस प्रकार ‘प्रसाद' के नाटक श्रेष्ठ भारतीय अअपमनो की स्मरणीय व्याख्या है। 'गुगुन मांजान नागने हत्य पोवा-देना राक्षम, गरेगनुपरः चनो, जोगन ने प्राग मा (गगना) पान विभाग लोगों को तग पगाती नापोगे, गारनिनिा स्थिति की अपेक्षा नीची किंतु सुदृढ़ स्थिति में प्रसन्न रहो। विवेक छोड़ो। उद्दाम कामनाएँ और अनियंत्रित वासनाएँ तुम्हें फ़ाड़ खाएँगी। विलास तुम्हें नष्ट कर देगा। आतिम शांति ही परम काम्य है। न्याय से जियो। संयमपूर्वक, आत्मा की प्राप्ति के लिए, भोगो। सत्य वद। धर्म चर। एष आदेश। एप उपदेश। एतदनुशासनम्।

    प्रतिभा, बुद्धि और भावना के सुष्ठु सामंजस्य से रचे हुए 'प्रसाद' के नाटक इतिहास, धर्म, दर्शन, संस्कृति, विज्ञान, कला, राजनीति, समाज-शास्त्र, अर्थशास्त्र, मनोविज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञान-धाराओं का पुनीत संगम हैं। मानव-ज्ञान इनमें गलकर रस-रूप हो गया है। 'प्रसाद' जीवन-कला के महान् आचार्य के रूप में हमें जीना सिखाते हैं। जीवन का विराट चित्र अंकित करके उन्होंने हमें अपने जीवन को सार्थक सफन करने का गुर दे दिया है। इतिहास की विराट् पीठिका पर मनुष्य की शाश्वत वृत्तियों की कठोर-कोमल क्रीडा और तत्प्रेरित उत्थान-पतन का अत्यंत प्रभावशाली चित्र खींचकर उन्होंने हमें संकेत से अपने व्यक्तिगत सामाजिक जीवन को संशोधित परिष्कृत करने का मार्ग सुझा दिया है। अजातशत्रु की भूली-भटकी श्यामा (मागन्धी) आँधियों के आकाश में उड़कर साँझ को ठिकाने पहुँचती है तो वह प्रशांत हृदय से जीवन की सारी जोड़-बाकी लगाकर अनुभव करती है— ‘जिसे काल्पनिक देवत्व कहते हैं—वही तो संपूर्ण मनुष्यता है।' इसी धरती को सुंदर और इसी संसार को सार्थक बनाने के लिए प्रेरित करने वाले कवि से ऐसे नपे-तुले शब्दों में ऐसी नपी-तुली बात बढ़कर और हम क्या चाहते हैं?

    स्रोत :
    • पुस्तक : जयशंकर प्रसाद : वस्तु और कला (पृष्ठ 301)
    • रचनाकार : रामेश्वरलाल खंडेलवाल "तरु"

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