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कविवर लछीराम

kavivar lachhiram

महावीर प्रसाद द्विवेदी

अन्य

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महावीर प्रसाद द्विवेदी

कविवर लछीराम

महावीर प्रसाद द्विवेदी

और अधिकमहावीर प्रसाद द्विवेदी

    नोट

    अप्रैल, 1905 की 'सरस्वती' में प्रकाशित। 'सुकवि-संकीर्तन' पुस्तक में संकलित।

    अयोध्या के प्रसिद्ध कवि कविवर लछीराम का शरीरांत हो गया। भादों बदी 11, मंगल संवत् 1961 को सरयू के किनारे, अयोध्या में, उन्होंने इस लोक से प्रस्थान कर दिया।

    लछीरामजी ब्रह्मभट्ट थे। उनकी कविता पर प्रसन्न होकर अयोध्या-नरेश, महाराजा मानसिंह, ने उनको अपने यहाँ रख लिया था। महाराजा मानसिंह के रहने पर वर्तमान अयोध्या नरेश ने भी उनका पूर्ववत् आदर बनाए रखा। अतएव यह वहीं रहे। परंतु यद्यपि वह अयोध्याधीश के कवि थे, तथापि और-और राजदरबारों में भी जाया करते थे। बस्ती के राजा शीतलाबख़्श ने चरथी नाम का एक गाँव, हाथी और वस्त्राभूषण इत्यादि देकर लछीरामजी का सत्कार किया था। मल्लापूर के राजा मुनीश्वर सिंह और गिद्धौर के महाराजा रावणेश्वर प्रसाद सिंह भी उनका सम्मान करते थे; उनकी कविता सुनते थे; और समुचित बिदाई देते थे। महाराजा टीकमगढ़ (ओरखा) और महाराजा दरभंगा तक उनको मानते थे। श्रीनगर-नरेश श्रीमान् राजा कमलानंद सिंह के पास लछीरामजी बुढ़ापे में गए थे। राजा साहब के नाम पर लछीरामजी ने 'कमलानंदकल्पतरु' नामक ग्रंथ बनाया। उस ग्रंथ-रचना के उपलक्ष्य में कविराज जी को हज़ारों रुपए नक़द और बहुमूल्य वस्त्राभरण देकर श्रीनगर-नरेश ने अपनी उदारता और गुणग्राहकता दिखलाई।

    'कमलानंदकल्पतरु' के सिवा 'चरण-चंद्रिका', 'रामचंद्रभूषण' और 'सरयूलहरी' इत्यादि और भी कई ग्रंथ उन्होंने बनाए हैं। वह पुरानी प्रथा के कवि थे। अलंकार-शास्त्र में ख़ूब प्रवीण थे। कविता भी उनकी बहुत अच्छी होती थी।

    लछीरामजी अयोध्या में रहते थे। वहीं उन्होंने एक राम मंदिर बनवाया; कई कुएँ खुदवाए; और कई बाग़ भी लगवाए। अपनी जाति के बहुत-से लड़कों के पढ़ने का उन्होंने प्रबंध कर दिया। सुनते हैं, दो-एक पंडित भी उन्होंने पढ़ाने के लिए रखते थे, और एक पाठशाला भी खोली थी। उनका एक पुत्र आठ-नौ वर्ष का है। वह और उसकी माँ अयोध्या में हैं।

    लछीरामजी के शिष्य, यशराज कवि, ने अपने गुरु, कविवरजी, के शोक में एक कविता भेजी है। कविवरजी के विषय में हमने जो कुछ लिखा है, वह उसी कविता के आधार पर है। लछीरामजी के चित्र से मालूम होगा कि यद्यपि आप पुराने ढंग के कवि थे, और पुराने ढंग की पगड़ी पहनते और लाठी बाँधते थे, तथापि पुरानी चाल के जूतों की जगह आप बूट पहनते थे। नई चीज़ों से बूढ़े कविवर भी नहीं बचे।

    अब हम यज्ञराज कवि की 'शोकप्रकाश' नामक कविता का कुछ अंश यहाँ देते है—

    श्रीकविवर लछिराम हाय! बैकुंठ सिधारे;

    यज्ञराज तब शिष्य सुनत दुख लह्यो अपारे।

    बैठि गयो करि हाय, कहूँ कछु सूझत नाहीं;

    किधों साँच कै झूठ, हाय बूझौं क्यहि पाहीं?

    मुख ते कढ़े बैन, नयन आँसू बह झरझर;

    आवन लगी उसाँस, गात काँपै सब थर-थर।

    होय नहीं मन धीरु पीर उर असहन बाढ़ी;

    भाँत-भाँति की उठै चित्त में चिंता गाढ़ी।

    जीवन जानि अनिस्य लह्यो धीरज मन माहीं;

    लछीराम को मरन सोचिवे लायक नाहीं।

    मरन सोचिबे जोग जाहि मारै भुजंग डसि;

    पावक जरि, जल डूब, मरै विष खाय, मारि असि।

    सुजस नाम विख्यात नहीं जाको जग माहीं;

    मानुष-तन जो पाय सुकृत कीन्हीं कछु नाहीं।

    यहि बिधि के सब जीव मरे पर जमपुर जाहीं;

    इन सबको सुनि मरन साधुजन अति पछिताहीं।

    सरस सकल साहित्य ईस-कवि ताहि पढ़ायो;

    रचना रुचिर कबित्त माहिं बहु प्रेम बढ़ायो।

    मानसिंह द्विजदेव जगत-बिख्यात अबधपति,

    सुनि कबित्त है दाने रीझि सम्मान कियो अति।

    श्रीयुत सब गुनधाम श्रीनगर को सिरताजा;

    कमलानन्द 'सरोज' सराहत सुकवि-समाजा।

    बूढ़ेपन में मिल्यो आय इनसों कविराजा;

    करत बारतालाप दुहुन को दोउ सुख साजा।

    भूपति कमलानन्द दान दीन्हों बहुतेरो;

    अंकमालिका भेंटि कियो सनमान घनेरो।

    एक-एक रचि ग्रन्थ इते भूपन को दीन्हों;

    दै कवित्त लै बित्त चित्त सबको हरि लीन्हों।

    गरजनि सिंह-समान सभा मैं श्रीकविबर की;

    सुनत ससंकित सहमि कौन की मति नहि थरकी?

    रचना रुचिर कवित्त जुक्ति साँचे में ढार्यो;

    जनु रसिकन के हेतु मैन को बान सँवार्यो।

    अचल अवध के बीच राम मन्दिर बनवायो;

    वन-प्रमोद जहँ सीय राम अतिसै सुख पायो।

    सदा औधपुर बास सुखद सरजू-जल-सेवा;

    लषन-राम-सिय छोड़ि और दूसर नहि देवा।

    प्रतापगढ़ (अवध) के भगवंत कवि ने लछीरामजी की मृत्यु पर एक पद्य कहा है। उसे भी हम नीचे देते हैं—

    अंस निज सुत मैं प्रसंस जगती के तल

    रचना-सकति राखे सिष्यनि के हृद मैं;

    सूझ भगवन्त मैं सु बूझ कबि ज्ञानिन में

    रीझ राखी नृपनि औ' खीझ बैरी सद मैं।

    कवि लछिराम कीनी चातुरी चलत एती

    बानी बरवानी ज्ञान राखे बेद-नद मैं;

    घन राखे भौन मैं सुख सब सामुहे मैं

    तन राखे चौखट औ' मन राम-पद मैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : महावीरप्रसाद द्विवेदी रचनावली खंड-5 (पृष्ठ 175)
    • संपादक : भारत यायावर
    • रचनाकार : महावीरप्रसाद द्विवेदी
    • प्रकाशन : किताबघर प्रकाशन
    • संस्करण : 2007

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